हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #155 – ग़ज़ल-41 – “गुल ही गुल कब माँगे थे हमने…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “गुल ही गुल कब माँगे थे हमने…”)

? ग़ज़ल # 41 – “गुल ही गुल कब माँगे थे हमने…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

म अकसर अपनी ज़िन्दगी से ऐसे मिले,

एक अजनबी जैसे किसी अजनबी से मिले।

 

गुल ही गुल कब माँगे थे हमने ख़ैरात में

ख़ार ही ख़ार बेशुमार  मुहब्बत से मिले।

 

मिलना मजनू का लैला से सुनते आए हैं,

काश उसी तरह मेरा हमदम मुझसे मिले।

 

एक रेखा में मिलते सूरज चाँद और धरती

छा जाता ग्रहण जब वो इस तरह से मिले।

 

अकसर उपदेशों की बौछारों से नहलाते दोस्त,

बेहतर है आदमी कभी न ऐसे दोस्तों से मिले।

 

निकलना जन्नत से आदम-ईव का सुनते आए,

बाद उसके आदमी-औरत आकर जमीं से मिले।

 

मुहब्बत में मिलना भी जुर्म हो गोया ‘आतिश’

जानलेवा हुआ जिस बेरुख़ी से वो हम से मिले।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 32 ☆ मुक्तक ।। खुशियाँ खरीदने का कोई बाजार नहीं होता है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष में एक भावप्रवण मुक्तक ।।खुशियाँ खरीदने का कोई बाजार नहीं होता है।। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 32 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।। खुशियाँ खरीदने का कोई बाजार नहीं होता है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

[1]

अमृत जहर एक जुबां पर,  निवास   करते  हैं।

इसीसे लोग व्यक्तित्व का,  हिसाब  करते  हैं।।

कभी नीम कभी शहद,  होती   जिव्हा हमारी।

इसीसे जीवन का हम सही, आभास करते हैं।।

[2]

बहुत  नाजुक  दौर  किसी  से,  मत  रखो  बैर।

हो   सके   मांगों   प्रभु  से,  सब की ही     खैर।।

तेरी  जुबान  से ही तेरे दोस्त,और दुश्मन बनेंगें।

हर बात बोलने से पहले, जाओ कुछ देर ठहर।।

[3]

तीर  कमान  से निकला, वापिस नहीं आ पाता है।

शब्द  भेदी वाण सा फिर, घाव करके  आता है।।

दिल  से  उतरो  नहीं  पर,  दिल  में  उतर  जाओ।

गुड़ दे नहीं सकते मीठा, बोलने में क्या जाता है।।

[4]

जान लो खुशी देना खुशी पाने, का आधार होता है।

वो  ही  खुशी  दे  पाता जिसमें, सरोकार होता है।।

खुशी   कभी  आसमान   से, कहीं  टपकती  नहीं।

कहीं पर खुशी का लगता, बाजार नहीं होता है।।

[5]

मन   की आँखों से भीतर का,   कभी  दीदार  करो।

मिट  जाता  हर  अंधेरा   सुबह,  का इंतज़ार करो।।

मीठी   जुबान  खुशियों   का,  गहरा   होता है नाता।

छोटी सी जिन्दगी बस तुम, हर किसी से प्यार करो।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – समग्र ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना

श्रीगणेश साधना, गणेश चतुर्थी तदनुसार बुधवार 31अगस्त से आरम्भ होकर अनंत चतुर्दशी तदनुसार शुक्रवार 9 सितम्बर तक चलेगी।

इस साधना का मंत्र होगा- ॐ गं गणपतये नमः

साधक इस मंत्र के मालाजप के साथ ही कम से कम एक पाठ अथर्वशीर्ष का भी करने का प्रयास करें। जिन साधकों को अथर्वशीर्ष का पाठ कठिन लगे, वे कम से कम श्रवण अवश्य करें। उसी अनुसार अथर्वशीर्ष पाठ/ श्रवण का अपडेट करें।

अथर्वशीर्ष का पाठ टेक्स्ट एवं ऑडियो दोनों स्वरूपों में इंटरनेट पर उपलब्ध है।

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – समग्र ??

जब कभी

मेरा लिखा

आँका जाए,

कहन के साथ

मेरा मौन भी

बाँचा जाए !

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 98 ☆ ’’हे नाथ तुम्हीं जग के स्वामी…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा श्री गणेश चतुर्थी पर्व पर रचित एक कविता  “हे नाथ तुम्हीं जग के स्वामी…”। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 98 ☆ हे नाथ तुम्हीं जग के स्वामी” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

 हे नाथ तुम्हीं जग के स्वामी, संसार तुम्हारे हाथों में

हम मानव विवश खिलौने हैं, अधिकार तुम्हारे हाथों में ॥ 1 ॥

 

जग रंग मंच है माया का, द्विविधा इसकी हर बातों में

हम कठपुतली से नाच रहे, सब तार तुम्हारे हाथों में ॥ 2 ॥

 

अनगिनत कामनायें पाले, उलझे ढुलमुल विश्वाशों में

सब देख रहे अपना अपना, संचार तुम्हारे हाथों में ।। 3 ।।

 

आकुल व्याकुल मन आकर्षित हो माया के बाजारों में

भटका फिरता मधु पाने को, रसधार तुम्हारे हाथों में ॥ 4 ॥

 

बुझ पाई न मन की प्यास कभी, रह शीतल कूल कछारों में

सुख दुख, यश अपयश, जन्म मरण व्यापार तुम्हारे हाथों में ॥ 5 ॥

 

जग है एक भूल भुलैया, हम भूले जिसके गलियारों में

हर बात में धोखा चाल में छल, उद्धार तुम्हारे हाथों में ॥ 6 ॥

 

जीवन नौका भवसागर में, अधडूबी झंझावातों में

तुम ही एक नाथ खिवैया हो, पतवार तुम्हारे हाथों में ॥ 7 ॥

 

दिखती तो रूपहली हैं लहरें, बढ़ती हुई पारावारों में

पर इन्द्र धनुष सा आकर्षक, उपहार तुम्हारे हाथों में ॥ 8 ॥

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – काला पानी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना

श्रीगणेश साधना, गणेश चतुर्थी तदनुसार बुधवार 31अगस्त से आरम्भ होकर अनंत चतुर्दशी तदनुसार शुक्रवार 9 सितम्बर तक चलेगी।

इस साधना का मंत्र होगा- ॐ गं गणपतये नमः

साधक इस मंत्र के मालाजप के साथ ही कम से कम एक पाठ अथर्वशीर्ष का भी करने का प्रयास करें। जिन साधकों को अथर्वशीर्ष का पाठ कठिन लगे, वे कम से कम श्रवण अवश्य करें। उसी अनुसार अथर्वशीर्ष पाठ/ श्रवण का अपडेट करें।

अथर्वशीर्ष का पाठ टेक्स्ट एवं ऑडियो दोनों स्वरूपों में इंटरनेट पर उपलब्ध है।

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – काला पानी ??

सुख-दुख में

समरसता,

हर्ष-शोक में

आत्मीयता,

उपलब्धि में

साझा उल्लास,

विपदा में

हाथ को हाथ,

जैसी कसौटियों पर

कसते थे रिश्ते,

परम्पराओं में

बसते थे रिश्ते,

संकीर्णता के झंझावात ने

उड़ा दी सम्बंधों की धज्जियाँ,

रौंद दिये सारे मानक,

गहरे गाड़कर अपनापन

घोषित कर दिया

उस टुकड़े को बंजर..,

अब-

कुछ तेरा, कुछ मेरा,

स्वार्थ, लाभ,

गिव एंड टेक की

तुला पर तौले जाते हैं रिश्ते..,

सुनो रिश्तों के सौदागरो!

सुनो रिश्तों के ग्राहको!

मैं सिरे से ठुकराता हूँ

तुम्हारा तराजू,

नकारता हूँ

तौलने की

तुम्हारी व्यवस्था,

और स्वेच्छा से

स्वीकार करता हूँ

काला पानी

कथित बंजर भूमि पर,

तुम्हारी आँखों की रतौंध

देख नहीं पाई जिसकी

सदापुष्पी कोख…,

जब थक जाओ

अपने काइयाँपन से,

मारे-मारे फिरो

अपनी ही व्यवस्था में,

तुम्हारे लिए

सुरक्षित रहेगा एक ठौर,

बेझिझक चले आना

इस बंजर की ओर,

सुनो साथी!

कृत्रिम जी लो

चाहे जितना,

खोखलेपन की साँस

अंतत: उखड़ती है,

मृत्यु तो सच्ची ही

अच्छी लगती है..!

© संजय भारद्वाज

प्रातः 10:16 बजे, 10 जुलाई 2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #148 ☆ भावना के दोहे – ।। श्री गणेशाय नमः ।। ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे – ।। श्री गणेशाय नमः ।। ।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 148 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – ।। श्री गणेशाय नमः ।। ☆

प्रथम पूज्य हैं आप तो, हे गणपति महराज।

विघ्न विनाशक देवता, बना रहे हर काज।।

श्री गणेश को पूजते, हैं वो ही सर्वेश।

विघ्नविनाशक देवता, देते है आदेश।।

करते गणपति वंदना, आज  पधारो आप।

धन्य धन्य हम हो रहे, दूर करो संताप।।

करते हैं हम आचमन, पंचामृत गणराज।

मोदक भोग लगा रहे, स्वीकारो प्रभु आज।।

तुम दाता इस सृष्टि के, हे गणपति महराज।

विनती इतनी मैं करूँ, करो सफल सब काज।।

मन मंगलमय हो रहा, झूम उठा है चंद।

हुआ आगमन आपका, छाया है आनंद।।

मन आनंदित हो गया, देख आपका रूप।

करते वंदन आपका, रोज जलाकर धूप।।

गणपति की आराधना, करते उनका ध्यान।

पूर्ण मनोरथ हो रहे, करते हैं गुणगान।।

रिद्धि सिद्धि के देवता, देवों के सरताज।

हरते विघ्न अपार वो, पूरे करते काज।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “आयलान” एवं “Aylan” (अंग्रेजी भावानुवाद) ☆ – श्री हेमन्त बावनकर ☆

श्री हेमन्त बावनकर

(यह कविता समर्पित है तीन वर्षीय सीरियन बालक आयलान को जो उन समस्त बच्चों का प्रतिनिधित्व करता है जो विश्व में युद्ध की विभीषिका में इस संसार को छोड़ कर चले गए। आज ही के दिन 2सितंबर 2015 की एक सुबह आयलान का मृत शरीर तुर्की के समुद्र तट पर लावारिस हालात में मिला। उसे भले ही विश्व भूल गया हो किन्तु वह जो प्रश्न अपने पीछे छोड़ गया हैं, उन्हें कोई भी संवेदनशील व्यक्ति नहीं भूल सकता। इस कविता का अंग्रेजी अनुवाद  भी  इस कविता के अंत में प्रस्तुत है। इस कविता का जर्मन अनुवाद भी  उपलब्ध है । )

☆ आयलान  ☆

धीर गंभीर

समुद्र तट

और उस पर

औंधा लेटा,

नहीं-नहीं

समुद्री लहरों द्वारा

जबरन लिटाया गया

एक निश्चल-निर्मल-मासूम

‘आयलान’!

वह नहीं जानता

कैसे पहुँच गया

इस निर्जन तट पर।

कैसे छूट गई उँगलियाँ

भाई-माँ-पिता की

दुनिया की

सबको बिलखता छोड़।

 

वह तो निकला था

बड़ा सज-धज कर

देखने

एक नई दुनिया

सुनहरी दुनिया

माँ बाप के साये में

खेलने

नए देश में

नए परिवेश में

नए दोस्तों के साथ

बड़े भाई के साथ

जहां

सुनाई न दे

गोलियों की आवाज

किसी के चीखने की आवाज।

 

सिर्फ और सिर्फ

सुनाई दे

चिड़ियों की चहचाहट

बच्चों की किलकारियाँ।

बच्चे

चाहे वे किसी भी रंग के हों

चाहे वे किसी भी मजहब के हों

क्योंकि

वह नहीं जानता

और जानना भी नहीं चाहता

कि

देश क्या होता है?

देश की सीमाएं क्या होती हैं?

देश का नागरिक क्या होता है?

देश की नागरिकता क्या होती है?

शरण क्या होती है?

शरणार्थी क्या होता है?

आतंक क्या होता है?

आतंकवादी क्या होता है?

वह तो सिर्फ यह जानता है

कि

धरती एक होती है

सूरज एक होता है

और

चाँद भी एक होता है

और

ये सब मिलकर सबके होते हैं।

साथ ही

इंसान बहुत होते हैं।

इंसानियत सबकी एक होती है।

 

फिर

पता नहीं

पिताजी उसे क्यों ले जा रहे थे

दूसरी दुनिया में

अंधेरे में

समुद्र के पार

शायद

वहाँ गोलियों की आवाज नहीं आती हो

किसी के चीखने की आवाज नहीं आती हो

किन्तु, शायद

समुद्र को यह अच्छा नहीं लगा।

समुद्र नाराज हो गया

और उन्हें उछालने लगा

ज़ोर ज़ोर से

ऊंचे

बहुत ऊंचे

अंधेरे में

उसे ऐसे पानी से बहुत डर लगता है

और

अंधेरे में कुछ भी नहीं दिख रहा है

उसे तो उसका घर भी नहीं दिख रहा था

माँ भी नहीं

भाई भी नहीं

पिताजी भी नहीं

 

फिर

क्योंकि वह सबसे छोटा था न

और

सबसे हल्का भी

शायद

इसलिए

समुद्र की ऊंची-ऊंची लहरों नें

उसे चुपचाप सुला दिया होगा

इस समुद्र तट पर

बस

अब पिताजी आते ही होंगे ………. !

 

 

© हेमन्त  बावनकर,  पुणे 

 

(This poem is dedicated to a three-year-old Syrian boy ‘Aylan’ who represents all children who left this world under shadows of war. The dead body of ‘Aylan’ was found unattended on the beach of Turkey on 2nd September 2015. The world will forget him one day, but, one cannot forget the questions that he left behind him. The Hindi and German Version of this poem is also available.)

☆ Aylan  ☆

The calm

sea shore

and he

calm, serene, innocent

Aylan

rolled inverted,

 

No…. no…

forcibly laid down

by the sea.

He does not know

how he reached on

the deserted beach.

 

How he missed

fingers of daddy.

Leaving the world

and everyone

in deep sorrow.

 

He left his homeland

with parents

to see and experience

the new world,

golden world

in the shadow of parents

to play

with new friends

in a new country

in new surroundings

with new friends

with elder brother

where,

he will not hear

any gunshots

anyone’s screams.

 

He will be able to hear

only and only

birds’ chirping sounds

children’s laughter.

Children!

Whether they are

of any colour,

of any religion.

Because,

he does not know

and

does not want to know

that –

What is a country?

What are the borders of the country?

What is a citizen?

What is citizenship?

What is a refuge?

What is a refugee?

What is terrorism?

What is a terrorist?

 

He just knows it

that

the earth is one

the sun is one

and

the moon is also one

and

these all are together

for the entire world.

There are so many human beings

but,

the humanity is one.

 

He does not know

why his father was taking them

to another world

in the dark

across the sea.

Maybe,

there,

he will not hear

any gunshots

any cries.

But,

perhaps

the sea did not like it.

The sea was angry

and began to throw them

vigorously

high

very high

in the dark

he was very afraid of the water

and

did not see anything in the dark.

He did not see his home,

even mom,

brother and dad too.

 

Maybe,

he was the youngest

and

lighter than all.

 

Hence,

high-rise waves of the sea

quietly put him to sleep

on the beach

enough,

………. now dad will be here soon!

 

© Hemant Bawankar, Pune

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #135 ☆ संतोष के दोहे – प्रथम पूज्य गणनायक ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “संतोष के दोहे – प्रथम पूज्य गणनायक । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 135 ☆

☆ संतोष के दोहे – प्रथम पूज्य गणनायक ☆ श्री संतोष नेमा ☆

हे लम्बोदर गजवदन, मंगल कीजै काज

सब विघ्नों को दूर कर, कृपा रखें गणराज

कलुष निकंदन आप हैं, प्रथम पूज्य भगवान

भव बाधाएँ दूर हों, ऐसा दो वरदान

ऋद्धि-सिद्धि के अधिपति, देवों के सरताज

मंगलकारी देव प्रभु, रखिये मेरी लाज

पूजा-पाठ न जानते, न ही कोई विधान

रक्षा सबकी कीजिये, हे प्रभु दयानिधान

पान,फूल मोदक चढ़ें, लड्डू मेवा थाल

सद्गुण हमको दीजिए, हे शिव जी के लाल

संकट हरिये आप सब, गौरी तनय गणेश

करना ऐसी प्रभु दया, खुशियाँ हों बस शेष

धूम्रकेतु गजमुख नमन, महिमा अमित अपार

मातु आज्ञा सिर धरें, मूसक पर असवार

विघ्न मिटें संकट कटें, मंगल हों सब काज

बाधाओं को दूर कर, रखें हमारी लाज

जिनके सुमरन से सदा, मिले हमें संतोष

प्रथम पूज्य गणनायक, दूर करें सब दोष

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सीढ़ियाँ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना

श्रीगणेश साधना, गणेश चतुर्थी तदनुसार बुधवार 31अगस्त से आरम्भ होकर अनंत चतुर्दशी तदनुसार शुक्रवार 9 सितम्बर तक चलेगी।

इस साधना का मंत्र होगा- ॐ गं गणपतये नमः

साधक इस मंत्र के मालाजप के साथ ही कम से कम एक पाठ अथर्वशीर्ष का भी करने का प्रयास करें। जिन साधकों को अथर्वशीर्ष का पाठ कठिन लगे, वे कम से कम श्रवण अवश्य करें। उसी अनुसार अथर्वशीर्ष पाठ/ श्रवण का अपडेट करें।

अथर्वशीर्ष का पाठ टेक्स्ट एवं ऑडियो दोनों स्वरूपों में इंटरनेट पर उपलब्ध है।

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – सीढ़ियाँ ??

आती-जाती

रहती हैं पीढ़ियाँ,

जादुई होती हैं

उम्र की सीढ़ियाँ,

जैसे ही अगली

नज़र आती है,

पिछली तपाक से

विलुप्त हो जाती है,

आरोह की सतत

दृश्य संभावना में,

अवरोह की अदृश्य

आशंका खो जाती है,

जब फूलने लगे साँस

नीचे अथाह अँधेरा हो,

पैर ऊपर उठाने को

बचा न साहस मेरा हो,

चलने-फिरने से भी

देह दूर भागती रहे,

पर भूख-प्यास तब भी

बिना लांघा लगाती डेरा हो,

हे आयु के दाता! उससे

पहले प्रयाण करा देना,

अगले जन्मों के हिसाब में

बची हुई सीढ़ियाँ चढ़ा देना,

मैं जिया अपनी तरह

मरूँ भी अपनी तरह,

आश्रित कराने से पहले

मुझे विलुप्त करा देना!

© संजय भारद्वाज

प्रातः 8:01 बजे, 21.4.19

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 97 ☆ ’’सिद्धिदायक गजवदन…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा श्री गणेश चतुर्थी पर्व पर रचित एक कविता  “सिद्धिदायक गजवदन…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 97 ☆ सिद्धिदायक गजवदन” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

जय गणेश गणाधिपति प्रभु , सिद्धिदायक, गजवदन

विघ्ननाशक कष्टहारी हे परम आनन्दधन ।।

दुखों से संतप्त अतिशय त्रस्त यह संसार है

धरा पर नित बढ़ रहा दुखदायियों का भार है ।

हर हृदय में वेदना , आतंक का अंधियार है ।

उठ गया दुनिया से जैसे मन का ममता प्यार है ।।

दीजिये सद्बुद्धि का वरदान हे करुणा अयन ।।

प्रकृति ने करके कृपा जो दिये सबको दान थे

आदमी ने नष्ट कर डाले हैं वे अज्ञान से ।

प्रगति तो की बहुत अब तक विश्व ने विज्ञान से

प्रदूषित जल थल गगन पर हो गये अभियान से ॥

फँस गया है उलझनों के बीच मन , हे सुख सदन ॥

प्रेरणा देते हृदय को प्रभु तुम्हीं सद्भाव की

दूर करते भ्राँतियाँ सब व्यर्थ के टकराव की ।

बढ़ रही जो सब तरफ हैं वृत्तियाँ अपराध की

रौंद डालीं है उन्होंने फसल सात्विक साध की ॥

चेतना दो प्रभु कि अब उन्माद से उघरें नयन ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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