हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – विश्व पुस्तक दिवस विशेष – अपार ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – विश्व पुस्तक दिवस विशेष – अपार ??

केवल देह नहीं होता मनुष्य,

केवल शब्द नहीं होती कविता,

असार में निहित होता है सार,

शब्दों के पार होता है एक संसार,

सार को जानने का

साधन मात्र होती है देह,

उस संसार तक पहुँचने का

संसाधन भर होते हैं शब्द,

सार को, सहेजे रखना मित्रो!

अपार तक पहुँचते रहना मित्रो!

💐 मुद्रित शब्दों का ब्रह्मांड होती हैं पुस्तकें। शब्दों से जुड़े रहें, पुस्तकें पढ़ते रहें। विश्व पुस्तक दिवस की शुभकामनाएँ 💐

© संजय भारद्वाज

(प्रात: 9.07 बजे, 23.4.2020)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा#77 ☆ गजल – ’’खतरों भरी है सड़के…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “खतरों भरी है सड़के…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 77 ☆ गजल – खतरों भरी है सड़के…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

हमें दर्द दे वो जीते, हम प्यार करके हारे,

जिन्हें हमने अपना माना, वे न हो सके हमारे।

 

ये भी खूब जिन्दगी का कैसा अजब सफर है,

खतरों भरी है सड़के, काटों भरे किनारें।।

 

है राह एक सबकी मंजिल अलग-अलग है,

इससे भी हर नजर में हैं जुदा-जुदा नजारे।

 

बातें बहुत होती हैं, सफरों में सहारों की

चलता है पर सड़क में हर एक बेसहारे।

 

कोई किसी का सच्चा साथी यहाँ कहाँ है ?

हर एक जी रहा है इस जग में मन को मारे।

 

चंदा का रूप सबको अक्सर बहुत लुभाता,

पर कोई कुछ न पाता दिखते जहां सितारे।

 

देखा नहीं किसी ने सूरज सदा चमकते

हर दिन के आगे पीछे हैं साँझ औ’ सकारे।

 

सुनते हैं प्यार की भी देते हैं कई दुहाई।

थोड़े हैं किंतु ऐसे होते जो सबके प्यारे।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 16 (31-35)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #16 (31 – 35) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -16

 

पथ खोजने सैन्य विन्ध्यावनों में बँट गई अनेकों समूहों में खुद ही।

करते महानाद देखा सरीखी गुफाओं को गुंजित किया सघन वन की।।31।।

 

चल धातुरागों पै रथ-चक्र रंजित हय-गय निनादों में ध्वनि वाद्य मिश्रित।

प्रभु कुश किरातों से उपहार पूजित, बढ़े विन्ध्य वन-भाग को कर विमर्दित।।32।।

 

करते हुए पार रेवा को विन्ध्या में जो प्रतीची वाहिनी गंगा है ख्यात।

गज सेतु पर सुशोभित कुश को झलते, नभ में बहुत शुभ्र चँवर से हुये ज्ञात।।33।।

 

कपिल-क्रोध-शापित स्वपुरखों के भस्मावशेषों की जिस जल ने तारा था उनको।

नौकाओं से क्षुब्ध गंगा-सलिल को कुश ने नमन किया अतिभाव भय हो।।34।।

 

कर पार पथ, पहुँच कुश सरयू तट जहाँ रघुकुल नृपों ने किये यज्ञ भारी।

लखे यज्ञ-स्तम्भ औं वेदिकायें जो थी सैकड़ों में परम मनोहारी।।35।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – विश्व पृथ्वी दिवस विशेष – हरी भरी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – विश्व पृथ्वी दिवस विशेष – हरी-भरी ??

मैं निरंतर रोपता रहा पौधे

उगाता रहा बीज उनके लिए,

वे चुपचाप, दबे पाँव

चुराते रहे मुझसे मेरी धरती..,

भूल गए वे, पौधा केवल

मिट्टी के बूते नहीं पनपता,

उसे चाहिए-

हवा, पानी, रोशनी, खाद

और ढेर सारी ममता भी,

अब बंजर मिट्टी और

जड़, पत्तों के कंकाल लिए,

हाथ पर हाथ धरे

बैठे हैं सारे शेखचिल्ली,

आशा से मुझे तकते हैं,

मुझ बावरे में जाने क्यों

उपजती नहीं

प्रतिशोध की भावना,

मैं फिर जुटाता हूँ

तोला भर धूप,

अंजुरी भर पानी,

थोड़ी- सी खाद

और उगते अंकुरों को

पिता बन निहारता हूँ,

हरे शृंगार से

सजती-धजती है,

सच कहूँ, धरती ;

प्रसूता ही अच्छी लगती है!

 * विश्व पृथ्वी दिवस की शुभकामनाएँ *

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 118 ☆ बृज में उड़ती खूब गुलाल… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना “बृज में उड़ती खूब गुलाल…। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 118 ☆

☆ बृज में उड़ती खूब गुलाल… 

ग्वाल-बाल सब मिलि खें पूछें, कितै छुपो नन्दलाल

लट्ठ प्रेम के बरसाने में, करवें खूब कमाल

गोरी राधा भई सांवरी, चकित भये गोपाल

खूब उड़ो आकाश में केसर, तन मन हो ग्यो लाल

सुध-बुध भूल सखी सब नाचें, रखो न कोई ख्याल

नाचे अब “संतोष” प्रभु संग, कर खें खूब धमाल

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 16 (26-30)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #16 (26 – 30) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -16

यात्रा अवधि में वही राजधानी थी, ध्वज पंक्ति दिखती थी जैसे हो उपवन।

गजराज पर्वत सदृश शोभते थे, सजे रथ ही जिसके थे सुन्दर भवन धन।।26।।

 

ज्यों चन्द्र का बिम्ब लख मुदित सागर उसकी तरफ होता उन्मुख सुशोभित।

त्यों कुश विमल छत्रधारी के संग सैन्यदल हुआ साकेत की ओर प्रस्थित।।27।।

 

प्रस्थित उमड़ती हुई वाहिनी के महाभार को सह न पाई धरित्री।

बन धूलि उड़ने लगी स्वयं नभ में बचते तड़प से बनी विष्णु की प्रिय।।28।।

 

पीछे कुशावती से बढ़ती अयोध्या, जहाँ भी रूकी मार्ग में कुश की सेना।

अगणित अपरिमित दिखी सबको चलती हुई राजपथ पर वह राज सेना।।29।।

 

मदजल से सिंचकर विकट हाथियों के मन-धूल कीचड़ गई राजपथ की।

औं अश्वखुर से विमर्दित हुआ कींच फिर धूल सी बन गई राजपथ की।।30।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कविता – बारिश ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – कविता – बारिश ??

देखी तो होगी

तुमने बारिश,

सारा गर्द

झाड़-पोंछकर

प्रकृति का

मूल शृंगार लौटाती;

उसे फिर हरा बनाती,

बस कुछ इसी तरह है

आँख का पानी

और उसका बरसना..,

सारा गर्द धोकर

फिर भर देता है

पुतलियों में अनंत स्वप्न,

सपने देखने की अभीप्सा,

यथार्थ कर सकने की

अदम्य जिजीविषा..!

© संजय भारद्वाज

 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 106 ☆ कविता – पांचाली का चीर ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं भावप्रवण कविता  “पांचाली का चीर”.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 106 ☆

☆ पांचाली का चीर ☆ 

कीटों जैसा दंश मारता

कभी मनुज अलबेला।

करता तांडव नृत्य जगत यह

अद्भुत न्यारा मेला।।

 

मर रही है कामना सब भोगने की।

प्रार्थनाएं भी विफल हैं रोकने की।

फागुनी मधुमास भी फीका लगे है,

श्वान को आदत पड़ी है, भौंकने की।

 

पांचाली का चीर खींचती

नित्य अमंगल बेला।।

 

प्रार्थना भी शक्तिहीना हो गई अब।

मर रहीं संवेदनाएँ नित नई अब।

कामनाओं से हताहत जिंदगी है,

प्रेम की भी वर्जनाएँ हैं कई अब।

 

मार्ग रोकता है अर्जुन का,

दुर्योधन का रेला।।

 

अब हवाएँ थक रहीं दूषित कणों से।

पक्षपाती है सभा पूजित गणों से।

विदुर भी अब क्या करें, भगवत शरण में,

भीष्म भी धृतराष्ट्र के मरते फनों से।

 

शुक्राचार्य गुरू के भी सब,

खल कुमार्गी चेला।।

 

अस्मिता बचती रही ईश्वर शरण में।

अंतसी विश्वास है ,सेवा वरण में।

मैं युधिष्ठिर धर्म की हूँ सोचता,

मृत्यु का स्वागत करूँ,हर ही क्षण में।

 

मैं अकिंचन जीव मानव ,

भीड़ में  चलता अकेला।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 16 (21-25)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #16 (21 – 25) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -16

 

अब देख सरयू के तट और जल को, जहाँ स्नान सुविधा औं पूजा नहीं है।

वानीर कुंजों से घिर गये उन्हें देख मन दुखता है, अच्छा लगता नहीं है।।21।।

 

अतः छोड़ तुम अब कुशावती नगरी को, स्वकुल-राजधानी अयोध्या में आओ।

ज्यों तव पिता राम, तज मानवी देह, परम तत्व में मिल हुए एक भाव।।22।।

 

सुन प्रार्थना उस नगर देवता की कहा कुश ने-हे देवि ऐसा ही होगा।

सुन देवी उत्तर हुई लुप्त चुपचाप, खुशी हो के अपनी तजी रूप-आभा।।23।।

 

प्रातः सभा में कहा कुश ने वृत्तांत निशि का सभी सभासद ब्राम्हणों से।

जिनने समझ-राजधानी ने कुश का वरण कर लिया है दिया आशीष मन से।।24।।

 

कर वेदपाठी? द्विजों के हवाले, कुश रानियों सहित निकले अयोध्या।

पीछे थी सेना कि ज्यों मेघमाला के चलता है पीछे बवण्डर पवन का।।25।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#128 ☆ कविता – जैसे हैं हम, दिखते कब हैं… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता “जैसे हैं हम, दिखते कब हैं…”)

☆  तन्मय साहित्य  #128 ☆

☆ कविता –  जैसे हैं हम, दिखते कब हैं… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

हम अपने को, लिखते कब हैं

जैसे हैं हम, दिखते कब हैं!

 

जो मन आया लिखा पराया

तुम्हें पसन्द, गीत वह गाया

रचा वही, जिससे मतलब है

जैसे हैं हम…..

 

आदर्शो की, बातें कर ली

ढेर पोथियाँ, हमनें भर ली

विविध विधा,अद्भुत करतब है

जैसे हैं हम…..

 

जिससे कलम पकड़ना सीखा

अब अपने सम्मुख वह फीका

ज्ञान स्वयं का, बहुत विशद है

जैसे हैं हम…..

 

भाव-भंगिमाओं, अभिनय में

स्वमुख उच्चरित निज परिचय में

सबसे ऊँचा, अपना कद है

जैसे हैं हम…..

 

जलसों में, हाजरी जरूरी

रखते सब से, निश्चित दूरी

हर संस्था में, अपने पद हैं

जैसे हैं हम, दिखते कब हैं

हम अपने को लिखते कब हैं।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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