हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 229 ☆ गीत – अमरत्व हो तुम इस धरा के…  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 229 ☆ 

गीत – अमरत्व हो तुम इस धरा के ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

(एक गीत – एक शहीद के नाम)

अमरत्व हो तुम इस धरा के

हार्दिक मेरा नमन है।

हो गए बलिदान इस पर

गूँजता सारा गगन है।

**

प्रेम , श्रद्धा देश-हित ही

लक्ष्य को लेकर बढ़े थे।

अमिट छापों के सहारे

शिल्प चितवन में गढ़े थे।

छोड़ ममता परिजनों की

हिम शिखर पर तुम चढ़े थे।

*

शत्रुओं का काल हो तुम

कह रहा पूरा वतन है।

अमरत्व हो तुम इस धरा के

हार्दिक मेरा नमन है।

**

बचपने के खेल सारे

लिख गए नूतन कहानी।

कर समर्पण स्वयं को ही

देश हित दे दी जवानी।

रक्त था तुम में शिवा का

और था माँ गंग-पानी।

*

साक्ष्य जो माँगें तुम्हारी

धिक्कारती उनको अगन है।

अमरत्व हो तुम इस धरा के

हार्दिक मेरा नमन है।

**

गर्व माँ की कोख करती,

हैं पिता हिमवान थाती।

जन्म भू भी गा रही है

लिख रही है प्रीति-पाती।

प्रियतमा पत्नी तुम्हारी

तुमको निन्द्रा से जगाती।

*

लाड़ली बच्ची तुम्हारी

याद में रोया अमन है।

अमरत्व हो तुम इस धरा के

हार्दिक मेरा नमन है।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 317 ☆ कविता – “भगवान की फोटो, ए आई और मैं…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 317 ☆

?  कविता – भगवान की फोटो, ए आई और मैं…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

22 जनवरी 2024 को

मैने एक फोटो खींची , खुद की

 

और एक

भगवान श्री राम की

 

ए आई से कहा

अपनी फोटो इनपुट में डालकर

अपने बचपन की एक फोटो बनाने को और एक बुढ़ापे की भी

 

कंप्यूटर ने बना दिए मेरे

दो चित्र

उसी नाक नक्श के

एक बचपन का

एक पचपन का

 

फिर सोच में पड़ गया

खुद मैं

ईसा, राम , कृष्ण

तो सदियों पहले भी

उसी चेहरे मोहरे

से पहचाने जाते हैं

जिस चेहरे के सम्मुख

हम,

आज भी श्रद्धा नत

होकर ,

मन की बात कह लेते हैं,

और शायद सदियों बाद भी

हमारी पीढ़ियां

उसी आकृति के सम्मुख

आंखों में आख़ें डाल

कुछ

कहती रहेंगी

स्वयं को हल्का करने

 

ईश्वर ए आई से परे हैं

भले ही वे हमारे ही रचे हैं

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ विज्ञापन पर अभिनेता जी की मुस्कान देखी… ☆ डॉ प्रेरणा उबाळे ☆

डॉ प्रेरणा उबाळे

☆ कविता – विज्ञापन पर अभिनेता जी की मुस्कान देखी…  ☆  डॉ प्रेरणा उबाळे 

बस से गुज़रते, धक्के खाते

जगह मिली तो बैठ पाई

खिड़की से बाहर झाँका तो

विज्ञापन पर अभिनेता जी की मुस्कान देखी

रोते-भीख माँगते नंगधडग बच्चे देखे

नल पर नहाते, गाड़ी पोछते खिलौने देखे

फूलों को बेचते हमने कुछ फूल देखें 

विज्ञापन पर अभिनेता जी की मुस्कान देखी

 *

साडी संवरकर चलती- भागती युवतियाँ देखी

काम के लिए दौड़ती, खिलती माँए देखी

अपना टिफिन खुद हँसकर बनाती महिलाएँ देखी 

विज्ञापन पर अभिनेता जी की मुस्कान देखी

 *

कंडक्टर के टिकट फाड़ने की कला देखी

ड्राइवर की गाडी चलाने की भाषा देखी

यात्रियों के चढ़ने-उतरने में तंगी देखी

विज्ञापन पर अभिनेता जी की मुस्कान देखी

 *

नीतियों से त्रस्त बच्चों के लिए कमाते पिता देखे

मृत्यु के भय को छिपाते दादाजी देखें

नातिन की मुस्कान से मुस्काती नानी देखी

विज्ञापन पर अभिनेता जी की मुस्कान देखी

 *

चक्रव्यूह में फँसे सभी अभिमन्यू  देखें

शरपंजर हो भी वचन निभाते भीष्म देखें

अभिनेता जी की मुस्कान में जिम्मेदारियों देखी

विज्ञापन पर अभिनेता जी की मुस्कान देखी l

■□■□■

© डॉ प्रेरणा उबाळे

रचनाकाल  : 27 नवंबर  2024

सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभागाध्यक्षा, मॉडर्न कला, विज्ञान और वाणिज्य महाविद्यालय (स्वायत्त), शिवाजीनगर,  पुणे ०५

संपर्क – 7028525378 / [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #257 ☆ तन्मय के दोहे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता एक कप कॉफ़ी…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #257 ☆

☆ तन्मय के दोहे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

आस्तीन के साँप जो, बाहर निकले आज।

विचर रहे फुँफकारते, बढ़ी बदन में खाज।।

*

पीले पत्ते झड़ रहे, छोड़ रहे हैं साथ।

बँधी मुट्ठियाँ खुल गयी, हैं अब खाली हाथ।।

*

अलग अलग सब उँगलियाँ, सब की अपनी दौड़।

कैसे मुट्ठी बँध सके, आपस में है होड़।।

*

उँगली एक उठी उधर, चार इधर की ओर।

एक-चार के द्वंद का, मचा हुआ है शोर।।

*

अलग अलग सब उँगलियाँ, उठने लगी मरोड़।

कैसे मुट्ठी बँध सके, आपस में है होड़।।

*

ध्येय एक सब का यही, करना सिर्फ विरोध।

करें विषवमन ही सदा, नहीं सत्य का बोध।।

*

आजादी अभिव्यक्ति की, बिगड़ रहे हैं बोल।

प्रेम-प्रीत सद्भाव में, कटुता विष मत घोल।।

*

रेवड़ियाँ बँटने लगे, होते जहाँ चुनाव।

लालच देकर वोट ले, ये कैसा बर्ताव।।

*

इन्हें-उन्हें के भेद में, खोई निज पहचान।

आयातित अच्छे लगे, घर के कूड़ेदान।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 81 ☆ गुम हो गया शहर… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “गुम हो गया शहर…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 81 ☆ गुम हो गया शहर… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

***

ने कुहरे के बीच

गुम हो गया शहर ।

*

सुबह पर पहरा

कंपकंपाती धूप

सूर्य लगता उनींदा

ओस खिलते रूप

*

धुँध की चादर लपेटे

चाँद पहुँचा घर।

*

रँभाती है गाय

पक्षियों के दल

पेड़ संन्यासी हुए

हवा के आँचल

*

प्रकृति के रंग सारे

आए हैं निखर।

*

टिमटिमाती रोशनी

ठिठुरते आँगन

मंदिरों में गूँजती

प्रार्थना पावन

*

रात गहराते अँधेरे

हुए लंबे पहर।

      ——

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 85 ☆ हाथ मौला तेरे कितने हैं बता दे मुझको… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “हाथ मौला तेरे कितने हैं बता दे मुझको“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 85 ☆

✍ हाथ मौला तेरे कितने हैं बता दे मुझको… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

ये सियासत में अजब मैंने तमाशा देखा

भेड़िया खाल में बकरे की है बैठा देखा

 *

हाथ मौला तेरे कितने हैं बता दे मुझको

मैंने खाली न किसी हाथ का क़ासा देखा

 *

रात कोई हो भले कितनी हो गहरी लेकिन

ढल ही जाती है यहाँ रोज सबेरा देखा

 *

आज़ज़ी के जो पहन के रखे हरदम जेवर

हर बशर उसके लिए मैंने दीवाना देखा

 *

बात मुँह देखी कोई करके भला बन जाये

सत्यवादी को तिरस्कार ही मिलता देखा

 *

दो कदम चल तू भले चलना हमेशा खुद ही

और कि दम पे जो चलता है वो गिरता देखा

 *

चाह मंज़िल की सनक जिसकी अरुण बन जाये

क़ामयाबी के वो आकाश को  छूता देखा

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ पत्थर की महिमा ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ पत्थर की महिमा ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

रहना पत्थर बन नहीं, बन जाना तुम मोम।

मानवता  को धारकर,  पुलकित कर हर रोम।।

 *

पत्थर दिल होते जटिल, खो देते हैं भाव।

उनमें बचता ही नहीं, मानवता प्रति ताव।।

 *

पत्थर की तासीर है, रहना नित्य कठोर।

करुणा बिन मौसम सदा, हो जाता घनघोर।।

 *

पत्थर जब सिर पर पड़े, बहने लगता ख़ून।

दर्द बढ़ाता नित्य ही, पीड़ा देता दून।।

 *

पर पत्थर हो राह में, लतियाते सब रोज़।

पत्थर की अवमानना, का उपाय लो खोज।।

 *

पर पत्थर पर छैनियों, के होते हैं वार।

बन प्रतिमा वह पूज्य हो, फैलाता उजियार।।

 *

सीमा पर प्रहरी बनो, पत्थर बनकर आज।

करो शहादत शान से, हर उर पर हो राज।।

 *

पत्थर से बनते भवन, योगदान का मान।

पत्थर से बनते किले, रखती चोखी आन।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 81 – रात को आफ़ताब मिल जाये… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – रात को आफ़ताब मिल जाये)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 81 – रात को आफ़ताब मिल जाये… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

काश, तेरा शबाब मिल जाये 

रात को, आफ़ताब मिल जाये

चूम लो, होंठ से जो खत मेरा 

मुझको, तेरा जवाब मिल जाये

 *

गमजदा हो न कोई दुनियाँ में 

है क्या मुमकिन जनाब, मिल जाये

 *

कोई बिरले, नसीब वाले हैं 

जिनको, मन का गुलाब मिल जाये

 *

तिश्नगी का मजा, तभी है जब 

होंठ वाली शराब, मिल जाये

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 154 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है  “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 154 – सजल – एक-एक कर बिछुड़े अपने ☆

 *जीवंत, सरोजिनी, पहचान, अपनत्व, अथाह।

 

सुख-दुख में हँस मुख *रहें,जीना है जीवंत

कर्म सुधा का पान कर, अमर बनें श्रीमंत।।

 **

मन सरोजिनी सा खिले, दिखे रूप लावण्य।

मोहक छवि अंतस बसे, प्रेमालय का पुण्य।।

 *

सतकर्मों से ही बनें ,मानव की पहचान

दुष्कर्मों के भाव से, रावण होता जान।।

 *

जीवन में अपनत्व का, जिंदा रखिए भाव।

प्रियतम के दिल में बसें, डूबे कभी न नाव।।

प्रेम सिंधु में डूब कर, नैया लगती पार।

दुख-अथाह, जीवन-खरा, प्रभु का कर आभार।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 316 ☆ कविता – “एक शब्द चित्र – भोपाल की गैस त्रासदी…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 316 ☆

?  कविता – एक शब्द चित्र भोपाल की गैस त्रासदी…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

कलम

कहती है

खींचो एक शब्द चित्र भोपाल की गैस त्रासदी का.

बुद्धि कहती है छेड़ो एक जिहाद मौत के सौदागरों के खिलाफ.

निर्दोष, अनजान लोगों को काल कवलित हुये जो,

अब दे ही क्या सकते हो ? श्रद्धांजलि के सिवाय.

लौटा सकते हो एक भी जिंदगी मुकदमों से,

मुआवजों से.

प्रगति के नाम पर कैसा षडयंत्र

रो उठता है दिल

विचार विभ्रम

कुंठित कलम अधूरी रचना… 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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