हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #150 ☆ शिक्षित होती बेटियाँ ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना “शिक्षित होती बेटियाँ।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 150 – साहित्य निकुंज ☆

👮‍♀️ शिक्षित होती बेटियाँ 👮‍♀️  

बेटी देखो पढ़ रहीं,

 पाती हैं वह ज्ञान।

पढ़ लिखकर वे बन रहीं,

एक नेक इंसान।।

 

बस्ता भारी टाँगकर,

जाती शाला रोज।

खेल खेल में सीखती,

जीवन की हर खोज।।

 

शिक्षित होती बेटियाँ,

हुआ शिक्षित समाज।

घर आंगन को देखती,

बिटिया घर की लाज।।

 

शिक्षित बेटी आजकल,

दे रही संस्कार।।

 उसके अपने ज्ञान से,

शिक्षित है परिवार।।

 

शिक्षा सबके जीवन में,

लाती अमृत विचार।।

बेटी की शिक्षा उसके,

जीवन का उपहार।।

 

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अच्छे कवि ☆ श्री रामस्वरूप दीक्षित

श्री रामस्वरूप दीक्षित

(वरिष्ठ साहित्यकार  श्री रामस्वरूप दीक्षित जी गद्य, व्यंग्य , कविताओं और लघुकथाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। धर्मयुग,सारिका, हंस ,कथादेश  नवनीत, कादंबिनी, साहित्य अमृत, वसुधा, व्यंग्ययात्रा, अट्टाहास एवं जनसत्ता ,हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, राष्ट्रीय सहारा,दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, नईदुनिया,पंजाब केसरी, राजस्थान पत्रिका,सहित देश की सभी प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित । कुछ रचनाओं का पंजाबी, बुन्देली, गुजराती और कन्नड़ में अनुवाद। मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन की टीकमगढ़ इकाई के अध्यक्ष। हम भविष्य में आपकी सार्थक रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास करेंगे।

☆ कविता – अच्छे कवि ☆

अच्छे कवि

अच्छी कविता नहीं लिखते

 

जैसी कि खराब कवि लिखते हैं

सीना तानकर खराब कविताएँ

 

वे तो बस कविता लिखते हैं

बेहद विनम्र भाव से

इस तरह

जैसे कर रहे हों

ईश्वर आराधना

 

उनमें नहीं होता

तनिक भी गुमान

अपने अच्छे तो दूर की बात है

अपने कवि होने का भी

 

जैसे कि होता है

खराब कवियों को

 

खराब कवि

जब पहन रहे होते हैं

काले हाथों से उजली दिखने वाली मालाएं

हो रहे होते हैं नतशिर

सत्ताधीशों के समक्ष

 

तब अच्छे कवि

किसी झाड़ी में पड़े

अवांछित शिशु की गुमनाम आवाज को

दर्ज कर रहा होता है

अपनी कविता में

 

बलात्कृत स्त्री को

कर रहा होता है

अपनी लड़ाई

खुद लड़ने के लिए तैयार

 

खराब कवि के लिखे गए

अभिनंदन पत्रों पर

मिलने वाले कविता पुरस्कार से बेखबर

 

अच्छे कवि लोहे को गलाने

पैदा करने लगते जरूरी ताप

ताकि ढाले  जा सकें

जरूरी हथियार

 

शोषितों और पीड़ितों के हाथों में सौंपने

 

अच्छे कवि

जानते हैं

गुलाब की सुंदरता के बारे में

 

स्याह अंधेरे के सीने में दफन

रोशनी के बारे में

 

जिन दिनों खराब कवि

खँजड़ी बजाते नाच रहे होते हैं

राजा के दरबार में

 

उन दिनों अच्छे कवि

बच्चों को सिखा रहे होते हैं

फूलों की खेती करना

 

युद्ध के दिनों में

खराब कवि वीर रस के कुंड में 

कर रहे होते नग्न स्नान

 

और अच्छे कवि

युद्ध के बीच बजा रहे होते बांसुरी

 

अच्छे कवि

खराब कवियों की

बेतहासा भीड़ में भी

पहचान लिए जाते अलग से

 

 अपने शब्दों के कारण नहीं

उनमें छिपे लोहे के कारण

© रामस्वरूप दीक्षित

सिद्ध बाबा कॉलोनी, टीकमगढ़ 472001  मो. 9981411097

ईमेल –[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #137 ☆ संतोष के दोहे – परहित ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “संतोष के दोहे – परहित। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 137 ☆

☆ संतोष के दोहे – परहित ☆ श्री संतोष नेमा ☆

बाबा तुलसी कह गए, परहित सरिस न धर्म

कहता है संतोष ये, करें सभी सत्कर्म

 

कलियुग में है दान की, महिमा अपरंपार

दान सदा करते रहें, यह भी है उपकार

 

करते दान दिखावटी, फोटो लें भरपूर

नाम छपे अखबार में, होता उन्हें गुरूर

 

जोड़ी धन-दौलत बहुत, बने बड़े धनवान

दान न जीवन में किया, खूब चढ़ा अभिमान

 

वहम पाल यह समझते, सब मेरा ही काम

भूले आकर अहम में, सबके दाता राम

 

दीनों का हित कीजिये, यही श्याम संदेश

मित्र सुदामा को दिया, एक सुखद परिवेश

 

जीवन के उत्कर्ष का, एक यही सिद्धांत

प्रेम,परस्पर-एकता, बोध और वेदांत

 

मानवता का सार यह, परहित और उदार

पर पीड़ा को समझ कर, करें खूब उपकार

 

कुदरत से सीखें सदा,औरों का उपकार

देती सब कुछ मौन रह, किये बिना प्रतिकार

 

करता है “संतोष” भी, मानवता की बात

परहित में देखें नहीं, कभी धर्म या जात

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 127 ☆ गीत – अनगिन चले गए ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 127 ☆

☆ गीत – अनगिन चले गए  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

अनगिन चले गए

परिचित शुभचिन्तक

देखा अदभुत रे संसार।

अब तो छूट रहा है प्यार।।

 

ये भी जोड़ा , वो भी जोड़ा

नाते , रिश्ते जोड़ लिए

कहीं कपट था, कहीं रपट है

कुछ ने रिश्ते तोड़ लिए

 

कैसे मिथक और उपमाएं

करतीं जीवन साज – सँवार।

 

ईश्वर को मैं देख न पाया

लेकिन गीत सदा ही गाया

सुख – दुख में सब काल छिन गया

सुख चाहती है केवल काया

 

कोशिश करी सदा मिलने की

आँख बंद कर की मनुहार।।

 

 

शब्द – शब्द ने ब्रह्म जगाया

जो चाहते थे कब वह पाया

मैल लगे वस्त्रों को हमने

थोड़ा – थोड़ा था चमकाया

 

द्वार खोलती अनुभूति नित

कुछ से मिलता प्यार अपार।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ राजभाषा मास विशेष – हिन्दी ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

(डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के नोबल कॉलेज में प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, एक कविता संग्रह (स्वर्ण मुक्तावली), पाँच कहानी संग्रह,  एक उपन्यास (फिर एक नयी सुबह) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज ससम्मान प्रस्तुत है राजभाषा दिवस पर विशेष कविता हिन्दी। )  

☆ कविता ☆ राजभाषा मास विशेष – हिन्दी ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

संस्कृत की बिटिया लाडली

उर्दू की बहन हिन्दी

आन, बान और शान से पूरित

यह तो पगड़ी है माँ भारती की

चल पडी शान से…

ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर

प्रभु को पुकारती

हिम्मत न हारकर

छाले पड़े, पर कतरा आँसू का

न बहाया कभी औरों के सामने

न बंदिशे न कोई रंजिशे

मत बन रास्ते का कंकड

बहने दें निर्मल प्रवाह को

निर्बाध्य हो संसार-सागर में

याद दिलाती भारतीय को

भारतीय होने की…

हर व्यक्ति की बनी पहचान

यह तो है प्यार की भाषा

यह तो है मीठी भाषा

खुशनुमा हो चल पड़ी

अपनों के भरोसे

मत तोड़ इसका भरोसा

लड़ रही अपनी बहनों से?

अपनी जगह बनाने के लिए

यही विडम्बना आँसू बहते

उसके नयनों से………

हो सुरक्षित अपनी जगह

तुम पर आँच न आने देगी

न कोई बैर अन्य भाषा से

अपनाती चली हर बोली-भाषा को

नोंच लेगी आँखें अगर….

अगर उठी किसी की तुम पर

गलती से भी अपराध न कर

अगर-मगर के चक्कर में न पड़कर

मात्र अपना हिन्दी को, प्रेम कर

अपने प्रेम पाश में बाँधकर

अपनी आगोश में भरकर

प्यार करने को तत्पर,

प्रेम-सागर में स्वीकार कऱ

मार डुबकी कर आदर

उमडा है साहित्य-सागर

गोते लगा, पा अलौकिक आनंद

दिल में फूटते गुब्बारे

देखते नज़ारा सुंदर हिंद का

हिंदी है भारत की भाषा

न तेरी या मेरी मात्र हिंदी

वरदहस्त है माँ सरस्वती का

बस, भाषा से प्रेम कर,

दिल की बात आई जुबां पर,

हिंदी है हिंदोस्तान की प्यार कर,

हिंदी है हिंदोस्तान की प्यार कर ।

 

©डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

संपर्क: प्राध्यापिका, हिन्दी विभाग, नोबल कॉलेज, जेपी नगर, बेंगलूरू।

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ राजभाषा मास विशेष – हिंदी पर अभिमान मुझे ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

डॉ निशा अग्रवाल

☆ कविता ☆ राजभाषा मास विशेष – हिंदी पर अभिमान मुझे ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

हिन्द देश के हिंदी भाषा, हिंदी पर  अभिमान मुझे।

हर दिल की धड़कन है हिंदी, जगत में इसे सम्मान मिले।।

 

देश का गौरव, भविष्य की आशा, जनता की भाषा हिंदी।

जैसे सुहागन के मस्तक पर, गौरव की सजती बिंदी।।

 

हम सबने अपनी वाणी से, हिंदी का रूप तराशा है।

जान बने हिंदी भाषा, यही मेरी अभिलाषा है।।

 

कबीर दास ने अपनाकर, मीरा ने इसे मान दिया।

आज़ादी के हम दीवाने, हिंदी को सम्मान दिया।।

 

फिर भी क्यों हम कतराते, हिंदी में परिचय देने से।

क्यों छोटा हम खुद को समझते, हिंदी में बातें करने से।।

 

अरे! क्यों सोचो अंग्रेजी बोलेंगे, तभी बनेंगे महान हम।

क्यों भूल जाते है हर पल, कि गर्वीले हिन्दुस्तानी है हम।।

 

क्यों करते है सम्मान हिंदी का, केवल 14 सितंबर को ही हम।

क्यों करते रहते है हर पल, हिंदी का अपमान हम।।

 

क्यों करते है, 14 सितंबर को ही, हिंदी बचाओ अभियान की बातें हम।

क्यों देते अंग्रेजी में नोटिस, आज के दिन हिंदी में हम।।

 

अरे! क्यों भूल गए कि इस अंग्रेजी ने ही  बनाया वर्षों तक गुलाम हमें।

हिंदी भाषा वीर प्रसूता, जिसने दी जीवन रेखा और काल जीत की सौगात हमें।।

 

रिश्ते नाम के अर्थ बदल रहे, देशी घी को बटर बोल रहे।

मात-पिता, मोम डैड हो गए, बाकी सब रिश्ते आंटी अंकल हो गए।।

 

दोस्तो, अंत में.. मैं सिर्फ दो पंक्तियां और कहना चाहती हूं।

कलम रोककर शब्दों को अब आपसे इज़ाज़त चाहती हूँ।।

 

हिंदी भाषा का संरक्षण और हिफाज़त चाहती हूँ।

हिंदी भाषा का संरक्षण और हिफाज़त चाहती हूँ।।

©  डॉ निशा अग्रवाल

(ब्यूरो चीफ ऑफ जयपुर ‘सच की दस्तक’ मासिक पत्रिका)

एजुकेशनिस्ट, स्क्रिप्ट राइटर, लेखिका, गायिका, कवियत्री

जयपुर ,राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ राजभाषा मास विशेष – हिन्दी ☆ सुश्री रुचिता तुषार नीमा ☆

सुश्री रुचिता तुषार नीमा

 

☆ कविता ☆ राजभाषा मास विशेष – हिन्दी ☆ सुश्री रुचिता तुषार नीमा ☆

मेरी प्यारी मातृभाषा है हिंदी,

हम सबकी दुलारी है हिंदी…

 

रिश्तों की मर्यादा सिखाती है हिंदी…

बड़े छोटे का रिश्ता समझाती है हिंदी…

बड़ों को सम्मान छोटों को दुलार सिखाती है हिंदी

अपनेपन  का भाव दर्शाती है हिंदी…

 

संस्कृत से जन्मी बड़ी सरल है हिंदी…

अलग अलग संस्कृति का समावेश है हिंदी…

हर शब्द का विशेष अर्थ रखती है हिंदी…

व्याकरण की गरिमा दिखाती है हिंदी…

 

हिंदुस्तान की पहचान है हिंदी…

जनजन की आवाज़ है हिंदी…

ईश्वर की प्रार्थना है हिंदी…

माँ की मधुर वाणी है हिंदी…

 

गर्व है हमें कि हमको आती है हिंदी…

मेरे व्यक्तित्व की पहचान है हिंदी…

मेरी मातृभाषा है हिंदी…

मेरा अभिमान, स्वाभिमान है हिंदी…

© सुश्री रुचिता तुषार नीमा

14-09-2022

इंदौर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#150 ☆ कविता – हार जीत का प्रश्न नहीं है… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय कविता “हार जीत का प्रश्न नहीं है…”)

☆  तन्मय साहित्य # 150 ☆

☆ कविता – हार जीत का प्रश्न नहीं है ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

कौन गलत है कौन सही है

हार जीत का प्रश्न नहीं है।

आप सतत निगरानी में हैं

उसकी सत्य कहानी में हैं

आकर्षक इस रंगमंच पर

शक्ल नई अनजानी में हैं,

सोचा! कभी स्वयं की कब

परछाई खुद से अलग रही है

हार जीत का प्रश्न नहीं है।

 

खुद होकर कोईं कब बोले

भेद न कोईं अपने खोले

समय, तराजू लिए खड़ा है

साँच-झूठ पल-पल का तोले,

सबकी करतूतों के अपने

अपने खाते और बही है

हार जीत का प्रश्न नहीं है।

 

खुश है मन तो कभी विकल है

मछली की भांति चंचल है

मृग मरीचिकाओं से मोहित

चलती रहे सदा हलचल है,

जीवन के सच से अबोध

ये राग-द्वेष सुख-दुख सतही है

हार जीत का प्रश्न नहीं है

कौन गलत है कौन सही है।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 38 ☆ लोरी – सो जा – सो जा गजराज… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण लोरी  “सो जा – सो जा गजराज… ”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 37 ✒️

? लोरी   – सो जा – सो जा गजराज… — डॉ. सलमा जमाल ?

सोजा, सोजा, गजराज शंकर के ललना ।

तुझे पार्वती माता झुलाये पलना ।।

 

भुजायें छोटी-छोटी सूंढ़ है प्यारी ,

नेत्र हैं विशाल मूस की सवारी ,

प्रथम पूज्य की नहीं किसी से तुलना।

सो जा ——————————- ।।

 

इक हाथ हैगी, दूजे में फ़रसा सजा ,

तीजे में कंज ,चौथे में लड्डू धरा ,

सारे देवता मिलके डुलावें  बिजना ।

सो जा —————————— ।।

 

माथे अर्धचन्द्र ,मोती -मांणिक जड़े ,

लम्बोदर कहाते , दयावंत हैं बड़े ,

भूतगणांधि खींचें तुम्हारा झुलना ।

सो जा —————————– ।।

 

पाप हरो मेरे , भक्त हूं तुम्हारी ,

पूर्ण करो इकदन्त मनोरथ हमारी ,

अपने पराये चाहें मुझको छलना ।

सो जा —————————- ।।

 

विश्वकर्मा जी लाये चन्दन पलना ,

लताओं की डोरी जामुन फुन्दना ,

भगवती भी करतीं तुम्हारी वन्दना ।

सो जा —————————– ।।

 

अर्पण करे ‘सलमा ‘ सिंदूर फूल कपूर ,

प्रसाद में लायी गणपति को मोतीचूर ,

साक्षात् दर्शन से कब होगा मिलना ।

सो जा —————————— ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 50 – मनोज के दोहे…. ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है   “मनोज के दोहे…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 50 – मनोज के दोहे …. 

1 अंतर्मन

अंतर्मन में नेह का, बिखरे प्रेम प्रकाश।

मानव जीवन सुखद हो, हर मानव की आश।।

2 ऊर्जा

शांति प्रेम सौहार्द को, सच्चे मन से खोज।

भारत की ऊर्जा यही, मन में रहता ओज।।

3 वातायन (खिड़की)

उर-वातायन खुली रख, ताने नया वितान।

जीवन सुखमय तब बने, होगा सुखद विहान।।

4 वितान (टेंट )

अंतर्मन की यह व्यथा, किससे करें बखान।

फुटपाथों पर सो रहे, सिर पर नहीं वितान।।

5 विहान(सुबह)

खड़ा है सीना तानकर, भारत देश महान।

सदी बीसवीं कह रही, होगा नवल विहान।।

6 विवान (सूरज की किरणें)

अंधकार को चीर कर,निकले सुबह विवान

जग को किया प्रकाशमय, फिर भी नहीं गुमान।। 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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