हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 66 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – पंचम अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है पंचम अध्याय

फ्लिपकार्ट लिंक >> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 66 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – पंचम अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज आप पढ़िए पंचम अध्याय का सार। आनन्द उठाएँ।

 डॉ राकेश चक्र

अध्याय 5

भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोग का वर्णन कर अर्जुन को ज्ञान दिया।

अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से प्रश्न इस तरह पूछा –

केशव मुझे बताइए, क्या उत्तम, क्या श्रेष्ठ ?

कर्मों से संन्यास या, फिर निष्कामी ज्येष्ठ।। 1

 

भगवान श्रीकृष्ण उवाच

भगवान ने अर्जुन को कर्मयोग का ज्ञान कुछ इस तरह दिया।

तन, मन, इन्द्रिय कर्म का, कर्तापन तू त्याग।

कर्म करो निष्काम ही, यही श्रेष्ठ है मार्ग।। 2

 

द्वेष, आकांक्षा छोड़ दे, यही पूर्ण संन्यास।

राग-द्वेष के द्वंद्व का, न हो देह में वास।। 3

 

कर्म योग निष्काम यदि,वही योग संन्यास।

ज्ञानी जन ऐसा कहें, जीवन भरे प्रकाश।। 4

 

ज्ञान योग भी योग है, कर्म योग भी योग।

ये दोनों ही श्रेष्ठ हैं, करें इष्ट से योग।। 5

 

श्रेष्ठ भक्ति भगवत भजन, जो करते निष्काम।

कर्तापन को त्याग कर, मिलता मेरा धाम।। 6

 

पुरुष इन्द्रियातीत जो,, ईश भक्ति में लीन ।

कर्मयोग निष्काम कर, बनता श्रेष्ठ नवीन।। 7

 

सांख्य योग का जो गुरू, सत्व-तत्व में लीन।

अवलोकन स्पर्श कर,सुने ईश आधीन।। 8

 

भोजन पाय व गमन कर, सोत, बोल बतलाय।

हर इन्द्री से कर्म कर, नहीं स्वयं दर्शाय।। 9

 

पुरुष देह-अभिमान के, कर्म न हों निष्काम।

त्यागें देहासक्ति जो, वे ही कमल समान।। 10

 

कर्मयोग निष्काम से, तन-मन होता शुद्ध।

नरासक्ति जो त्यागते , बुद्धि शुद्धि हो बुद्ध।। 11

 

अर्पण सारे कर्मफल , करें ईश को भेंट।

कर्मयोग निष्काम ही, विधि-लेखा दें मेंट।। 12

 

करे प्रकृति आधीन जो, मन  कर्मों का त्याग।

तन नौ द्वारी बिन करे, सुखमय भरे प्रकाश।। 13

(नो द्वार-दो आँखें, दो कान, दो नाक के नथुने, एक मुख, गुदा और उपस्थ)

 

तन का स्वामी आत्मा, करे कर्म ना कोय।

ग्रहण करें गुण प्रकृति के, माखन रहे बिलोय।। 14

 

पाप-पुण्य जो हम करें, नहिं प्रभु का है दोष।

भ्रमित रही ये आत्मा,ढका ज्ञान का कोष।। 15

 

बढ़े ज्ञान जब आत्मा, होय, अविद्या नाश।

जैसे सूरज तम हरे, उदया होय प्रकाश।। 16

 

मन बुधि श्रद्धा आस्था, शरणागत भगवान।

ज्ञान द्वार कल्मष धुले, खुलें मुक्ति प्रतिमान।। 17

 

पावन हो जब आत्मा, आता है समभाव।

सज्जन, दुर्जन, गाय इति, मिटे भेद का भाव।। 18

 

मन एकाकी सम हुआ, वह जीते सब बंध।

ब्रह्म ज्ञान जो पा गए,फैली पुण्य सुगंध।। 19

 

सुख-दुख में स्थिर रहे, नहीं किसी की चाह।

मोह, भ्रमादिक से विरत,गहे ब्रह्म की  राह।। 20

 

इन्द्रिय आकर्षण नही, चरण-शरण हरि लीन।

आनन्दित हो आत्मा, कभी न हो गमगीन।। 21

 

दुख-सुख भोगें इन्द्रियाँ, ज्ञानी है निर्लिप्त।

आदि-अंत है भोग का, कभी न हो संलिप्त।। 22

 

सहनशील हैं जो मनुज, काम-क्रोध से दूर।

जीवन उसका ही सुखी, चढ़ें न पेड़ खजूर।। 23

 

सुख का अनुभव वे करें, जो अन्तर् में लीन।

योगी है अंतर्मुखी, ब्रह्म भाव लवलीन।। 24

 

संशय,भ्रम से हैं परे, करे आत्म से प्यार।

सदा जीव कल्याण में, दें जीवन उपहार।। 25

 

माया, इच्छा से परे, रहें क्रोध से दूर।

रहें आत्म में लीन जो,मिलती मुक्ति  जरूर।। 26

 

भौंहों के ही मध्य में, करें दृष्टि का ध्यान।

स्वत्व प्राण व्यापार को, वश में कर ले ज्ञान।। 27

 

इन्दिय बुधि आधीन हो, रखे मोक्ष का लक्ष्य।

ऐसा योगी जगत में, ज्ञानी आत्मिक दक्ष।। 28

 

मैं परमेश्वर सृष्टि का, मैं देवों का मूल।

जो समझें इस भाव से, बने आत्म निर्मूल।। 29

 

इस प्रकार श्रीमद्भगवतगीता का “ध्यान योग” भक्तिवेदांत का पांचवा अध्याय समाप्त।

 © डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.१७॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.१७॥ ☆

 

रक्ताशोकश चलकिसलयः केसरश चात्र कान्तः

प्रत्यासन्नौ कुरुवकवृतेर माधवीमण्डपस्य

एकः सख्यास तव सह मया वामपादाभिलाषी

काङ्क्षत्य अन्यो वदनमदिरां दोहदच्चद्मनास्याः॥२.१७॥

 

व्यथा से कृषांगी , विरह के शयन में

पड़ी एक करवट दिखेगी मलीना

क्षितिज पपूर्व के अंक में हो पड़ी ज्यों

अमावस रजनि चंद्र की कोर क्षीणा

वही रात जो साथ मेरे यथेच्छा

प्रणय केलि में एक क्षण सम बिताती

होगी विरह में महारात्री के सम

बिताती उसे उष्ण आंसू बहाती

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 87 – हम कुछ तो भी हैं……. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी स्वास्थ्य की जटिल समस्याओं से  सफलतापूर्वक उबर रहे हैं। इस बीच आपकी अमूल्य रचनाएँ सकारात्मक शीतलता का आभास देती हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी होली के रंग की एक रचना हम कुछ तो भी हैं……. । )

☆  तन्मय साहित्य  #87 ☆

 ☆ हम कुछ तो भी हैं……. ☆

छद्मसिरी साहित्य शिरोमणि

ये भी, वो भी हैं

नीरज, निराला भले नहीं

पर हम कुछ तो भी हैं।

 

फोटो छपती है अपनी

प्रतिदिन अखबारों में

नाम हमारा चर्चित

साहित्यिक फ़नकारों में

पदम सिरी मिलने की

उम्मीदें हमको भी है।

दिनकर नीरज…….।।

 

सोशल मीडिया पर भी

तो हम ही हम छाएँ हैं

कितने ही सम्मान

यहाँ पर हमने पाएँ हैं,

मोबाईल ने सम्मानों की

फसलें बो दी है।

दिनकर नीरज…….।।

 

लाज शर्म संकोच छोड़

मुँह मिट्ठू स्वयं बनें

पाने को अमरत्व, सतत

जारी प्रयास अपने,

कविताई के विकट

संक्रमण के हम रोगी हैं

दिनकर नीरज…….।।

 

बात करो मत उसकी

वो हमसे ही सीखा है

क्या सरजन है उसका

रूखा, सूखा, फीका है,

हम तो कर देते अमान्य

लिखता वह जो भी है।

दिनकर नीरज……..।।

 

रोज रोज आते सुंदर

कविताओं के सपने

साधें शब्दजाल से

सब को, हो जाएँ अपने

लिखा, भूख – रोटी पर

खुद कविताएँ रो दी है।

दिनकर नीरज…….।।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश0

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 38 ☆ रुखसत हो गयी जिंदगी ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता रुखसत हो गयी जिंदगी। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 38 ☆

☆ रुखसत हो गयी जिंदगी 

 

रुखसत हो गयी जिंदगी बहार के इंतज़ार में,

मैं खुद ही खुद का मेहमान हो गया जिंदगी में ||

 

कैसे खिदमत करूं खुद की कुछ समझ नहीं आता,

जवाब देते नहीं बना,कैसे आना हुआ जब पूछ लिया जिंदगी ने ||

 

जवानी से तो बचपन अच्छा था हंसी-खुशी से बीता था,

हर कोई मुझसे खुश था खुशियों से झोलियाँ भरी थी जिंदगी में ||

 

होश संभाला तब असल जिंदगी से मुलाकात हुई,

हंसी-खुशी गायब थी रौनक सौ-कोस दूर थी असल जिंदगी में ||

 

जिन लोगों के चेहरे मुझे देख खिल उठते थे,

खुद के गुनाहों का कुसूरवार भी मुझे ही ठहराने लगे जिंदगी में ||

 

दुनिया में हर तरफ झूठ कपट का है बोलबाला,

बनावटी हंसी-मुस्कान और दिखावे का अपनापन भरा है जिंदगी में ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.१६॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.१६॥ ☆

 

तस्यास तीरे रचितशिखरः पेशलैर इन्द्रनीलैः

क्रीडाशैलः कनककदलीवेष्टनप्रेक्षणीयः

मद्गेहिन्याः प्रिय इति सखे चेतसा कातरेण

प्रेक्ष्योपान्तस्फुरिततडितं त्वां तम एव स्मरामि॥२.१६॥

 

दिन में विरह की व्यथा व्यस्तता से

है संभव न होगी , निशा में यथा हो

मैं अनुमानता हूं , गहन शोक मन का

जो निशि में सताता मेरी प्रियतमा को

तो साध्वी तव सखी को रजनि में

पड़ी भूमि पर देख , उन्निद्र साथी

उचित है कि संदेश मेरा सुनाकर

दो सुख , बैठ गृह गवाक्ष पर प्रवासी

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 75 ☆ लफ्ज़ लफ्ज़ सुनना है ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “लफ्ज़ लफ्ज़ सुनना है । )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 75 ☆

☆ लफ्ज़ लफ्ज़ सुनना है ☆

नाशाद है दिल बस, हारा नहीं है

ज़िंदगी की शय से, मारा नहीं है

 

खोल दो ये किताब, लफ्ज़ लफ्ज़ सुनना है

इस किताब का हमें, सुन्दर अंत बुनना है

 

ज़िंदगी की शाम में और भी फ़साने हैं

वो भी एक ज़माना था, और भी ज़माने हैं

इंतज़ार नहीं तो क्या, कुछ तो लिखा होगा

लिखाई जानने के हम कितने ही दीवाने हैं

 

खोल दो ये किताब, लफ्ज़ लफ्ज़ सुनना है

इस किताब का हमें, सुन्दर अंत बुनना है

 

महफ़िल ये दोस्तों की, लहर लहर बहती है

इतराती ये शान से, कहानी कोई कहती है

भूल ही जाओ ग़म सब, ख़ुशी में अब खोना है

मुस्कान सी जाने क्यूँ आरिज़ पर अब रहती है

 

खोल दो ये किताब, लफ्ज़ लफ्ज़ सुनना है

इस किताब का हमें, सुन्दर अंत बुनना है

 

ज़िंदगी ये बस लम्हे की चुटकी भर के हैं पल

जुस्तजू तुम बिखेर दो खिल उठें कई कमल

धुंआ धुंआ सा अब नहीं हमें यूँ बिखेरना है

लम्हे ये नदिया से बहने लगे हैं कल कल

 

खोल दो ये किताब, लफ्ज़ लफ्ज़ सुनना है

इस किताब का हमें, सुन्दर अंत बुनना है

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अनुभव ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि –अनुभव ?

ज़मीन से कुछ ऊपर

कदम उठाए चला था,

आसमान को मुट्ठी में

कैद करने का इरादा था,

 

अचानक-

ज़मीन ही खिसक गई

ऊँचाई भी फिसल गई,

 

आसमान व्यंग से

मुझ पर हँस रहा था,

अपनी जग-हँसाई

मैं भी अनुभव कर रहा था,

 

किंतु अब फिर से

प्रयासों में जुटा हूँ,

इतनी सी मुट्ठी,

उतना बड़ा आसमान है,

 

पर इस बार आसमान

भयभीत नज़र आता है,

अनुभव जीवन को

नये मार्ग दिखाता है,

जानता हूँ, अब

विजय सुनिश्चित है

क्योंकि

इस बार मेरे कदम

ज़मीन से ऊपर नहीं

बल्कि ज़मीन पर हैं।

 

©  संजय भारद्वाज

( कविता संग्रह ‘योंही’ से )

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अल्फाज़ों  से  तो  अकसर … ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।)

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी ने अपने उपनाम  प्रवीण ‘आफताब’ उपनाम से  अप्रतिम साहित्य की रचना की है। आज प्रस्तुत है आपकी ऐसी ही अप्रतिम रचना अल्फाज़ों  से  तो  अकसर

☆ अल्फाज़ों  से  तो  अकसर … ☆

तज़ुर्बा तो यही कहता है कि

    खामोशियाँ बेहतर होती हैं,

अल्फाज़ों  से  तो  अकसर

    लोग रूठ जाया करते हैं…

 

यूँ तो तमाम जिंदगी गुज़र गई

    सबको खुश करने में…

मगर  जो  खुश  हुए  वो

    कभी अपने  थे ही नहीं…

 

अलबत्ता  जो  अपने  थे वो

    कभी खुश  हुए  ही  नहीं,

कितना भी समेट लें दामन में हम

    चंद कतरे तो फिसलते  ही  हैं…

 

मुट्ठी में भी आस्मां समाता है कहीं

    वक़्त बेअख्तियार होता है, हुजूर

कोशिश करने से बदले या ना बदले

    मगर खुदबखुद बदलता जरूर है!

~प्रवीन आफ़ताब

© कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

पुणे

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.१४॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.१४॥ ☆

 

तत्रागारं धनपतिगृहान उत्तरेणास्मदीयं

दूराल लक्ष्यं सुरपतिधनुश्चारुणा तोरणेन

यस्योपान्ते कृतकतनयः कान्तया वर्धितो मे

हस्तप्राप्यस्तवकनमितो बालमन्दारवृक्षः॥२.१४॥

 

या मलिन वसना धरे गोद वीणा

मेरे नाममय गीत को उच्च स्वर में

गाने मेरी याद में उमड़ आये

नयनवारि से सिक्त ले वीण कर में

बड़े कष्ट से तार उसके

फिर आलाप कर भूल भरती रुलाई

यों भाव भीनी दशा में तुम्हें मेघ

आलोक में वह पड़ेगी दिखाई .

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की#42 – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #41 – दोहे  ✍

विकल रहूं या मैं विवश, कौन करे परवाह ।

सब सुनते हैं शोर को, दब जाती है आह।।

 

सोच रहा हूं आज मैं, करता हूं अनुमान ।

अधिक अपेक्षा ही करें, सपने लहूलुहान।।

 

शब्द ब्रह्म आराधना, प्राणों का संगीत ।

भाव प्रवाहित जो सरित, उर्मि उर्मि है गीत ।।

 

कहनी अनकहनी सुनी, भरते रहे हुंकार।

क्रोध जताया आपने, हम समझे हैं प्यार ।।

 

कितनी दृढ़ता में रखूं , हो जाता कमजोर।

मुश्किल लगता खींच कर, रखना मन की डोर।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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