हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (11-15)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (11-15) ॥ ☆

धनुष धरे भी दवार्द्र नृप को निहार निस्शंक अभीत मन से

विशाल नयनों का लाभ पाया वन हरणियों ने विलख नयन से ॥11॥

 

पवन भरे बजते बॉसुरी से, विशेष बाँसों के क्षत विवर में

वनदेवियों से सुना नृपति ने सुयश सघन वन में उच्च स्वर में ॥12॥

 

वननिर्झरों के जलकण प्रकम्पित पादप सुमनगंध से हो सुधसित

पवन थके, छत्ररहित नृपति को कर स्पर्श दे मान था अलाल्हादित ॥13॥

 

वर्षा बिना ही हुई श्शांत दावाग्नि फूले फले वृक्ष सहर्षमन से

वन प्राणियों की विफलता हुई कम, नृप के तथा शांत वन आगमन से॥14॥

 

दिनकर निरंतर प्रदर्शित दिशाधर चले जब भ्रमण पूर्णकर श्शांति पाने

तभी सॉझ को गृहगमन हेतु उपक्रम रचा नंदिनी ने तथा रविप्रभा ने ॥15॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 42 ☆ गीता ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  रचित विशेष कविता  “गीता“।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 42 ☆ गीता 

श्री कृष्ण का संसार को वरदान है गीता

निष्काम कर्म का बडा गुणगान है गीता

 

दुख के महासागर मे जो मन डूब गया हो

अवसाद की लहरो मे उलझ ऊब गया हो

 

तब भूल भुलैया मे सही राह दिखाने

कर्तव्य के सत्कर्म से सुख शांति दिलाने

 

संजीवनी है , एक रामबाण है गीता

पावन पवित्र भावो का संधान है गीता

 

है धर्म का क्या मर्म , कब करना क्या सही है

जीवन मे व्यक्ति क्या करे गीता मे यही है

 

पर जग के वे व्यवहार जो जाते न सहे हैं

हर काल हर मनुष्य को बस छलते ही रहे हैं

 

आध्यात्मिक उत्थान का विज्ञान है गीता

करती हर एक भक्त का कल्याण है गीता

 

है शब्द सरल अर्थ मगर भावप्रवण है

ले जाते हैं जो बुद्धि को गहराई गहन में

 

ऐसा न कहीं विश्व मे कोई ग्रंथ है दूजा

आदर से जिसकी होती है हर देश मे पूजा

 

भारत के दृष्टिकोण की पहचान है गीता

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – खोज ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – ? खोज ?

माथे पर ऐनक चढ़ाक

ऐनक ढूँढ़ता हूँ कुछ ऐसे,

भीतर के हरि को बिसरा कर

बाहर हरि खोजे कोई जैसे!

©  संजय भारद्वाज

9:17 प्रात:, 16 जून 2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (6-10)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (6-10) ॥ ☆

जब बैठती गया तब बैठ जाते, रूकने पै सकते औं चलने पै चलते

जलपान करती तो जलपान करते यों छाया सदृश भूप व्यवहार करते ॥ 6॥

 

सभी राज चिन्हों का परित्याग कर भी, स्वतः तेज से राजसी रूप धारे

अन्तर्मदावस्थ गजराज की भाँति वन में विचरथे नृप बेसहारे ॥7॥

 

वन द्रुमलता से उलयाते हुये केश ले, धूम बन बन सतत धनुष ताने

गुरूदेव की धेनुहित नित्य रक्षार्थ चल दुष्ट वनचर  दलो से बचाने ॥8॥

 

अनुचर रहित उस नृपति की प्रशंसा , थे वनवृक्ष औं वरूप करते दिखाते

औ पक्षि समुदाय कर गाल कलख थे चरणों सम मधुर गीत गाते ॥9॥

 

सुस्वागतम हेतु बिखेरती खील यथा नृपति मान में पौरकन्या

तथा प्रसूना ञ्जलि छोड़ती थी पवन प्रकम्पित सुलतायें वन्या ॥10॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संसार ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – ? संसार ?

वह खड़ी रही

घड़ी की सूइयों की परिधि में,

मैं करता रहा प्रतीक्षा

समय की सीमाओं के पार,

न कोई न्यून, न कोई अधिक,

न कोई सीमित, न कोई विस्तृत,

पूरक में तुलना होती है निराधार,

पूरक की समग्रता में साँस लेता संसार।

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 94 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 94 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

हृदय प्रफुल्लित हो गया,

दर्शन करते देव।

सावन में अभिषेक से,

हों प्रसन्न महदेव।।

 

धानी रंग पुकारता,

आया सावन झूम।

हरियाली छाने लगी,

लता धरा को चूम।।

 

फूल आज कुछ कह रहा,

कर अतीत  को याद।

निज स्पंदन से आज तुम,

करो  मुझे आबाद।।

 

खुशबू जिनमें है नही,

कागज के हैं फूल।

चंचरीक बनकर नहीं ,

करो प्यार की भूल।।

 

सूख गए हो आज तुम,

खिलते हुए गुलाब।

याद तुम्हारी आ गई,

जबसे मिली किताब।।

 

तनहाई डसने लगी,

बातें करो जनाब।

हो प्रतीक  मुस्कान के,

खिलते हुए गुलाब।।

 

तितली भंवरे कर रहे,

फूलों का रसपान।

महक नहीं है फूल में,

कागज भी  बेजान।।

 

मन के रेगिस्तान में,

खिलते फूल हजार।

होते ही मन बावरा , 

खोले पंख पसार।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 84 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं विशेष भावप्रवण कविता  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 84 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆

धर्म सनातन कह रहा, सारा जग परिवार

भेद-भाव मन से मिटे, सब ईश्वर अवतार

 

सुख-दुख में सब साथ हों, रहे प्रेम व्यबहार

बच्चे भी सीखें सदा, नव आचार-बिचार

 

रिश्तों की मीठी महक, सबको दे सम्मान

जोड़े सब परिवार को, बढ़ती घर की शान

 

कभी न टूटे आपके, रिश्तों की यह डोर

माला सा परिवार बँध, खींचे सबकी ओर

 

हो वसुदेव कुटुम्बकम, कहते अपने ग्रंथ

प्रेम भाव से सब रहें, सबके अपने पंथ

 

पर कलियुग में आजकल, बिखरे सब परिवार

धन-दौलत की लालसा, स्वारथ का व्यबहार

 

जीवन में गर चाहिए, सुख-शांति संतोष

साथ रहें माँ-बाप के, यह जीवन परितोष

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (1-5)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (1-2) ॥ ☆

तनप्रात में उस नृपति ने गुरू-धेनु को वन गमन हेतु घर से निकाला

था वत्स जिसका बँधा दूध पी, जिसे रानी ने पहनाई थी पूजमाला ॥1॥

 

उसके खुन्यास से पावनी धुलि का अनुगमन तब किया पतिव्रताने

वन मार्ग राजरानी ने जैसे कि श्रुति अनुसरण किया स्मृति, दृढव्रताने ॥2॥

 

निश्चिंत सुस्वरूप दयालु राजा ने नंदिनी की सुरक्षा सम्हाली

गोरूप धारिणि धरा सी सुशोभित जो थी चार सागर स्तन ऐनवाली ॥3॥

 

व्रत हेतु उस धेनु अनुयायि ने आत्म अनुयायियों को नवन साथ लाया

अपनी सुरक्षा स्वतः कर सके हर मनुज इस तरह से गया है बनाया ॥4॥

 

खिला के हरी घास, तन को खुजा के औं वनमक्षिका दे शनों से बचा के

थे सम्राट सेवा निरंतनंदिनी की, जो चरती थी स्वच्छन्द बे रोक जाके॥5॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ज्योतिर्गमय ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – ? ज्योतिर्गमय  ?

अथाह, असीम

अथक अंधेरा,

द्वादशपक्षीय

रात का डेरा,

ध्रुवीय बिंदु

सच को जानते हैं,

चाँद को रात का

पहरेदार मानते हैं,

बात को समझा करो,

पहरेदार से डरा करो,

पर इस पहरेदार की

टकटकी ही तो

मेरे पास है,

चाँद है सो

सूरज के लौटने

की आस है,

अवधि थोड़ी हो,

अवधि अधिक हो,

सूरज की राह देखते

बीत जाती है रात,

अंधेरे के गर्भ में

प्रकाश को पंख फूटते हैं,

तमस के पैरोकार,

सुनो, रात काटना

इसी को तो कहते हैं..!

( ध्रुवीय बिंदु पर रात और दिन लगभग छह-छह माह के होते हैं।)

# सजग रहें, स्वस्थ रहें। शुभ प्रभात। ?

 

©  संजय भारद्वाज

(रात्रि 3:31 बजे, 6.6.2020)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 110 ☆ कट्टरता के काले पंजे…. ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा रचित समसामयिक विषय पर आधारित एक कविता  कट्टरता के काले पंजे….। इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 110 ☆

? कट्टरता के काले पंजे ?

कठपुतली की तरह नचाते हैं अवाम को

कट्टरता के काले पंजे

छीन कर ताकत

सोचने समझने की

डाल देते हैं

दिमाग पर काले पर्दे

कट्टरता के काले पंजे

 

ओढ़ा देते हैं बुर्के औरतों को,

कैदखाना बना देते हैं

घर घर को

अदृश्य काले पंजे

 

मनमानी व्याख्या कर लेते हैं

पवित्र किताबों की

जिंदगी को

जहन्नुम बना देते हैं

फासिस्ट क्रूर काले पंजे

 

बंदूक की नोक

बम और बारूद

अमानवीय नृशंसता

तो महज दिखते हैं

दरअसल कठमुल्ले विचार

हैं काले पंजे

 

हिटलर के गोरे शरीर में

छिपे थे ऐसे ही काले पंजे

तालिबानी ताकत हैं

ये ही काले पंजे

 

सावधान

रखना है दिल दिमाग

हमें कभी कठपुतली

न बना सकें

कोई काले या सफेद

दृश्य या अदृश्य

प्रत्यक्ष या परोक्ष

फासिस्ट पंजे

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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