हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.५०॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.५०॥ ☆

 

भूयश्चाह त्वम अपि शयने कण्ठलग्ना पुरा मे

निद्रां गत्वा किम अपि रुदती सस्वरं विप्रबुद्धा

सान्तर्हासं कथितम असकृत पृच्चतश च त्वया मे

दृष्टः स्वप्ने कितव रमयन काम अपि त्वं मयेति॥२.५०॥

कहा है पुनः मम प्रिये कण्ठलग्ना

कभी सो रही साथ मेरे शयन में

जगाई गई क्योंकि जब रो पडी थी

अचानक सस्वर देखकर कुछ सपन मे

तो मेरे फिर फिर तब पूंछने पर

कहा था तुम्हीं ने विहंसकर जतन से

देखा किसी के साथ रतिकेलि करते

तुम्हे है छली स्वप्न में इन नयन ने

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पशोपेश ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – पशोपेश ?

बहुत बोलते हो तुम..

उस रोज़ ज़िंदगी ने कहा था,

मैंने खामोशी ओढ़ ली

और चुप हो गया…,

 

अर्से बाद फिर

किसी मोड़ पर मिली ज़िंदगी,

कहने लगी-

तुम्हारी खामोशी

बतियाती बहुत है…,

 

पशोपेश में हूँ

कुछ कहूँ या चुप रहूँ…!

 

# घर में रहें। सुरक्षित रहें, स्वस्थ रहें। #

©  संजय भारद्वाज0

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 69 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – अष्टम अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है अष्टम अध्याय

फ्लिपकार्ट लिंक >> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 69 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – अष्टम अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज श्रीमद्भागवत गीता का अष्टम अध्याय पढ़िए। आनन्द लीजिए

– डॉ राकेश चक्र

भगवत्प्राप्ति क्या है?

अर्जुन ने श्रीकृष्ण भगवान से ब्रह्म और आत्मा आदि के बारे में कुछ प्रश्न किए, जो इस प्रकार हैं—–

 

हे माधव क्या आत्मा, ब्रह्म-तत्व- संज्ञान।

कौन देवता, जगत क्या, कर्मयोग- पहचान।। 1

 

कौन अधीश्वर यज्ञ का,कैसा धरे शरीर।

कैसे जानें अंत में, माधव तुम्हें कबीर।। 2

 

श्रीकृष्ण भगवान ने भगवत्प्राप्ति के सरल साधन अर्जुन को इस प्रकार बताए——-

 

दिव्य जीव ही ब्रह्म है, मैं हूँ परमा ब्रह्म।

नित्य स्वभावी आत्मा, तन से होयँ सुकर्म।। 3

 

प्रकृति-देह अधिभूत हैं, मैं हूँ रूप विराट।

सूर्य-चंद्र अधिदेव गण,मैं सबका सम्राट।। 4

 

जो मेरा सुमिरण करे, अंत समय भज नाम।

ऐसा सज्जन पुरुष ही,पाता मेरा धाम।। 5

 

अंत समय जो नाम ले, त्यागे मनुज शरीर।

करे स्मरण भाव से, पाए वही शरीर।। 6

 

चिंतन कर मम पार्थ तू, कर धर्मोचित युद्ध।

मनोबुद्धि मुझमें करो, बने आत्मा शुद्ध।। 7

 

मेरा सुमिरन जो करें, और करें नित ध्यान।

ऐसे परमा भक्त का, हो जाता कल्यान।। 8

 

परमेश्वर सर्वज्ञ है, लघुतम और महान।

परे भौतिकी बुद्धि से, सूर्य सरिस गतिमान।। 9

 

निकट मृत्यु के पहुँचकर, करता प्रभु का ध्यान।

योग शक्ति अरु भक्ति से, हो जाता कल्यान।। 10

 

वेदों के मर्मज्ञ जो, करें ओम का जाप।

ब्रह्मज्ञान पाएँ वही, मिट जाते सब पाप।। 11

 

योगावस्थिति प्रज्ञ हों, इन्द्रिय वश में होंय।

मन हिरदय में जा बसे, प्राण वायु सिर होयँ।। 12

 

अक्षर शुभ संयोग है, ओमकार का नाम।

चिंतन योगी जो करें, पहुँचें मेरे धाम।। 13

 

सदा सुलभ उनके लिए, रखें प्रेम सद्भाव।

करें भक्ति मेरी सदा,सुखमय बने स्वभाव।। 14

 

भक्ति योग में जो रमें, ऐसे मनुज महान।

परम् सिद्धि पाएँ सदा, छूटे दुःख- जहान।। 15

 

सभी लोक हैं दुख भरे, जनम-मरण का जाल।

पाते मेरा धाम जो, कट जाते जंजाल।। 16

 

ब्रह्मा का दिन एक है, युग का एक हजार।

इसी तरह होती निशा, अद्भुत सृष्टि अपार।। 17

 

दिन होता आरंभ जब , रहता जीवा व्यक्त।

आती है जब रात भी ,हुआ विलय अव्यक्त।।18

 

ब्रह्मा का दिन पूर्ण है, जीवन का प्राकट्य।

ब्रह्मा की जब रात हो, होयँ सभी अव्यक्त।। 19

 

परे व्यक्त-अव्यक्त से,परा प्रकृति का सार।

प्रलय होय संसार का,रचना अपरम्पार।। 20

 

अविनाशी इस प्रकृति का, कभी न होता नाश।

वेद कहें इस बात को, मेरा धाम प्रकाश।। 21

 

परम् भक्ति से प्राप्त हों, ईश्वर श्रेष्ठ महान।

सर्वव्याप अविनाश प्रभु, करें भक्त कल्यान।। 22

 

भरतश्रेष्ठ मेरी सुनो, वर्णन अनगिन काल।

योगी पाते मोक्ष गति, परम् सत्य यह हाल।। 23

 

शुक्लपक्ष दिन सूर्य गति, उत्तरायणी होय।

तन त्यागे इस अवधि में, मुक्ति सुनिश्चित होय।। 24

 

सूर्य दक्षिणायन समय, कृष्णपक्ष हो काल।

चन्द्रलोक उनको मिले, तन त्यागें तत्काल।। 25

 

वेद कहें इस बात को, जाने के दो मार्ग।

पथ है एक प्रकाश का, दूजा पथ अँधियार।। 26

 

जो जाता दिनमान में,मुक्ति सुनिश्चित होय।

अंधकार परित्याग तन, पुनः आगमन होय।। 26

 

भक्तगणों को हैं पता, जाने के दो मार्ग।

सदा भक्ति करते रहो, होता बेड़ा पार।। 27

 

भक्ति मार्ग ही श्रेष्ठ है, शुभ-शुभ सब ही होय।

नित्यधाम पाएँ मेरा, जनम सार्थक होय।। 28

 

इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” अक्षर ब्रह्मयोग ” आठवाँ अध्याय समाप्त।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.४९॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.४९॥ ☆

 

शापान्तो मे भुजगशयनाद उत्थिते शार्ङ्गपाणौ

शेषान मासान गमय चतुरो लोचने मीलयित्वा

पश्चाद आवां विरहगुणितं तं तम आत्माभिलाषं

निर्वेक्ष्यावः परिणतशरच्चन्द्रिकासु क्षपासु॥२.४९॥

 

मेरी शाप की अवधि का अंत होगा

भुजग शयन से जब उठेगें मुरारी

अतः इस विरह के बचे चार महिने

नयन मूंदकर लो बिता शीघ्र प्यारी

फिर विरह दिन में बढी लालसाये

सभी पूर्ण होगी हमारी भवन में

सुख भोग होगें मिलेगें कि जब हम

शरद चन्द्रिकामय सुहानी रजनि में

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 91 – हाइकु ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके कुछ अप्रतिम हाइकु’। )

☆  तन्मय साहित्य  # 91  ☆

 ☆ हाइकु ☆

 

व्याकुल पंछी

उड़ने को आकाश

छोड़ दें रास।

        *

मन बेचैन

संसाधनों के बीच

कहाँ है चैन।

         *

हंसते रहे

मन की बेचैनियाँ

किससे कहें।

        *

सुबह होगी

रात से निबाह लें

उजाले देगी।

       *

भूल गए हैं

जीवन के मर्म को

धर्म कर्म को।

        *

भटक गए

विलासी बाजार में

अटक गए।

       *

शिथिल हुए

समूचे अंग जब

समझे तब।

      *

काम न धाम

बुढ़ापे में बादाम

नहीं पचते।

       *

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नदी की  भयाकुलता… ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आई आई एम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।)

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी ने अपने ‘प्रवीन  ‘आफ़ताब’’ उपनाम से  अप्रतिम साहित्य की रचना की है। आज प्रस्तुत है आपकी ऐसी ही अप्रतिम रचना “नदी की  भयाकुलता”। यह रचना विश्व के सुप्रसिद्ध साहित्यकार खलील जिब्रान  की प्रसिद्ध अंग्रेजी कविता “Fear” से प्रेरित है। 

?नदी की  भयाकुलता  ?️

पौराणिक कथन है कि

समुद्र में प्रवेश करने से पूर्व

नदी एक आशंका से

भयाक्रांत हो जाती है…

 

ऊँचे पहाड़ों की चोटियों से उसने

जो एक लंबा रास्ता तय किया है,

उसका वो पुनरवलोकन करती है…

और पीछे पाती है,

घने जंगलों और बीहड़ गांवों  के

हृदय को बेधती

एक स्याह, अंतहीन

सर्पाकार सड़क  की भांति

एक अजेय जिजीविषा पूर्ण

उसकी  जीवन यात्रा…

 

परंतु सामने है,

एक अंनत विशालकाय समुद्र

लीलने को तत्पर…

भयाक्रांत! उसे प्रतीत होता है

कि उसके अस्तित्व का

समापन अवश्यम्भावी है

हमेशा के लिए…

 

परन्तु कोई दूसरा रास्ता

भी तो संभव नहीं…

क्योंकि नदी पीछे नहीं जा सकती

वस्तुतः कोई भी वापस

नहीं जा सकता है..!

वापस जाना किसी के

अस्तित्व में संभव  है ही नहीं…

 

नदी को सागर में प्रवेश करने का

जोख़िम उठाना ही पड़ेगा

तभी  तो अगोचर भय पर

विजय प्राप्त हो पायेगी…

और नदी को यह ज्ञात होगा कि

वह महासागर में एकाकार हो

अपना अस्तित्व नहीं खोएगी,

अपितु स्वयं ही

महासागर बन जाएगी…!

 

~प्रवीन आफ़ताब

© कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

पुणे

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अपराजेय ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – अपराजेय ?

यूट्यूब लिंक >>  अपराजेय – श्री संजय भारद्वाज जी की कविता 

“मैं तुम्हें दिखता हूँ?”

उसने पूछा…,

“नहीं…”

मैंने कहा…,

“फिर तुम

मुझसे लड़ोगे कैसे..?”

सुनो-

“…मेरा हौसला

तुम्हें दिखता है?”

मैंने पूछा…,

“नहीं…”

“फिर तुम

मुझसे बचोगे कैसे..?”

ठोंकता है ताल मनोबल,

संकट भागने को

विवश होता है,

शत्रु नहीं

शत्रु का भय

अदृश्य होता है!

# घर में रहें। सुरक्षित रहें, स्वस्थ रहें। #

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 42 ☆ उदास जिंदगी ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ‘उदास जिंदगी। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 42 ☆

☆ उदास जिंदगी 

ना जाने क्यों आज दिल बहुत उदास है,

किसी नदी किनारे पेड़ की छांव में,

बैठ कर रोने को मन कर रहा है ||

थक गया पहाड़ सी जिंदगी को ढ़ोते-ढ़ोते,

खुद को भूल गया बोझ के तले दब कर,

आज खुद को ढूंढने का मन कर रहा है ||

कितनी उतार-चढ़ाव भरी है जिंदगी,

दुर्गम रास्तों पर चलते हुए अब थक गया हूँ,

जिस्म भी साथ छोड़ने को आतुर हो रहा है ||

कितनी शांत एक लय में बह रही है नदी,

उलझन भरी इस जिंदगी में,

मेरा मन अशांत सा बह रहा है ||

क्या खोया क्या पाया, लेखा जीवन का देखा,

पाया तो थोड़ा कुछ और खोया सब कुछ,

खाता बही में शून्य ही बचा पाया हूँ ||

ना जिंदगी से गिला है ना अपनों से शिकवा,

मैं भी रिश्तों के जुर्म में,

बराबरी की भागीदारी निभा आया हूँ ||

अब जिंदगी में रखा भी क्या है?

कुछ रिश्तें मुझे भूल गए,

कुछ रिश्तों को में भूल आया हूँ ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.४८॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.४८॥ ☆

 

नन्व आत्मानं बहु विगणयन्न आत्मनैवावलम्बे

तत्कल्याणि त्वम अपि नितरां मा गमः कातरत्वम

कस्यात्यन्तं सुखम उपनतं दुःखम एकान्ततो वा

नीचैर गच्चत्य उपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण॥२.४८॥ 

सच कई तरह सोचकर तर्कना से

स्वंय ही प्रिये धैर्य में धारता हॅू

तो तुम भी हे कल्याणी मत धैर्य खोना

न हो अधिक आतुर यही चाहता हॅू

किसको मिला सुख सदा या भला दुख

दिवस रात इनके चरण चूमते है

सदा चक्र की परिधि की भांति क्रमशः

जगत में से दोनो रहे घूमते है

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 80 ☆ जो मिला, सो मिला ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “जो मिला, सो मिला । )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 80 ☆

☆ जो मिला, सो मिला ☆

चाहत थी कितनी , ग़मगुसार ना मिला

होना हो जो सो हो, किसी से क्या गिला

 

घाव सारे धो दिए, मिटा दिए निशान

जो फिर घाव दिखा, उसको मैंने सिला

 

दुनिया घूम डाली, क़रार था रूह में

सहलाया प्यार से, चाहत का फूल खिला

 

जिगर की डालियों पर. बहार ही बहार है

शुरू हो गया जैसे कोई, प्यार का सिलसिला

 

ग़मगुसार की चाहत नहीं, न ही कोई आहट

क़ुबूल किया मुस्कुराकर, जो भी मुझे मिला

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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