हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 5 (6-10)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #5 (6-10) ॥ ☆

 

क्यारी बना यत्न से गये बढ़ाये पाले गये पुत्रवत तरू – लतायें –

जो श्रांत तन मन को शांति देते बात आदि से तो न जाते सताये ? ॥ 6॥

 

पूजा अनुष्ठान साधन कुशाओं पै भी जिन को चरने से जाता न रोका

मुनि गोद में नाल तक जिनके गिरते, मृगो शिशुओं को तो नहीं कष्ट होता ?। 7।

 

जो नित्य स्नान पूजन व तर्पण के काम आते जलाशय किनारे

हैं तो निरापद वे सब मार्ग औं धर, शीला चुने अंत चिन्हित जो सारे ॥ 8॥

 

वनोत्पन्न नीवार जो आप खाते औं आगत अतिथिजन को भी जो खिलाते –

ग्रामीण पशुओं के झुण्डों के द्वारा कही वेचरे तो नहीं कभी जाते ? ॥ 9॥

 

शिक्षा ग्रहण करके वर तन्तु गुरू से क्या गृही बनने की हो प्राप्त आज्ञा ?

क्योंकि उचित समय है गृही बन के ही उपकार करने का सब आश्रमों का ॥ 10।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #102 – दरवाजे …☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा रात  का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं प्रसंगवश आपकी  हिंदी पर एक  रचना  “दरवाजे……”। )

☆  तन्मय साहित्य  #102 ☆

☆ दरवाजे……

आते जाते नजर मिलाते ये दरवाजे

प्रहरी बन निश्चिंत कराते ये दरवाजे।

 

घर से बाहर जब जाएँ तो गुमसुम गुमसुम

वापस   लौटें   तो   मुस्काते   ये   दरवाजे।

 

कुन्दे  में  ताले  से  इसे  बंद  जब करते

नथनी नाक में ज्यों लटकाते ये दरवाजे।

 

पर्व, तीज, त्योहारों पर जब तोरण टाँगें

गर्वित  हो  मन  ही मन हर्षाते  दरवाजे।

 

प्रथम  देहरी  पूजें पावन  कामों में जब

बड़े  भाग्य  पाकर  इतराते  ये   दरवाजे।

 

बच्चे  खेलें, आगे – पीछे  इसे  झुलायें

चां..चिं. चूं. करते, किलकाते ये दरवाजे।

 

बारिश में जब फैल -फूल अपनी पर आए

सब  को  नानी  याद  कराते   ये  दरवाजे।

 

मंदिर पर ज्यों कलश, मुकुट राजा का सोहे

वैसे    घर   की   शान   बढ़ाते  ये   दरवाजे।

 

विविध कलाकृतियाँ, नक्काशी, रूप चितेरे

हमें   चैन  की   नींद   सुलाते   ये  दरवाजे।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ यह सच्ची दोस्ती, इक बेशकीमती दौलत है, जहान की ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता ।।यह सच्ची दोस्ती, इक बेशकीमती दौलत है, जहान की।।)      

☆ ।।यह सच्ची दोस्ती, इक बेशकीमती दौलत है, जहान की। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

।।विधा।।मुक्तक।।

[1]

ये दिल से  निकले  अशआर हैं, इन्हें आरपार जाने दो।

हम तेरी दोस्ती   के  हकदार हैं, हमें    प्यार    पाने दो।।

तेरी सच्ची  दोस्ती   सी   नेमत, हमने     पाई         है।

अपने रंजो गम     बेफिक्र  भी, हम  तक  आने   दो।।

[2]

दोस्त के   घर   की   राह  कभी, लंबी    नहीं     होती।

सच्ची  दोस्ती  तो     कभी   भी, दंभी  नहीं      होती।।

दो जिस्म   एक    जान   मानिये, सच्ची   दोस्ती   को।

सच्ची  दोस्ती     जानिये    कभी, घमंडी   नहीं   होती।।

[3]

सच्ची    दोस्ती   में  गरूर    नहीं, गर्व      होता       है।

एक को   लगे    चोट   दूसरे  को, दर्द       होता      है।।

इक सोच इक नज़र     नज़रिया, दोनों का बन जाता।

मैं  का  नही      सिर्फ  हम का ही, हर्फ    होता      है।।

[4]

सच्ची दोस्ती   में  स्वार्थ नहीं  बस, विश्वास     होता है।

इस सच्ची दौलत में बस दिल  का, आस      होता   है।।

ढूंढते बस अच्छाई ही बुराई की तो, बात  होती     नहीं।

गर भीग जाये इक़ तो फिर दूजे का, लिबास    होता  है।।

 

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 5 (1-5)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #5 (1-5) ॥ ☆

 

जब विश्वजिति यज्ञ के बाद रघु ने था दान में कोष सकल चुकाया

तब कौत्स वरतन्तु गुरू दक्षिणवार्थी आशा लिये नृपति के पास आया ॥ 1॥

 

विनम्र विख्यात अतिथि परायण जो था बिगत धन सुवर्ण भाजन

ने की सुशिक्षित अतिथि की सेवा दे मृतिका पात्र से अर्ध्य, आसन ॥ 2॥

 

यशोधनी ने तपोधनी की कर मानपूजा यथा प्रथा थी

बिठा कुशासन मैं पास जाके, करबद्ध हो पूंछा – क्यों कृपा की ॥ 3॥

 

कुशल तो है मंत्र कृता ऋषीगण में अग्रचेता गुरू तुम्हारें ?

है बुद्धिवर जिनसे पाया सभी ज्ञान, ज्यों सूर्य से रश्मियाँ पाते सारे ॥ 4॥

 

शरीर मन और वचन से संचित तपस्या जो इंद्र को है डराती

कहीं किन्हीं विघ्नों से विफल हो, कभी कोई कष्ट तो नहीं पाती ? ॥ 5॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 91 ☆ समंदर और वो ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “समंदर और वो  । )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 91 ☆

☆ समंदर और वो  ☆

जाने क्यों उसे वो समंदर

बहुत अपने सा लगने लगा था!

वो जाकर उसके किनारे पर बैठ जाती

और देखती उसकी आती और जाती मौजों को-

कभी उसके पानी को अपनी अंजुली में उठाकर

अपने चेहरे पर डालती

और ख़ुशी से अभिभूत हो जाती,

कभी उसमें पाँव डालकर

उसका सुहावना स्पर्श महसूस करती 

और कभी पानी में खड़ी होकर दूर तक दौड़ती!

समंदर ही उसकी ज़िंदगी था!

समंदर ही उसकी मंजिल थी!

 

एक दिन यूँ ही जब लहरों को निहारती हुई

वो बैठी थी किनारे पर,

तो उसे नींद की झपकी आ गयी-

जब उठी तो देखा लहरें पीछे को सरक रही हैं!

वो लहरों के पीछे भागी…

लहरें और पीछे हुईं…

वो भागती रही,

और समंदर भी अपना आँचल समेटता रहा!

 

जब कुछ भी हाथ नहीं आया

तो वो बैठ गयी थक-हारकर,

यूँ जैसे उसकी ज़िंदगी ख़त्म हो गयी हो

और रात ढलने पर सो गयी वहीँ 

उस रेत पर जिसके जिगर में उसी की तरह नमी थी!

 

यह तो सुबह होने के बाद उसने जाना

कि यह एहसास खूबसूरत ही है

जहां सब कुछ खाली-खाली हो!

उसने अपने जिगर में उग रही किरणों के साथ

एक नयी ज़िंदगी शुरू कर दी!

 

जब समंदर अपनी लहरों के एहसास के साथ

फिर से आया उससे मिलने,

वो वहाँ से चली गयी थी दूर, बहुत दूर,

ताकि समंदर उसका पता भी न जान पाए!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 2 – सजल – उजियारे की राह तकें जो… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ ” मनोज साहित्य“ में आज प्रस्तुत है सजल “उजियारे की राह तकें जो…”। अब आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 2 – सजल – उजियारे की राह तकें जो… ☆ 

सजल

सीमांत – ओते

पदांत- हैं

मात्राभार- 16

मात्रा-पतन- निरंक

 

पथ में काँटे जो बोते हैं।

जीवन भर खुद ही रोते हैं।।

 

राज कुँवर बनकर जो रहते,

चौबिस घंटों तक सोते हैं ।

 

अकर्मण्य ही बैठे रहते,

सारे अवसर वे खोते हैं।

 

धन का लालच जब भरमाए,

गहरी खाई के गोते हैं।

 

उजियारे की राह तकें जो,

अपनी किस्मत को खोते हैं ।

 

कर्मठता से दूर हटें जब,

जीवन खच्चर बन ढोते हैं।

 

आशा की डोरी जब टूटे, 

नदी किनारे ही होते हैं।

 

श्रम के पथ पर हैं जो चलते,

भविष्य सुनहरा संजोते हैं।

 

विजय श्री का वरण जो करते,

मन चाहे फूल पिरोते हैं।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल ” मनोज “

18 मई 2021

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लेखन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लेखन  ?

जीवन की वाचालता पर

ताला जड़ गया

मृत्यु भी अवाक-सी

सुनती रह गई

बगैर ना-नुकर के

उसके साथ चलने का

मेरा फैसला…,

जाने क्या असर था

दोनों एक साथ पूछ बैठे-

कुछ अधूरा रहा तो

कुछ देर रुकूँ…?

मैंने कागज़ के माथे पर

कलम से तिलक किया

और कहा-

बस आज के हिस्से का लिख लूँ

तो चलूँ…!

 

©  संजय भारद्वाज

(कविता संग्रह ‘योंही’)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ महानगर ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कविता  ☆ महानगर ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

महानगर में चांदनी

पेड़ों के पत्तों से छनकर

धरती पर नहीं मुस्कुराती

दूधिया ट्यूबलाइटस के पीछे

छिप कर खूब रोती है ।

 ☆

महानगर की भीड़ में

दिल में बस

एक ही चाहत रही

मुझको कोई

मेरे गांव के नाम से

पुकार ले ,,,

 ☆

महानगर में आके

मैंने ऐसे महसूस किया

जैसे किसी ने मछली को

पानी से अलग किया ।

महानगर में कोयल ने

आम के झुरमुट में

बहुत मीठी आवाज में गाया

शोर होड और दौड के बीच

उसकी मीठी आवाज

किसी ने न सुनी

इसलिए वह बेचारी बहुत सिसकी

बहुत सिसकी

☆ 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 4 (86-88)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #4 (86-88) ॥ ☆

 

किया विश्वजित यज्ञ फिर दिया सकल धन दान

सच सज्जन की सकल निधि परहित मेघ समान ॥ 86॥

 

यज्ञ बाद सब कैद नृप जो थे प्रिय से दूर,

हृदय हार का दुख लिये जीवन में मजबूर

निज सचिवों की राय से दे आकस्मिक मोड,

रघु ने सबको ग्रहगमन हेतु दिया तब छोड़ ॥ 87॥

 

छत्र कुलिश ध्वज आदि फिर पाने की ले आश

जाते विनत प्रणाम हित जाये रघु के पास

चरम युगुल में शीश रखा सबने किया प्रणाम,

सिर के पुष्प पराग से करते चरण ललाम ॥ 88॥

चतुर्थ सर्ग समाप्त

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की#58 – दोहे – ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #58 –  दोहे 

आंसू बहते रात दिन, चिथड़ा हुआ नसीब ।

कोई धनी धोरी नहीं, कितना सही गरीब।।

 

आंसू बहते हैं मगर के, पहचानेगा कौन।

नेता आंसू बाज हैं, तुरत बदलते ‘टोन’।।

 

आंसू को मोती कहें, और आंख को सीप।

उसकी उतनी अहमियत, जितना रहे समीप।।

 

गर्व गरूरी को लगे, तृण भी तीर समान ।

इसीलिए तो कर रहे, आंसू का अपमान।।

 

कोहिनूर है आंख का, आंसू है अनमोल ।

तीन लोक की संपदा, सके न इसको तोल।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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