हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 86 – पगडंडी सी लचक कहाँ … ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी स्वास्थ्य की जटिल समस्याओं से  सफलतापूर्वक उबर रहे हैं। इस बीच आपकी अमूल्य रचनाएँ सकारात्मक शीतलता का आभास देती हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना पगडंडी सी लचक कहाँ …। )

☆  तन्मय साहित्य  #86 ☆

 ☆ पगडंडी सी लचक कहाँ … ☆

पगडंडी सी लचक कहाँ

डामर की सड़कों में

कहाँ नजाकत रही आज

लड़की औ’ लड़कों में।।

 

संशय सदा बना रहता

स्त्रीलिंग पुल्लिंग का

कटे बाल और जींस शर्ट में

खा जाते धोखा,

मुश्किल अंतर करना अब

छुटकों और बड़कों में।

कहाँ नजाकत रही आज

लड़की औ’ लड़कों में।।

 

संबोधन भी बदल गए

अपनी भाषा भूले

भगदड़ मची हुई, मन में

आकाश कुसुम छू लें,

रंगबिरंगे स्वप्न,अधजगी

निद्रा पलकों में।।

कहाँ नजाकत रही आज

लड़की औ’ लड़कों में।।

 

घर का स्वाद कर दिया

पिज्जा बर्गर ने गायब

मैगी नूडल बने हुए हैं

अब घर के नायब,

नहीं स्वाद अब रहा

दाल-सब्जी के तड़कों में।

कहाँ नजाकत रही आज

लड़की औ’ लड़कों में।।

 

कहाँ कहकहे, रौनक

बिसरायें समूह मधुगान

अब न रहा दादा जी का

घर में वैसा सम्मान,

हवा हवाई रौबदार

दादू की झिड़कों में।

कहाँ नजाकत रही आज

लड़की औ’लड़कों में।।

 

आयातित फैशन का

बढ़ता हुआ कुटिल व्यापार

भ्रमित पीढ़ी को काम नहीं

बेकारी से लाचार,

उलझी युवा शक्ति है

बेफिजूल की शर्तों में।

कहाँ नजाकत रही आज

लड़की औ’ लड़कों में।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश0

मो. 9893266014

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 37 ☆ लोग इतने क्यों बेचैन है ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता लोग इतने क्यों बेचैन है। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 37 ☆

☆ लोग इतने क्यों बेचैन है  

खुश हो जा आज तू खामोश क्यों है,

देख तेरी शान में राह में लोगों ने फूल बिछाये हैं ||

कल तक जो लोग तेरे चेहरे से नफरत करते थे,

वे आज तुझे बार-बार कंधा देने को बेचेन हो रहे हैं ||

आज तो तेरी शान ही निराली है,

सब अदब से खड़े होकर तुझे हाथ जोड़ रहे हैं ||

बस एक पल ऑंखे खोल नजारा तो देख ले,

लोग तो तेरी एक झलक पाने को बेचैन हो रहे हैं ||

कल तक जो तेरी तरफ झांकते तक ना थे,

आज वो सब खिड़कियां खोलकर तुझे देखने को तरस रहे हैं ||

यादगार लम्हें हैं उसे देख वापिस आंख मूंद लेना,

एक ही मौका आता है जीवन में, लोगों के आंसू थम नहीं रहे हैं ||

जनाजे में कौन-कौन शामिल है,

एक झलक तो देख ले, इतने तो पराये भी कभी रूठते नहीं हैं ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ पुरुष दिवस क्यों नहीं मनाते ? ☆ श्री आर के रस्तोगी

श्री आर के रस्तोगी

☆ पुरुष दिवस क्यों नहीं मनाते ? ☆ श्री आर के रस्तोगी☆ 

मना लिया है महिला दिवस सबने

पुरुष दिवस क्यों नहीं मनाते हो ?

महिलाओं को दे दी है आजादी,

पुरुषों को क्यों गुलाम बनाते हो ?

 

माना नारी चूल्हे में जलती है,

पर पुरुष भी धूप में जलता है।

मिली है जब आजादी नारी को,

तो पुरुष क्यों सबको खलता है?

 

आठ मार्च महिला दिवस निश्चित है,

पुरुष दिवस भी निश्चित होता।

अच्छा तो ये दिवस तब होता,

दोनों का दिवस एक दिन होता।।

 

दोनों के है जब समान अधिकार,

पुरुषों को क्यों नहीं ये मिलता।

जब चम्पा चमेली खिलती है,

पुरुष मन  क्यों नहीं खिलता।।

 

नारी जब पुरुष के बिन अधूरी है,

तब पुरुष दिवस क्यों मजबूरी है।

जब तक पुरुष दिवस नहीं मनेगा

तब तक महिला दिवस अधूरी है।

 

नर और नारी गृहस्थी के पहिए है,

तभी गृहस्थी की गाड़ी चलती है।

महिला दिवस मना लो केवल,

ये बात पुरुष को खलती है।।

 

आर के रस्तोगी गुरुग्राम

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 74 ☆ वो कोह ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं ।  सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “वो  कोह। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 74 ☆

☆ वो कोह ☆

दामन-ए-कोह ख़ुशी से तर था,

उसका ख़ियाबां-ए-ज़हन गुल से लबरेज़ था,

कि अचानक कहीं से एक ख़ुश-रू अब्र

उसके आसपास हलके से बरसने लगा

और कोह से उसने कहा,

“मैं तुमसे मुहब्बत करता हूँ!”

 

लाजमी था कोह का पैमाना-ए-मुहब्बत में

पूरी तरह से डूब जाना-

आखिर उसने नगमा-ए-इश्क कहाँ सुना था?

दोनों हाथ पकड़कर साथ घूमते,

अब्र

कभी कोह का माथा चूमता,

कभी उसे अपनी दिलकश बाहों में लेता,

कभी वो रक़्स-ए-मुहब्बत में मशगूल रहते…

 

अब्र तो आशिक-मिज़ाज था,

नया कोई अफसाना बुनने

चल पड़ा किसी और कोह की तरफ…

 

दामन-ए-कोह अब ग़म-ए-जुदाई से तर है,

उसके ख़ियाबां-ए-ज़हन के गुल मुरझा चुके हैं,

न उसे इंतज़ार है, न चाहत-ए-उल्फ़त,

ठोस है, सख्त है-

आ जाओ कोई

आंसू ही बरसा दो उसके

कि कोह होने पर उसे गुरुर तो हो!

 

कोह=hill

ख़ियाबां=bed of flowers

ख़ुश-रू = handsome

अब्र = cloud

रक़्स = dance

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अक्षर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि –अक्षर ☆

उद्भूत भावनाएँ,

अबोध संभावनाएँ,

परिस्थितिवश

थम जाती हैं,

कुछ देर के लिए

जम जाती हैं,

दुख, आक्रोश

अपने दाह से तपते हैं,

मन की भट्टी में

अपनी आँच पर पकते हैं,

लोहे-सा पिघलते हैं,

लावे-सा उफनते हैं,

आकार, कहन लिए

कागज़ पर उतरते हैं,

भावनाओं का संभूता

चक्र पूरा होता है,

साझा किए बिना

उत्कर्ष अधूरा होता है,

सुनो मित्र!

अभिव्यक्ति का कभी

मरण नहीं होता,

अक्षर का कभी

क्षरण नहीं होता।

©  संजय भारद्वाज

(24.12.18, रात्रि 11:07बजे )

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

English Literature – Poetry ☆ ‘औरत’… श्री संजय भरद्वाज (भावानुवाद) – ‘Woman…’ ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi Poem “औरत”.  We extend our heartiest thanks to the learned author  Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

श्री संजय भारद्वाज 

☆ महिला दिवस विशेष – औरत ☆

मैंने देखी-

बालकनी की रेलिंग पर लटकी

खूबसूरती के नए एंगल बनाती औरत,

मैंने देखी-

धोबीघाट पर पानी की लय के साथ

यौवन निचोड़ती औरत,

मैंने देखी-

कच्ची रस्सी पर संतुलन साधती

साँचेदार खट्टी-मीठी औरत,

मैंने देखी-

चूल्हे की आँच में

माथे पर चमकते मोती संवारती औरत,

मैंने देखी फलों की टोकरी उठाए

सौंदर्य के प्रतिमान लुटाती औरत,

अलग-अलग किस्से,

अलग-अलग चर्चे,

औरत के लिए राग एकता के साथ

सबने सचमुच देखी थी ऐसी औरत,

बस नहीं दिखी थी उनको-

रेलिंग पर लटककर छत बुहारती औरत,

धोबीघाट पर मोगरी के बल पर

कपड़े फटकारती औरत,

रस्सी पर खड़े हो अपने बच्चों की भूख को ललकारती औरत,

गूँदती-बेलती-पकाती

पसीने से झिजती

पर रोटी खिलाती औरत,

सिर पर उठाकर बोझ

गृहस्थी का जिम्मा बँटाती औरत,

शायद हाथी और अंधों की

कहानी की तर्ज़ पर

सबने देखी अपनी सुविधा से

थोड़ी-थोड़ी औरत,

अफ़सोस किसीने नहीं देखी

एक बार में

पूरी की पूरी औरत..!

©  संजय भारद्वाज

☆ Women’s Day Special -Woman… ☆

I saw—

A woman hanging on a tall building,

dangling on parapet,

defining the new angles of beauty;

I saw—

A luscious youthful washerwoman,

melodiously playing in harmony with the water,

wrenching the clothes of juvenescence;

I saw—

A voluptuous juggling woman,

Balancing on a precarious rope,

in midst of drums and trumpets;

I saw—

A woman —the glistening demoiselle,

Radiating with glowing charm,

Blowing the hearth, crowned with sweat-pearls;

I saw—

A risque enticing-woman

carrying fruit-laden basket

with a swaggering gait;

Each one saw with, different angles,

Myriad reflections, varied perceptions,

wild views, incongruous sense

of woman’s enchanting beauty

and feminine expressions;

Alas! No one saw—

The enigmatic woman’s struggle for survival,

Sweeping the parapet, hanging perilously,

Washing the clothes, in blazing sun,

Balancing on ghastly rope;

Kneading-rolling-cooking, toiling,

drenched with perspiration,

Challenging the hunger of deprived children,

Sharing the onus of livelihood;

Day and night,

Fighting the poverty of being

unwanted, unloved and uncared!!

May be,

in consonance with

‘Blind men and Elephant’ parable,

Each one saw,

with own perception,

with own convenience,

But, only a fraction of woman;

Alas!

Each one failed to see the complete woman!! 

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.७॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.७॥ ☆

 

गत्युत्कम्पाद अलकपतितैर यत्र मन्दारपुष्पैः

पुत्रच्चेदैः कनककमलैः कर्णविस्रंशिभिश च

मुक्ताजालैः स्तनपरिसरच्चिन्नसूत्रैश च हारैर

नैशो मार्गः सवितुर उदये सूच्यते कामिनीनाम॥२.७॥

 

कुरबक घिरे माधवी कुंज के पास ,

उस शैल पर है बकुल वृक्ष प्यारा

निलट ही लगा है चपल पर्ण धारी

अशोक इक लाल सा रंग वाला

जो पुष्प फल प्राप्ति इच्छा संजोये

मेरी सहचरी तव सखी हाथ साथी

पहला सुमुखि से सुरा चाहता है

औ” है दूसरा , वामपादाभिलाषी

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की#41 – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #41 – दोहे  ✍

मन ने जब मांगा तुम्हें, मिला सहज ही साथ ।

याचक की तृष्णा बढ़ी, फैलाए  हैं हाथ ।।

 

अकुल होता मन मगर, रह जाता मन मार ।

खंडहर भी तो चाहते, शब्दों की झंकार ।।

 

शिरोधार्य संकेत है, इच्छा करें उपास।

मैं चातक की भांति ही, रोक सकूंगा प्यास।।

 

शब्द और संकेत के, सारे व्यर्थ प्रयास।

चातक भी कहने लगा, मुझे लगी है प्यास।।

 

मूरत का मन हो गया, चलें दूसरे गांव।

भक्त बेचारे भटक कर, तोड़ रहे हैं पांव।।

 

यार बना जाएं कहां, तुमने किया अनंग।

डोर तुम्हारे हाथ है, हम तो बनी पतंग।।

 

मृग ने किस से कब कहा, मुझे लगी है प्यास ।

उत्कटता यह मिलन की, जल दिखता है पास।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 40 – कहाँ खो गई सच में वह… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “कहाँ खो गई सच में वह … । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 40 ।। अभिनव गीत ।।

कहाँ खो गई सच में वह…  ☆

अब तो बेशक नहीं बीनती

मुन्नू की बीबी है पन्नी

ना  ही अब वह कटे बाल की

लड़की काटा करती  कन्नी

 

शर्मा चाची के घुटनों में

गठिया आकर बैठ गई है

और मौसमी जंतर मंतर

के कामों से ऐंठ गई है

 

हर गुनिया चबूतरे वाला

कमर सम्हाले दोहरा होकर

कहता ईश्वर मुझे उठा ले

क्या आया था मोती बो कर

 

पता नहीं है कहाँ खो गया

नहीं बेचने हींग आता है

लगता उसका नहीं रहा

इस मिर्च मसाले से नाता है

 

मिस्सी वाली भी मर खप कर

चली गई ईश्वर के घर में

गाँव और उसकी बातों की

याद बच गई एक अठन्नी

 

नही आ रहा इधर बेचने

खालिश भेड़ ऊन का कम्बल

नाही हरियाणे की खेसें

और नहीं पंजाबी चावल

 

कहाँ खो गई बुढलाडा की

संतति देती प्रेम पियारी

कहाँ खो गई सागर की

फरमाइश करती राम दुलारी

 

लील गई महगाई वर्तन

कलईदार मुरादाबादी

घर में बची रह गई केवल

रमुआ से बुनवाई खादी

 

आँखों से कमजोर हुई है

वही साहसी धनिया नाइन

गा पाती अब नही पुराने

सधे गले से बन्ना बन्नी

 

कहाँ खो गई सच में वह

केसर कस्तूरी वाली मुनिया

और कहाँ बेचा करती है

अपनी चूड़ी, भौजी रमिया

 

नहीं दिखाई देती है वह

कंता छींके- रस्सी वाली

और कहाँ मर गया बिचारा

रंगोली वाला बेताली

 

कहाँ खो गई निपटअकेली

फल वाली वह दुर्बल चाची

जिसकी साल गिरह पर अपनी

सारी बस्ती मिलकर नाची

 

देख नहीं पाती आँखों से

दुर्जन की दुबली सी दादी

जो बचपन में दे देती थी

मुझको पीली एक इकन्नी

 

कहाँ खो गया  जुगत भिड़ाता

अपना वह अर्जुन पटवारी’

कहाँ गई तकनीक बताती

लछमन की भोली- महतारी

 

कहाँ गया तुलसी की माला

पहने वैद्य लटेरी वाला

कहाँ गया सिद्धांत बताता

उसका, संग में आया साला

 

कहाँ गये परसाद बांटते

चौबे जी चन्दापुर वाले

कहाँ गई जो रही वेचती

अलीगढ़ी ,मनसुखिया ताले

 

इन्हें तपेदिक ले डूबा है

सबसुख ,निरपत, गनपत ,भूरे

जगपरसाद, निरंजन, भगवत

रज्जन, निर्भय,ओमी, धन्नी

 

निपट गया इस कोरोना में

वह काना कल्लू पनवाड़ी

रोज रोज डाला करता था

पानों में वह सड़ी सुपाड़ी

 

जस्सू की बिटिया रामू संग

भाग गई है चुपके पटना

नहीं बच सका जस्सू बेशक

हुई जान लेवा यह घटना

 

ठाकुर के गुण्डों ने पिछले

दिनों जला डाली थी फसलें

किंकर ने मागी थी माफी

सोचा शायद इससे बच लें

 

दिया उजाड़ सभी कुछ उसका

नहीं बचा पाया वह अपनी

जायदाद का तिनका-तिनका

रात कह गई ,संध्या बिन्नी

 

नहीं बनाया करता है अब

गुड़-बिसवार-घी-डले लड्डू

मरा चिकनगुनिया से सनकी

मेंढक सा दिखता वह डड्डू

 

महराजिन जो सुबह सुबह आ

पुड़ी-परांठे तलती घर के

उसको गुण्डे उठा ले गये

क्या बतलायें इसी शहर के

 

छम्मू का अपहरण हो गया

केवल एक चेन के कारण

दो दिन बाद लाश खेतों में

मिली मरा वह नहीं अकारण

 

उसकी चेन रही पीतल की

बदमाशों को पता चला जब

गला दबाकर उसको फेंका

बतलायी थी मौसी चन्नी

 

पूरा गाँव पिया करता है

चुप महुये की कच्ची दारु

निर्थन क्या, अमीर  क्या सारे

मानुष क्या और क्या मेहरारू

 

बाकी लोग जुये सट्टे में

गाफिल रहते हैं सारे दिन

बचे रहे जो मोबाइल पर

रखे हुये हैं उसकी ही धुन

 

चुप है सभी समाज वेत्ता

चेतन के पुरजोर समर्थक

साबित हुये सभी विद्वत्‌ जन

झूठे, निष्क्रिय और निरर्थक

 

सुधर सके ये काश बदल

जायेगा ग्राम हमारा बेशक

हम उम्मीद रखा करते है

रुपये में बस एक चवन्नी

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

05-12-2-20

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 86 ☆ कविता – जीतने वाले…. ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता जीतने वाले….। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 86

☆ कविता – जीतने वाले…. ☆

कविता__

 

जीत के

अक्षर में

शब्द हंसते हैं,

 

शब्द हमेशा

टटोलते हैं

जीत का मतलब,

 

जीतने वाले

शब्दों से

खेलते नहीं,

 

जीतने वाले

शब्दों को

मान देते हैं,

 

जीतने वाले

शब्दों को

मधुर बनाते हैं,

 

जीतने वाले

शब्दों को

हंसी देते हैं,

 

जीतने वाले

शब्दों को

नये अर्थ देते हैं,

 

जीतने वाले

शब्दों को

आत्मसात करते हैं,

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares