हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 101 ☆ दुनिया को तुम क्या नया  दोगे…. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  एवं विचारणीय रचना  “दुनिया को तुम क्या नया  दोगे…. । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 101 ☆

☆ दुनिया को तुम क्या नया  दोगे….

वहशी, नफरत, हवस, नशा दोगे

अपनी नस्लों को और क्या दोगे

 

मुहब्बतें रात भर सिसकती रहीं

वफ़ा का क्या यही सिला  दोगे

 

हाथ मसीहों के लिप्त हैं नशे में

तुम समाज को क्या  दिशा दोगे

 

दौलत की रंग-ए-महफ़िल यहाँ

क्या    नशे  में डूबे   युवा   दोगे

 

खुद को भूले  नशे की झोंक में

दुनिया को तुम क्या नया  दोगे

 

कौन   लाएगा   इन्हें  होश  में

“संतोष” लत की क्या दवा दोगे

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 9 (71-75)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #9 (71-75) ॥ ☆

सबेरे नगाड़ो की ध्वनि करते गज के वृहतकर्णतालों से जागे नृपति ने

मधुर पक्षी – चारण के कलरव के संगीत के श्रवण का लाभ पा भूपति ने॥ 71॥

 

फिर किसी रूरू मृग का अनुसरण करते, अनुचर अलक्षित महाराज दशरथ

थके फेन भरते हुये अश्व द्वारा गये पतसि-स्नाता तमसा नदी तट ॥ 72॥

 

तमसा में जलघट के भरने की आवाज सुन उसने हाथी की चिंघाड माना

राजा ने इससे ही श्शब्दानुसारी वहाँ बाण छोड़ा कठिन समझ जाना ॥ 73॥

 

‘मृगया में गजवध है वर्जित नृपति को ‘ – इस श्शास्त्र आज्ञा का करने उल्लधन

अनुचित किया – पर रजोगुणाच्छादित मना किये पथ पर भी करते पदार्पण॥ 74।

 

‘हा ! तात ‘ – यह दुखभरी सुन के वाणी, दौड़े गये, देखा मुनि सुत को आहत

राजा थे फिर भी गहन दुखहुआ, लगा जैसे कि शर से हुआ हृदय में क्षत॥ 75॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संकल्प ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

?संजय दृष्टि –  संकल्प ??

कैद कर लिए मैंने

विकास की यात्रा के

बहुत से दृश्य

अपनी आँख में,

अब इनसे टपकेगा पानी

केवल उन्हीं बीजों पर

जो उगा सकें

हरे पौधे और हरी घास,

अपनी आँख को

फिर किसी विनाश का

साक्षी नहीं बना सकता मैं!

 

©  संजय भारद्वाज

13 जून 2016, सुबह 10.23 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 134 ☆ कविता – संतुलन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक भावप्रवण कविता  ‘संतुलन’ । इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 134 ☆

? कविता – संतुलन ?

*

संतुलन ही तो है

जीवन

समय के पहिये पर

भागम भाग के कांटे

जरा चूक हुई

और गिरे

*

पार करना है

अकेले

जन्म और जीवन की पूर्णता

के बीच बंधी रस्सी

अपने कौशल से

*

जो इस सफर को

मुस्कुरा कर

बुद्धिमत्ता से पूरा कर लेते हैं

उनके लिए

तालियां बजाती है दुनिया

उनकी मिसाल दी जाती है

और

जो बीच सफर में

लुढ़क जाते हैं

असफल

वे भुला दिए जाते हैं जल्दी ही ।

*

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 9 (66-70)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #9 (61-65) ॥ ☆

चमरमृगों को घेरे घोड़ो से, भाले से करवार उन पै दशरथ  नृपति ने

राजाओं सम चमरधरी मृगों की किया श्वेत बालों रहित भूपति ने ॥ 66॥

 

निकट अश्व उड़ते सुघर पूँछवाले, मयूरों को उसने श्शरों से न मारा

उन्हे देश क्योंकि प्रिया के खुले केश माला सजों का था मिलता इशारा ॥ 67॥

 

मुगया के श्रम से उभर आये प्रश्वेद को श्शीत उस वायु ने था सुखाया

जो शीत जलकण मिली नये पल्लव को कर प्रस्फुटित बढ़ाती सुखद छाया॥ 68।

 

इस भाँति अपने सकल कार्य का भार दे मंत्रियों को, वे आ वन में राजा

चतुर कामिनी मृगया में खो गया, था सतत राज्य-सेवा में जो था समाया। 69।

 

सुदंर सुखद पुष्प-किसलय की श्शैय्या पै प्रकाशित महोषधि से दीपक की नाई

रजनी त्रियामा बिना सेवकों के अकेले विजन में ही उसने बिताई ॥ 70॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #112 – कविता – अजनबी हैं…☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं एक अतिसुन्दर विचारणीय कविता  “अजनबी हैं…”)

☆  तन्मय साहित्य  #112 ☆

☆ कविता – अजनबी हैं…

अजनबी हैं, अपरिचय

बस एक यह पहचान है

बिन पते की मेढ़ पर

तैनात सजग मचान है।

 

गुलेलों से कंकड़ों के

वार फसलों पर

दिग्भ्रमित  पंछी

पड़ी है गाज नस्लों पर

देखता  हूँ  मंसूबे

अच्छे नहीं उनके

कर रहे तकरार वे

बेकार  मसलों पर

कलम की पैनी नजर का

इन सभी पर ध्यान है।

अजनबी हैं….

 

इन मचानों पर

उमड़ती घुमड़ती छाया

चार खंबों  पर 

टिकी है जर्जरी  काया

डगमगाने  भी  लगे हैं 

स्तंभ  अब  चारों

गीत फिर भी अमरता

का ही सदा गाया

हुआ तब वैराग्य जब

देखा कभी शमशान है।

अजनबी हैं……

 

है नहीं खिड़की

न दरवाजे, न दीवारें

विमल मन आकाश

हँसते चाँद औ’ तारे

बंद कर ताले,

हिफाजत चाबियों की फिर

ये  अजूबे  खेल  लगते

व्यर्थ  अब  सारे

बोझ अब लगने लगे

रंगीन नव परिधान है।

अजनबी हैं……

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 5 – आज मुझे वर दे — ☆ डॉ. सलमा जमाल

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है। 

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण गीत “आज मुझे वर दे –” 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 5 ✒️

? गीत – आज मुझे वर दे —  डॉ. सलमा जमाल ?

(वन्दना)

आज मुझे वर दे माता ,

आज मुझे वर दे ।

द्वार तुम्हारे आई हूं ,

खाली झोली भर दे ।।

 

आशाओं के दीप जलें ,

चेहरे सबके दमकें ,

सारे दुख अवसाद मिटें ,

भाग्य सभी के चमकें ,

भक्त गण हैं आस लगाए ,

उनके पाप दूर कर दे ।

आज मुझे ——————- ।।

 

शस्य – श्यामला धरती पर ,

क्यों सूखे की मार ,

राम – रहीम की भूमि पर ,

क्यों है अत्याचार ,

खेतों में कंचन बरसा ,

कृषक दरिद्रता हर ले ।

आज मुझे ——————–।।

 

नारी की रक्षा कर देवी ,

अस्मत आके बचा ले ,

हम अबला – सबला होवें ,

ऐसा व्यूह रचा ले ,

ज्ञान की वर्षा कर ऐसी ,

हृदय तिजोरी भर दे ।

आज मुझे ——————–।।

 

वंदना के शब्द नहीं हैं ,

संपूर्ण हृदय की भावना ,

वसुदेव कुटुंबकम हो सुखी ,

है यही हमारी कामना ,

जन्म सफल हो सलमा का ,

कलम अमर कर दे ।

आज मुझे ——————–।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 9 (61-65)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #9 (61-65) ॥ ☆

वन भैंसे को मारे गये तीक्ष्ण शर ने बिना रक्तरंजित हुये पार जाकर

नयन छेद उसके तुरंत मार डाला गिरा दूर फिर पहले उसको गिराकर ॥ 61॥

 

क्षुरप वाणों से उसने गैंड़ो के सींगो को अधिकांश छाँटा औं हल्का बनाया

दुष्टों को अनुशासित रखने राजा ने हर अस्त्र ही आयु उसकी बचाया ॥ 62॥

 

उस निडर दशरथ धनुर्धर ने सर्ज केसे उत्फुक्त आयालमय सिंह मुख को

अति निपुणता से प्रखर बाणों से भरदिया ज्योंहि उनने था छोड़ा गुफा को॥ 63॥

 

लता गुल्म में छिपे सिंहों को आखेट हित धनुष टंकार से किया विक्षुब्ध

अपने पराक्रम से ‘ मृगराज’ कहलाने से ‘राज’ के अर्थ से शायद हो क्रद्ध॥ 64।

 

गजझुण्डों से बैर कर छीनते मुक्ता जो सिंह नाखूनों से उन्हे पाकर

उन सिंहो को मार दशरथ हुये मुक्त गजों से समर में विजय ऋण चुकाकर॥ 65।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 12 – दिल सभी का नेक था… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है सजल “दिल सभी का नेक था… । अब आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 12 – दिल सभी का नेक था…  ☆ 

समांत-ईत

पदांत- की

मात्राभार- 19

 

याद आती है कभी मनमीत की।

बादलों से तरबतर संगीत की ।।

 

थे क्वाँरे स्वप्न तब मधुमास के,

डोर में जब बंँध गए थे प्रीत की।

 

भौंरों का गुँजन है मन को भा गया,

पंक्तियांँ तब बन गई थीं गीत की।

 

प्रेम का वह दौर है बढ़ता गया,

लहर आई थी अचानक शीत की।

 

अजनबी से चल दिए मुख मोड़कर, 

होती थी यह पटकथा अतीत की।

 

दिल सभी का नेक था, ईमान था,

राह पकड़े थे सदा नवनीत की।

 

उमर की जब झुर्रियां हैं बढ़ गईं,

जिंदगी को गर्व है अब जीत की।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

14 जून 2021

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकाकार ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

?संजय दृष्टि – एकाकार  ??

बार-बार इशारा कर

वह बुलाती रही,

देख समझ कर भी

वह अनदेखी करता रहा,

एक-दूसरे के प्रति

असीम आकर्षण,

एक-दूसरे के प्रति

अबूझ भय,

धूप-छाँह सी

उनकी प्रीत,

अंधेरे-उजाले सी

उनकी रिपुआई,

वे टालते हैं मिलना

प्राय: सर्वदा

पर जितना टला

मिलन उतना अटल हुआ,

जब भी मिले

एकाकार अस्तित्व चुना,

चैतन्य, पार्थिव जो भी रहा;

रहा अद्वैत सदा,

चाहे कितने उदाहरण

दे जग प्रेम-तपस्या के,

जीवन और मृत्यु का नेह

किसीने कब समझा भला!

 

©  संजय भारद्वाज

(21 जनवरी 2017, प्रात: 6:35 बजे)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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