हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #110 – कविता – सहमी गौरैया बैठी है….. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं समसामयिक विषय पर एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय कविता  “सहमी गौरैया बैठी है…..”। )

☆  तन्मय साहित्य  #110 ☆

☆ कविता – सहमी गौरैया बैठी है…..

(एक प्रयोग – न्यूज पेपर पढ़ते हुए बनी एक अखबारी कविता)

कॉन्फ्रेंस कौवों की मची हुई है

काँव-काँव की धूम

सहमी गौरैया बैठी है

एक तरफ होकर गुमसूम।

 

एक ओर सब्सिडी वाला

चालू है गिद्धों का भोज

बोनी-टोनी, ऊसी-पूसी

ताके-झाँके डगियन फ़ौज,

शाख-शाख पर रंग बदलते

गिरगिटिया नजरें मासूम

सहमी गौरैया बैठी है

मन मसोस होकर गुमसूम।

 

तोतों की है बंद पेंशन

बाजों के अपने कानून

निरीह कपोतों की गर्दन पर

इनके हैं निर्मम नाखून,

इधर बिके बिन मोल पसीना

उधर निकम्मों को परफ्यूम

सहमी गौरैया बैठी है

मन मसोस होकर गुमसूम।

 

जन सेवक बनकर शृगाल

जंगल में डोंडी पीट रहे

अमन-चैन में है जंगल अब

हँसी-खुशी दिन बीत रहे,

चकित शेर है देख, भेड़ियों के

सिर पर चंदन कुंकूम

सहमी गौरैया बैठी है

मन मसोस होकर गुमसूम।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 3 – जो मैं बाग़वां होती — ☆ डॉ. सलमा जमाल

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है। 

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण गीत “जो मैं बाग़वां होती –” 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 3 ✒️

? गीत – जो मैं बाग़वां होती —  डॉ. सलमा जमाल ?

जो मैं बाग़वां होती ,

तो गु्ल्शन को महका देती ।

मनाते जश्न धरती पुत्र ,

खेतों को लहका देती ।।

 

कभी महफ़िल , तो अकेले ,

हर दिन सुख-दुख के झमेले ,

कभी बसंत , कभी पतझड़ ,

हंसने – रोने के मेले ,

सभी जंगल हरे रखती ,

पलाश हर सू दहका देती ।

मनाते ——————- ।।

 

झील – झरने और नदियां ,

उन्हें बहते गुज़रीं सदियां ,

बातें पेड़ों – पहाड़ों की ,

साग़र – लहरों की बतियां ,

बिना किसी जाम मीना के ,

क़ायनात बहका देती ।

मनाते ——————- ।।

 

पीते शेर , भेड़ , बकरी ,

मिलकर इक घाट पे पानी ,

पुरुष पाते देवत्व को ,

नारीं होतीं महारानी ,

फ़रिश्ता बनके ज़मीं पर ,

जन्नत को दमका देती ।

मनाते ——————- ।।

 

अंधेरी रात अमावस्या ,

ऋषि-मुनियों की तपस्या ,

बैठे वीरान मरघट पे ,

लेकर अघोरी समस्या ,

गर मैं चांद – तारे होती ,

रातों को चमका देती ।

मनाते ——————- ।।

 

होती बग़िया की माली ,

लगाती फूलों की डाली ,

सहेजती गुल को हाथों से ,

और कांटों की रखवाली ,

तराना छेड़ती ‘ सलमा ‘

परिंदों को चहका देती ।

मनाते ——————- ।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 8 (86-90)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #8 (86-90) ॥ ☆

श्शोकमुक्त मन से करें उन्हें सपिण्डीदान

प्रेतो को स्वजनाश्रुतो करते कष्ट प्रदान ॥ 86॥

 

देही का जीवन विकृति, मृत्यु प्राकृतिक रूप

क्षण भी जी जो साँस ले, भाग्यवान वह भूप ॥ 87॥

 

भ्रमित बुद्धि प्रियनाश को लखते शल्य समान

स्थिरधी पर मुत्यु का भी करते सम्मान ॥ 88॥

 

आत्मा और शरीर भी करते योग – वियोग

तो औरों का मिलन तो है केवल संयोग ॥ 89॥

 

सबल जितेन्द्रिय आप तो है औरों से भिन्न

आँधी में गिरि वृक्ष क्या होते है सम खिन्न ? ॥ 90॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 10 – सकारात्मकता को खोजें … ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है सजल “सकारात्मकता को खोजें… । अब आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 10 – सकारात्मकता को खोजें…  ☆ 

सजल

समांत- आरों

पदांत- – की

मात्राभार- 16

 

खोई रौनक बाजारों की।

प्लेटें रूठीं ज्योनारों की।।

 

घोड़े पर दूल्हा है बैठा,

किस्मत फूटी इन क्वारों की।

 

सब पर कानूनी पाबंदी,

भूल गए हैं मनुहारों की।

 

मिलना जुलना नहीं रहा अब,

लगी लगामें सरकारों की।

 

करोना के जाल में उलझी,

नहीं गूँज अब जयकारों की।

 

संकट में भी बढ़ी दूरियाँ,

हालत बुरी है दीवारों की।

 

जन्म-मरण संस्कार गुम गए,

घटी रौनकें त्योहारों की ।

 

साँसों की अब बढ़ी किल्लतें,

नहीं व्यवस्था अंगारों की।

 

सकारात्मकता को खोजें,

खबरें झूठी अखबारों की।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – असंगत ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – असंगत ??

 

हरेक को अपने जैसा पाता है,

फिर हरेक से धोखा खाता है,

दुनियादारी की कोई समझ नहीं,

दुनिया के साँचे में असंगत हो जाता है,

हर स्पंदन आखर गुनता है,

श्वास- श्वास नयी दुनिया बुनता है,

बनी बनाई दुनिया में वह भला

सुसंगत हो भी कैसे सकता है?

 

©  संजय भारद्वाज

प्रात: 1 बजे, 5 दिसंबर 2021

(प्रकाशनाधीन आगामी कवितासंग्रह ‘चुप्पियाँ’ से।)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सरिता के छंद ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ सरिता के छंद ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

(1)

सरिता बहे जगत के हित में,सबको नीर दे।

खेत सींचती,मंगल करती,सबकी पीर ले।।

सरिता अपना धर्म निभाती,बहती ही रहे।

कोई कितना कर दे मैला,सहती ही रहे।।

(2)

हर सरिता गंगा सी पावन,इतना जान लो।

हर सरिता पूजित,मनभावन,यह तो मान लो।।

सरिता है भगवान की रचना,जिसमें ताप है।

कितना उपकृत करती हमको,कभी न माप है।।

(3)

सरिता युग-युग से धरती पर,जीवनदायिनी।

शुभ-मंगल के गीत सुनाती,पुण्यप्रदायिनी।।

गंगा-यमुना सी हर सरिता,प्रमुदित भावना।

रोग,शोक,संताप हरे जो,पुलकित कामना।।

(4)

जल पूजित,सरिता भी पूजित,पूरण आस है।

पापहारिणी,शापनाशिनी,सुख का वास है।।

हर मौसम,हर विपदा में भी,जग है मानता।

तेरा जल मानो अमरत है,पूजा ठानता।।

(5)

पर्वत से तू बहकर आती,हित को साधती।

दुनिया सारी,तुझको माने,आशा बाँधती।।

सरिता ने नित धर्म सँवारा,जय-जय देविका।

यहाँ आज जल के पूजक सब,सेवी-सेविका।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे 

प्राचार्य, शासकीय जेएमसी महिला महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661
(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 106 – कविता – बेटी ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है / कन्या पर एक सारगर्भित एवं भावप्रवण कविता “बेटी ” । इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 106 ☆

? बेटी ?

धन्य धन्य यह भारत भूमि, जो संस्कारों का जतन करें।

बेटी ही वो सृष्टि है, मां बनकर कन्यादान करें।

 

जब हुआ धर्म का हनन, देवों ने मिलकर किया मनन।

बेटी रूप में शक्ति ने, सृष्टि को किया वरन।

 

सृष्टि की अनुपम माया है, बेटी की सुंदर काया है।

पुन्यात्मा वो मनुष्य बहुत, जिन्होंने बेटी धन पाया है।

 

नभ से आई गंगा धन, भूलोक समाई समाई सरिता बन।

सबको तारण करती है, हैं गंगा जल बेटी का तन।

 

सदियों से रीत चली आई, बेटियां होती सदा पराई।

नवजीवन जीवित रखने को, बेटियां दो कुलों में समाई।

 

रीत रिवाज सजाती बेटी, मां के संग बनाती रोटी।

बाबुल के घर आंगन में, रहती जैसे जन्म घुटी।

 

दिन बहना के सुनी कलाई, बिन बेटी अधूरी विदाई।

समय आ गया अब देखो, चांद में पांव बेटी धर आई।

 

बेटियां होती अनमोल धन, सदैव इसका इनका करें जतन।

दया धर्म करुणा ममता, खुशियों से भरा बेटी का मन।

 

धन्य धन्य यह भारत भूमि, जो संस्कारों का जतन करें।

बेटी ही वो सृष्टि है, मां बनकर कन्यादान करें।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 8 (81-85)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #8 (81-85) ॥ ☆

पर करने पर प्रार्थना कि वह थी निष्पाप

‘‘ दिव्य पुष्प दर्शन ” तक ही सीमित रक्खा श्शाप ॥ 81॥

 

क्रथि कैशिक कुल की वही इन्दु तुम्हारी रानी

श्शाप निवृति के पुष्प छू कर न सकी मनमानी ॥ 82॥

 

अतः न उसका श्शोक कर धरें धरा का ध्यान

नृप पृथ्वी पति है सदा, हर जन है प्रियमान ॥ 83॥

 

वैभव के मद से यथा रहे सदा तुम दूर

तज मन की दुख शिथिलता कर पौरूष भरपूर ॥ 84॥

 

रोने से क्या, मरण से ही अब वह अप्राप्य

मरण बाद कमनिुगत होते हैं पथ प्राप्य ॥ 85॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 67 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 67 –  दोहे ✍

आँसू थे जयदेव के, ढले गीत गोविंद ।

विद्यापति का अश्रु दल, खिला गीत अरविंद।।

 

सत्य प्रेम से कर सके, जो सच्चा अनुबंध ।

जो पूजे श्रम देवता, भरे अश्रु सौगंध ।।

 

प्रियवर आये द्वार पर, मना लिया त्यौहार ।

पलक पावडे बिछ गए, आँसू वंदनवार ।।

 

नयन नयन से भर रहे, आँसू को अँकवार।

पूछ रहे कब मिले थे, हम तुम पिछली बार ।।

 

आँसू आए आंख में, पाहुन आए द्वार ।

आँसू पूछें  करोगे, कब तक अत्याचार।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 67 – कड़क लहजे में सलीके… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “कड़क लहजे में सलीके…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 67 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || कड़क लहजे में सलीके….. || ☆

बिम्ब जैसे दस बजे की इस किशोरी धूप का 

लगा आँचल को बताने जा रही है

एक हिस्सा गाँव  के प्रारूप का  

 

लग रही हो पेड़ कोई

सम्हलता अखरोट का

या नई खपरैल से

तिरता हुआ हो टोटका

 

कड़क लहजे में सलीके

से उभरता है रुका

अर्थ सांची के सुनहले से

किसी स्तूप का

 

किसी शासक की बसाई

राजधानी का नहीं

है तजुर्वा सूर्य की यह

बादशाहत का कहीं

 

लोग पूछें यह बसाहट क्यों

यहाँ  किस बात की है

तो बताना यह इलाका

रहा दिन के भूप का

 

बहुत मामूली लगे पर

है नहीं यह तय यहाँ

खोजना गर खोजियेगा

आप फिर चाहे जहाँ

 

आपकी मर्जी कदाचित

जो समझना समझिये

यह नहीं पनघट पुराना

गाँव के उस कूप का

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

05-12-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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