हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 28 ☆ मुक्तक ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  के “मुक्तक “।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 28 ☆

☆ मुक्तक ☆

 

जनहितकारी करम बहुत से होने से रह जाते है

क्योंकि अनेको संबंधित जन लालच में बह जाते है

रामराज्य के सपने अब तक पूरे नहीं होने पाये

आदर्शो की कसमें खा भी नहीं अपनाये जाते है

 

होगा जब तक नेताओ मे प्रबल देश अनुराग नहीं

नई पीढी के मन में जब तक उपजेगा तप त्याग नहीं

तब तक प्रगति राह पर प्रायः कदम फिसलते जायेगें

संकल्पो के बिन शुभ कर्मो की मन मे जगती आग नहीं

 

मन को उलझा माया में जो खोज रहा भगवान को

कहा जाय क्या उस सज्जन के बढ़े हुये अज्ञान को

खोज सकेगा कैसे कोई जिसका परिचय प्राप्त नहीं

पायेगा कोई भी निश्चित उसकी यदि पहचान हो

 

बांटता अध्यात्म आया अमृत जनहित के लिये

पर समझ पायी न दुनिया किस तरह जीवन जिये

बंटा है संसार सारा धर्म और भूगोल से

क्षोभ की आंधी बुझा जाती सदा जलते दिये

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – तिलिस्म ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – तिलिस्म 

हाथ कुछ ऊपर उठाता

आकाश उतर आता,

तिलिस्म था हाथों में..,

मृगछौनी आँखों ने

फिर पूछा सवाल

मिलकर उतारें आकाश..?

कसकर भले न थाम सको

पर भरोसे से थामना हाथ

वरना टूट जाएगा तिलिस्म..,

दोनों ने चाहा मिलकर

उतारना साझा आकाश,

तिलिस्म ख़त्म हुआ..,

रूठा तिलिस्म शायद

लौट भी आए कभी

पर टूटा विश्वास

लौटता नहीं कभी..!

©  संजय भारद्वाज

(21.12.20 11.55 बजे)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.४२॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.४२॥ ☆

 

तां कस्यांचिद भवनवलभौ सुप्तपारावतायां

नीत्वा रात्रिं चिरविलसनात खिन्नविद्युत्कलत्रः

दृष्टे सूर्ये पुनरपि भवान वाहयेदध्वशेषं

मन्दायन्ते न खलु सुहृदामभ्युपतार्थकृत्याः॥१.४२॥

सतत लास्य से खिन्न विद्युत लतानाथ

वह निशि वहीं भवन छत पर बिताना

कहीं एक पर , जहाँ पारावतों को

सुलभ हो सका हो शयन का ठिकाना

बिता रात फिर प्रात , रवि के उदय पर

विहित मार्ग पर तुम पथारूढ़ होना

सखा के सुखों हेतु संकल्प कर्ता

है सच , जानते न कभी मन्द होना

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – श्वेत ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – श्वेत

हरेक में रहता है श्वेत,

हरेक में बसता है श्वेत,

श्वेत का मूल श्वेत है,

अश्वेत का भी मूल श्वेत है,

नैतिकता में घोलकर

थोप दी गई हैं वर्जनाएँ

श्वेतांबराओं की देह पर,

नैतिकता काल के अनुरूप

परिवर्तित होती है,

सर्वदा धन, धर्म,

रसूख की सगी होती है,

समय की ग्लोबल डॉक्यूमेंट्री में

उभरता है क्लाइमेक्स..,

नैतिकता के सगों ने

खींचकर श्वेतांबराओं की देह से,

ओढ़ लिया है श्वेत,

दिगंबरायें अब

आ नहीं सकती देहरी के पार,

श्वेत का अखंड जयकार

व्योम होता है,

सिर्फ श्वेत ही है

जो सार्वभौम होता है।

©  संजय भारद्वाज

(29.1.2021 को नींद में उपजी कविता। लेखन रात्रि 2:27 बजे।)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 70 ☆ संतोष के दोहे☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 70 ☆

☆ संतोष के दोहे  ☆

ओढ़े चादर ओस की, वसुधा तकती भोर

हो कर शीतल  शिशिर में, पवन करे झकझोर

 

रद्दी में बिकने लगा, देखो अब साहित्य

जुगनू अब यह समझता, फीका है आदित्य

 

कर आराधन देश का, रखें देश हित सोच

संकट में कुर्बान हों, बिना कोई संकोच

 

अविरल धारा प्रेम की, दिल में बहती रोज

सच्चे सेवक राम के, जिनमें रहता ओज

 

उन्नत खेती कीजिये, चलें वक्त के साथ

उपज खेत की बढ़ सके, हो दौलत भी हाथ

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.४१॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.४१॥ ☆

 

गच्चन्तीनां रमाणवसतिं योषितां तत्र नक्तं

रुद्धालोके नरपतिपथे सूचिभेद्यैस तमोभिः

सौदामन्या कनकनिकषस्निग्धया दर्शयोर्वीं

तोयोत्सर्गस्तनितमुहरो मा च भूर्विक्लवास्ताः॥१.४१॥

वहाँ घन तिमिर से दुरित राजपथ पर

रजनि में स्वप्रिय गृह मिलन गामिनी को

निकष स्वर्ण रेखा सदृश दामिनी से

दिखाना अभय पथ विकल कामिनी को

न हो घन ! प्रवर्षण , न हो घोर गर्जन

न हो सूर्य तर्जन , वहाँ मौन जाना

प्रणयकातरा स्वतः भयभीत जो हैं

सदय तुम उन्हें , अकथ भय से बचाना

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – प्रेम ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – प्रेम ☆

हरेक को हुआ है प्रेम,

किसीने भोगी, व्यक्त न

कर पाने की पीड़ा,

कोई अभिव्यक्त होने की

वेदना भोगता रहा,

किसीका प्रेम होने से पहले

झोंके के संग बह गया,

किसीका प्रेम खिलने से

पहले मुरझा गया,

किसीका अधखिला रहा,

किसीका खिलकर भी

खिलखिलाने से

आजीवन वंचित रहा,

प्रेम का अनुभव

किसीके लिये मादक रहा,

प्रेम का अनुभव

किसीके लिये दाहक रहा,

जो भी हो पर

प्रेम सबको हुआ..,

प्रेम नित्य, प्रेम सत्य है,

प्रेम कल्पनातीत, प्रेम तथ्य है,

पंचतत्व होते हैं, देह का सार,

प्रेम होता है पंचतत्वों का सार!

 

©  संजय भारद्वाज

(11:07, 3.2.2021)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य #92 ☆ कट चाय से उतरती मजदूर की थकान ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  की एक अतिसुन्दर कविता  ‘कट चाय से उतरती मजदूर की थकान’ इस सार्थकअतिसुन्दर कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 92 ☆

☆ कविता – कट चाय से उतरती मजदूर की थकान ☆

पापा बतलाते हैं

1940 के दशक की

उनकी स्मृतियां

जब एक गाड़ी में

किसी छोटी टँकी में

भरी हुई चाय

चौराहे चौराहे

मुफ्त बांटा करते थे

बुकब्राण्ड कम्पनी के

लोग

पीते पीते, धीरे धीरे

लत लग गई

लोगों को चाय की अब

 

चाय स्वागत पेय बन चुकी है

चाय की चुस्कियों के संग

चर्चाएं होती हैं बड़ी बड़ी

 

लड़कियों के भाग्य का

निर्णय हो जाता है

चाय पर, देख सुनकर

मिलकर तय हो जाते हैं

विवाह

 

चाय पॉलिटिकल

सिंबल बन गई है

जब से

चाय वाला

प्रधानमंत्री बन गया है

 

और शिष्टाचार यह है कि

वो अपमानित

महसूस करता है अब , जिसे

चाय के लिए तक न पूछा जाये

 

चाय के प्याले

बोन चाइना के हैं या

मेलेमाईन के

पोर्सलीन के या मिट्टी के कुल्हड़

ये तय करने लगे हैं

स्टेटस

 

चाय की पत्ती

आसाम की है या दार्जलिंग की

केरल की या कुन्नूर की

ग्रीन टी या व्हाइट टी

डिप टी बैग से बनी है या

उबाली गई है चाय

यह तय करती है कि

चाय कौन और क्यों पी रहा है ?

टाइम पास के लिए

मूड बनाने के लिए

कोई सम्भ्रांत ले रहा है चुस्कियां

या

थकान उतार रहा है कोई मजदूर

कट चाय पीकर

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.४०॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.४०॥ ☆

 

पश्चाद उच्चैर्भुजतरुवनं मण्डलेनाभ्लीनः

सांध्यं तेजः प्रतिनवजपापुष्परक्तं दधानः

नृत्तारम्भे हर पशुपतेर आर्द्रनागाजिनेच्चां

शान्तोद्वेगस्तिमितनयनं दृष्टभक्तिर भवान्या॥१.४०॥

 

फिर नृत्य में उठे भुजतरु शिखर लिप्त

हो , शंभु के धर जुही सांध्य लाली

हर गज अजिन आद्र परिधान इच्छा

लखें भक्ति , सस्मितवदन तव , भवानी

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 81 – होकर खुद से अनजाने…… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी स्वास्थ्य की जटिल समस्याओं से  सफलतापूर्वक उबर रहे हैं। इस बीच आपकी अमूल्य रचनाएँ सकारात्मक शीतलता का आभास देती हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना होकर खुद से अनजाने…..)

☆  तन्मय साहित्य  #  81 ☆ होकर खुद से अनजाने….. ☆ 

पल-पल बुनता रहता है, ताने-बाने

भटके यह आवारा मन चौसर खाने।

 

बीत रहा जीवन, शह-मात तमाशे में

सांसें  तुली  जा  रही, तोले – मासे में

अनगिन इच्छाओं के होकर दीवाने

भटके यह आवारा मन …………..।

 

कुछ मिल जाए यहाँ, वहाँ से कुछ ले लें

रैन-दिवस  मन में, चलते  रहते मेले

रहे विचरते होकर, खुद से अनजाने

भटके यह आवारा मन ……………।

 

ज्ञानी बने स्वयं,  बाकी सब अज्ञानी

करता  रहे  सदा यह, अपनी मनमानी

किया न कभी प्रयास स्वयं को पहचाने

भटके यह आवारा मन …………….।

 

अक्षर-अक्षर से कुछ शब्द गढ़े इसने

भाषाविद बन, अपने अर्थ मढ़े इसने

जांच-परख के, नहीं कोई है पैमाने

भटके यह आवारा मन……………।

 

रहे अतृप्त संशकित,सदा भ्रमित भय में

बीते  समूचा जीवन, यूं ही संशय में

समय-दूत कर रहा प्रतीक्षा सिरहाने

भटके यह आवारा मन चौसर-खाने।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश0

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares