हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 17 (71-75)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #17 (71 – 75) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -17

 

चंद्र उदधि दोनों ही बढ़ हो जाते फिर क्षीण।

पर दोनों से बढ़ अतिथि, रहा सदैव नवीन।।71।।

 

सागरपोषित मेघ ज्यों देता है जल दान।

त्यों याचक दाता बने पा उससे वरदान।।72।।

 

स्तुत्य अतिथि सुन प्रशंसा होता था हियमान।

किन्तु सदा बढ़ता गया उसका यश औं मान।।73।।

 

दर्शन से कर नष्ट अघ, तत्व से कर तम नाश।

उदित सूर्य के गुणों का दिया प्रजा को भास।।74।।

 

चंद्र-किरण से कमल न, रवि से कुमुद विकास।

किन्तु अतिथि के गुणों ने किया शत्रु मन वास।।75।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 88 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 88 –  दोहे ✍

प्रश्न प्रेम का जब उठे, उग जाता संदेह।

अशरीरी यदि प्रेम तो, किस मतलब की देह।।

 

परिभाषा दें प्रेम की, किसकी है औकात।

 कभी मरुस्थल सा लगे कभी चांदनी रात।।

 

मन में प्रतिक्षण उमड़ते, इतने इतने भाव।

एक लहर पर दूसरी रचती नए रचाओ।।

 

प्रेम तत्व गहरा गहन, जिसका आर न पार।

शब्दों से भी है परे, अर्थों का विस्तार।।

 

परिभाषा क्या प्रेम की, सभी हुए असमर्थ ।

प्रेम प्रेम है प्रेम का यही हुआ बस अर्थ।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 33 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 33 – मनोज के दोहे

(चैत, उपवास, प्रतीक्षा, मनमीत)

चैत शुक्ल नवमी दिवस, जन्मे थे श्री राम।

नगर अयोध्या था सजा, बना देव का धाम।।

 

चैत्र माह प्रतिपदा को, नौ दिन का उपवास

मातृ-शक्ति का दिवस यह,भक्ति भाव है खास।।

 

सुखद प्रतीक्षा है अभी, बने हमारे काज।

नित विकास के पथ गढ़ें, रहे राम का राज।।

 

मन के जो नजदीक हैं, बन जाते मनमीत

दिल में जब वे आ बसें, मनभावन हैं गीत।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ब्लैक होल ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – ब्लैक होल  ??

कैसे ज़ब्त कर लेते हो

इतने दुख, इतने विषाद

अपने भीतर..?

विज्ञान कहता है-

पदार्थ का विस्थापन

अधिक से कम,

सघन से विरल

की ओर होता है,

ज़माने का दुख

आता है, समा जाता है,

मेरा भीतर इसका

अभ्यस्त हो चला है,

सारा रिक्त शनैः-शनैः

ब्लैक होल हो चला है!

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 124 – कविता – अमृतवाणी… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श एवं परिस्थिति जन्य कथानक पर आधारित एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना   “अमृतवाणी…”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 124 ☆

☆ कविता – 🌹 अमृतवाणी…🌹 

जीवन ज्योति जड़ चेतन,

पावन निर्मल अग्नि अगन।

गीता वेद पुराण कहे,

मनुज सुने होकर मगन।

 

हर युग में नारी की शक्ति,

पल पल नियती उसकी भक्ति।

सारे भूमंडल पर महिमा,

माँ हो कर पाए मुक्ति।

 

प्राणी की है अनुपम काया,

बंधा हुआ जीवन माया।

प्रेम दया करुणा ममता,

इससे होती सुंदर छाया।

 

युगों युगों की बात का,

रखते सभी है ध्यान।

माता पिता गुरु सेवा से,

सब होते हैं महान।

 

बिटिया जन्म है अनमोल,

नहीं है इसका कोई तोल।

पाकर इनको नमन करें,

बोलती मीठे मीठे बोल।

 

बेटा है अनमोल रतन,

पाकर खिलता अपना चमन।

वंश वृद्धि ये बेल बढ़ाए,

सुख कर होता है जीवन।

 

नर्मदा का पावन जल,

बहता निर्मल कल कल कल ।

सद कर्मों की पुण्य दायिनी,

पुण्य सलिला है अविरल।

 

चिड़ियों का चहचहाना,

जड़ चेतन को रोज जगाना।

भूले भटके को राह दिखाना,

अपनों में हैं मिलकर रहना।

 

प्रेम भक्ति से जो कोई,

करता हरि का ध्यान।

पाप मिटे संकट कटे,

मनचाहे पाए वरदान।

 

श्रद्धा सुमिरन से प्रभु,

करती हूं आराधना ।

पूरी करना आप सभी,

साँसों की हर साधना।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 17 (66-70)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #17 (66 – 70) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -17

 

रक्षित पृथ्वी ने दिया राजा को प्रतिदान।

खानों से मणि, वन से गज, खेतों से धन-धान्य।।66।।

 

छहों गुणों औं बलों का कार्तिकेय सा वीर।

कर उपयोग सही सही, बना सका तकदीर।।67।।

 

साम-दाम-दंड-भेद का कर प्रयोग निर्भार।

प्राप्त किये फल तीर्थ के करके पुण्य-प्रसार।।68।।

 

कूट युद्ध विधि जान भी, धर्म युद्ध कर आप्त।

मनचाही नायिका सी की विजय लक्ष्मी प्राप्त।।69।।

 

मद-जल-वाही गज के मद की ज्यों पाकर गंध।

सभी राज भयभीत हो युद्ध कर दिये बंद।।70।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 91 – “भूखा ही सोया भविष्य …” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – भूखा ही सोया भविष्य…”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 91 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “भूखा ही सोया भविष्य”|| ☆

टपरे में था बचा आज को

एक पाव आटा

बाकी बरतन में पसरा था

केवल सन्नाटा

 

फूंक-फूंक हारा बेचारा

सुरसति का दूल्हा

सुलग नहीं पाया बेशर्मी

से गीला चूल्हा

 

गीली लकडी कठिन

परीक्षा होती निर्धन की

जहाँ शुरु होता दुर्दिन

का अन्तहीन घाटा

 

रोटी माँग -माँग कर सोया

अभी-अभी बच्चा

उसके जीवन का अनुभव

बस भूख रही सच्चा

 

अपनी माँ को राहत देदी

बच्चे ने सो कर

भूखा ही सोया भविष्य

का सम्भावित टाटा

 

सोचे बाप उछाह भरा

बेटे के बारे में

यह प्रकाश भर देगा

जीवन के अँधियारे में

 

खुश होऊँगा बैठक में

यों ही बैठा-बैठा

भरा करेगा बेटा जब

गाड़ी  में फर्राटा

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

10-05-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चिरंजीव ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – चिरंजीव ??

अदल-बदल कर

समय ने किए

कई प्रयोग, पर

निष्कर्ष वही रहा,

धन, रूप, शक्ति,

जुगाड़ सब खेत हुए,

हर काल में किंतु

ज्ञान चिरंजीव रहा..!

☆☆☆☆☆

सबसे अंधेरी रात अज्ञानता है …भगवान बुद्ध।

तमसो मा ज्योतिर्गमय…!

वैशाख पूर्णिमा/ बुद्धपूर्णिमा की मंगलकामनाएँ।

☆☆☆☆☆

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 81 ☆ # उसका दुःख # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं भावप्रवण कविता “# उसका दुःख #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 81 ☆

☆ # उसका दुःख # ☆ 

वो जब जीवन में

पहली बार मिली

गले लगी

कांधे पर सर रखकर

सुबक रही थी

मैंने सहलाया

बालों पर हाथ फेरा

आंसू पोंछे

अधरों का बोसा लिया

और पूछा-

क्या हुआ ?

वो आँखें चुराते हुए

चुप रही

मुझसे अलग हुई

और

किचन में चली गई

इतने वर्षों बाद भी

कभी कभी

वो उदास सी

मेरे कांधे पर सर रखकर

धीरे धीरे सुबकती है

मैं उसे सहलाता हूँ

गले लगाता हूँ

आँसू पोंछता हूँ

पीठ थपथपाता हूँ

ढाढस बंधाता हूँ

और

पूछता हूँ –

कहो – क्या हुआ ?

वो चुप रहती है

बस इतना कहती है

कुछ नहीं

मैं उसका मन

पहले

और आज भी

समझ नहीं पाया हूँ

 

शायद उसे पहले

माँ-बाप,

भाई-बहन से

बिछड़ने का गम था

और आज

सभी बच्चे

अपने अपने संसार में

सिमट गये,

वो फिर अकेली रह गई

मेरे साथ रहते हुए भी…?

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 17 (61-65)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #17 (61 – 65) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -17

 

छुपा स्वतः की निर्बलता किया शत्रु पर बार।

नष्ट किया अनुचितों को, रख खुद शुभ व्यापार।।61।।

 

कुश संवर्धित सैन्य बल को देते सम्मान।

पाला उस बल को सदा, निज की देह समान।।62।।

 

नागमणि सम शक्ति नय हर न सके अरि कोई।

बल्कि उसी ने खींच ली चुम्बक सी सब गोई।।63।।

 

नदियों में वापी सदृश, वन में बाग समान।

पर्वत पै घर के सदृश, साथ थे निडर महान।।64।।

 

तप की रक्षा विध्न से, तस्कर से धन-धान्य।

कर उसने पाया स्वतः आश्रम से भी षटांश।।65।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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