हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 38 ☆ रुखसत हो गयी जिंदगी ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता रुखसत हो गयी जिंदगी। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 38 ☆

☆ रुखसत हो गयी जिंदगी 

 

रुखसत हो गयी जिंदगी बहार के इंतज़ार में,

मैं खुद ही खुद का मेहमान हो गया जिंदगी में ||

 

कैसे खिदमत करूं खुद की कुछ समझ नहीं आता,

जवाब देते नहीं बना,कैसे आना हुआ जब पूछ लिया जिंदगी ने ||

 

जवानी से तो बचपन अच्छा था हंसी-खुशी से बीता था,

हर कोई मुझसे खुश था खुशियों से झोलियाँ भरी थी जिंदगी में ||

 

होश संभाला तब असल जिंदगी से मुलाकात हुई,

हंसी-खुशी गायब थी रौनक सौ-कोस दूर थी असल जिंदगी में ||

 

जिन लोगों के चेहरे मुझे देख खिल उठते थे,

खुद के गुनाहों का कुसूरवार भी मुझे ही ठहराने लगे जिंदगी में ||

 

दुनिया में हर तरफ झूठ कपट का है बोलबाला,

बनावटी हंसी-मुस्कान और दिखावे का अपनापन भरा है जिंदगी में ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.१६॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.१६॥ ☆

 

तस्यास तीरे रचितशिखरः पेशलैर इन्द्रनीलैः

क्रीडाशैलः कनककदलीवेष्टनप्रेक्षणीयः

मद्गेहिन्याः प्रिय इति सखे चेतसा कातरेण

प्रेक्ष्योपान्तस्फुरिततडितं त्वां तम एव स्मरामि॥२.१६॥

 

दिन में विरह की व्यथा व्यस्तता से

है संभव न होगी , निशा में यथा हो

मैं अनुमानता हूं , गहन शोक मन का

जो निशि में सताता मेरी प्रियतमा को

तो साध्वी तव सखी को रजनि में

पड़ी भूमि पर देख , उन्निद्र साथी

उचित है कि संदेश मेरा सुनाकर

दो सुख , बैठ गृह गवाक्ष पर प्रवासी

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 75 ☆ लफ्ज़ लफ्ज़ सुनना है ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “लफ्ज़ लफ्ज़ सुनना है । )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 75 ☆

☆ लफ्ज़ लफ्ज़ सुनना है ☆

नाशाद है दिल बस, हारा नहीं है

ज़िंदगी की शय से, मारा नहीं है

 

खोल दो ये किताब, लफ्ज़ लफ्ज़ सुनना है

इस किताब का हमें, सुन्दर अंत बुनना है

 

ज़िंदगी की शाम में और भी फ़साने हैं

वो भी एक ज़माना था, और भी ज़माने हैं

इंतज़ार नहीं तो क्या, कुछ तो लिखा होगा

लिखाई जानने के हम कितने ही दीवाने हैं

 

खोल दो ये किताब, लफ्ज़ लफ्ज़ सुनना है

इस किताब का हमें, सुन्दर अंत बुनना है

 

महफ़िल ये दोस्तों की, लहर लहर बहती है

इतराती ये शान से, कहानी कोई कहती है

भूल ही जाओ ग़म सब, ख़ुशी में अब खोना है

मुस्कान सी जाने क्यूँ आरिज़ पर अब रहती है

 

खोल दो ये किताब, लफ्ज़ लफ्ज़ सुनना है

इस किताब का हमें, सुन्दर अंत बुनना है

 

ज़िंदगी ये बस लम्हे की चुटकी भर के हैं पल

जुस्तजू तुम बिखेर दो खिल उठें कई कमल

धुंआ धुंआ सा अब नहीं हमें यूँ बिखेरना है

लम्हे ये नदिया से बहने लगे हैं कल कल

 

खोल दो ये किताब, लफ्ज़ लफ्ज़ सुनना है

इस किताब का हमें, सुन्दर अंत बुनना है

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अनुभव ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि –अनुभव ?

ज़मीन से कुछ ऊपर

कदम उठाए चला था,

आसमान को मुट्ठी में

कैद करने का इरादा था,

 

अचानक-

ज़मीन ही खिसक गई

ऊँचाई भी फिसल गई,

 

आसमान व्यंग से

मुझ पर हँस रहा था,

अपनी जग-हँसाई

मैं भी अनुभव कर रहा था,

 

किंतु अब फिर से

प्रयासों में जुटा हूँ,

इतनी सी मुट्ठी,

उतना बड़ा आसमान है,

 

पर इस बार आसमान

भयभीत नज़र आता है,

अनुभव जीवन को

नये मार्ग दिखाता है,

जानता हूँ, अब

विजय सुनिश्चित है

क्योंकि

इस बार मेरे कदम

ज़मीन से ऊपर नहीं

बल्कि ज़मीन पर हैं।

 

©  संजय भारद्वाज

( कविता संग्रह ‘योंही’ से )

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अल्फाज़ों  से  तो  अकसर … ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।)

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी ने अपने उपनाम  प्रवीण ‘आफताब’ उपनाम से  अप्रतिम साहित्य की रचना की है। आज प्रस्तुत है आपकी ऐसी ही अप्रतिम रचना अल्फाज़ों  से  तो  अकसर

☆ अल्फाज़ों  से  तो  अकसर … ☆

तज़ुर्बा तो यही कहता है कि

    खामोशियाँ बेहतर होती हैं,

अल्फाज़ों  से  तो  अकसर

    लोग रूठ जाया करते हैं…

 

यूँ तो तमाम जिंदगी गुज़र गई

    सबको खुश करने में…

मगर  जो  खुश  हुए  वो

    कभी अपने  थे ही नहीं…

 

अलबत्ता  जो  अपने  थे वो

    कभी खुश  हुए  ही  नहीं,

कितना भी समेट लें दामन में हम

    चंद कतरे तो फिसलते  ही  हैं…

 

मुट्ठी में भी आस्मां समाता है कहीं

    वक़्त बेअख्तियार होता है, हुजूर

कोशिश करने से बदले या ना बदले

    मगर खुदबखुद बदलता जरूर है!

~प्रवीन आफ़ताब

© कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

पुणे

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.१४॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.१४॥ ☆

 

तत्रागारं धनपतिगृहान उत्तरेणास्मदीयं

दूराल लक्ष्यं सुरपतिधनुश्चारुणा तोरणेन

यस्योपान्ते कृतकतनयः कान्तया वर्धितो मे

हस्तप्राप्यस्तवकनमितो बालमन्दारवृक्षः॥२.१४॥

 

या मलिन वसना धरे गोद वीणा

मेरे नाममय गीत को उच्च स्वर में

गाने मेरी याद में उमड़ आये

नयनवारि से सिक्त ले वीण कर में

बड़े कष्ट से तार उसके

फिर आलाप कर भूल भरती रुलाई

यों भाव भीनी दशा में तुम्हें मेघ

आलोक में वह पड़ेगी दिखाई .

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की#42 – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #41 – दोहे  ✍

विकल रहूं या मैं विवश, कौन करे परवाह ।

सब सुनते हैं शोर को, दब जाती है आह।।

 

सोच रहा हूं आज मैं, करता हूं अनुमान ।

अधिक अपेक्षा ही करें, सपने लहूलुहान।।

 

शब्द ब्रह्म आराधना, प्राणों का संगीत ।

भाव प्रवाहित जो सरित, उर्मि उर्मि है गीत ।।

 

कहनी अनकहनी सुनी, भरते रहे हुंकार।

क्रोध जताया आपने, हम समझे हैं प्यार ।।

 

कितनी दृढ़ता में रखूं , हो जाता कमजोर।

मुश्किल लगता खींच कर, रखना मन की डोर।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अभिशप्त  ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि –अभिशप्त ?

शरीर के साथ

धू-धू करके

जल रही थीं

गोबरियाँ,

उपले,

लकड़ियाँ

और

साथ ही

इन सबमें विचरते

असंख्य जीव..,

पार्थिव के सच्चे प्रेमी,

मुर्दा के साथ

ज़िंदा जलने को

अभिशप्त..!

सोचता हूँ

त्रासदियों को

रोज़ ख़बर बनानेवाला

मीडिया,

रोजाना के इन

भीषण अग्निकांडों पर

अपनी चुप्पी कब तो़ड़ेगा!

©  संजय भारद्वाज

2.10.2007

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 41 – फूल ये अपराजिता के… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “फूल ये अपराजिता के … । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 41 ।। अभिनव गीत ।।

☆ फूल ये अपराजिता के…  ☆

फूल ये अपराजिता के

आ गिरें ज्यों अश्रु

टूटी खाट पर,बूढ़े पिता के

 

बहुत गहरे और

नीले प्रश्न गोया

शाम के कुहरिल

प्रहर मैं कृष्ण हों, या

 

अडिग निष्ठावान

जैसे प्रेम में हों

दिल्ली -पति

संयोगिता के

 

समय की ताजा

इन्हीं पगडंडियों के

आढ़ती बैठे हुये

मंडियों के

 

मोल-भावों में पड़ा

सौन्दर्य सोचे

हो गये सामान हम

प्रतियोगिता के

 

नील से उतरी

लगी सम्भाविता के

आँख की कोरों

हृदय से गर्विता के

 

हाथ में सूखे हुये

रख कर निवाले,

लगा दिन भर की

खुशी, हों वंचिता के

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

02-12-2-20

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #34 ☆ डर ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है महिला दिवस पर सार्थक एवं अतिसुन्दर भावप्रवण कविता “डर ”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 34 ☆

☆ डर ☆ 

वो कुछ कहना चाहता है

उसके अंदर का

काव्य का सागर

बहना चाहता है

उसके पास शब्दों कीं

कमी नहीं है

उसकी सृजन क्षमता

थमी नहीं है

उसके सीने में

अंगारों की तपिश है

उसके चेहरे पर

अनोखी कशिश है

उसकी आंखों में

दर्द भरा तूफान है

उसकी कांपती पलकों में

भयभीत इन्सान है

उसकी जिव्हा पर

नये तराने है

उसके होंठों पर

मुक्ति के फसाने है

वो जानता है-

वो बोलेगा तो

कहीं ना कहीं

ज्वालामुखी फूट पड़ेगा

उबलता हुआ लावा

शायद

नया इतिहास गढ़ेगा

फिर- सामंतवादी लोग

उसकी रचनाओं को जलायेंगे

उसके उपर निराधार

आरोप लगायेंगे

इसलिए-

वो कुछ लिखने से

वो कुछ कहने से

डरता है

सच्चा कलमकार

होकर भी

एकांतवास में

गुमसुम रहता है

वो आजकल डरकर

बस

चुप है,

चुप है

और

चुप है.

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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