हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सकारात्मक कविता – पॉज़िटिव रिपोर्ट – नेगेटिव रिपोर्ट ! ☆ श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

☆ सकारात्मक कविता – पॉज़िटिव रिपोर्ट – नेगेटिव रिपोर्ट ! ☆ हेमन्त बावनकर 

जीवन में अब तक

सीखा भी यही था

और

बच्चों को सिखाया भी यही था –

“सकारात्मकता का पाठ”

सकारात्मकता – पोजिटिविटी !

प्रोटोकॉल !

किन्तु,

इन सबको मानने के बाद भी

ताश के पत्तों के महल की मानिंद

काँप उठती है ज़िंदगी

जब

आपकी जिंदगी के

प्रोटोकॉल को तोड़ते हुए

आपकी रिपोर्ट आती है

‘कोरोना पॉज़िटिव’

 

आप हो जाते हैं

किंकर्तव्यमूढ़

सब कुछ लगने लगता है

भयावह

जैसे बस

यहीं तक था सफर!

 

सबसे अधिक डराता है

चौथा स्तम्भ

चीख चीख कर

किसी हॉरर फिल्म की तरह

और

हम ढूँढने लगते हैं

उस भयावह भीड़ में

ऑक्सीजन, वेंटिलेटर और शमशान में

पंक्तिबद्ध अपने अस्तित्व को।

 

डरिए मत

यह समय भी निकल जाएगा।

जंगल की आग में जले ठूंठ में भी

अंकुरित होती हैं पत्तियाँ

उन्हें जीवित रखिए।

 

जो सकारात्मक बातें

बच्चों को अब तक सिखाते आए थे

अब उसी शिक्षा को

स्वयं में जीवित रखिए।

 

अनिष्ट की मत सोचिए

यदि

खबर न बता कर आती तो?

“होइहि सोई जो राम रचि राखा”।

 

अपने कमरे और मन की

खिड़की खोलिए

एक लंबी साँस लीजिये

संयमित चिकित्सा लीजिये

आइसोलेशन में

जीवन के उजले पक्ष में

आत्मसाक्षात्कार करिए

सकारात्मक योजनाएँ बनाइये

कमरे के बाहर

बेहद खूबसूरत कायनात

और

आपके अपने ही

आपकी राह देख रहे हैं।

देखना

अगली रिपोर्ट जरूर

“नेगेटिव” ही आएगी।

# स्वयं पर विश्वास रखिये – सकारात्मक रहिये #

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

26 अप्रैल 2021

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 90 – कुछ दोहे  … हमारे लिए ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी स्वास्थ्य की जटिल समस्याओं से  सफलतापूर्वक उबर रहे हैं। इस बीच आपकी अमूल्य रचनाएँ सकारात्मक शीतलता का आभास देती हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है आपके कुछ दोहे  … हमारे लिए। )

☆  तन्मय साहित्य  # 90  ☆

 ☆ कुछ दोहे  … हमारे लिए ☆

 इधर-उधर सुख ढूँढते, क्यों भरमाये जीव।

बच्चों के सँग बैठ ले, जो है सुख की नींव।।

 

लीलाएं शिशु की अजब, गजब हास्य मुस्कान।

बिरले लोगों को मिले, शैशव सुख वरदान।।

 

शिशु से निश्छल प्रेम ही, है ईश्वर से प्रीत।

आनंदित तन मन रहे, सुखद मधुर संगीत।।

 

रुदन हास्य करुणा मिले, रस वात्सल्य अपार।

नवरस का आनंद है, शैशव नव त्योहार।।

 

स्नेह थपकियाँ मातु की, कुपित प्रेम फटकार।

शिशु अबोध भी जानता, ठंडे गर्म प्रहार।।

 

फैलाए घर आँगने, खेल खिलौने रोज।

नाम धाम औ’ काम की, नई-नई हो खोज।।

 

जातिभेद छोटे-बड़े, पंथ धर्म से दूर।

कच्ची पक्की कुट्टियाँ, बाल सुलभ अमचूर।।

 

बच्चों की तकरार में, जब हो वाद विवाद।

सहज मिलेंगे सूत्र नव, अनुपम से संवाद।।

 

बच्चों में हमको मिले, सकल जगत का प्यार।

बालरूप ईश्वर सदृश, दिव्य रत्न उपहार।।

 

सूने जीवन में भरे, रंग बिरंगे चित्र।

बच्चों सँग बच्चे बनें, उन्हें बनाएं मित्र।।

 

भारी भरकम न रहें, हल्का रखें स्वभाव।

पत्थर पानी में डुबे, रहे तैरती नाव।।

 

बुद्धि विलास बहुत हुआ,तजें कागजी ज्ञान।

सहज सरल हो सीख लें, बच्चों सी मुस्कान।।

 

अधिकाधिक दें हम समय, दें बच्चों पर ध्यान।

बढ़ते बच्चों से बढ़े, मात-पिता की शान।।

 

ज्ञानी ध्यानी संत जन, सब को सुख की चाह।

बस बच्चे बन जाइए, सुख की सच्ची राह।।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 41 ☆ तू क्या बला है ए जिंदगी ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ‘तू क्या बला है ए जिंदगी। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 41 ☆

☆ तू क्या बला है ए जिंदगी 

 

कितने राज छुपा रखे है तूने ए जिंदगी,

आज मुझे किस मोड़ पर पहुंचा दिया तूने ए जिंदगी ||

दो घड़ी खुशी से गुजारने की तमन्ना थी,

खुशी से पहले ग़मों को पहुंचा दिया तूने ए जिंदगी ||

दो पल का सब्र तो कर लेती,

क्या पहले कम थे जो और ग़म दे दिए तूने ए जिंदगी ||

सुना था हर रात के बाद एक नई सुबह होती है,

नई सुबह को भी अंधेरी रात में पहुंचा दिया तूने ए जिंदगी ||

एक सीधा सा जीवन ही तो जीना चाहा था,

सुलझे हुए जीवन को उलझा कर रख दिया तूने ए जिंदगी ||

अब तो शाम होने को आई ए जिंदगी,

जाते-जाते तो बतला जा आखिर तू बला क्या है ए जिंदगी ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नववर्ष विशेष – आओ अपना नववर्ष मनाएं ☆ श्री आर के रस्तोगी

श्री आर के रस्तोगी

☆ नववर्ष विशेष – आओ अपना नववर्ष मनाएं ☆ श्री आर के रस्तोगी☆ 

आओ हम सब मिलकर अपना नववर्ष मनाएं।

घर घर हम सब मिलकर नई बंदनवार लगाए।

 

करे संचारित नई उमंग घर घर सब हम,

फहराए धर्म पताका अपने घर घर हम।

करे बहिष्कार पाश्चातय सभ्यता का हम,

अपनी सभ्यता को आज से अपनाए हम।

आओ सब मिलकर नववर्ष का दीप जलाए

आओ हम सब मिलकर अपना नववर्ष मनाए,

घर घर हम सब मिलकर नई बंदनवार लगाए।।

 

क्या कारण है हम अपना नववर्ष नहीं मनाते है,

केवल पाश्चातय सभ्यता का हम नववर्ष मनाते है।

रंग जाते है नई सभ्यता मे भूल गए अपने को।

रहे गुलाम अंग्रेजो के भूल गए अपने सपनों को।

आओ सब मिलकर इस सभ्यता की होली जलाए,

करे बहिष्कार इन सबका अपना नववर्ष मनाए।

आओ घर घर नववर्ष का हम सब दीप जलाएं।।

 

© श्री आर के रस्तोगी

गुरुग्राम

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.४२॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.४२॥ ☆

 

शब्दाख्येयं यदपि किल ते यः सखीनां पुरस्तात

कर्णे लोलः कथयितुम अभूद आननस्पर्शलोभात

सो ऽतिक्रान्तः श्रवणविषयं लोचनाभ्याम अदृष्टस

त्वाम उत्कण्ठाविरचितपदं मन्मुखेनेदम आह॥२.४२॥

 

कथन योग्य अपनी सरल बात भी जो

कि मुख स्पर्ष हित कान मे था बताता

अब श्रवण और दृष्टि से दूर तव प्राण

मम मुख व्यथा तुम्हें अपनी सुनाता

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 79 ☆ इमारतें ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “इमारतें । )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 79 ☆

☆ इमारतें ☆

क्या सोचती हैं यह इमारतें

यूँ ही बरसों से तनहा खड़ी हुई?

 

क्या यह किसी के इंतज़ार में हैं?

या कोई ऐसा दर्द है हो वो

बयान करने में कतराती हैं?

या कोई ऐसा घाव है

जिसपर मरहम तो लगायी कई बार

पर वो उन ज़ख्मों को भर नहीं पायीं?

 

ऊपर से तो कोई दरार नज़र नहीं आती-

पर क्या यह अंदर से टूट चुकी हैं

और कुछ कहती ही नहीं?

 

क्यों नहीं बातें करतीं यह

उनके चहुदिशा में खड़े

उन आसमान छूते दरख्तों से?

या फिर उनपर लहरा रहे पीले फूलों से?

क्या उन्हें सब कुछ बासी सा लगने लगा है?

 

इन इमारतों के भीतर आते-जाते मैंने

कई आदमी देखे हैं…

उनके आगे भी यह क्यों मौन धारण किये हैं?

क्यों नहीं बयान कर देतीं यह अपनी दास्ताँ

किसी ऐसे दोस्त से जो उन्हें समझ सके?

 

सुनो ए इमारत!

बस, अभी तो बसंत का आगमन हुआ है…

यह खिलने का मौसम है,

मुरझाने का नहीं!

चलो, हम-तुम मिलकर ही डोलते हैं

इन लचकती डालियों के संग,

और मस्त हो जाते हैं

इस खूबसूरत समां में!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.४१॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.४१॥ ☆

 

अङ्गेनाङ्गं प्रतनु तनुना गाढतप्तेन तप्तं

सास्रेणाश्रुद्रुतम अविरतोत्कण्ठम उत्कण्ठितेन

उष्णोच्च्वासं समधिकतरोच्च्वासिना दूरवर्ती

संकल्पैस तैर विशति विधिना वैरिणा रुद्धमार्गः॥२.४१॥

दुर्देव से है रूंधी राह जिसकी

कि वह दूरवासी यही जानता है

स्वतः क्षीण तन से जलन से नयन से

तुम्हें भी विकल पर प्रबल मानता है

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की#46 – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #46 –  दोहे  ✍

जीवन के वनवास को, हमने काटा खूब।

अंगारों की सेज पर, रही दमकती दूब।।

 

एक तुम्हारा रूप है, एक तुम्हारा नाम ।

धूप चांदनी से अंटी, आंखों की गोदाम।।

 

केसर ,शहद, गुलाब ने, धारण किया शरीर ।

लेकिन मुझको तुम दिखीं, पहिन चांदनी चीर।।

 

गंध कहां से आ रही, कहां वही रसधार ।

शायद गुन गुन हो रही, केश संवार संवार।।

 

सन्यासी – सा मन बना, घना नहीं है मोह।

ले जाएगा क्या भला, लूटे अगर गिरोह ।।

 

कुंतल काले देखकर, मन ने किया विचार ।

दमकेगा सूरज अभी जरा छंटे अंधियार।।

 

इधर-उधर भटका किए, चलती रही तलाश।

एक दिन उसको पा लिया, थीं सपनों की लाश।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 45 – लरजती रही ड्योढी … ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “लरजती रही ड्योढी  …  । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 45 ।। अभिनव गीत ।।

☆ लरजती रही ड्योढी  …  ☆

इस इमारत की थकी

दीवार थी जो

ढह गई कल सिसकती

भिनसार थी जो

 

बडी बहिना सी

लरजती रही ड्योढी

उम्र  में मेहराव जो थी

बड़ी थोड़ी

 

और वह खिड़की

दुहाई के लिये बस

चुप हुई है ले रही

चटकार थी जो

 

भरभराकर गिर

रही हैं सीढियाँ तक

इस महल की गुजारीं

कई पीढियाँ तक

 

एक आले में कुँअरि की

मिली नथनी

कभी शासन की पृथक

चमकार थी जो

 

दियाठाने पर

सटा जो देहरी से

उसी के दायीं तरफ

निर्मित जरी से

 

उस दुपट्टे की फटी

निकली किनारी

कभी जनपद की प्रखर

सरकार थी जो

 

और अब इतिहास

का यह गर्त केवल

समय की सबसे

जरूरी शर्त केवल

 

कहीं भी देती सुनाई

अब नहीं है

कड़क मूँछों की रही

ललकार थी जो

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

6-4-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सामाजिक चेतना #88 – प्रवासी भारतीयों को समर्पित…. ☆ सुश्री निशा नंदिनी भारतीय

सुश्री निशा नंदिनी भारतीय 

(सुदूर उत्तर -पूर्व भारत की प्रख्यात लेखिका/कवियित्री सुश्री निशा नंदिनी जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना की अगली कड़ी में  आज प्रस्तुत है प्रवासी भारतीयों को समर्पित एक विशेष कविता प्रवासी भारतीयों को समर्पित….।आप प्रत्येक सोमवार सुश्री निशा नंदिनी जी के साहित्य से रूबरू हो सकते हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना  # 88 ☆

☆ प्रवासी भारतीयों को समर्पित…. ☆

जड़ों से जुड़े ये पुष्प हैं प्रवासी।

वतन की ऊर्जा हिये में हर्षाये

हरेक प्रकोष्ठ में धरा के समाये।

रंग-रूप रीति-नीति धर्म-कर्म संग

जड़ों से जुड़े ये पुष्प हैं प्रवासी।

सांसों में थामे कस्बाई हवा को

उड़ चले सातों समंदर के पार।

कुरीतियों पे करते जमकर प्रहार

विषमताओं के तोड़ते हैं तार।

वृक्षों से झरे पर मुरझाए नहीं

जड़ों से जुड़े ये पुष्प हैं प्रवासी।

फैलाते चहुँ ओर सुरभित गंध

हृदय में बसाये विदेशिये द्वंद्व।

बिसारते न खान-पान बोली-भाषा

अपनो से जुड़ने की हरपल आशा।

नहीं कसमसाते पीड़ा से इसकी

जड़ों से जुड़े ये पुष्प हैं प्रवासी।

उड़े पवन संग गिरे दूर जाकर

खुशबू को रखा हमेशा संभाले।

मिट्टी को अपनी लपेटे तन में

रंगे नहीं हर किसी के रंग में।

सोना उगलती ये धरती सारी

जड़ों से जुड़े ये पुष्प हैं प्रवासी।

 

© निशा नंदिनी भारतीय 

तिनसुकिया, असम

राष्ट्रीय मार्ग दर्शक, इंद्रप्रस्थ लिटरेचर फेस्टिवल, नई दिल्ली

मो 9435533394

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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