हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 86 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं विशेष भावप्रवण कविता  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 86 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆

(प्राणायाम, चकोरी, हरियाली, हिलकोर, प्रसून)

नमस्कार कर सूर्य का, करिए प्राणायाम

नित होगा जब योग तब, तन-मन में आराम

 

प्रेम चकोरी-सा करें, जैसे चाँद-चकोर

इक टक ही वो ताकती, किये बिना ही शोर

 

रितु पावस मन भावनी, बढ़ती जिसमें प्रीत

सब के मन को मोहते, हरियाली के गीत

 

जब भी देखा श्याम ने, राधा भाव विभोर

प्रेम बरसता नयन से, राधा मन हिलकोर

 

देख प्रेयसी सामने, मन में खिले प्रसून

जब आँखे दो-चार हों, खुशियां होतीं दून

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (71-75)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (71-75) ॥ ☆

 

प्रदक्षिणा करके वेदिका की, गुरू दंपती, धेनु की वत्स की भी

समस्त कल्याण की कामना रख, प्रस्थान कर भूप ने यात्रा की ॥ 71॥

 

अबाध गति सुख से मार्ग चलते रथ की मधुर कर्णप्रिय ध्वनि

वह वीर श्शालीन व्रती सपत्नी प्रसन्न था पूर्ण मनोरथों से ॥ 72॥

 

जो पुत्र की प्राप्ति हित व्रत नियम से,कृशकाय था क्षीण नव चंद्रमा सा

उत्सुक प्रजा नेत्र आतृप्ति लखते उसे प्रतिपदा चंद्र के सम सुखदप्त ॥ 73॥

 

आ निज नगर में श्री वृद्धि करते, ऊँची उड़ाते ध्वजा – पताका

फिर विष्णु की भॉति पूजित जनों से नृप ने धराभार शासन सम्हाला ॥ 74॥

 

चंदासम सुखदायी गंगा सम तेजस्वी और स्कन्द के समान बलशाली गुण में ।

नरपति कुलभूषण दिकपालों सम ते जवान पुत्र जन्म हेतु खुशी छायी जन – जन में ॥75।।

 

द्धितीय सर्ग समाप्त

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संजय दृष्टि – यक्ष प्रश्न ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – यक्ष प्रश्न ?

किताब पढ़ना,

गाने सुनना,

टीवी देखना,

तेल लगाना,

औंधे पड़ना,

शवासन करना,

चक्कर लगाना,

दवाई खाना..,

नींद के लिए रोजाना

हजार हथकंडे

अपनाता है आदमी,

जाने क्या है

आजीवन सोने को उन्मत्त

पर अंतिम नींद से

घबराता है आदमी!

 

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 74 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – त्रयोदश अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है  त्रयोदश अध्याय

पुस्तक इस फ्लिपकार्ट लिंक पर उपलब्ध है =>> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 74 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – त्रयोदश अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा श्रीकृष्ण कृपा से दोहों में किया गया है। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई है। श्रीमद्भागवत गीता जी का अध्याय तेहरवां पढ़िए। अपने आज और कल को उज्ज्वल करिएआज आप पढ़िए।आनन्द उठाइए।

 – डॉ राकेश चक्र 

प्रकृति, पुरुष और चेतना

इस अध्याय में श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को प्रकृति, पुरुष और चेतना के बारे में ज्ञान दिया।

अर्जुन ने श्रीकृष्ण भगवान से पूछा–

क्या है प्रकृति मनुष्य प्रभु,ज्ञेय और क्या ज्ञान?

क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ क्या,बोलो कृपानिधान।। 1

 श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को प्रकृति, पुरुष, चेतना के बारे में इस तरह ज्ञान दिया—–

हे अर्जुन मेरी सुनो,कर्मक्षेत्र यह देह।

यह जानेगा जो मनुज, करे न इससे नेह।।2

 

ज्ञाता हूँ सबका सखे,मेरे सभी शरीर।

ज्ञाता को जो जान ले, वही भक्त मतिधीर।। 3

 

कर्मक्षेत्र का सार सुन,प्रियवर जगत हिताय।

परिवर्तन-उत्पत्ति का, कारण सहित उपाय।। 4

 

वेद ग्रंथ ऋषि-मुनि कहें, क्या हैं कार्यकलाप?

क्षेत्र ज्ञान ज्ञाता सभी, कहते वेद प्रताप।। 5

 

मर्म समझ अन्तः क्रिया, यही कर्म का क्षेत्र।

मनोबुद्धि, इंद्रिय सभी, लख अव्यक्ता नेत्र।। 6

 

पंचमहाभूतादि सुख, दुख इच्छा विद्वेष।

अहंकार या धीरता, यही कर्म परिवेश।। 7

 

दम्भहीनता,नम्रता,दया अहिंसा मान।

प्रामाणिक गुरु पास जा, और सरलता जान।। 8

 

स्थिरता और पवित्रता, आत्मसंयमी ज्ञान।

विषयादिक परित्याग से, हो स्वधर्म- पहचान।। 9

 

अहंकार से रिक्त मन, जन्म-मरण सब जान।

रोग दोष अनुभूतियाँ,वृद्धावस्था भान।। 10

 

स्त्री, संतति, संपदा, घर, ममता परित्यक्त।

सुख-दुख में जो सम रहे, वह मेरा प्रिय भक्त।। 11

 

वास ठाँव एकांत में, करते इच्छा ध्यान।

जो अनन्य उर भक्ति से,उनको ज्ञानी मान।। 12

जनसमूह से दूर रह, करे आत्म का ज्ञान।

श्रेष्ठ ज्ञान वह सत्य है, बाकी धूलि समान।। 12

 

अर्जुन समझो ज्ञेय को, तत्व यही है ब्रह्म।

ब्रह्मा , आत्म, अनादि हैं, वही सनातन धर्म।। 13

 

परमात्मा सर्वज्ञ है, उसके सिर, मुख, आँख।

कण-कण में परिव्याप्त हैं, हाथ, कान औ’ नाक।। 14

 

मूल स्रोत इन्द्रियों का, फिर भी वह है दूर।

लिप्त नहीं ,पालन करे, सबका स्वामी शूर।। 15

 

जड़-जंगम हर जीव से, निकट कभी है दूर।।

ईश्वर तो सर्वत्र है, दे ऊर्जा भरपूर।। 16

 

अविभाजित परमात्मा, सबका पालनहार।

सबको देता जन्म है, सबका मारनहार।। 17

 

सबका वही प्रकाश है, ज्ञेय, अगोचर ज्ञान।

भौतिक तम से है परे, सबके उर में जान।। 18

 

कर्म, ज्ञान औ’ ज्ञेय मैं, सार और संक्षेप।

भक्त सभी समझें मुझे, नहीं करें विक्षेप।। 19

 

गुणातीत है यह प्रकृति ,जीव अनादि अजेय।

प्रकृति जन्य होते सभी, समझो प्रिय कौन्तेय।। 20

 

प्रकृति सकारण भौतिकी, कार्यों का परिणाम।

सुख-दुख का कारण जगत,वही जीव-आयाम।। 21

 

तीन रूप गुण-प्रकृति के,करें भोग- उपयोग।

जो जैसी करनी करें, मिलें जन्म औ’ रोग।। 22

 

दिव्य भोक्ता आत्मा, ईश्वर परमाधीश।

साक्षी, अनुमति दे सदा, सबका न्यायाधीश।। 23

 

प्रकृति-गुणों को जान ले, प्रकृति और क्या जीव?

मुक्ति-मार्ग निश्चित मिले, ना हो जन्म अतीव।। 24

 

कोई जाने ज्ञान से, कोई करता ध्यान।

कर्म करें निष्काम कुछ, कोई भक्ति विधान।। 25

 

श्रवण करें मुझको भजें, संतो से कुछ सीख।

जनम-मरण से छूटते, जीवन बनता नीक।। 26

 

भरत वंशी श्रेष्ठ जो, चर-अचरा अस्तित्व।

ईश्वर का संयोग बस, कर्मक्षेत्र सब तत्व।। 27

 

आत्म तत्व जो देखता, नश्वर मध्य शरीर।

ईश अमर और आत्मा,वे ही संत कबीर।। 28

 

ईश्वर तो सर्वत्र है, जो भी समझें लोग।

दिव्यधाम पाएँ सदा, ये ही सच्चा योग।। 29

 

कर्म करें जो हम यहाँ, सब हैं प्रकृति जन्य।

सदा विलग है आत्मा, सन्त करें अनुमन्य।। 30

 

दृष्टा है यह आत्मा, बसती सभी शरीर।

जो सबमें प्रभु देखता, वही दिव्य सुधीर।। 31

 

अविनाशी यह आत्मा, है यह शाश्वत दिव्य।

दृष्टा बनकर देखती, मानव के कर्तव्य।। 32

 

सर्वव्याप आकाश है, नहीं किसी में लिप्त।

तन में जैसे आत्मा, रहती है निर्लिप्त।। 33

 

सूर्य प्रकाशित कर रहा, पूरा ही ब्रह्मांड।

उसी तरह यह आत्मा, चेतन और प्रकांड।। 34

 

ज्ञान चक्षु से जान लें, तन, ईश्वर का भेद।

विधि जानें वे मुक्ति की, जीवन बने सुवेद।। 35

 

इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” प्रकृति, पुरुष तथा चेतना ” तेहरवां अध्याय समाप्त।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (66-70)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (66-70) ॥ ☆

 

तब वत्स औं होम विधि से बचे पर आदेश गुरूदेव का मॉग माता

रक्षित धरा भाग षष्ठांश सम दुग्ध तब पान की कामना मन सजाता ॥ 66॥

 

तो नंदिनी अति हुई प्रसन्ना, दिलीप के ये विचार भाये

बिना परिश्रम वे गिरि गुहा से, मुनीश आश्रम तुरन्त आये ॥ 67॥

 

प्रसन्न मुखचंद्र से भी प्रकट जो, अभीष्ट वर की समस्त बातें

पुनः सुनाते हुये सा गुरू को, नृप ने रानी सभी वे बातें ॥ 68॥

 

आदेश पा गुरू का नम्र नृप ने उस वत्स औं होम विधि से बचे को

पय नन्दिनी का आ तृप्ति पियां पर्याप्त ज्यों श्शुभ साक्षात यश हो ॥ 69॥

 

कर उक्त व्रतपूर्ण पा पुण्य औं श्रेष्ठ गुरूदेव से स्नेह आशीष प्यारा

प्रसन्न दम्पति ने राजधानी प्रति संचरण हेतु सहज विचारा ॥ 70॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #97 – कैसे पीड़ा सही पिताजी….. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा रात  का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण कविता  “कैसे पीड़ा सही पिताजी…..” । )

☆  तन्मय साहित्य  # 97 ☆

 ☆ कैसे पीड़ा सही पिताजी…..

दर्द समझ में अब आता है

कैसे पीड़ा सही, पिताजी

समझ आज अब आया मुझको

मैं जब बूढ़ा हुआ, पिताजी!

 

खटिया रही कराह

बिना इक पल के उसे विराम नहीं

एक आसरा वही रहा अब

सुबह वही औ’ शाम वही,

सिरहाने में दबे प्रश्न

अब क्या उत्तर दूँ आज, पिताजी!….

 

कोठरियों में अपने अपने

बच्चे सब हँस बोल रहे

चादर ओढ़ अकेला मन

गुमसुम गुमसुम चुप्पियाँ सहे

अर्थहीन हो गए आज

खोए अपने में स्वजन, पिताजी!…..

 

चाय नाश्ता थाली भोजन की

कमरे में आ जाती

पूछताछ में कैसे हो

बस इतनी कही, सुनी जाती,

मनमर्जी से सारे निर्णय

अब सब लेने लगे, पिताजी!…..

 

आते जाते हाल पूछते

फुर्सत किसे पास बैठे

कष्ट कराहें आहें घुटन

अबोले ही सब कुछ सहते,

विधि के इस चक्रीय विधान को

अंगीकृत कर लिया, पिताजी

 

कैसे सहा आपने ये सब

कभी शिकायत करी न हमसे

बंद कान दीवारों के भी

सहज किया स्वीकार स्वमन से

मैं भी तुम जैसा बनने की

कोशिश अब कर रहा, पिताजी! ….

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 48 ☆ संवरते रिश्ते ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

(श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ‘संवरते रिश्ते । ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 48 ☆

☆ संवरते रिश्ते

हर पल जीवन में मधुरस घोल दो,

जीवन तो क्या इससे रिश्तें भी सँवर जाते है ||

*

गुस्से का अंजाम मालूम है सबको,

गुस्से की तपिश से पल भर में रिश्तें बिखर जाते हैं ||

*

क्यों ना पी ले हम इन नफरत के कड़वे घुंटों को,

बाकी जो बच जाएगा वह अमृत ही रह जाएगा ||

*

पल भर को रुक जाओ रिश्ता टूटने से बच जायेगा,

विष भरा शब्द-बाण जुबाँ पर आने से पहले बुझ जाएगा ||

*

विषैले शब्द बाण में थोड़ी मिश्री घोल लो, 

चन्द शब्दों की मधुरता से रिश्ता बिखरने से बच जायेगा ||

*

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (61-65)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (61-65) ॥ ☆

 

‘‘ बेटे उठो ” -अमृतसम मधुर शब्द सुन ज्यों उठे, देखते क्या है राजा –

वहाँ न कोई सिंह था किन्तु सम्मुख थी वत्सला प्रेमल धेनु माता ॥ 61॥

 

चकित नृपति से कहा धेनु ने पुत्र मैने ही ली थी परीक्षा तुम्हारी

माया रची थी मुझे ऋषि हप्त सेन यमराज भय है क्या पुनि वन्यचारी ॥ 62॥

 

गुरू भक्ति औं त्याग मम हेतु लख पुत्र मैं हूॅ प्रसन्नाति वरदान मॉगो –

समझो न मुझको बस दुग्ध दायिनि पर कामना पूर्ति हित पुत्र जानो ॥ 63॥

 

तब वीर मानी विनयी नृपति ने, करबद्ध कर प्रार्थना धेनु आगे

स्ववंश की कीर्तिलता बढ़ाने सुदक्षिणा में सुपुत्र माँगे ॥ 64॥

 

सुन प्रार्थना पुत्र पाने नृपति की, उस धेनु ने कहा उससे – ‘‘तथा हो ”

‘‘ दोहन मेरा दुग्ध कर पत्रपुर में इस कामना पूर्ति हित पुत्र ! पी लो ” ॥ 65॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 86 ☆ बुद्ध बनना ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “बुद्ध बनना। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 86 ☆

☆ बुद्ध बनना ☆

एक आधा-अधूरा भंवर घूम रहा है

दिल-ओ-ज़हन में,

न जाने कब से,

न जाने कैसे,

न जाने क्यों…

मैं बन जाना चाहती हूँ एक बुद्ध!

प्राप्त कर लेना चाहती हूँ

परम शान्ति इसी जनम में-

एक ऐसा सुकून जो न किसी के आने से आए,

न किसी के जाने से चला जाए,

बस…ठहरा रहे मेरे मन में

किसी सीमा के बिना…

 

अपने मन के अन्दर

न जाने कितनी यात्रा कर चुकी हूँ,

न जाने कितनी बार विचलित होते मन को

शांत कर चुकी हूँ-

शायद मैं बन गयी हूँ वो रेत

जो समंदर की लहरों के आने से

भीग तो जाती हैं,

पर फिर अपने स्वरुप में वापस आ जाती हैं,

  शांत और ठहरा हुई!

                                                                             

नहीं जानती कि यह आधा-अधूरा भंवर

मुझे किस ओर ले जाएगा,

पर जो भी होगा अच्छा ही होगा-

हो सकता है अभी नहीं तो कभी न कभी

मैं बुद्ध बन ही जाऊं!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संजय दृष्टि – काला पानी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – काला पानी ?

सुख-दुख में

समरसता,

हर्ष-शोक में

आत्मीयता,

उपलब्धि में

साझा उल्लास,

विपदा में

हाथ को हाथ,

जैसी कसौटियों पर

कसते थे रिश्ते,

परम्पराओं में

बसते थे रिश्ते,

संकीर्णता के झंझावात ने

उड़ा दी सम्बंधों की धज्जियाँ,

रौंद दिये सारे मानक,

गहरे गाड़कर अपनापन

घोषित कर दिया

उस टुकड़े को बंजर..,

अब-

कुछ तेरा, कुछ मेरा,

स्वार्थ, लाभ,

गिव एंड टेक की

तुला पर तौले जाते हैं रिश्ते..,

सुनो रिश्तों के सौदागरो!

सुनो रिश्तों के ग्राहको!

मैं सिरे से ठुकराता हूँ

तुम्हारा तराजू,

नकारता हूँ

तौलने की

तुम्हारी व्यवस्था,

और स्वेच्छा से

स्वीकार करता हूँ

काला पानी

कथित बंजर भूमि पर,

तुम्हारी आँखों की रतौंध

देख नहीं पायी जिसकी

सदापुष्पी कोख…,

जब थक जाओ

अपने काइयाँपन से,

मारे-मारे फिरो

अपनी ही व्यवस्था में,

तुम्हारे लिए

सुरक्षित रहेगा एक ठौर,

बेझिझक चले आना

इस बंजर की ओर,

सुनो साथी!

कृत्रिम जी लो

चाहे जितना,

खोखलेपन की साँस

अंतत: उखड़ती है,

मृत्यु तो सच्ची ही

अच्छी लगती है..!

 

©  संजय भारद्वाज

प्रातः 10:16 बजे, 10 जुलाई 2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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