हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कैंसर हॉस्पिटल ☆ श्रीमति लतिका बत्रा ☆

(पुकारा है ज़िन्दगी को कई बार -Dear CANCER … ये पुस्तक है कैंसर से संघर्ष और जीजिविषा की श्रीमति लतिका बत्रा जी की आत्मकथात्मक दास्तान। श्रीमति लतिका बत्रा जी के ही शब्दों में – “ये पुस्तक पढ़ कर यदि एक भी व्यक्ति का जीवन के प्रति दृष्टिकोण सकरात्मकता से रौशन हो जाये तो अपना लिखा सफल मानूँगी।”
आज प्रस्तुत है उनकी ही कविता – “कैंसर हॉस्पिटल”। कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी ने इस कविता का अंग्रेजी भावानुवाद Oncology Sanatorium” शीर्षक से किया है।)
आप इस कविता का भावानुवाद इस लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं। 👉 Oncology Sanatorium – Captain Pravin Raghuvanshi, NM  

? कविता – कैंसर हॉस्पिटल – श्रीमति लतिका बत्रा ? ?

?

जीवन को लेकर दौड़ती – भागती सड़क

उस पार–                                                           

गदराये गुलमोहर और गेरुए पलाश

और

एक भव्य इमारत।

पसरी है एक अभिशप्त सृष्टि

और मृत्यु की वर्तनी

काँच के विशालकाय स्वचालित द्वारों की

कोई देहरी है ही नहीं

फिर भी,

लाँघ कर चले आये हैं भीतर

क्षोभ और ग्लानियों से भरे

सैंकड़ों संतप्त चेहरे

देहें कैद हैं युद्धबंदियों सी

ढो़ रहे हैं सभी  –

अभिशापित कीटों से भरे बंद बोरे

अतीत और वर्तमान के सारे

कलुषित कर्मों की व्यथा भरे ।

चिपके हैं आत्म वंचनाओं के कफ़न

जीवन की हर आस को कुतर कर ।

रोगी हैं सब ।

कुछ सद्यः परिव्राजकों से

घुटे सिर

परिनिर्वाणाभिमुख नहीं ,

अवस्थित है — उपालम्भ

पीड़ाओं से संतप्त।

भोग कर आये हैं जो

संघाती व्यथाओं का विस्तार

उसी में लौटने को विकल हैं

प्रकांड अभिलिप्साएँ ।

 *

कुछ योद्धा — दृढ़ – संकल्पी

भीमाकार विचित्र अद्भुत मशीनों को

साधते —

नील वस्त्र धारी ,

वीतरागी निर्लिप्त कर्मठ

यांत्रिक मानव

आदतन कर्मरत

निर्वस्त्र मांसल रोगी देहें

बाँध कर उन मशीनों में,

जाँचते-

टटोलते रोग

कामुकता – जुगुप्सा —

हर भाव है निषिद्ध यहाँ —

हर द्वार पर उकेरी गई है पट्टिका

 “प्रवेश  प्रतिबंधित “

 *

गले में स्टेथस्कोप डाले

धवल कोट धारी

शपथ बद्ध हैं—

नहीं होते द्रवित विचलित कंपित

विशिष्ट योग्यताओं का ठप्पा लगा है

 वेदना संवेदना पर

जिस की परिधि में हर देह  है बस एक

” ऑब्जेक्ट “

 *

ठसाठस भरे हैं लोग पर —

कोई भी वेदना – संयुक्त नहीं है

संवेदना से ।

अनुभूतियों के फफूँद लगे बीजों से

उपजती नहीं सहानुभूतियाँ

 *

अपनी संपूर्ण विचित्रता समेटे

औचक ही कहीं, कभी दिख जाती है

संभ्रमित जीवन वृत्तियाँ

जब

गुलाबी कोट पहने एक स्वप्नद्रष्टा

स्वयंमुग्धा नर्स दिख जाती है

कोहनियों भर

सुनहरा लाल चूड़ा पहने ….

जिजीविषा का आभा मंडल

बुहारता चलता है

उसके कदमों के नीचे

मृत्यु के इस शहर का हर काला साया ।

 *

बाकी…

वृत्तियाँ तो सभी कर्मरत हैं यहाँ

छटपटाता हुआ पीड़ाओं से

युद्धरत है हर कोई – द्रवित – विगलित

दर्द  —

सधन मृत्यु का

चश्मदीद गवाह बना बैठा है हर चेहरा

प्रतीक्षारत —

आशाओं के दरदरे हाथों में थाम कर

एक चुटकी ज़िन्दगी।

 *

कैंसर हॉस्पिटल है ये ।

?

© श्रीमति लतिका बत्रा   

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 19 – ग़ज़ल – अब मुख़्तसर करेगें… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम ग़ज़ल – अब मुख़्तसर करेगें… 

? रचना संसार # 19 – ग़ज़ल – अब मुख़्तसर करेगें … ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

ख़ुद की नज़र लगी है अपनी ही ज़िन्दगी को

ज़िंदा तो हैं मगर हम तरसा किये ख़ुशी को

महफूज़ ज़िन्दगानी घर में भी अब नहीं है

पायेगा भूल कैसे इंसान इस सदी को

 *

कैसी वबा जहाँ में आयी है दोस्तों अब

हालात-ए-हाजरा में भूले हैं हम सभी को

 *

हमदर्द है न कोई ये कैसी बेबसी है

ले आसरा ख़ुदा का बैठे हैं बंदगी को

 *

गर्दिश की तीरगी है आँखों में भी नमी है

उल्फ़त को ढूँढते थे पाया है दिल्लगी को

 *

अब मुख़्तसर करेगें हम ज़ीस्त का ये किस्सा

पैग़ाम-ए-इश्क़ देगें हम रोज आदमी को

 *

वहदानियत को उस की मीना न दो चुनौती

रहमत ख़ुदा की देखो मिलती है हर किसी को

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected][email protected]

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #247 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 247 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

पीहर की  सुधियाँ बढ़ी, आया जब त्यौहार ।

माँ बाबुल अब हैं नहीं, भीग  रहा है प्यार।।

*

भादों की है भावना, बरसे सावन  प्यार।

कहना तुम सबसे यही, आए हैं त्योहार।।

*

सावन ने मुझसे कहा, गाओ कजरी गीत।

मिलने साजन आ रहे, यही प्यार की रीत।।

*

बदरी काली छा गई, खूब हुई बरसात।

बरस रहा है प्यार तो, समझो ऐसी बात।।

*

कंठ पपीहे का हरा, रटे  हमेशा प्यास।

स्वाति बूँद की चाह में, बस पानी की आस।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #229 ☆ दो मुक्तक… पर्यटन ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है दो मुक्तक… पर्यटन आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 229 ☆

☆ दो मुक्तक जागरुकता ☆ श्री संतोष नेमा ☆

(संस्कारधानी जबलपुर पर आधारित)

दुश्मनों  का  है  काल जबलपुर

आयुध निर्माणी जाल जबलपुर

सैनिकों  की   है  यहां   छावनी

पर्यटन  का  मिसाल  जबलपुर

*

धुआंधार   है   अजब   निराला

बैलेंस   रॉक  यहां   दिल वाला

मदन महल का किला  पुरातनी

नर्मदा   आरती    करे   उजाला

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अनुराग ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – अनुराग ? ?

तुम,

मेरे इर्द-गिर्द रहती हो,

सर्वदा, हर क्षण

आसपास अनुभव होती हो,

सुनो प्रिये,

किसी संकेत की आवश्यकता नहीं,

ना कभी दरवाज़ा खटखटाना,

जब मन चाहे, दौड़ी चली आना,

मुझे अनुरक्त पाओगी,

सदैव प्रतीक्षारत पाओगी,

जैसे हवा में होती है प्राणवायु,

नमी में बहता है जल,

घर्षण में बसती है आग,

ध्वनि में सिमटता है आकाश,

देह में माटी तत्व भरा होता है,

स्थूल में सूक्ष्म विचरता है,

वैसे ही हर श्वास में

नि:श्वास बनकर रहती हो तुम,

एक बात बताओ-

अपनी होकर भी,

इतनी डरी सहमी

दबे पाँव क्यों आती हो तुम?

केवल एक बार

नेह प्रकट करोगी तुम,

पर मैं बाहें फैलाकर खड़ा हूँ,

आजीवन तुम पर रीझा हूँ,

जब कभी हमारा मिलन होगा,

यह वचन रहा-

मुझ में समाकर

जी उठोगी तुम,

उस रोज़ सृष्टि में

जन्म लेगी नौवीं ऋतु…,

तुम, मुझे

सुन रही हो न मृत्यु..!

© संजय भारद्वाज  

प्रातः 7:35 बजे, 24 अगस्त 2024

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 27 अगस्त से 9 दिवसीय श्रीकृष्ण साधना होगी। इस साधना में ध्यान एवं आत्म-परिष्कार भी साथ साथ चलेंगे।💥

🕉️ इस साधना का मंत्र है ॐ कृष्णाय नमः 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 218 ☆ बाल गीत – चंदा मामा, चंदा मामा… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 217 ☆

बाल गीत – चंदा मामा, चंदा मामा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

चंदा मामा, चंदा मामा

हमने सुंदर चित्र बनाए

हम लाए कुर्ता , पाजामा

तुमको पहनाकर  हरषाए।।

देखो चित्र एक अपना तो

जिसमें सूत कातती माता

गोल पूर्णिमा की आभा से

धरती का हर जीव सुहाता

 *

खीर पेट भर खा लो मामा

काजू , किशमिस फल भी लाए।।

 *

देखो एक चित्र अपना तो

चपटी लगे कछुआ – सी पीठ

कभी नारियल – से भूरे हो

कभी लगते बच्चों – से ढीठ

 *

देख तुम्हारी सूरत , मूरत

रोज – रोज ही हम मुस्काए।।

 *

तरबूजे की खाँफ सरीखे

रसगुल्ला – से लगते सफेद

रूप बनाते न्यारे – न्यारे

और न कभी तुम करते भेद

 *

रात तुम्हारी मित्र अनोखी

रोज प्रेम से तुम बतलाए।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गीत – हे ! गिरिधर गोपाल  ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

गीत – हे ! गिरिधर गोपाल ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

हे! गिरिधारी नंदलाल, तुम कलियुग में आ जाओ।।

राधारानी को सँग लेकर, अमर प्रेम दिखलाओ।।

प्रेम आजअभिशाप हो रहा, बढ़ता नित संताप है।

भटकावों का राज हो गया, विहँस रहा अब पाप है।।

प्रेम, प्रीति की गरिमा लौटे, अंतस में बस जाओ। ।

राधारानी को सँग लेकर, अमर प्रेम दिखलाओ।।

 *

अंधकार की बन आई है, बेवफ़ाओं की महफिल।

शकुनि फेंक रहा नित पाँसे, व्याकुल हैं सच्चे दिल।।

अब राधाएँ डरी हुई हैं, बंशी मधुर बजाओ।

राधारानी को सँग लेकर, अमर प्रेम दिखलाओ।।

 *

आशाएँ तो रोज़ सिसकतीं, पीड़ा का  मेला है।

कहने को है प्यार यहाँ पर, हर दिल आज अकेला है।।

प्रीति-नेह को अर्थ दिलाने, मंगलगान सुनाओ।

राधारानी को सँग लेकर, अमर प्रेम दिखलाओ।।

 *

गौमाता की हुई दुर्दशा, भटक रहीं राहों में।

दूध-दही, जंगल, नदियाँ, गिरि, बिलख रहे आहों में।

आकर अब तो प्रकृति सँभालो, पांचजन्य बजाओ।

राधारानी को सँग लेकर, अमर प्रेम दिखलाओ।।

 *

दु:शासन, दुर्योधन अनगिन, द्रोपदियाँ बेचारी।

पार्थ नहीं, नहिं चक्र सुदर्शन, हर नारी है हारी।।

हे नटनागर ! रासरचैया, अग्नि-ज्वाल बरसाओ।

राधारानी को संग लेकर, अमर प्रेम दिखलाओ।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #245 – कविता – श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष – आओ फिर से गोविंद…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर एक विचारणीय कविता आओ फिर से गोविंद” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #245 ☆

☆ श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष आओ फिर से गोविंद…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

आनन्दकन्द गोपाल, कृष्ण गिरधारी

आओ फिर से, गोविंद सुदर्शन धारी।

*

वृन्दावन में, बचपन बीता अति प्यारा

आये जो दैत्य कंस के, उन्हें सँहारा

असुरों की फौज बढ़ी, धरती पर भारी

आओ फिर से, गोविंद सुदर्शन धारी।…

*

कोमल कलियों को, कुचल रहे अन्यायी

बेटी-बहनों के साथ, करे पशुताई

पहले जैसे नहीं रहे, लोग संस्कारी

आओ फिर से, गोविद सुदर्शनधारी।…

*

कालीया नाग को, जैसे सीख सिखाई

जहरीले नाग, फुँफकार रहे हरजाई

फन कुचलो माधव, नटनागर बनवारी

आओ फिर से, गोविद सुदर्शनधारी।…

*

आतंकवाद ने, अपने पैर पसारे

जयचंद कई हैं छिपे, देश में सारे

खोजें उनको, दें दंड देश हितकारी

आओ फिर से, गोविद सुदर्शनधारी।…

*

मथुरा में जाकर, दुष्ट कंस को मारा

महाभारत में फिर, गीताज्ञान उचारा

भारत की यही पुकार, मुकुंद मुरारी

आओ फिर से, गोविद सुदर्शनधारी।…

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 68 ☆ आँखों में मधुवन… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “आँखों में मधुवन…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 68 ☆ आँखों में मधुवन… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

मौसम गाए गीत नया

ऋतुगंध सुनाए सगुन

सावन विरहा मुझ पर टूटा

आए हैं दुर्दिन ।

*

यह पावस क्षण-क्षण आपस के

ख़्वाब दिखा जाये

बूँद न टूटे बूँद-बूँद के

अंग समा जाये

*

मेघ दूत लौटा दे मेरा

रंग भरा फागुन।

*

फागुन के आँगन में तुम सँग

रंग वसंत हुए

सागर बीच नहीं प्यासों के

अब तक अंत हुए

*

सावन में फागुन को देखूँ

फागुन में सावन।

*

मौसम एक अकेला राजा

ऋतुएँ सब रानी

पर लगता मन का वृंदावन

तुम बिन बेमानी

*

पलकों पर सपने तिरते हैं

आँखों में मधुवन।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पाखंड ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – पाखंड ? ?

मुखौटों की

भीड़ से घिरा हूँ,

किसी चेहरे तक

पहुँचूँगा या नहीं

प्रश्न बन खड़ा हूँ,

मित्रता के मुखौटे में

शत्रुता छिपाए,

नेह के आवरण में

विद्वेष से झल्लाए,

शब्दों के अमृत में

गरल की मात्रा दबाए,

आत्मीयता के छद्म में

ईर्ष्या से बौखलाए,

मनुष्य मुखौटे क्यों जड़ता है,

भीतर-बाहर अंतर क्यों रखता है?

मुखौटे रचने-जड़ने में

जितना समय बिताता है

जीने के उतने ही पल

आदमी व्यर्थ गंवाता है,

श्वासोच्छवास में कलुष ने

अस्तित्व को कसैला कर रखा है,

गंगाजल-सा जीवन जियो मित्रो,

पाखंड में क्या रखा है..?

 © संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 27 अगस्त से 9 दिवसीय श्रीकृष्ण साधना होगी। इस साधना में ध्यान एवं आत्म-परिष्कार भी साथ साथ चलेंगे।💥

🕉️ इस साधना का मंत्र है ॐ कृष्णाय नमः 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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