हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.९॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.९॥ ☆

मन्दं मन्दं नुदति पवनश चानुकूलो यथा त्वां

वामश चायं नदति मधुरं चातकस ते सगन्धः

गर्भाधानक्षणपरिचयान नूनम आबद्धमालाः

सेविष्यन्ते नयनसुभगं खे भवन्तं बलाकाः॥१.९॥

अतिमंद अनुकूल शीतल पवन दोल

पर जब बढ़ोगे स्वपथ पर प्रवासी

तो वामांग में तब मधुर कूक स्वन से

सुमानी पपीहा हरेगा उदासी

आबद्ध माला उड़ेंगी बलाका

समय इष्ट लख गर्भ के हित, गगन में

करेंगी सुस्वागत तुम्हारा वहां पर

स्व अभिराम दर्शन दे भर मोद मन में

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 75 – बहे विचारों की सरिता….. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  की  सकारात्मक एवं संवेदनशील रचनाएँ  हमें इस भागदौड़ भरे जीवन में संजीवनी प्रदान करती हैं। आपकी पिछली रचना ने हमें आपकी प्रबल इच्छा शक्ति से अवगत कराया।  ई-अभिव्यक्ति परिवार आपके शीघ्र स्वास्थय लाभ की कामना करता है। हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए आपकी नवीन रचना  “बहे विचारों की सरिता….”आपके दृढ मनोबल के साथ निश्चित ही एक सकारात्मक सन्देश देती है। )

☆  तन्मय साहित्य  #  ☆ बहे विचारों की सरिता…. ☆ 

सुखद कल्पनाओं के

मन में स्वप्न सुनहरे से

बहे विचारों की सरिता

हम, तट पर ठहरे से।

 

दुनियावी बातों से

बार-बार ये मन भागे

जुड़ने के प्रयास में

रिश्तों के टूटे धागे,

हैं प्रवीण फिर भी जाने क्यों

जुड़े ककहरे से।

 

रागी, भ्रमर भाव से सोचे

स्वतः समर्पण का

उथल-पुथल अंतर की

शंकाओं के तर्पण का,

पर है डर बाहर बैठे

मायावी पहले से।

 

जिसने आग लगाई

उसे पता नहीं पानी का

क्या होगा निष्कर्ष

अजूबी अकथ कहानी का,

भीतर में हलचल

बाहर हैं गूंगे बहरे से।

 

चाह तृप्ति की अंतर में

चिंताओं को लादे

भारी मन से किए जा रहे

वादों पर वादे

सुख की सांसें तभी मिले

निकलें जब गहरे से।

बहे विचारों की …..

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

22 दिसंबर 2020, 11.43

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ रिश्ता … ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ रिश्ता…✍️

अथ और इति में

अटूट रिश्ता है,

देखें तो जटिल

सोचें तो सरल लगता है,

ज्यों-ज्यों आदमी

भविष्य के डग भरता है

त्यों-त्यों आदमी

अतीत की राह चलता है!

©  संजय भारद्वाज

संध्या 5: 44 बजे, 22.12.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 26 ☆ मौत भी अचंभित रह गयी ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता मौत भी अचंभित रह गयी। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 26 ☆ मौत भी अचंभित रह गयी

मौत से उनकी ठन गयी थी,

यह देख मौत भी अचंभित रह गयी थी,

लुका छिपी का खेल कुछ समय से चल रहा था,

मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं गलने वाली ||

 

मौत जूझती रही रोजाना उनसे,

वो मौन रह कर मात देते रहे उसे,

कभी सामने तो कभी पीछे से मौत रोज वार करती ,

मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं गलने वाली ||

 

मौत बार-बार दस्तक देती रही,

चित्रगुप्तजी का लेखा-जोखा उन्हें बतलाती रही,

मौत बैचेन थी कैसे ले जाऊंगी इन्हें अब,

मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं गलने वाली ||

 

हार नहीं मानूँगा यहीं उन्होंने ठानी थी,

साथ लेकर जाऊंगी मौत ने भी ठानी थी,

मौत से ठन जो गयी, मौत थक कर हार मानने को थी,

 

मौत को भी अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं गलने वाली ||

मौत अटल जी से विनती करने लगी,

जो आया है उसे जाना ही है, बहला कर कहने लगी,

चित्रगुप्त जी का लेखा आज तक कभी गलत नहीं हुआ,

मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं गलने वाली ||

 

-2-

 

अटल जी भी सत्य के पुजारी थे,

कहा मौत से, शर्मिंदा तुझे होने नहीं दूंगा,

साथ तेरे अवश्य चलूँगा पर एक बात माननी होगी,

मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं  गलने वाली ||

 

आज पंद्रह अगस्त है देश आजादी के जश्न मे डूबा है,

सारे देश में आज तिरंगा शान से लहरा रहा है,

झुकने नहीं दूंगा आज इसे, लहराने दो तिरंगे को शान से,

मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं  गलने वाली ||

 

पंद्रह अगस्त को खलल नहीं डालने दिया मौत को,

सौलह हो गयी,मौत घबरा गयी कैसे कंहू अब चलने को,

मौत को परेशां देख अटल जी ने कहा चलो अब सफर करते हैं,

मौत के जान में जान आयी, उसे अहसास था यहां दाल नहीं गलने वाली ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ एक तस्वीर ☆ सुश्री सरिता त्रिपाठी

सुश्री सरिता त्रिपाठी 

(युवा साहित्यकार सुश्री सरिता त्रिपाठी जी CSIR-CDRI  में एक शोधार्थी के रूप में कार्यरत हैं। विज्ञान में अब तक 23 शोधपत्र अंतरराष्ट्रीय जर्नल में सहलेखक के रूप में प्रकाशित हुए हैं। वैज्ञानिक एवं तकनीकी क्षेत्र में कार्यरत होने के बावजूद आपकी हिंदी साहित्य में विशेष रूचि है । आज प्रस्तुत है आपकी  भावप्रवण कविता एक तस्वीर। )

☆ एक तस्वीर ☆  

 

क्या था ऐसा तुझमें बन आती एक तस्वीर

क्या था ऐसा मुझमें मिट जाती एक तस्वीर

 

जो भी था जैसा था तस्वीर बड़ी सुहानी थी

जीवन के हर पड़ाव पे जिसने जिंदगानी दी

 

कुछ अमिट छाप मस्तिष्क पर उभर जाते हैं

कुछ को जीवन में अपने कैद कर ले आते हैं

 

बस इस चित्रकला सा दूजा कुछ नहीं भाता है

जीवन के हर पहलू का दृश्य हमें दिखलाता है

 

कभी रील सा चलता था इंतज़ार भी रहता था

आज मोबाइल में झटपट प्रतिबिंब उतरता है

 

मिलने मिलाने हर पल का फोटो मिल जाता है

दिल से दिल का  तार फिर भी ना जुड़ पाता है

 

कैमरा चेहरे पर सबके अलग मुस्कान ले आया है

विपदा हो या खुशहाली सबमें वर्चस्व दिखाया है

 

वस्तविकता से हटके जीवन सबने बिताया है

दिखावे में आ करके खुद को भी मिटाया है

 

इस्तेमाल करो तकनीकि का उन्नति बतलाता है

जीवन के मूल्यों को दिखावे में ना तिरस्कार करो

 

© सरिता त्रिपाठी

जानकीपुरम,  लखनऊ, उत्तर प्रदेश

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.८॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.८॥ ☆

त्वाम आरूढं पवनपदवीम उद्गृहीतालकान्ताः

प्रेक्षिष्यन्ते पथिकवनिताः प्रत्ययाद आश्वसन्त्यः

कः संनद्धे विरहविधुरां त्वय्य उपेक्षेत जायां

न स्याद अन्यो ऽप्य अहम इव जनो यः पराधीनवृत्तिः॥१.८॥

 

गगन पंथ चारी , तिम्हें देख वनिता

स्वपति आगमन की लिये आश मन में

निहारेंगी फिर फिर ले विश्वास की सांस

अपने वदन से उठा रूक्ष अलकें

मुझ सम पराधीन जन के सिवा कौन

लखकर सघन घन उपस्थित गगन में

विरह दग्ध कान्ता की अवहेलना कब

करेगा कोई जन भला किस भवन में

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कशासाठी… ☆ श्री शरद कुलकर्णी

☆ कवितेचा उत्सव ☆ तू….मी… ☆ श्री शरद कुलकर्णी☆ 

प्रत्येक जखमांनी,

खपली धरावी.

अट्टहास कशासाठी ?

वाहू द्यावं त्यांना,

प्रवाहित.

 

प्रत्येक प्रश्नांची,

उत्तरे शोधावी.

खटाटोप कशासाठी ?

राहू द्यावं त्यांना,

अनुत्तरित.

 

शोधण्यास वाट,

धडपड ती करावी.

पायपिट कशासाठी ?

चालावं होउन,

निर्वासित.

 

स्वर आपला शोधण्या,

आकांत मांडावा.

ध्यास कशासाठी ?

मूक रहावं ओठांनी   ,

अनुच्चारित.

 

पानगळीच्या ऋतूंची,

जाण ती ठेवावी.

घालमेल कशासाठी?

जगावे निमूट,

वृक्षवत.

 

©  श्री शरद कुलकर्णी

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 63 ☆ छुपाना और बताना ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “छुपाना और बताना”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 63 ☆

☆ छुपाना और बताना

उसने पूछा, “आजकल बहुत वाक करती हो?”

मैंने हँसते हुए कहा, “वजन जो बढे जा रहा है!”

उसने भी मुस्कुराते हुए कहा,

“तुम्हारा वजन तो बिलकुल नज़र नहीं आता!”

 

मैं तब तो खिलखिलाकर हँस दी

पर फिर आँगन में झूले पर बैठ सोचने लगी,

कितना कुछ है जो नज़र नहीं आता, है ना?

 

कितनी अनूठी पहेली है यह इंसान भी, है ना?

कितनी बार मन में कुछ और होता है

और बाहर कुछ और दिखाता है!

कई दफा तो इतनी खूबसूरती से छुपा देता है

अपने ज़हन में उग रहे एहसास

कि सालों तक उसके करीबी लोगों को भी

ज़रा भी भनक नहीं होती!

 

कोई ख़ुशी को ख़ामोशी में छुपाता है

तो कोई ग़म को मुस्कान से ढक देता है|

कोई नाराज होते हुए भी मीठी बात करता है

और फिर काट देता है गला मीठी छुरी से

तो कोई मीठी बात कर ही नहीं पाता

और बात-बात पर नाराज़ हो जाता है|

किसी की आज़ादी की परिभाषा

बेटी के लिए कुछ अलग होती है

और बहु या पत्नी के लिए अलग|

 

जितने लोग, उतनी ही बातें…

ऐसे लोगों पर भरोसा न करना ही अच्छा है-

इनसे अच्छी तो क़ुदरत है-

खुश होती है तो बारिश बरसाती है,

दर्द होता है तो झुलसा देती है,

और अगर पीड़ा बढ़ ही जाए तो

बाढ़, सूखा या भूकंप के रूप में

प्रलय भी लाती है –

पर जो भी कहती है

सच ही कहती है!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ संकल्प… ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ संकल्प…✍️

कैद कर लिए मैंने

विकास की यात्रा के

बहुत से दृश्य

अपनी आँख में,

अब;

इनसे टपकेगा पानी

केवल उन्हीं बीजों पर

जो उगा सकें

हरे पौधे और हरी घास,

अपनी आँख को

फिर किसी विनाश का

साक्षी नहीं बना सकता मैं!

 

©  संजय भारद्वाज

13 जून 2016, सुबह 10.23 बजे।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 72 – कविता – बाबुल के घर जन्म ले बेटियां …. ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं बेटियों पर आधारित कविता  “बाबुल के घर जन्म ले बेटियां …. ।    सकारात्मक सुसंस्कृत सन्देश देती स्त्री विमर्श पर आधारित कविता के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 72 ☆

☆ कविता – बाबुल के घर जन्म ले बेटियां …. ☆

?‍?

गूंध गूंध जब गीली मिट्टी

कहीं खिलौना कहीं बिछौना बनती कहीं दिए

बाबुल के घर जन्म ले बेटियां

संवरती कई आकार लिए

 

हृदय धीर का पावन झरना

दया ममता प्रेम साकार

अपने तन पर आंचल लेकर

कष्ट सहे चलती अंगार

बुनती रहती स्वप्न सुनहरे

जीवन का आधार लिए

 

बाबुल के घर जन्म ले बेटियां

संवरती कई आकार लिए

 

सृष्टि की अनुपम देन नारी

घर आंगन संवारती वह

जीवन को जीवित रखती है

दो वंशों का भार सह

लुक्का चुप्पी खेला कूदी

हुई सयानी श्रंगार किए

 

बाबुल के घर जन्म ले बेटियां

संवरती कई आकार लिए

 

जैसे कच्ची मिट्टी का घड़ा

बाबुल ने है खड़ा किया

ब्याह रचाऊगां इसका

जोड़ी बनेगी राम सिया

लाल चुनरिया ओढ़ सिर

बनेगी वह साजन की प्रिये

 

बाबुल के घर जन्म ले बेटियां

संवरती कई आकार लिए

 

नारी ही चढ़े चाक पर

ले सपनों की सुंदर दुनिया

ममता के आंचल में समेटे

कई रूपों में ढलती मुनिया

बंध जाती कई रिश्तो में वह

लेकर खुशियों के दिए

 

बाबुल के घर जन्म ले बेटियां

संवरती कई आकार लिए

 

गूंध गूंध जब गीली मिट्टी

कहीं खिलौना कहीं बिछौना बनती कहीं दिए

बाबुल के घर जन्म ले बेटियां

संवरती कई आकार लिए

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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