हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 44 ☆ हौसला मत हारना ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

(श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ‘हौसला मत हारना’। ) 

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 44 ☆

☆ हौसला मत हारना

तुम हिम्मत मत हारना,

मैं अपनी सारी खुशियाँ तुम्हें दे दूँगा,

तुम होंसला मत हारना,

मैं अपनी जिंदगी ये लम्हें तुम्हारे नाम कर दूंगा,

तुम बुलन्दियों को छू लेना,

मैं तुम्हें अपने कंधे पर बैठा लूंगा,

तुम भरोसा रखो मुझ पर,

मैं खुद गिर जाऊंगा मगर तुम्हें गिरने नही दूँगा,

बस तुम बुलन्दी पर पहुंच कर,

मुझे भूल मत जाना नहीं तो तिनके की तरह बिखर जाऊंगा,

बस एक विनती है तुमसे,

कभी भरोसा मत तोड़ना नहीं तो पूरी तरह टूट जाऊँगा ||

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 1 (31-35) ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 1 (31-35) ॥ ☆

उसकी पत्नी थी सरल, मगधवंश में जात

यथा यज्ञ की दक्षिणा, सुदक्षिणा विख्यात ॥ 31॥

 

अन्तःपुर का था उसे पाकर के अभिमान

वसुधाधिप के हृदय में भी था अतिसम्मान ॥ 32॥

 

उससे आत्मज जन्म की मधुर कल्पना पाल

दीर्घ काल से साधरत रहते थे भूपाल ॥ 33॥

 

दे सचिवों को राज्य के संचालन का भार

पुत्र प्राप्ति की कामना से गुरूभार उतार ॥ 34॥

 

ब्रम्हा की कर अर्चना, रख मन में विश्वास

दोनो पति पत्नी गये गुरू वशिष्ठ के पास ॥ 35॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 82 ☆ मंज़र ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “मंज़र। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 82 ☆

☆ मंज़र ☆
यूँ आँखों के सामने अक्सर

मंज़र बदलते देखा है,

ज़र्रों को तूफ़ान में

और आँधियों को तिनकों में

चुटकी में तबदील होते देखा है,

पदचाप सुनाई भी नहीं आये

और चाँद को धरती पर उतरते देखा है,

फिर उसी पूनम के चाँद को 

वापस आसमान में बिना कुछ कहे

चुपचाप जाते हुए देखा है…

 

ऐसे वक़्त अकस्मात् ही

नज़र चली जाया करती थी

हाथों की लक़ीरों पर-

न जाने कितनी बार उनके पतले होने पर

आंसुओं को बरसते देखा है…

 

पर फिर अब मुस्कुरा उठी हूँ

इन मंज़रों के बदलते मिज़ाज पर –

मंज़र हैं, बदलेंगे ही…

रूह की खुशरंग फितरत तो

रहेगी हमेशा, हमेशा, हमेशा…

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे ☆ श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे ☆ हेमन्त बावनकर

बिस्तर

घर पर बिस्तर

उसकी राह देखता रहा

और

उसे कभी बिस्तर ही नहीं मिला।

 

वेक्सिन 

किसी को अवसर नहीं मिला

किसी ने अवसर समझ लिया

मुफ्त का मूल्य

कोई कुछ समझ पाता

तब तक कई दायरे के बाहर आ गए।

 

ऑक्सीज़न

ऑक्सीज़न तो कायनात में  

कितनी करीब थी।  

सब कुछ बेचकर भी

एक सांस न खरीद सके,

अब किससे क्या कहें कि-

साँसें इतनी ही नसीब थी?

 

कफन

किसी को कफन मिला

किसी का कफन बिक गया

उस के नसीब को क्या कहें

जो पानी में बह गया।

 

सीना

लोग कई इंचों के सीनों के साथ

भीड़, रैली, माल, रेस्तरां

जमीन पर और हवा में

घूमते रहे बेहिचक।

सुना है

उनमें से कई करा रहे हैं

सीनों का सी टी स्कैन.  

 

वेंटिलेटर

वेंटिलेटर पर खोकर

अपने परिजनों को

अंत तक परिजन भी

यह समझ ही नहीं पाए

कि आखिर वेंटिलेटर पर है कौन?

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 106 ☆ अंतर नहीं होता कवि और चित्रकार में ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की  एक भावप्रवण कविता – अंतर नहीं होता कवि और चित्रकार में।  इस भावप्रवण रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 106 ☆

? अंतर नहीं होता कवि और चित्रकार में ?

चित्रकार की तूलिका की जगह

कवि के पास होती है कलम

और रंगों की जगह शब्द कैनवास बड़ा होता है,

विश्वव्यापी कवि का

अपनी कविता मे वह

समेट लेना चाहता है सारी दुनिया को

अपनी बाहों में शब्दों के घेरे से

लोगों के देखे पर अनदेखे संवेदना से सराबोर दृश्य

अपने हृदय में समेट लेती हैं

कवि और चित्रकार की भावनाये

फिर कभी एकांत में डैवेलप करता है

मन के कैमरे में कैद 

सारे दृश्य कवि कविता में

और

चित्रकार चित्र में

जिसे पढ़कर या सुनकर

या देखकर

लोग पुनः देख पाते हैं

स्वयं का ही देखा पर अनदेखा दृश्य

और इस तरह बन जाते हैं

एक के हजार चित्र , कविता से

हर मन पर अलग-अलग रंग के

ठीक वैसे ही

जैसे उतार देता है चित्रकार

दो तीन फ़ीट के कैनवास पर हमारे देखते-देखते एक

मनोहारी चित्र

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ दो कवितायेँ ☆ [1] चेतना के पूर्वाधार [2] अंतिम ही अभाव है ☆ सुश्री मनिषा खटाटे

सुश्री मनिषा खटाटे

☆ दो कवितायेँ ☆ [1] चेतना के पूर्वाधार [2] अंतिम ही अभाव है ☆  सुश्री मनिषा खटाटे☆ 

(मरुस्थल काव्य संग्रह की दो कवितायेँ )

[1]

चेतना के पूर्वाधार

चेतना के अवचेतन में,

बसता है जगत कल्पना और अवधारणाओं का,

ज्ञान और अनुभूति के आकाश तले,

टिमटिमाते हैं तारे स्वर्ग से रात दिन,

आत्मा को करते हैं प्रकाशित,

मनुष्य के फूल की जड़ हैं मूलाधार,

सुगंध हैं सहस्त्रार,

जो हवां से बहती और सागर में उमडती,

किंतु आश्चर्य यह कि,

अहंम ही है अव्यक्त का एक आयाम,

और अंततः अस्तित्व है दूसरा,

जगत और सौंदर्य का अव्यक्त संसार,

अहम भी खिलता उस अव्यक्त से,

पूर्वाधार है चेतना के,

खिलता है ब्रह्म का कमल,

वासना के कीचड़ से.

 

[2]

अंतिम ही अभाव हैं.

एक आयाम का ही यथार्थ है जगत और मै.

अनेक सदर्भो से अभिव्यव्त होता है वह,

मैं मेरे अहं की ओर मुडती हुँ,

और जगत स्वयं उस एक में

स्थित है.

सर्वव्याप्त समय और आकाश

उस एक के है रुप, परंतु है सापेक्ष

अपितु,

गुरुत्व बल है उत्कांती का भाव,

चेतना और सर्व उत्थान का भी.

सघर्षरत है मनुष्य अपने स्वयं से ही,

ये कथा है तथा चरित्रात्मक टिप्पणियाँ,

उस चित्रकार की,

राह अदभूत है,

आरंभ है कण, कण से,

कायण भी है वह इस एक का.

रंगो में या चित्रो में जगत है चित्रकार का.

और स्वयं के ही आयाम, ही चित्र बनाता,

संघर्ष है स्वयं  और स्वरं के मध्यमें फिर,

अंतिम ही अभाव है,

और शुन्य ही है अंतिम.

© सुश्री मनिषा खटाटे

नासिक, महाराष्ट्र (भारत)

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 88 – वृक्षारोपण   पर्यावरण संरक्षण – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  पर्यावरण दिवस के सन्दर्भ में एक कविता  “वृक्षारोपण   पर्यावरण संरक्षण। इस सामयिक एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 88 ☆

? वृक्षारोपण पर्यावरण संरक्षण ?

फूले उपवन डाली डाली

इनकी सुन्दरता निराली

झुम झुम कर गा रही

कोयल मतवाली काली

 

वृक्ष हमारे जीवन के अंग

बना कर रखे इनका संग

अपने हाथों करें संरक्षण

काट कर न करें इनको तंग

 

मिले हमको अनेक औषधी

जिससे मिटे जड़ से व्याधि

स्वस्थ शरीर सुन्दर मन

वृक्षों के नीचे बैठे तपोधी

 

करें हम वृक्षों का रोपण

तन मन हो इस पर अर्पण

भूले न इनको लगाकर

तभी होगा अपना समर्पण

 

अपने जीवन में करें प्रण

जैसे भुख के लिए अन्न

शुध्द वायु जीवन के लिए

वृक्षों का करें संरक्षण

 

पाकर हरी भरी धरा

मन भी होगा हरा भरा

बचाएंगे हम पर्यावरण

अपना ले हम परम्परा 

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 1 (26-30) ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 1 (26-30) ॥ ☆

यज्ञ हेतु भूलोक का, अन्न हेतु दिवलोग

दोहन राजा ने किया ले समुचित सहयोग ॥ 26॥

 

अन्य कोई नृप कर सका नहीं कीर्ति में मात

तस्करता केवल हुई सुनने भर की की बात ॥ 27॥

 

रोगी को औषधि सदृश, शिष्ट शत्रु आराध्य

तथा सर्प विष सदृश थे, दुष्ट स्वजन भी त्याज्य ॥28॥

 

ब्रह्रा ने सिरजा उसे था यों तत्व सहेज

गुण था परहित काज ही मानो एक विशेष ॥ 29॥

 

सागर वेषिृत भूमि जहॅ शेष न था कोई भूप

एक नगर की भाँति तहँ शासन किया अनूप ॥ 30॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की#49 – दोहे – ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #49 –  दोहे  ✍

क्षणभर का सानिध्य ही, तन में भरे उजास।

 दर्शन की यमुना हरे, युगों युगों की प्यास।।

 

हृदय और मरुदेश में, अंतर नहीं विशेष।

हरित भूमियों के तले, पतझड़ के अवशेष ।।

 

तन-मन में शैथिल्य है, गहरा है अवसाद ।

एक सहारा शेष है, अपने प्रिय की याद।।

 

यह सांसों की बांसुरी ,कब लोगे तुम हाथ ।

प्रश्नाकुल साधे कहें, कब तक रहें, अनाथ।।

 

मरुथल जैसी जिंदगी, अंतहीन भटकाव।

 हरित भूमियों से मिले, जीवन के प्रस्ताव।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 48 – मौसम कुछ अनमना… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “मौसम कुछ अनमना…  । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 48 ।। अभिनव गीत ।।

☆ मौसम कुछ अनमना…  ☆

छींके पर सूरज रख

कहती महतारी

साँझ बहिन आगे की

करलो तैयारी

 

चूल्हे पर चढ़ा दिये

संयम के आलू

आखिर अब समय

हुआ करने ब्यालू

 

चाँद किये मुँह टेढ़ा

पूछता मुंडेरों से

कैसी क्या बन पायी

संध्या तरकारी?

 

सभी ओर बिखरे हैं

जगह जगह चमकीले

टिमटिम जुगनू जैसे

तारे नीले नीले

 

मौसम कुछ अनमना

दबे छिपे देखरहा

मध्य रात्रि की लकदक

साडी जड़तारी

 

बहुत कुछ छिपाया

था गोरोचन अगरु गंध

प्राची ने पढ़ दिया है

यह सारा निबंध

 

अलसाये पेड़ लगे

जमुहाई लेते से

अरुण खड़ा प्रात की

खोले अलमारी

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

05-06-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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