हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 79 ☆ इमारतें ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “इमारतें । )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 79 ☆

☆ इमारतें ☆

क्या सोचती हैं यह इमारतें

यूँ ही बरसों से तनहा खड़ी हुई?

 

क्या यह किसी के इंतज़ार में हैं?

या कोई ऐसा दर्द है हो वो

बयान करने में कतराती हैं?

या कोई ऐसा घाव है

जिसपर मरहम तो लगायी कई बार

पर वो उन ज़ख्मों को भर नहीं पायीं?

 

ऊपर से तो कोई दरार नज़र नहीं आती-

पर क्या यह अंदर से टूट चुकी हैं

और कुछ कहती ही नहीं?

 

क्यों नहीं बातें करतीं यह

उनके चहुदिशा में खड़े

उन आसमान छूते दरख्तों से?

या फिर उनपर लहरा रहे पीले फूलों से?

क्या उन्हें सब कुछ बासी सा लगने लगा है?

 

इन इमारतों के भीतर आते-जाते मैंने

कई आदमी देखे हैं…

उनके आगे भी यह क्यों मौन धारण किये हैं?

क्यों नहीं बयान कर देतीं यह अपनी दास्ताँ

किसी ऐसे दोस्त से जो उन्हें समझ सके?

 

सुनो ए इमारत!

बस, अभी तो बसंत का आगमन हुआ है…

यह खिलने का मौसम है,

मुरझाने का नहीं!

चलो, हम-तुम मिलकर ही डोलते हैं

इन लचकती डालियों के संग,

और मस्त हो जाते हैं

इस खूबसूरत समां में!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.४१॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.४१॥ ☆

 

अङ्गेनाङ्गं प्रतनु तनुना गाढतप्तेन तप्तं

सास्रेणाश्रुद्रुतम अविरतोत्कण्ठम उत्कण्ठितेन

उष्णोच्च्वासं समधिकतरोच्च्वासिना दूरवर्ती

संकल्पैस तैर विशति विधिना वैरिणा रुद्धमार्गः॥२.४१॥

दुर्देव से है रूंधी राह जिसकी

कि वह दूरवासी यही जानता है

स्वतः क्षीण तन से जलन से नयन से

तुम्हें भी विकल पर प्रबल मानता है

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की#46 – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #46 –  दोहे  ✍

जीवन के वनवास को, हमने काटा खूब।

अंगारों की सेज पर, रही दमकती दूब।।

 

एक तुम्हारा रूप है, एक तुम्हारा नाम ।

धूप चांदनी से अंटी, आंखों की गोदाम।।

 

केसर ,शहद, गुलाब ने, धारण किया शरीर ।

लेकिन मुझको तुम दिखीं, पहिन चांदनी चीर।।

 

गंध कहां से आ रही, कहां वही रसधार ।

शायद गुन गुन हो रही, केश संवार संवार।।

 

सन्यासी – सा मन बना, घना नहीं है मोह।

ले जाएगा क्या भला, लूटे अगर गिरोह ।।

 

कुंतल काले देखकर, मन ने किया विचार ।

दमकेगा सूरज अभी जरा छंटे अंधियार।।

 

इधर-उधर भटका किए, चलती रही तलाश।

एक दिन उसको पा लिया, थीं सपनों की लाश।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 45 – लरजती रही ड्योढी … ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “लरजती रही ड्योढी  …  । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 45 ।। अभिनव गीत ।।

☆ लरजती रही ड्योढी  …  ☆

इस इमारत की थकी

दीवार थी जो

ढह गई कल सिसकती

भिनसार थी जो

 

बडी बहिना सी

लरजती रही ड्योढी

उम्र  में मेहराव जो थी

बड़ी थोड़ी

 

और वह खिड़की

दुहाई के लिये बस

चुप हुई है ले रही

चटकार थी जो

 

भरभराकर गिर

रही हैं सीढियाँ तक

इस महल की गुजारीं

कई पीढियाँ तक

 

एक आले में कुँअरि की

मिली नथनी

कभी शासन की पृथक

चमकार थी जो

 

दियाठाने पर

सटा जो देहरी से

उसी के दायीं तरफ

निर्मित जरी से

 

उस दुपट्टे की फटी

निकली किनारी

कभी जनपद की प्रखर

सरकार थी जो

 

और अब इतिहास

का यह गर्त केवल

समय की सबसे

जरूरी शर्त केवल

 

कहीं भी देती सुनाई

अब नहीं है

कड़क मूँछों की रही

ललकार थी जो

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

6-4-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सामाजिक चेतना #88 – प्रवासी भारतीयों को समर्पित…. ☆ सुश्री निशा नंदिनी भारतीय

सुश्री निशा नंदिनी भारतीय 

(सुदूर उत्तर -पूर्व भारत की प्रख्यात लेखिका/कवियित्री सुश्री निशा नंदिनी जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना की अगली कड़ी में  आज प्रस्तुत है प्रवासी भारतीयों को समर्पित एक विशेष कविता प्रवासी भारतीयों को समर्पित….।आप प्रत्येक सोमवार सुश्री निशा नंदिनी जी के साहित्य से रूबरू हो सकते हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना  # 88 ☆

☆ प्रवासी भारतीयों को समर्पित…. ☆

जड़ों से जुड़े ये पुष्प हैं प्रवासी।

वतन की ऊर्जा हिये में हर्षाये

हरेक प्रकोष्ठ में धरा के समाये।

रंग-रूप रीति-नीति धर्म-कर्म संग

जड़ों से जुड़े ये पुष्प हैं प्रवासी।

सांसों में थामे कस्बाई हवा को

उड़ चले सातों समंदर के पार।

कुरीतियों पे करते जमकर प्रहार

विषमताओं के तोड़ते हैं तार।

वृक्षों से झरे पर मुरझाए नहीं

जड़ों से जुड़े ये पुष्प हैं प्रवासी।

फैलाते चहुँ ओर सुरभित गंध

हृदय में बसाये विदेशिये द्वंद्व।

बिसारते न खान-पान बोली-भाषा

अपनो से जुड़ने की हरपल आशा।

नहीं कसमसाते पीड़ा से इसकी

जड़ों से जुड़े ये पुष्प हैं प्रवासी।

उड़े पवन संग गिरे दूर जाकर

खुशबू को रखा हमेशा संभाले।

मिट्टी को अपनी लपेटे तन में

रंगे नहीं हर किसी के रंग में।

सोना उगलती ये धरती सारी

जड़ों से जुड़े ये पुष्प हैं प्रवासी।

 

© निशा नंदिनी भारतीय 

तिनसुकिया, असम

राष्ट्रीय मार्ग दर्शक, इंद्रप्रस्थ लिटरेचर फेस्टिवल, नई दिल्ली

मो 9435533394

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.४०॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.४०॥ ☆

 

ताम आयुष्मन मम च वचनाद आत्मनश चोपकर्तुं

ब्रूया एवं तव सहचरो रामगिर्याश्रमस्थः

अव्यापन्नः कुशलम अबले पृच्चति त्वां वियुक्तः

पूर्वाभाष्यं सुलभविपदां प्राणिनाम एतद एव॥२.४०॥

तो दीर्घजीवी मेरी मान कृपया

स्वतः को तथा मित्र कृतकार्य करते

कहना कि सहचर सखी तब वियोगी

कुशल रामगिरि मे बसा है तरसते

कुशल क्षेम तुमसे तथा पूछता

क्योंकि मानव विपद के सहज जो खिलौने

उनकी कुशलता प्रथम प्रश्न है योग्य

इससे प्रमुख भला क्या प्रश्न होने

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 49 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 49 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 49) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 49☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

फ़र्क़ चेहरे की हँसी पर

सिर्फ इतना सा पाते हैं

पहले  खुद आती  थी

अब  लाना पड़ता  है..!

 

Difference in smile on the

 face is just that much only,

Earlier it’d come on its own

Now it has to be brought..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

मिज़ाज अपना कुछ

ऐसा बना लिया हमने,

किसी ने कुछ भी कहा

बस मुस्कुरा दिया हमने…

 

I’ve made my temperament

such  that,  even  if

Someone says anything,

I simply give a smile…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

न जाने किस मोड़ पे ले आई

हमें तेरी ये बेकाबू तलब,

सर पे चिलचिलाती धूप

और राह में इक साया भी नहीं!

 

Don’t know where this unruly

craving for you has brought me,

Scorching sun up in the sky

And, not a shade in the path..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

ठुकराया था हमने भी

बहुतों को तेरी खातिर..

तुझसे फासला भी शायद

उनकी बद्दुआओं का असर है

 

I too had rejected many

of  them  for  your sake, 

Distance from you, perhaps,

is the effect of their curse!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 82 ☆ उसकी खोज ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की  एक भावपूर्ण रचना  “उसकी खोज….। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 82 ☆ उसकी खोज…. ☆

 

दिन के उजाले में अपनी परछाई देखी,

चांद दिखा ‌अंबर‌ में और पानी में ‌छाया।

तपती दोपहरी में एक मृग मरीचिका सी,

गली गली में भी मैं उसे ढूंढ नहीं पाया ।

 

मंदिरों में खोज रहा मस्ज़िदों में झांक रहा,

गिरजों गुरद्वारों में उसे ही पुकार रहा।

देता अजान रहा और पढ़ता कुरान रहा।

घंटे घड़ियाल बजा मैं गाता रहा आरती।

 

भाग‌ रहा जीवन भर मन में अहसास लिए,

फिर भी ना‌‌ पकड़ पाया परछाई ‌भागती ।

उसको मैं जान रहा उसको ही‌ मान रहा,

कभी उसे देखा नहीं ना उससे पहचान थी।

 

अपनी आंखों‌ में दर्शन की चाह‌ लिेये,

रहा‌ हूँ भटकता मैं ढूंढ ढूंढ हार गया।

ढूंढ ढूंढ बाहर मैं थक कर निढाल हुआ,

खुद के भीतर ‌झांका तो उसे वहीं पाया ।

 

मन की आंखों से जब मैंने उसे देखा

छलक पड़े दृगबिंदु मन में वो समाया ।

अंतर्मन में ‌जब‌ होकर‌ मौन देखा,

आओ बतायें तुम्हें कहां कहां पाया।

 

सबेरे की‌ भोर में झरनों के शोर में

सागर की‌ हलचल, नदियों की‌ कलकल में।

चिड़ियों के गीत में जीवन संगीत में,

बच्चों की‌ क्रीड़ा में ‌दुखियों की ‌पीडा़ ‌में,

दीनो ईमान में सारे जहान में सारे जहान में,

डाल डाल पात पात फूलों की रंगत में,

जहां जहां नजर पड़ी उसको ही पाया।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.३९॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.३९॥ ☆

 

इत्य आख्याते पवनतनयं मैथिलीवोन्मुखी सा

त्वाम उत्कण्ठोच्च्वसितहृदया वीक्ष्य सम्भाव्य चैव

श्रोष्यत्य अस्मात परम अवहिता सौम्य सीमन्तिनीनां

कान्तोदन्तः सुहृदुपनतः संगमात किंचिद ऊनः॥२.३९॥

 

सुन इस तरह ज्यों कि सीता पवन पुत्र

के प्रति प्रफुल्लित तुरत मुंह उठाकर

तुम्हें देखकर और सत्कार कर मित्र

होगी परम मुग्ध विष्वास पाकर

सुनेगी बडे ध्यान से सौम्य सारा

है शंका न इसमें तनिक और क्यो हो

स्वप्रिय का संदेशा परम मित्र के मुख

मिलन से न कुछ न्यून है नारियों को

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 37 ☆ कृष्ण कन्हैया ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  एक भावप्रवण कविता  कृष्ण कन्हैया।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 37 ☆ कृष्ण कन्हैया ☆

गोकुल तुम्हें बुला रहा, हे कृष्ण कन्हैया।

वन वन भटक रही हैं, ब्रजभूमि की गैया।

दिन इतने बुरे आये कि, चारा भी नही है।

इनको भी तो देखो जरा, हे धेनु चरैया।

 

करती हैं याद, देवकी माँ रोज तुम्हारी।

यमुना का तट, और  गोपियाँ सारी।

गई सूख धार यमुना की, उजडा है वृन्दावन।

रोती तुम्हारी याद में, नित यशोदा मैया।

 

रहे गाँव वे, न लोग वे, न नेह भरे मन।

बदले से हैं घर द्वार, सभी खेत, नदी, वन।

जहाँ दूध की नदियाँ थीं, वहाँ अब है वारूणी।

देखो तो अपने देश को, बंशी के बजैया।

 

जनमन न रहा वैसा, न वैसा है आचरण।

बदला सभी वातावरण, सारा रहन सहन।

भारत तुम्हारे युग का, न भारत है अब कहीं।

हर ओर प्रदूषण की लहर आई कन्हैया।

 

आकर के एक बार, निहारो तो दशा को।

बिगड़ी को बनाने की, जरा नाथ दया हो।

मन में तो अभी भी, तुम्हारे युग की ललक है।

पर तेज विदेशी हवा में, बह रही नैया।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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