हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता – आत्मानंद साहित्य #128 ☆ गीता तत्वबोध ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 129 ☆

☆ ‌कविता – गीता तत्वबोध  ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

निर्मल चित्त हो प्रेम से,

जो गीता का करता पाठ ।

वह मानव भय शोक रहित हो,

कृष्ण धाम में करता वास ।

 

नित्य निरंतर सदा प्रेम से,

जो गीता को पढ़ता है।

होते नष्ट पाप सब उसके,

मिटते  हैं जीवन संताप।

 

जो करते जल से स्नान,

उनके तन मल होता साफ।

 पर ज्ञान रूप गीता के जल से,

होता है मन का मल साफ।

 

जो कृष्णा के मुख से हुई प्रकट,

केवल उस गीता का पाठ करो।

अन्य देव से क्या मतलब है,

यदुनंदन का ध्यान धरो।

 

महाभारत का मूल तत्व ,

जो मोहन मुख से प्रकट हुआ।

जिसने उसका श्रवण किया,

वह आत्मज्ञान से युक्त हुआ।

 

सारी उपनिषदें गौ समान है,

मनमोहन है दुहने वाला ।

अर्जुन उसका बछड़ा है,

जो पीता है नित सत् का प्याला।

 

यह गीता है सर्वोत्तम है,

यह यदुनंदन की वाणी है।

सब देवों में कृष्ण श्रेष्ठ है,

उनकी अमिट कहानी है।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मुक्तक – ।। आओ मिल कर दुनिया की कहानी नई लिखते हैं ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना आओ मिल कर दुनिया की कहानी नई लिखते हैं।)

☆ मुक्तक – ।। आओ मिल कर दुनिया की कहानी नई लिखते हैं ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

[1]

आओ मिल कर कहानी , नई लिखते हैं।

जीवन रंग ढंग रवानी, नई लिखते हैं।।

सबके लिए सरोकार, की बात हैं करते।

जीने का सलीका जिंदगानी, नई लिखते हैं।।

[2]

बात मेहरबानी की हर, किसी के लिए हो।

कम परेशानी हर, किसी के लिए हो।।

अधिकार और कर्तव्यं , का मेल हो खूब।

दुनिया दीवानी सी हर, किसी के लिए हो।।

[3]

कड़ी से कड़ी जोड़ कर, जंजीर बनाते हैं।

मेहनत से मिल कर ,चलो तक़दीर बनाते हैं।।

कण कण में जहाँ पर, प्रेम हो बिखरा हुआ।

दुनिया की ऐसी कोई ,नई तस्वीर बनाते हैं।।

[4]

हमदर्द हमसाया कोई ,समाज नया रचते हैं।

हमराह सा अब रिवाज़, कोई नया रचते हैं।।

प्यार की हर रीत ,प्रेम की प्रथा हो जहाँ पर।

हमदम मेरे दोस्त का,कोई साज़ नया रचते हैं।।

[5]

स्नेह प्रेम प्यार के हम सब, बनते चित्रकार हैं।

दोस्ती और दुआ के बनते, हम दस्तकार हैं।।

महाभारत पांसे नहीं, लाते रमायण के आदर्श।

स्वर्ग सरीखी दुनिया के, बनते अब शिल्पकार हैं।।

 

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 86 ☆ गजल – ’’हिलमिल रहो…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “हिलमिल रहो …”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 86 ☆ गजल – हिलमिल रहो …  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

परचम लिये मजहब का जो गरमाये हुये हैं

आवाज लगा लड़ने को जो आये हुये हैं।

उनको समझ नहीं है कि मजहब है किस लिये

कम अक्ल हैं बेवजह तमतमाये हुये हैं।

नफरत से सुलझती नहीं पेचीदगी कोई

यों किसलिये लड़ने को सर उठाये हुये हैं।

मजहब तो हर इन्सान की खुशियों के लिये हैं

ना समझी में अपनों को क्यों भटकाये हुये हैं।

औरों की भी अपनी नजर अपने खयाल हैं

क्यों तंगदिल ओछी नजर अपनाये हुये हैं।

दुनियां बहुत बड़ी है औ’ ऊँचा है आसमान

नजरें जमीन पै ही क्यों गड़ाये हुये है।

फूलों के रंग रूप औ’ खुशबू अलग है पर

हर बाग की रौनक पै सब भरमाये हुये हैं।

मजहब सभी सिखाते है बस एक ही रास्ता

हिल-मिल रहो, दो दिनों को सभी आये हुये हैं।

कुदरत भी यही कहती है-दुख को सुनो-समझो

जीने का हक खुदा से सभी पाये हुये हैं।

इन्सान वो इन्सान का जो तरफदार हो

इन्सानियत पै जुल्म यों क्यों ढाये हुये हैं।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #136 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 136 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

पाती तेरी मिल गई, लिया प्रभु का नाम।

संदेशा आया सुखद, हुई निराली शाम।।

सुनती है सखियां सभी, क्या लिखते हैं श्याम।

रोम रोम पुलकित हुआ, केवल मेरा नाम।।

शब्द पाती के पढ़कर, नहीं चैन आराम।

मिलना होगा कब प्रिये, आओगे कब धाम।

पाती तुमको लिख रही, लिखती  हूं अविराम।

शब्द शब्द में है रचा, बस तेरा ही नाम।।

नेह निमंत्रण दे रहे, इसे करो स्वीकार।

आपस के संबंध में, नहीं जीत या हार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #125 ☆ बुन्देली पूर्णिका ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत हैं   “बुन्देली पूर्णिका… । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 125 ☆

☆ बुन्देली पूर्णिका ☆ श्री संतोष नेमा ☆

एक नओ भुनसारो हो रओ

घर-घर में बंटवारों  हो रओ

 

जब सें आई  नई दुल्हनिया

बेटा  घर सें  न्यारो हो  रओ

 

नई  पीढ़ी  के  मोड़ा-मोड़ी

अपनों सँग नबारो हो रओ

 

जाने कौन मुरहु सें फँस खें

अपनो पूत गंवारों हो  रओ

 

कबहुँ सुनें ने घर  की  भैया

पी खें वो  आबारो  हो रओ

 

को समझावे उन खों अब तो

जैसे   भूसा   चारो   हो  रओ

 

हमखों अब “संतोष” ने आबे

मों करतूतों से कारो हो रओ

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 164 ☆ कविता – मन के भावो का शब्दो में… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय कविता – मन के भावो का शब्दो में… ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 164 ☆

? कविता – मन के भावो का शब्दो में… ?

कोमल हृदय तरंगो की, सरगम होती है कविता

शीर्षक के शब्दो को देती, अर्थ सदा पूरी कविता

 

सजल नयन और तरल हृदय, परपीड़ा से हो जाता है

हम सब में ही छिपा कवि है, बता रही हमको कविता

 

छंद बद्ध हो या स्वच्छंद हो, अभिव्यक्ति का साधन है

मन के भावो का शब्दो में, सीधा चित्रण है कविता

 

कोई दृश्य , जिसे देखकर, भी न देख सब पाते हैं

कवि मन को उद्वेलित करता, तब पैदा होती कविता

 

कवि की उस पीड़ा का मंथन, शब्द चित्र बन जाता है

दृश्य वही देखा अनदेखा,  हमको दिखलाती कविता

 

लेख, कहानी, व्यंग विधायें, लिखने के हथियार बहुत

कम शब्दो में गाते गाते, बात बड़ी कहती कविता

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 114 ☆ गीत – आँसू तुम हो सरलम निश्छल… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 114 ☆

☆ गीत – आँसू तुम हो सरलम निश्छल… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

आँसू तुम हो सरलम निश्छल

झरना – सा बह जाते हो।

प्रेम उमड़ता जब आँखों में

जाने क्या कह जाते हो।।

 

कभी दिव्यता की सुधियों में

कभी क्रोध की ज्वाला बन

जीवन की सच्चाई तुम हो

कभी हँसे तुम ग्वाला बन

 

श्रद्धा के तुम पुष्प सुगंधित

पीर यूँ ही सह जाते हो।

प्रेम उमड़ता जब आँखों में

जाने क्या कह जाते हो।।

 

तन्हाई में दीवारों से

क्या – क्या बातें चलती हैं

कभी ईश को करते अर्पण

कभी शाम – सी ढलती हैं

 

तुम हो नदियों जैसे पावन

सागर में मिल जाते हो।

प्रेम उमड़ता जब आँखों में

जाने क्या कह जाते हो।।

 

मीत कभी तो कभी प्रीत हो

यादों के तारे बनकर

सागर – सा तुम बहे निरन्तर

भूली – बिसरी धुन सुनकर

 

शेष बचा क्या, सब है तर्पण

राह नई दिख लाते हो।

प्रेम उमड़ता जब आँखों में

जाने क्या कह जाते हो।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस में नारी आदर्श सीता – भाग – 1 ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस में नारी आदर्श सीता – भाग – 1 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

श्री सीता रामाभ्याम् नम:

“चारों वेद पुरान अष्टदश, छहों शास्त्र सब ग्रन्थन को रस” जिसमें है उस रामचरित मानस के रचियता कवि श्रेष्ठ तुलसीदास की विनम्रता तो देखिए-कहते हैं इस ग्रंथ की रचना उन्होंने केवल स्वान्त:-सुखाय की है। वास्तव में मानस एक ऐसा अनुपम और अद्भुत ग्रंथ है कि इसमें जिसका मानस जितनी गहरी डुबकी लगा सकता है उसे उतने ही रत्न मिल सकते हैं और उन रत्नों में जो आभा है वह बहुरंगी है जो दिनों दिन और उज्ज्वल होती जाती है। यह भक्त शिरोमणि महाकवि तुलसीदास के बस की ही बात है कि उन्होंने अपने अनन्य आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के शील और गुणों का वर्णन करते हुए ऐसी कथा धारा प्रवाहित की है कि जिसमें अवगाहन कर कौये, कोयल और बगुले, हंस बन जाते हैं-

काक होहिं पिक बकहि मराला ऐसा उनने स्वत: कहा है किन्तु अपने लिए कहते हैं कि-

कवि न होऊँ नहि वचन प्रबीनू, सकल कला सब विधाहीनू।

और  

भनिति भदेश, वस्तु भलि वरनी, राम कथा जग मंगल करनी।

इससे ही स्पष्ट है कि राम कथा की रचना-रामचरित मानस की रचना का उद्ïदेश्य लोग-मंगल ही अधिक है, आत्म मंगल कम।

यह तो सच है कि इसकी रचना की प्रेरणा उन्हें उनकी भगवान राम में अनन्त श्रद्धा, भक्ति और विश्वास से उपजी। साथ ही दैवी प्रेरणा से भी। किन्तु रचनाकार को सामायिक सामाजिक परिस्थितियाँ भी अभिव्यक्ति के लिए आधार अवश्य देती हंै और उनसे प्रभावित कवि हृदय अपनी भावनाओं को अभिव्यक्ति देता है।

जिस समय तुलसी दास जी थे भारत वर्ष में विधर्मियों का राज्य था। सीमित धनी सामंत वर्ग वैभव विलास में मस्त एक बड़े निर्धन वर्ग का शोषण कर रहा था। हिन्दु समाज उनसे त्रस्त था, बेसहारा था, दुखी था। तुलसीदास जी ने स्वत: गरीबी और उपेक्षा का दुख भोगा था तरह तरह के ‘दैहिक दैविक भौतिक ताप’ से पीडि़त समाज को एक ऐसी शक्ति और संबल की जरूरत थी जिससे दुखी जीवन को निराशा के अंधकार में आशा के प्रकाश की किरण मिल सके। अत: निर्गुण निराकार ब्रह्मï की उपासना की अपेक्षा उन्हें साकार, सबल, सरलहृदय, दुष्टों का दलन करने वाले, दीन-हीनों को प्रेम से गले लगाने वाले धुनर्धारी भगवान राम की भक्ति, जो सहज ही अधिक आकर्षक और आनंददायी है, को प्रतिपादित की, और भक्तवत्सल राम की मर्यादा,  पुरुषोत्तम के रूप में प्रतिष्ठित प्रतिमा को जनमन में बैठा ‘निर्बल के बल राम’ का गुणगान किया, समाज को ढाढ़स बँधाया और आदर्श प्रस्तुत किया जो कालजयी है। और आज भी अनुकरणीय है और भविष्य में भी मानवता का पथप्रदर्शक बना रहेगा।

सिया-राम मय सब जग जानी करऊँ प्रणाम जोरि जुग पाणीÓ कहकर उन्होंने कण कण में घट घट में जगत्जननी सीता सहित भगवान श्री राम का निवास प्रतिपादित कर भगवान की भक्ति को ‘कलि मल हरनीÓ ‘संसय विहग उड़ावनहारीÓ सब भाँति हितकारी और एकमेव आश्रयस्थल प्रतिपादित किया है।

कहा है-

‘एक भरोसों एक बल एक आस विश्वास

श्याम सरोरुह राम घन चातक तुलसी दास’

इस पृष्ठ भूमि में यदि हम देखें तो मर्यादा पुरुषोत्तम राम और जगत्जननी सीता के जीवन के माध्यम से जो आदर्श मानस में प्रस्तुत किये गये हैं वे मनमोहक, अजर अमर और युग युग जनहितकारी व कल्याणकारी हैं। वे 4-5 सौ वर्षों पूर्व के तत्कालीन समाज के लिये जितने अनुकरणीय थे, आज भी हैं, और शायद आज के तीव्र गति से पाश्चात्य विचार धारा से प्रभावित, परिवर्तन शील समाज में, जब हर क्षेत्र में अपने को मॉडर्न प्रदर्शित करने की लडक़े-लड़कियों में होड़ सी लगी है और भी अधिक प्रासंगिक और आवश्यक है। हमारी भारतीय संस्कृति को और इसकी मर्यादाओं को बनाये रखने में जिसकी प्रशंसा हमसे शायद अधिक विदेशी करते हैं और भौतिकता से ऊबकर आध्यात्मिकता की ओर आशाभरी दृष्टि से जोहते हैं।

भारतीय दर्शन में अद्र्ध नारीश्वर की अवधारणा है। व्यक्तित्व की पूर्णता पति-पत्नी की एकरूपता और समरसता में है और यही  दृष्टि गृहस्थ जीवन की कुशलता, सफलता और आनन्द के लिए आवश्यक है। नर और नारी एक दूसरे के लिए समर्पित हों तो सुख ही सुख है। इसलिए भारतीय मान्यता पत्नी को अद्र्धागिनी, सहधर्मिणी, गृहस्वामिनी का दर्जा देता है। पाश्चात्य मान्यता में इससे बहुत भिन्न है वे शायद अधिक से अधिक सहचरी व पर्यंंकï शायिनी मानते हैं। यदि नारी को पति की समर्पित अद्र्धागिनी, गृहस्वामिनी के रूप में प्रतिष्ठित होना है तो उसके लिए बचपन से उसकी वैसी ही ट्रेनिंग और तैयारी की जानी चाहिए तो उसका कोई आदर्श तो होना चाहिए। मानस में वह आदर्श सीता के जीवन चरित्र में मिलता है।

क्रमशः …

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 30 ☆ गीत – नीर युद्ध हो जायेगा…… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज विश्व पर्यावरण दिवस पर प्रस्तुत है एक विचारणीय गीत  नीर युद्ध हो जायेगा… ”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 30 ✒️

? गीत – नीर युद्ध हो जायेगा… — डॉ. सलमा जमाल ?

हे मानव तुम अब भी सम्भलो ,

नष्ट करो ना जल को ।

बिन पानी धरती जब सूखे ,

याद करो उस पल को ।।

 

बनके पपीहा भटकोगे तुम ,

पीहू पीहू बोलोगे ,

बून्द – बूंद को सब तरसेंगे ,

वन – वन में डोलोगे ,

बार-बार खोलकर देखोगे ,

सूखे हुए नल को ।

हे मानव ————————- ।।

 

जल का आदर करना सीखो ,

यह दुनिया में अनमोल ,

दूर नहीं वह दिन जब पानी ,

पाओगे तौल – तौल ,

जल समस्या में अपनाओ ,

तुम  संरक्षण के हल को ।

हे मानव ————————- ।।

 

 पानी गर हो गया ख़त्म तो ,

नीर युद्ध हो जाएगा ,

लहू – लुहान होगा मानव ,

सब अशुद्ध हो जाएगा ,  

‘ सलमा ‘अभी समय है चेतो ,

क्या होगा फिर कल को ।

हे मानव ————————- ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 37 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 37 – मनोज के दोहे

यश-अपयश की डोर है, हर मानव के हाथ।

जितना उसे सहेजता, प्रतिफल मिलता साथ।।

 

जीवन कैसा जी रहे, मिलकर करो विचार

लोक और परलोक में, मिलें पुष्प के हार।।

 

हमसे अच्छा कौन है, करो न यह अभिमान

कूएँ का मेंढक सदा, रखे यही बस शान।।

 

सच्चा साथी मन बने, समझो नहीं अनाथ।

निर्भय होकर तुम बढ़ो, हरदम मिलता साथ।।

 

चलो समय के साथ में, समय बड़ा अनमोल।

गुजरा समय न लौटता, ज्ञानी जन के बोल।।

 

राह चुने अच्छी सदा,  जीवन में है भोर।

गलत राह में जब बढ़े, तम का बढ़ता शोर ।।

 

दिखे जगत में बहुत हैं, भाँति-भाँति के लोग।

तृप्त पेट को ही भरें, मिलता मोहन-भोग।।

 

अकड़ दिखाते जो बहुत, पागल हैं वे लोग।

विनम्र भाव से जो जिएँ, घेरे कभी न रोग।।

 

चलो आपके साथ हैं, कदम बढा़ते साथ।

सच्चा रिश्ता है वही, थामे सुख दुख हाथ।।

 

मन-मंदिर में राम हों, रक्षक तब हनुमान।

सीता रूपी शांति से, सुखद-सुयश धनवान।।

 

रामराज्य का आसरा, राजनीति की डोर।

देख पतंगें गगन में, पकड़ न पाते छोर।।

 

अनुभव कहता है यही, दुख में जो दे साथ।

रिश्ता सच्चा है वही, कभी न छोड़ें हाथ।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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