हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – तट ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – तट ??

भीतर तूफान के थपेड़े,

बाहर सैलानियों के फेरे..,

आशंका-संभावना में

समन्वय साधे रखता है,

कितने अंतर्विरोधों को

ये तट थामे रखता है..!

©  संजय भारद्वाज

(प्रातः 7:58, 17.5.19)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 55 ☆ गजल ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  “गजल”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 55 ☆ गजल ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध ☆

ईमानदारी औरों को सिखला रहे हैं लोग

पर जब जहाँ मौका मिला, खुद खा रहे हैं लोग।

 

छोटों की बात क्या करें, नेता जो बड़े हैं

बेखौफ करोड़ों उड़ाये जा रहे हैं लोग।

 

अब नीति-न्याय-धर्म की बातें फिजूल हैं

जो सामने, उसको भुनाये जा रहे है लोग।

 

ईमानदार लोगों पै बेईमान हँस रहे

निर्दोष भले व्यक्ति से, कतरा रहे है लोग।

 

दामन थे जिनके साफ वे अब लोग कहॉं है ?

रेवड़ियॉं बॅट रहीं, उठाये जा रहे हैं लोग।

 

गलियों में भी बाजार है, छलियों की है भरमार

डलियों में अब ’विदग्ध’ ढोये जा रहे हैं लोग।     

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश – ग़ज़ल – 4 – “हमदम” ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।  आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “हमदम”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश – ग़ज़ल # 4 – “हमदम” ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

ज़िंदगी में आए थे तुम एक महकता हार बनकर,

ताज़िंदगी चुभते रहे रक़ीब से मिल ख़ार बनकर।

 

अम्बर में खिलना था शरद ऋतु का चाँद बनकर,

झुलसाते रहे आशियाना नौतपा की बहार बनकर।

 

चलना था हमें साथ हमकदम हमसफ़र बनकर,

अनजान राहों पर क्यूँ चले तुम सदाचार बनकर।

 

मुलायम लिहाफ़ में सुलाना तय था माँ बनकर,

घायल किया तुमने ज़हरीला  हथियार बनकर।

 

तमन्ना थी भर दोगे झोली कामना देव बनकर,

ज़िंदगी के हर मोड़ पर मिले पराया यार बनकर।

 

सातवाँ आसमान छूना तय था हम परवाज़ बनकर

बीच धार डुबोई तुमने नैया हम पतवार बनकर।

 

‘आतिश’ मिला  मदहोश चाँदनी में प्यार बनकर,

बेवफ़ा हुस्न मिला सरे बाज़ार  व्यापार बनकर।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 7 (65-71)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #7 (65-71) ॥ ☆

‘‘ राजाओं ! रघुपुत्र ने हरण कर यश, छोड़ा तुम्हें सबको जीवित दयावश”

यह रक्तरंजित श्शरों से सेना ने लिखा उनके ध्वज पर बढ़ा यश ॥ 65॥

 

हटा शिरस्त्राण बिखरी लटो युत, थे भाल पर स्वेद के बिंदु जिसके

कर में धनुषबाण लिये अज ने कहा तब भयभीत अपनी प्रिया से ॥ 66॥

 

हे इन्दु ! बालक भी छीन ले शस्त्र इन ऐसे रिपुओं को तो निहारो

इनकी इसी मूर्खता से हो मेरी तुम जिसको पाने सब लड़ रहे जो ॥ 67॥

 

प्रति द्वन्दियों के भय से उबर कर मुख इन्दु के ने थी यो चमकपाई

निश्वास की भाप को पोंछ देने पै ज्यों ग्लान दर्पण है देता दिखाई ॥ 68॥

 

पति के पराक्रम से संतुष्ट ही जित, न खुद, सखी वाणी से की पर प्रशंसा

जैसे धरा घन से जल पाके हो ह्ष्ट करती प्रकट मोरवाणी से मंशा ॥ 69॥

 

अतुल सुंदरी इंदु की सुरक्षा हित, सरलता से अज ने नुपों को हराया

रथ तुरग गज धुलि से अलक जिसकी भरी,उस विजयश्री को ज्यों साक्षातपाया 70

 

तब ज्ञानी रघु ने जयी अज का अभिनंदन कर, सपत्नीक उसको सौंप भार राज्य, घर का ।

वानप्रस्थ जीवन ही जीने की इच्छा की, होते योग्य पुत्र सूर्यवंश की जो थी प्रथा ॥ 71॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 107 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 107 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

समय चक्र जो घूम रहा, उसने थामी डोर।

सुमिरन बस करते रहो, कब हो जाए भोर।।

 

पल पल की है जिंदगी, पल पल का है राग।

जीवन के इस सफर में, करो सिर्फ अनुराग।।

 

माटी तो  है अनमोल, सब माटी बन जाय

सुंदर काया तन-मन की, माटी में मिल जाय।।

 

पुस्तक देती है हमें, जीवन का हर ज्ञान।

पुस्तक से ही मिल रहा, लेखक को सम्मान।।

 

पीड़ा मन की रच रहा, रचता रचनाकार।

युगों युगों तक हो रहा, पाठक पर उपकार।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 96 ☆ वो आभास हूँ मैं…. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण रचना  “वो आभास हूँ मैं….। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 96 ☆

☆ वो आभास हूँ मैं …. ☆

प्यार का अहसास जगाए वो आस हूँ मैं

प्यास प्यासे की बुझाए वो आभास हूँ मैं

 

डूब गए हैं  जो  निराशाओं  के  कूप में

आस जीवन  की बढ़ाये  वो सांस हूँ मैं

 

बुलंद  रखता हूँ अपना   हौसला मैं  सदा

आत्म-शक्ति जो बढ़ाये, वो अहसास हूँ मैं

 

देख सकता नहीं मुसीबत में, मैं किसी  को

दीप आशा के जलाए, वो प्रकाश हूँ मैं

 

खेला था राधा के साथ  कभी श्याम ने

जो  प्रेम  छलकाता  जाए वो रास हूँ मैं

 

मुझसे मिलने से हो एहसास संतोष का

गले सबको जो लगाए, वो खास हूँ मैं

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 7 (61-65)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #7 (61-65) ॥ ☆

 

रघुपुत्र अज ने कि जो था सतत दक्ष, औं काम सम कांत व रूपवाला

गंधर्व प्रियवंद से प्राप्त प्रस्वापन शस्त्र अरि पर प्रहार हेतु तुरंत निकाला ॥ 61॥

 

गांधर्व ताडि़त समस्त अरि सैन्य निद्रा वशीभूत निश्चेष्ट होकर

ध्वज स्तंभ से टिक पड़ी हुई थी, लुड़के शिरस्त्राण की भान खोकर ॥ 62॥

 

समस्त सेना जब सोई तब शंख प्रिया विचुम्बित अधर पै रखकर

बजाया जलजन्य को वीरवर ने, स्व उपार्जित यश को ज्यों मानो पीकर ॥ 63॥

 

पहचान के शंख ध्वनि लौट आये योद्धाओं ने शत्रुसुपुत्र अज को

मुरझाये कमलों के बीच पाया जैसे चमका निरभ्रशशि हो ॥ 64॥

 

‘‘ राजाओं ! रघुपुत्र ने हरण कर यश, छोड़ा तुम्हें सबको जीवित दयावश”

यह रक्तरंजित श्शरों से सेना ने लिखा उनके ध्वज पर बढ़ा यश ॥ 65॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कविता ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – कविता  ??

जब नहीं बचा रहेगा

पाठकों.., अपितु

समर्थकों का प्रशंसागान,

जब आत्ममोह को

घेर लेगी आत्मग्लानि,

आकाश में

उदय हो रहे होंगे

नये नक्षत्र और तारे,

यह तुम्हारा

अवसानकाल होगा,

शुक्लपक्ष का आदि

कृष्णपक्ष की इति

तक आ पहुँचा होगा,

सोचोगे कि अब

कुछ नहीं बचा,

लेकिन तब भी

बची रहेगी कविता,

कविता नित्य है,

शेष सब अनित्य,

कविता शाश्वत है,

शेष सब नश्वर,

अत: गुनो, रचो,

और जियो कविता!

©  संजय भारद्वाज

(प्रात: 8:21 बजे, 2 नवम्बर 2020)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 85 ☆ समसामयिक दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  “समसामयिक दोहे”. 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 85 ☆

☆ समसामयिक दोहे ☆ 

घर – घर पीड़ा देखकर, मन ने खोया चैन।

हर कोई भयभीत है, घड़ी- घड़ी दिन- रैन।।

 

खुद को आज संभालिए , मन से करिए बात।

दिनचर्या को साधिए , योग निभाए साथ।।

 

गरम नीर ही मित्र है, कभी न छोड़ें साथ।

नीम पात जल भाप लें, कोरोना को मात।।

 

दाल, सब्जियां भोज में , खाएँ सब भरपूर।

शक्ति बढ़े, जीवन सधे, आए मुख पर नूर।।

 

दुख – सुख आते जाएँगे, ये ही जीवन चक्र।

अच्छा सोचें हम सदा, कर लें खुद पर फक्र।।

 

याद रखें प्रभु को सदा, कर लें जप औ ध्यान।

दुख कट जाते स्वयं ही, हो जाता कल्यान।।

 

पेड़ हमारी शान हैं, पेड़ हमारी जान।

पेड़ों से ही जग बचे,बढ़ जाए मुस्कान।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 7 (56-60)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #7 (56-60) ॥ ☆

 

रथी निषग्ंगी कवची धनुर्धर चली परमवीर रघुपुत्र अज ने

उस शत्रुदल – सिंधु को रोक रक्खा ज्यों विष्णु ने स्वयं वाराह बन के ॥ 56॥

 

रणवीर अज का था दाहिना हाथ तूणीर से बाण सतत उठाता

औं कान तक खींच धनुष की डोरी शरसाध अरि को मिटाता जाता ॥ 57॥

 

थे अधर जिनके दशन दबे अति लाल, औ भृकुटि टेढ़ी उठी क्रोध में थी

हुकारते कंठ भाले से हो छिन्न जिनके गिरे उनसे धरती भरी थी ॥ 58॥

 

पैदल तथा अश्व गजरथ समारूढ़ सेना के सब अंग ने कवचभेदी

आयुध से सब नृपों ने सब तरह से, उस एक पर युद्ध में मार फेकी ॥ 59॥

 

अरि अस्त्र – शस्त्रों के घिरे रथ में ध्वजमात्र से वहाँ अज यों था भासित

नाहार आच्छन्न प्रभात में ज्यों रवि भी झलकता है पर कम प्रकाशित ॥ 60॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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