हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 105 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 105 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

देखो कैसे साल भर,

रहता है उजियार।

दीपों की ये रोशनी,

दूर करे अंधियार।।

 

धानी चूनर ओढ़कर,

प्रकृति करे शृंगार।

धरा प्रफुल्लित हो रही,

हरा-भरा संसार।।

 

लज्जा का घूँघट करो,

धीमे बोलो बोल।

मिल-जुलकर सबसे रहो,

जीवन है अनमोल।।

 

प्रीति रखी है श्याम से,

जग के पालन हार।

जिनकी महिमा है अमित,

करते नैया पार।।

 

मन की गहरी वेदना,

नयन बहाते नीर।

नयनों की भाषा पढ़ो,

तब समझोगे पीर।।

 

नयन-तीर से कामिनी,

करती हृदय-शिकार।

मुझको भी होने लगा,

उससे सच्चा प्यार।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 94 ☆ कहाँ  चल दिये …. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण रचना  “कहाँ  चल दिये ….। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 94 ☆

☆ कहाँ  चल दिये….  ☆

छोड़ कर आधी कहानी, कहाँ चल दिये

दे कर आँखों में पानी, कहाँ  चल दिये

 

हमको   था  फकत  आसरा  आपका

तोड़ कर ये  ज़िंदगानी,कहाँ  चल  दिये

 

सबक   वफ़ा   का  सीखा ना आपने

खूब करी खुद मनमानी,कहाँ  चल दिये

 

वादा    निभाया    ना   आपने    कभी

छीन कर अब ये जवानी,कहाँ चल दिये

 

तोड़   के  रिश्ते   पल   भर  में  सारे

नींद चुरा कर मस्तानी,कहाँ चल दिये

 

मिलता  न “संतोष”  कभी  आसां  से

भूल कर सभी नादानी,कहाँ चल दिये

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 6 (76-80)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #6 (76-80) ॥ ☆

 

आत्मज उन्हीं के है रघु आज राजा कर विश्वजित यज्ञ दे दान वैभव

रख मुत्तिकापात्र भर शेष, संपति घर दिग्विजय बाँट दी बढ़ा गौरव ॥ 76॥

 

यश जिनका पर्वत शिखर से भी ऊँचा सागर से गंभीर पाताल तक है

है स्वर्ग तक हर जगह सुप्रसारित, अलौकिक अपरिमित सबों से पृथक है ॥ 77॥

 

स्वर्गाधिपति इंद्र आत्मज सरीखा यह अज उसी का है सुयोग्य बेटा

जो राज्य रूपी शकट की धुरी को अभी से धुरंधर पिता सम है लेता ॥ 78॥

 

कुल, कांति, नई उम्र, से औं गुणों से, जो विनय -सदभावना-शीलयुत है

तुम अपने अनुरूप लख इसको वर लो, मणि-स्वर्ण संयोग होना उचित है ॥ 79॥

 

ये सुनंदा के वचन सुन लजाती सी कुछ किन्तु हर्षित अपरिमित वदन से

माला स्वयंवर की ही भाँति, अज को वररूप में किया स्वीकृत स्वमन से ॥ 80॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – दीपावली ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – ? दीपावली ?

अमावस बन

अंधेरा मुझे डराता रहा,

हर अंधेरे के विरुद्ध

एक दीया मैं जलाता रहा,

रोशनी की मेरी मुहिम

शनैः-शनैः रंग लाई,

अनगिन दीयों से

रात झिलमिलाई,

सर पर पैर रख

अंधेरा पलायन कर गया,

और-इस अमावस

मैंने दीपावली मनाई।

ई-अभिव्यक्ति के पाठकों को शुभ दीपावली ?

©  संजय भारद्वाज

20.9.2017, प्रातः 7:06 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 83 ☆ गीत – काम अच्छा ही अच्छा करो ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण गीत  काम अच्छा ही अच्छा करो

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 83 ☆

☆ गीत – काम अच्छा ही अच्छा करो ☆ 

मुश्किलों से कभी मत डरो।

  काम अच्छा ही अच्छा करो।।

 

जिंदगी है बड़े काम की।

       श्याम की, बुद्ध की , राम की।

अनगिनत इसमें सदियाँ लगीं।

      बोलियाँ प्रेम की भी पगीं।

 

याद कर लो शहीदों के दिल

      देश हित में जिओ और मरो।

मुश्किलों से कभी मत डरो।।

    काम अच्छा ही अच्छा करो।।

 

जाग जाओ बहुत सो लिए।

     पाप सिर पर बहुत ढो लिए।

कुछ हँस लो , हँसा लो यहाँ

    जन्म से अब तलक रो लिए।

 

गलतियों से सदा सीख ले

      कुछ घड़े पुण्य के भी भरो।

मुश्किलों से कभी मत डरो।

      काम अच्छा ही अच्छा करो।।

 

आदमी देवता और असुर ।

    स्वयं ही ये बनता चतुर।

सहज जीवन तो जी ले जरा,

     प्रेम फागों से बन ले हरा।

 

साँस पूरी लिखीं हैं वहाँ पर

       पाप की गठरियाँ मत भरो।

मुश्किलों से कभी मत डरो।

    काम अच्छा ही अच्छा करो।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 6 (71-75)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #6 (71-75) ॥ ☆

 

इश्वाकु कुल में हुये नृपों में कोई ककुत्स्थ नामक ख्यात नृप थे

‘काकुत्स्थ’ से उसी गौरव की अभिव्यक्ति सब कोशलेन्द्रों की होती तब से ॥ 71॥

 

ककुत्स्थ ने इंद्र – वृषभ पै चढ़ देवासुर समर में शिवरूप धारे

अरिपत्नियों को बनाते विधवा समर में अगणित असुर थे मारे ॥ 72॥

 

ऐरावत स्वामी इंद्र के साथ बराबरी का कर प्राप्त आसन

अपने पराक्रम के बल था पाया सुरेन्द्र का भी आधा सिंहासन ॥ 73॥

 

करने उसी वंश की कीर्ति उज्जवल दिलीप उसमें हुये थे राजा

जिन्होंने एक कम कर शत महायज्ञ रूकें न शक्र कोई कर तकाजा ॥ 74॥

 

जिसके कि शासन में मदरता नारियाँ केलि के मध्य ही सो गई जो

के वस्त्र को वायु भी छू न सकता, किस हाथ में शक्ति थी छू सके जो॥ 75॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अक्षय ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – अक्षय…✍️ ?

मैं पहचानता हूँ

तुम्हारी पदचाप,

जानता हूँ

तुम्हारा अहंकार,

झपटने, गड़पने

का तुम्हारा स्वभाव भी,

बस याद दिला दूँ,

जितनी बार गड़पा तुमने,

नया जीवन लेकर लौटा हूँ मैं,

तुम्हें चिरंजीव होना मुबारक

पर मेरा अक्षय होना

नहीं ठुकरा सकते तुम..!

 

©  संजय भारद्वाज

12.11 बजे, 22.10.2020

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ दीप पर्व विशेष – ।। हर रंग से भी रंगीन हो, दीपावली आपकी ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आज प्रस्तुत है आपके द्वारा दीप पर्व पर रचित शुभकामना स्वरुप विशेष रचना ।।हर रंग से भी रंगीन हो, दीपावली आपकी।।)

☆ दीप पर्व विशेष – ।। हर रंग से भी रंगीन हो, दीपावली आपकी ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

 

।। 1।।

हर कदम पर मिले कीर्ति

हर पग पर सम्मान मिले।

हर पल क्षण आपका हो

बरसों तक पहचान मिले।।

सदैव अमिट रहे हर दिल

में याद आपके नाम की।

यही कामना इस दीवाली

आपको यूँ यशोगान मिले।।

 

।। 2 ।।

आइये सबका खुशियों से

दामन सजाते दीवाली को।

किसी भूखे को भी खाना

खिलाते हैं इस दीवाली को।।

हँसी उन जीवन में भी लायें

जो वंचित हर सुखसाधन से।

दुआ की दौलत से झोली

भराते हैं इस दीवाली को।।

 

।। 3 ।।

इस दीवाली कोई प्रेम का

दिया नया सा जल जाये।

प्यार की धारा बहे कि

नफरत किनारे लग जाये।।

अमन चैन सुख शांति की

बन जाये यह दुनिया।

रोशन महोब्बत का दीया

हर दिल में जग जाये।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

03 11 2021

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ दीवाली ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक  कविता दीवाली ! )

 

☆ कविता  ☆ दीवाली ! ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆ 

 

एक दीये ही हैं

जो

रात में जलते हैं,

वरना

जलने वाले तो

दिन – रात जलते हैं ।

*

आप पहली किस्म के हैं

आपको

सलाम करता हूँ,

 दीवाली की अपनी शाम

आपके नाम करता हूँ ।

*

मेरा क्या  ?

मुझे जब भी

रोशनी को जरूरत होती

आपको याद कर

रोशन हो जाता हूँ,

अकेले में

दीवाली मनाता हूँ ।

नोट:- मेरे वेक्सीन के दोनों डोज हो गए। अब तो मैं, भीड़ में भी आपको याद कर, सरे आम दीवाली मना सकता हूँ।

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 6 (66-70)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #6 (66-70) ॥ ☆

कथन को उसके न मानता मन, कुछ इन्दुमति का लिये लगन था –

ज्यों सूर्यदर्शन की लालसा ले, कमल विकसता न शशि किरण पा ॥ 66॥

 

निशीथ गामिनी सी दीप्ति जैसी निकट से जिस नृप के बढ़ गई वह

उसी की मुख श्री भवन सी पथ के, खिली पै फीकी पड़ी क्षणिक रह ॥ 67॥

 

‘‘ मुझे चुनेगी क्या ”, पास आई को लख विकलता थी अज हृदय में

परन्तु शंका मिटाई तत्क्षण फड़क के दांयी भुजा सदय ने ॥ 68॥

 

पा सर्व गुण – रूप से युक्त अज को, बढ़ी न आगे रूकी कुमारी

कभी क्या कुसुमित रसाल तरूतज बढ़ी है आगे भी षट्पदाली ? ॥ 69॥

 

निबद्ध अज में सुप्रीति उसकी, समझ सुनंदा लगी सुनाने

और चंद्र सी इन्दुमती को अज का विसद सविस्तार लगी बताने ॥ 70॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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