हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 11 (56-60)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #11 (56-60) ॥ ☆

 

पाकर वर-वधु परस्पर हुये समृद्ध कृतार्थ।

जैसे प्रत्यय-प्रकृति का मिलन हुआ हो सार्थ।।56।।

 

स्नेही दशरथ सुतों को मिथिला में तब ब्याह।

आये अयोध्या, जनक जी को मग में समझाय।।57।।

 

सेना हुई तरूध्वजा सी सह भग-झंझावात।

या जैसे तट भूमि पर पूरित सरित प्रवाह।।58।।

 

हो आँधी से क्षीण-प्रभ रवि तज अपनी कांति।

गिरा गरूड़-मर्दित-अहि-मुख से माणि की भाँति।।59।।

 

रूक्ष अलक, रक्ताभ रज, रजस्वला सी सांध्य।

रही न दर्शन प्रिय दिशा, नभ में कोई जो सुहाय।।60।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ #127 – आतिश का तरकश – ग़ज़ल – 13 – “गिरगिट रंग लोग” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “गिरगिट रंग लोग”)

? ग़ज़ल # 13 – “गिरगिट रंग लोग” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ? 

ढलती उम्र मुझको याद आते हैं लोग,

हूक जब उठती है याद आते हैं लोग।

 

बहुत कोशिशें की हम क़दम होकर चलूं,

तेज चाल  आगे निकल जाते हैं लोग।

 

अपने क्या मुझे तो ग़ैर भी अच्छे लगे,

बस मुझमें ही कुछ कमी पाते हैं लोग।

 

ढूंढता  रहा मैं अपना पन परायों में,

पास आते  क्यों बदल जाते हैं लोग।

 

कई जन्मों की दुश्मनी पाल कर जीते,

कुछ दिन को दुनियां में आते हैं लोग।

 

पूछते नही ताउम्र हाल ए दिल मुझसे,

मातम पुर्सी को घर चले आते हैं लोग।

 

हासिल हो जाता मुझे भी थोड़ा सा फन,

गिरगिट जैसा रंग बदल जाते हैं लोग।

 

ज़िंदगी भर सबका भला सोचते आतिश,

फिर भी तुम्हें ख़ुदगर्ज़ कह जाते हैं लोग।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अशेष ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – अशेष ??

पूर्ण में से

पूर्ण जाने के बाद

पूर्ण रहता है शेष,

पूर्ण होता है अशेष..!

इच्छाओं में से

सारी इच्छाएँ पूरी होने के बाद

इच्छाएँ रहती हैं शेष,

इच्छाएँ होती हैं अशेष ..!

 

©  संजय भारद्वाज

रात्रि 9:21बजे, 21.1.2022

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

बाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा 64 ☆ गजल – ’मुखौटे’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “मुखौटे”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 64 ☆ गजल – ’मुखौटे’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

अब तो चेहरों को सजाने लग गये है मुखौटे

इसी से बहुतों को भाने लग गये हैं मुखौटे।

रूप की बदसूरती पूरी छुपा देते है ये

झूठ को सच्चा दिखाने लग गये है मुखौटे।

अनेकों तो देखकर असली समझते है इन्हें

सफाई ऐसी दिखाने लग गये है मुखौटे।

क्षेत्र हो शिक्षा का या हो धर्म या व्यवसाय का

हर जगह पर मोहिनी से छा गये है मुखौटे।

इन्हीं का गुणगान विज्ञापन भी सारे कर रहे

नये जमाने को सजाने छा गये हैं मुखौटे।

सचाई औ’ सादगी लोगो को अब लगती बुरी

बहुतों को अपने में भरमाने लगे है मुखौटे।

समय के सॅंग लोगों की रूचियों में भी बदलाव है

खरे तो खरे हुये सब मधुर खोटे मुखौटे।

बनावट औ’ दिखावट में उलझ गई है जिंदगी

हरेक को लगते रिझाने जगमगाते मुखौटे।

मुखौटों का चलन सबको ले कहॉं तक जायेगा

है ’विदग्ध’ विचारना क्यों चल पड़े है मुखौटे।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

vivek1959@yahoo.co.in

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #76 – असली शांति ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #76 – असली शांति ☆ श्री आशीष कुमार

एक राजा था जिसे चित्रकला से बहुत प्रेम था। एक बार उसने घोषणा की कि जो कोई भी चित्रकार उसे एक ऐसा चित्र बना कर देगा जो शांति को दर्शाता हो तो वह उसे मुँह माँगा पुरस्कार देगा।

निर्णय वाले दिन एक से बढ़ कर एक चित्रकार पुरस्कार जीतने की लालसा से अपने-अपने चित्र लेकर राजा के महल पहुँचे। राजा ने एक-एक करके सभी चित्रों को देखा और उनमें से दो चित्रों को अलग रखवा दिया। अब इन्ही दोनों में से एक को पुरस्कार  के लिए चुना जाना था।

पहला चित्र एक अति सुंदर शांत झील का था। उस झील का पानी इतना स्वच्छ  था कि उसके अंदर की सतह तक दिखाई दे रही थी। और उसके आस-पास विद्यमान हिमखंडों की छवि उस पर ऐसे उभर रही थी मानो कोई दर्पण रखा हो। ऊपर की ओर नीला आसमान था जिसमें रुई के गोलों के सामान सफ़ेद बादल तैर रहे थे। जो कोई भी इस चित्र को देखता उसको यही लगता कि शांति को दर्शाने के लिए इससे अच्छा कोई चित्र हो ही नहीं सकता। वास्तव में यही शांति का एक मात्र प्रतीक है।

दूसरे चित्र में भी पहाड़ थे, परंतु वे बिलकुल सूखे, बेजान, वीरान थे और इन पहाड़ों के ऊपर घने गरजते बादल थे जिनमें बिजलियाँ चमक रहीं थीं…घनघोर वर्षा होने से नदी उफान पर थी… तेज हवाओं से पेड़ हिल रहे थे… और पहाड़ी के एक ओर स्थित झरने ने रौद्र रूप धारण कर रखा था। जो कोई भी इस चित्र को देखता यही सोचता कि भला इसका ‘शांति’ से क्या लेना देना… इसमें तो बस अशांति ही अशांति है।

सभी आश्वस्त थे कि पहले चित्र बनाने वाले चित्रकार को ही पुरस्कार मिलेगा। तभी राजा अपने सिंहासन से उठे और घोषणा की कि दूसरा चित्र बनाने वाले चित्रकार को वह मुँह माँगा पुरस्कार देंगे। हर कोई आश्चर्य में था!

पहले चित्रकार से रहा नहीं गया, वह बोला, “लेकिन महाराज उस चित्र में ऐसा क्या है जो आपने उसे पुरस्कार देने का फैसला लिया… जबकि हर कोई यही कह रहा है कि मेरा चित्र ही शांति को दर्शाने के लिए सर्वश्रेष्ठ है?”

“आओ मेरे साथ!”, राजा ने पहले चित्रकार को अपने साथ चलने के लिए कहा।दूसरे चित्र के समक्ष पहुँच कर राजा बोले, “झरने के बायीं ओर हवा से एक ओर झुके इस वृक्ष को देखो। उसकी डाली पर बने उस घोंसले को देखो… देखो कैसे एक चिड़िया इतनी कोमलता से, इतने शांत भाव व प्रेमपूर्वक अपने बच्चों को भोजन करा रही है…”

फिर राजा ने वहाँ उपस्थित सभी लोगों को समझाया, “शांत होने का अर्थ यह नहीं है कि आप ऐसी स्थिति में हों जहाँ कोई शोर नहीं हो…कोई समस्या नहीं हो… जहाँ कड़ी मेहनत नहीं हो… जहाँ आपकी परीक्षा नहीं हो… शांत होने का सही अर्थ है कि आप हर तरह की अव्यवस्था, अशांति, अराजकता के बीच हों और फिर भी आप शांत रहें, अपने काम पर केंद्रित रहें… अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर रहें।”

अब सभी समझ चुके थे कि दूसरे चित्र को राजा ने क्यों चुना है।

मित्रों, हर कोई अपने जीवन में शांति चाहता है। परंतु प्राय: हम ‘शांति’ को कोई बाहरी वस्तु समझ लेते हैं, और उसे दूरस्थ स्थलों में ढूँढते हैं, जबकि शांति पूरी तरह से हमारे मन की भीतरी चेतना है, और सत्य यही है कि सभी दुःख-दर्दों, कष्टों और कठिनाइयों के बीच भी शांत रहना ही वास्तव में शांति है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 11 (51-55)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #11 (51-55) ॥ ☆

 

शतानंद जी के वचन सुन दशरथ महाराज।

इंद्रसखा मिथिला चले बड़ी सेन निज साज।।51।।

 

सेना मर्दित पादपों से भी उपकृत मान।

मिथिला ने स्वागत किया पति परिरम्भ समान।।52।।

 

वरूण इंद्र इव नृपति ने कर सब शिष्टाचार।

सम कन्या-वर के किये ब्याह सुयोग विचार।।53।।

 

राम-जानकी, लक्ष्मण-उर्मिला ब्याह प्रसंग।

भरत-माण्डवी, शत्रुहन-श्रुतकीरति के संग।।54।।

 

चारों बंधुओं संग लसे चारों राज कुमार।

ज्यों नृप चतुर्सिद्धियों का पाये उपहार।।55।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 116 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 116 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

ठुमक-ठुमक कर चल रही, बजते है मंजीर।

राधा रानी राधिके,  आज बँधाओ धीर।।

 

पूज रहे हैं मेदिनी,  देती हमें अनाज।

बदल रहा परिवेश है, बदला है अंदाज।।

 

आज नहीं हम कह सके, उससे अपनी बात।

उगलरहा बारूद वह, बदल गई औकात।।

 

चीवर कितने बदलते, मत बदलो ईमान।

नहीं रहेगा पास कुछ, घट जाएगा मान।।

 

कलिका रौंदी ही गई, सुनी सभी ने चीख।

कोई नहीं गया वहां, मांग रही थी भीख।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : bhavanasharma30@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 105 ☆ कोरोना में कुर्सी का खेल ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना “कोरोना में कुर्सी का खेल…. । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 105 ☆

☆ कोरोना में कुर्सी का खेल ….

 

कोरोना

नव रूप

बदलकर

चल रहा है.!

आम

आदमी को

बहुत

छल रहा है.!!

ओमीक्रान

का नया

वेरियंट.!

जिसमे कुछ

अलग है

करेंट.!!

फिर भी

उसकी

आड़ में धंधा

फल-फूल

रहा है..!

आम आदमी

सत्ता के

सहारे

झूल रहा है.!!

चुनावी

इश्क़

कोरोना पर

भारी है.!

चुनाव

कराने की

तैयारी है.!!

पर आम

आदमी पर

प्रतिबंधों की

बौछार है..!

उनके लिए

क्या दुख-दर्द

क्या त्यौहार है.!!

जिसकी

चपेट में

कई देश हैं..!

पर यहाँ पर

बदला बदला

परिवेश है..?

पिछली

त्रासदी

भूल रहे हैं.!

चुनाव सर पर

झूल रहे हैं !!

ये जनता है

सब जानती है.!

अच्छा-बुरा

पहचानती है.!!

कोरोना में

कुर्सी का खेल

“संतोष”

सत्ता के लिए

तेल-पानी का

मेल ..?

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 11 (46-50)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #11 (46-50) ॥ ☆

ध्वनि कठोर कर धनुष ने टूट किया उद्घोष।

परशुराम सह न सके क्षत्रिय का यह जोश।।46।।

 

शंकर-धनु के भंग पर जनक हो परम प्रसन्न।

सीता सौंपी राम को कर निज प्रण सम्पन्न।।47।।

 

किया जनक ने राम को सिय का कन्यादान।

कौशिक मुनि के सामने अग्नि को साक्षी मान।।48।।

 

राजपुरोहित भेज कर दशरथ जी के पास।

कहलाया, सेवा का दें योग बना निज दास।।49।।

 

जब थी दशरथ हृदय में पुत्र-वधू की चाह।

शतानंद ने तभी जा की सुरीति निर्वाह।।50अ।।

 

सच है पुण्यात्माओं को उनके पुण्यप्रताप।

मिलते हैं फल वांछित, कल्प वृक्ष से आप।। 50ब।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – नयी सलीब ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – नयी सलीब ??

पहाड़ का बदन गोदते लोग

सीने पर कीले ठोंकते लोग,

पहाड़ का मांस नोचते लोग

बरछी भाले भोंकते लोग,

 

जिनका आश्रय रहा

पहाड़ उनसे ही घिरा,

जिसके साये तले पले

उसकी जान लेने पर तुले,

 

शहर-दर-शहर

गोदने-ठोंकने का यही चित्र,

बस्ती दर बस्ती

नोचने-भोंकने का यही परिदृश्य

 

वह इतिहास झूठा पढ़ाया था

जिसमें ईसा को

एक बार ही क्रॉस पर लटकाया था..!

 

©  संजय भारद्वाज

(कवितासंग्रह ‘योंही’ से)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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