हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लफ़्ज़ सच्चे हैं शायरी – सच है  ☆ डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक ☆

डॉ जसप्रीत कौर फ़लक

☆ कविता ☆ लफ़्ज़ सच्चे हैं शायरी – सच है  ☆ डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक 

तू   अगर  है   तो   ज़िन्दगी – सच  है

यह    मुहब्बत   की   रौशनी- सच है

*

झूठे    लगते   हैं   यह   ज़माने   मुझे

दिल जो कहता  है बस  वही – सच है

*

तुम से मिल कर मैं ख़ुद को समझी हूँ

अब  यह  लगता  है  हर ख़ुशी- सच है

*

इश्क़   कहते   हैं   सारे    लोग   जिसे

तेरी    दुनिया   का  आख़िरी – सच  है

*

बाणी   कहती  हैं   ‘बाबा नानक’  की

‘आदि’  सच   है  ‘जुगादि’ भी – सच है

*

आप   जो   रोज़    मुझ   से   कहते  हैं

ऐसा   लगता    है   अब   यही – सच है

*

ढलते     सायों     का    एतबार    नहीं

बहते   धारों    की   दोस्ती  –  सच   है

*

आप    ने    आज    जो    सुनाया    है

क्या  वो  क़िस्सा  भी  वा’क़ई – सच है

*

यह    मिटाने   से   मिट   नहीं   सकता

इस   ज़माने   में   आज  भी  – सच   है

*

 आप    करते    नहीं    यक़ीं  ,  लेकिन

मेरे   होंठो   पे   आज   भी –   सच   है

*

इस  हक़ीक़त  को मान जाओ ‘फ़लक’ 

लफ़्ज़    सच्चे    हैं    शायरी –  सच   है

© डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक

संपर्क – मकान न.-11 सैक्टर 1-A गुरू ग्यान विहार, डुगरी, लुधियाना, पंजाब – 141003 फोन नं – 9646863733 ई मेल – [email protected]

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 126 ☆ गीत ☆ ।।स्वतंत्रता संग्राम में वीरांगनाओ का योगदान।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

 

☆ “श्री हंस” साहित्य # 126 ☆

गीत ☆ ।।स्वतंत्रता संग्राम में वीरांगनाओ का योगदान।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

हमारी आज़ादी में रानी लक्ष्मी बाई का भी योगदान है।

जुड़ा आजादी से   बेगम हज़रत महल का भी नाम है।।

भारतीय वीरांगनाओं की महती भूमिका रही स्वतंत्रता में।

अहिल्या बाई होलकर की भी स्वाधीनता में  शान है।।

[2]

स्वतंत्रता सेनानी बन महिलाओं ने भी तिरंगा थामा था।

दुर्गावती पदमावती ने स्वाधीनता का मूल्य पहचाना था।।

वीरांगना झलकारीबाई सावित्रीबाई फुले का भी स्थान।

विजय लक्ष्मी  कमला नेहरू का नाम नहीं अनजाना था।।

[3]

त्याग तपस्या स्वाभिमान तो नैसर्गिक रूप गुण नारी के।

वीर योद्धा भांति लड़ती बातआती अस्मत की नारी के।।

स्वर्ण अक्षरों में नाम रहेगा सदा नारी के योगदान का।

जब भी पढ़ा जायेगा इतिहास शौर्य पराक्रम नारी के।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 190 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – गीत – नये कदम बढ़ाता चल… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण गीत  – “नये कदम बढ़ाता चल। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 190 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – गीत नये कदम बढ़ाता चल ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

तू गाता चल मुस्काता चल,

आगे बढ़ राह बनाता चल

ये दुनियाँ चलती जाती है,

रूक मत तू चलते जाता चल ।।१।।

*

दुख दर्द भरी दुनियाँ में यहाँ,

कष्टों से कहीं भी चैन कहाँ ?

मिल जायें जभी दो पल मन के,

मन की उलझन सुलझाता चल ।।२।।

*

दुख के ही अधिक सताये हैं,

सुख तो थोड़े पा पाये हैं

जो मिले राह में गले लगा,

उनको भी राह दिखाता चल ।।३।।

*

जो थककर हिम्मत हारे हों,

घबराकर एक किनारे हों

उनके मन में अपनी गति से,

आशा की ज्योति जगाता चल ।।४।।

*

हर पीढ़ी ने जो भी आई,

नई झेलीं जग में कठिनाई

पाने को अपनी मंजिल तू,

हर क्षण नये कदम बढ़ाता चल ।। ५।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #245 ☆ रिश्ते… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय कविता रिश्ते… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 245 ☆

☆ रिश्ते… ☆

रिश्ते

नाजुक हैं कांच की तरह

टूट जाते हैं

मिट्टी के घरौंदों की तरह

फिर भी इन्सान

संजोता है सपने

करता है अपेक्षाएं अपने बच्चों से।

 

बच्चे !

जो पंख निकलते ही

उड़ जाते हैं निश्चिंत हो

बना लेते हैं रास्ता नि:सीम गगन में

बसा लेते हैं आशियां

किसी तरू की शाखा पर।

 

सपनों की भांति ही

टूट जाते हैं नाजुक रिश्ते

तन्हा रह जाते हैं इन्सान।

 

बच्चे

अब उड़ना सीख चुके हैं

मंजिल तय कर चुके हैं

उनके अपने रास्ते हैं

वे बसा लेंगे अलग

अपना आशियां सुंदर

वह अकेला, निपट अकेला

रो रहा है और हंस रहे हैं

उस पर दूर खड़े

जन्म-जन्म साथ निभाने

कसमें खाने वाले, दगा देने वाले

अजनबी से

ये रिश्ते।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ ‘विदेह’ श्री संजय भारद्वाज (भावानुवाद) – ‘Bodiless…’ ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poetry “विदेह.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना

? संजय दृष्टि –  लघुकथा – विदेह ? ?

बूझता हूँ पहेली-

कटोरे में कटोरा

पुत्र, पिता से गोरा,

भीतर झाँकता हूँ, 

अपनी देह के भीतर

एक और देह पाता हूँ,

इस देह का भान

सांसारिक प्रश्नों को

कर देता है बौना,

अपनी आँख से

अपनी आँख में देखो,

देह से विदेह कर देता है

इस देह का होना…!

© संजय भारद्वाज  

मोबाइल– 9890122603, संजयउवाच@डाटामेल.भारत, [email protected]

☆☆☆☆☆

English Version by – Captain Pravin Raghuvanshi

?~ Bodiless ~??

Faced a riddle

as he asks:

‘Bowl in a bowl

Son, fairer than father’,

I look inside,

find another body

inside my body,

Consciousness of which

dwarfs worldly conundrums,

Look into your eyes

with your own eyes,

Existence of this body

makes one go bodiless

from this body,

turning it incorporeal…!

??

~ Pravin Raghuvanshi

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 17 – नवगीत – दिव्य नव कविता… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – दिव्य नव कविता… 

? रचना संसार # 17 – गीत – दिव्य नव कविता… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

नित नये हैं बिंब लेकर,

दिव्य नव कविता चहकती।

लय सदा अनुपम निरंतर,

श्वेत पत्रों पर चमकती।।

 *

नवरसों से है अलंकृत,

शब्द में संदेश धारा।

चेतना के व्योम छूती,

इंद्रधनुषी वेश सारा।।

धार उन्नत लेखनी में,

शिल्प अद्भुत है समाया।

शारदे की है कृपा भी,

प्रेम अंतस् में जगाया।।

व्यंग्य करती है अनूठे,

पायलों -सी है खनकती।

 *

नित गढ़े उपमा नवल यह,

नव सृजन आभास लाती,

भाव गहरे सिंधु से भी,

रूप अद्भुत रास आती।।

घट भरे शृंगार के हैं

नित छटा अनुप्रास मिलती।

शूल राहों के हटाकर,

तूलिका है नित्य खिलती।।

बैठ कर साहित्य रथ पर,

आज नव कविता ठुमुकती।

 *

कल्पना उन्मुत्त उड़ती,

नव शिखर आनंद लाए ।

ज्ञान का आलोक देती,

काव्य में मकरंद भाए।।

सींचती है बिंब  चिंतन,

गंध देती रात रानी ।

तोड़हर बंधन बही है,

झील-झरनों की कहानी।।

है मदन सुर सोमरस- सा,

लेखनी कवि की चहकती।

 

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected][email protected]

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #245 ☆ कविता – लहराता आंचल खुले केश… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं कविता – लहराता आंचल खुले केश)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 245 – साहित्य निकुंज ☆

☆ कविता – लहराता आंचल खुले केश☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

तुझपर पड़ी नजर मेरी यह देखकर।

भर लूं आगोश में तुम्हें देखकर।

*

तुम तो खोई हो जाने किन ख्याल में।

मासूम  दिखती हो तुम यह देखकर।।

*

तन्हा तन्हा क्यों हो क्या सोचती।

अधर गुलाबी हो रहे क्या सोचकर।।

*

खिल रही अधरोंं पर हसीं मुस्कान।

ख्वाब में मुलाकात उनसे मानकर।।

*

सजना ने की शरारत ये सोच लिया।

अभिसार की हकीकत ये जानकर।।

*

तुम एक ताजा गजल हो मैं मानता।

मैं गाना चाहता हूं तेरा सुर साधकर।।

*

तुम हो हुस्न की मलिका  कमलनयनी।

मैं देखना चाहता हूं एक नजर भरकर।।

*

लहराता आंचल खुले केश बिखरे।

निडरता से सोई हो क्या सोचकर।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #227 ☆ दो मुक्तक… बारिश ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है दो मुक्तक… बारिश आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 227 ☆

☆ दो मुक्तक बारिश ☆ श्री संतोष नेमा ☆

बारिश जब भी झमाझम होती है

सड़कें  खून  के  आंसू  रोती   हैं

नाले शहर के चलते हैं इठलाकर

बस्तियां गरीब की कहां सोती  है

*

नर्मदा    पार    बना     गुरुद्वारा

मोहक  लगती  जल   की  धारा

विदेशी  पक्षी  भ्रमण  पर  आते

जबलपुर  अपना  सबसे  न्यारा

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

रिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ – विडंबन गीत… – ☆ सौ. रेखा दयानंद हिरेमठ ☆

सौ. रेखा दयानंद हिरेमठ

? कवितेचा उत्सव ?

☆ – विडंबन गीत… – ☆ सौ. रेखा दयानंद हिरेमठ

(चाल – लटपट लटपट तूझं चालणं)

चमचम  चमचम चमचम चमचम

तुझं चमकणं साऱ्यांच्या नजरेत

नेसणं तुला अंमळ कष्टांचं

साडी ग…साडी ग..ग साडी ग..ग साडी ग…

*

विविधता नवनवतीची, कितीक रंगाची नव्या ढंगाची

 ह्रदयाच्या तू  जवळी

दिसे नार तुझ्यामुळे चवळीची शेंग कवळी

तूला  नेसून ती  मिरवी

असे नार तूझ्यासाठी पहा किती हळवी

बाईपण ती जपते ने मिरवते तोऱ्यात

आवडे कौतुक स्वतःचं

फिटे मग पारणं डोळ्यांचं

साडी ग…साडी ग..ग साडी ग..ग साडी ग…

*

नऊवारी चा डौल, शालू अनमोल, पटोला पहा ना

 कशिद्यावरती राघू मैना

 कितीही असल्या तरी मन काही भरेना

साडीचं दुकान सोडवेना

बिलाचा आकडा बघून नवऱ्याची होई  दैना

असा हा महिमा साडीचा

साडीवरचं प्रेम असं आम्हा बायकांचं

पुढेही चालतंच रहायचं

तिच्या पुढे चालेना ड्रेसचं

साडी ग…साडी ग..ग साडी ग..ग साडी ग….. 

*

🥰दEurek(h)a 😍

🥰दयुरेखा😍

© सौ. रेखा दयानंद हिरेमठ

सांगली

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ बिदाई… ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

(डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के नोबल कॉलेज में प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, दो कविता संग्रह, पाँच कहानी संग्रह,  एक उपन्यास (फिर एक नयी सुबह) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आपका उपन्यास “औरत तेरी यही कहानी” शीघ्र प्रकाश्य। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता बिदाई… ।)  

☆ कविता ☆ बिदाई… ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

सूरज, चांद और बादल,

अपना-अपना करते काम,

एक लगाव है उनसे.

समुंदर की लहरों में भी,

कई बार उफ़ान आता-जाता है.

फ़िर भी किसी को बुरा नहीं लगता.

बुरा तो मात्र औ’ मात्र!!!

अपनों के बिछुडने का लगता,

बंद आखों में सपने सँजोए,

निकल पड़े कँटीली राह पर,

बचपन की यादें बरबस ही आती,

भुलाए नहीं भूलती ये यादें,

वह नटखटपन तेरा,

माँ के साथ लड़ना,

यूँ झूठ बोलना किसी को भी,

नहीं होता इल्म जिसका,

पकड़े जाने पर मुस्काना,

लिखने पर आलस्य करना,

हर बात के लिए माँ से डाँट खाना,

कभी प्यार से बतियाना,

कभी माँ के लिए तोहफा लाना,

बिदाई सिर्फ लड़कियों की नहीं,

होती है बिदाई हर किसी की,

जो घर से बाहर जाता है,

चहारदीवारी में सिमटा हुआ,

आज निकला चांद का टुकडा,

चांदनी फैलाने को समाज में,

पहले था समय प्राचीन…

जब घर से सिर्फ औ’ सिर्फ,

होती लड़की की बिदाई,

आज तो निकल पड़े लड़के भी,

सपने को करने साकार,

घर से दूर जाकर अनजान जगह,

अनजान लोगों के बीच…

बनाने पहचान चल पड़े राही,

रुखसत में याद आती बातें,

यादों का जहाँ बना फिरदौस,

वादियों में नज़र आता चेहरा,

कारवाँ यूँ ही चलता रहेगा,

बिदाई सही अर्थों में हुई आज,

बस भर आती आँखे…

ताउम्र संजोएँगे सपने,

याद आएगी वो हर रात,

गुज़रे हुए पल-वो लम्हा,

जो बिताया है साथ में,

फिर से हुई आँखे नम,

रोके नहीं रूकते आँसू,

याद मात्र याद बनकर रह गई,

नादान पुत्तर बनना काबिल इंसान,

ज्ञान का दीपक बनकर लौटना,

इंतज़ार रहेगा इन आँखो को,

एक खिलता हुआ गुलाब देखने की,

यही आशीर्वाद है, यही आशीर्वाद है…

© डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

संपर्क: प्राध्यापिका, लेखिका व कवयित्री, हिन्दी विभाग, नोबल कॉलेज, जेपी नगर, बेंगलूरू।

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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