हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 69 – अभी हम आधे पौने हैं……. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना  अभी हम आधे पौने हैं…….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 69 ☆

☆ अभी हम आधे पौने हैं…….☆  

 

हम चाबी से चलने वाले, मात्र खिलौने हैं

बाहर से हैं भव्य, किन्तु अंदर से बौने हैं।

 

बाहर से हैं भव्य, किन्तु अंदर से बौने हैं।

बीच फसल के, पनप रहे हम खरपतवारों से

पहिन मुखौटे लगा लिए हैं, चित्र दीवारों पे

भीतर से भेड़िये, किन्तु बाहर मृगछौने हैं।….

 

नकली मुस्कानें और मीठे बोल रटे हमने

सभा समूहों में, नीति के जाप लगे जपने

हम सांचों में ढले, बिकाऊ पत्तल दोने हैं।…..

 

शिलान्यास-उदघाटन-भाषण, राशन की बातें

दिन में उजले काम, कुकर्मों में बीते रातें

कर के नमक हरामी, कहते फिरें अलोने हैं…..

 

कई योजनाएं हमने, गुपचुप उदरस्थ करी

भेड़ों के बहुमत से, तबियत रहती हरी-भरी

बातें शुचिता की, नोटों के बिछे बिछौने हैं।….

 

इत्र-फुलेल सुवासित जल से,तन को साफ किया

मन मलिन ही रहा, न इसका चिंतन कभी किया

दिखें सुशिक्षित-शिष्ट,नियत से निपट घिनोने हैं..…

 

बाहर – बाहर जाप, पाप भीतर में सदा किया

चतुराई से दोहरा जीवन, सब के बीच जिया

फिर भी पूरे नहीं, अभी हम आधे-पौने हैं।……

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ लिप्सा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ लिप्सा ☆

राजाओं ने

अपने शिल्प

बनवाये,

अपने चेहरे वाले

सिक्के ढलवाये,

कुछ ने

अपनी श्वासहीन देह

रसायन में लपेटकर

पिरामिड बनाने की

आज्ञा करवाई,

कुछ ने

जीते-जी

भव्य समाधि

की व्यवस्था लगवाई,

काल के साथ

तरीके बदले

आदमी वही रहा,

अब आदमी

अपने ही पुतले,

बनवा रहा है

खुद ही अनावरण

कर रहा है,

वॉट्स एप से लेकर

फेसबुक, इंस्टाग्राम,

ट्विटर पर आ रहा है,

अपनी तस्वीरों से

सोशल मीडिया

हैंग करा रहा है,

प्रवृत्ति बदलती नहीं है,

मर्त्यलोक के आदमी की

अमर होने की लिप्सा

कभी मरती नहीं है!

 

©  संजय भारद्वाज 

11:43, 4.10.2018

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 20 ☆ खुशियों का झरना ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता खुशियों का झरना) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 20 ☆ खुशियों का झरना 

 

कभी खुशियों के झरनों की चाहत नहीं थी मुझे,

मुझे तो बस एक शीतल ओस की बूंद की दरकार थी ||

 

कभी खुशियों के खजाने की चाहत नहीं थी मुझे,

मुझे तो बस मोतियों सी रिश्तों की माला की दरकार थी ||

 

कभी खुशियों के समुन्द्र की चाहत नहीं थी मुझे,

मुझे तो बस मीठे पानी की झील सी जिंदगी की दरकार थी ||

 

कभी फूलों की बगिया की चाहत नहीं थी मुझे,

मुझे तो बस कांटों भरी जिंदगी में एक गुलाब की दरकार थी ||

 

जिंदगी हर हाल खुशनुमा हो ऐसी चाहत नहीं थी मुझे,

मुझे तो बस ग़मों भरी जिंदगी में एक ख़ुशी की दरकार थी ||

 

कभी आकाश छू लेने की जीवन में चाहत नहीं थी मुझे,

मुझे तो बस अपने पैर जमीं पर रहे बस यही दरकार थी ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 56 ☆ ए मैना! ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साbharatiinझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “ए मैना!”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 56 ☆

☆  ए मैना! ☆

आज जब देखा मैंने तुम्हें

शाख पर मस्ती में बैठे हुए

तो तुम्हें देखती ही रह गयी!

 

बताओ न मैना!

क्या करती हो तुम दिन ढले

जब तुमने जी भर कर मेहनत कर ली होती है

और दाने चुग लिए होते हैं?

क्या सोच रही थीं तुम यूँ शाख पर बैठ हुए?

 

न ही तुम्हारे पास कोई मोबाइल है

कि किसी दोस्त से बातें कर लो,

न ही तुम टेलीविज़न पर

नेटफ्लिक्स की कोई फिल्म देखती हो,

न ही चाय पीने के लिए

कोई पड़ोसी ही आते हैं!

 

तुमको ध्यान से देख रही थी

कि तुमको कुछ भी नहीं चाहिए था

खुश रहने के लिए –

तुम्हारी तो फितरत ही है खुश रहने की!

कितनी आज़ाद हो तुम ए मैना!

लॉक डाउन तो अब हुआ है,

पर शायद हम इंसान तो बरसों से क़ैद ही हैं!

 

यह भी सच है

कि आज़ादी के साथ-साथ

तुम्हारे ऊपर ज़िम्मेदारी भी बहुत है!

किसी दिन तुम्हें बुखार आ जाए

फिर भी तुम्हें दाना लेने तो ख़ुद ही जाना होता है, है ना?

 

वैसे शायद यह ज़िम्मेदारी

अच्छी ही होती है,

आखिर तुम किसी पर बोझ तो नहीं बनतीं-

सीख लेती हो कि कैसे लड़ते हैं, जूझते हैं और आगे बढ़ते हैं!

और कैसे जगाते हैं आत्मविश्वास!

 

सच में, ए मैना!

आज बहुत कुछ सिखा गयीं तुम मुझे

जाने-अनजाने में!

 

अब जब भी मैं किसी मन की उथल-पुथल से

गुज़र रही होऊँगी तो देख लूंगी एक बार फिर से तुमको,

हो सकता है मुझे मिल जाए वो परम ख़ुशी

जिसकी चाहत तो हर कोई करता है

पर वो हाथ से फिसलती ही जाती है!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ रेटीना ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ रेटीना ☆

फिर चमक उठी

किरणें आँखों में,

अक्षर-अक्षर पढ़ता रहा

नख-शिख वर्णन करता रहा,

किसीने पूछा-

तुम्हारी आँखें

देख नहीं पाती हैं,

फिर कैसे

सटीक चित्र बताती हैं?

उसके होंठ मुस्करा भर दिए,

अनुभव का अपना

अलग रेटीना होता है,

बाँचने और पढ़ने में

यही फ़र्क होता है।

 

©  संजय भारद्वाज 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अनुभूतियाँ … ☆ श्री जयेश वर्मा

श्री जयेश वर्मा

(श्री जयेश कुमार वर्मा जी का हार्दिक स्वागत है। आप बैंक ऑफ़ बरोडा (देना बैंक) से वरिष्ठ प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। हम अपने पाठकों से आपकी सर्वोत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक  अतिसुन्दर भावप्रवण कविता अनुभूतियाँ …।)

☆ कविता  ☆ अनुभूतियाँ … ☆

उसके सजदे में बुदबुदाती, दुआयें, करती, वो बूढ़ी,माँ,

किसी के  थरथराते, होटों में दबे, दर्द के  वो, लफ्ज़,

दिल से निकले तरानों की एक लहर,

बच्चे के मुँह में पड़ी, घुलती मिश्री की डली,

गांव की पगडंडियों, मेड़ो, पे पसरी धूप की, वो गमक,

किसान के चेहरे पे चमकती, वो पकी फसल,

किसी के लंबे इंतजार में, बेचैन सा, वो मन,

अर्से बाद, किसी के, बेटे की, वो घर वापसी,

किसी के खयाल में,  झुकी हुई, वो पलकें,

पत्तों  फूलों, पर पड़ी, मदहोश सी, शबनम,

किसी के पाँवों में छन छन,  छनकती वो पायल,

आँगन में तुलसी के बिरवे पे जलता, वो दीपक,

माँ के आँचल में हुमकते, बच्चे की वो किलकारी,

रोटी के लिए बच्चे की, वो मासूम सी, सिसकारी,

बिनब्याही लड़कियों, की बढ़ती उम्र में बिखरते से सपने,

भटकते बेरोज़गार लड़को के रोज़ के, वो अफसाने,

बाप की पेशानी पे चमकता पसीने सा, अनकहा, दर्द,

पुरवैया हवाओँ का वो यूँ बहक कर, चलना,

काली घटाओं का,अचानक,वो,जम के बरसना,

ज़मी पे गिरतीं बूँदों का वो मचलना, थिरकना,

मिट्टी की सौंधी सौंधी खुशबू का वो, यूँ, उड़ना,

सोचता रहता हूँ, लिख दूं , एक कविता, ऐसी,

हर चेहरे पे लरजें मुस्कानें, ज़मी हो जन्नत जैसी

 

©  जयेश वर्मा

संपर्क :  94 इंद्रपुरी कॉलोनी, ग्वारीघाट रोड, जबलपुर (मध्यप्रदेश)
वर्तमान में – खराड़ी,  पुणे (महाराष्ट्र)
मो 7746001236

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे । )

 ✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

 

विकल रहूँ या मैं विवश, कौन करे परवाह ।

सब सुनते हैं शोर को, सब जाती है आह।।

 

सोच रहा हूँ आज मैं, करता हूँ अनुमान ।

अधिक अपेक्षा ही करें, सपने लहूलुहान।।

 

शब्द ब्रह्म आराधना, प्राणों का   संगीत।

भाव प्रवाहित ज्यों सरित, उर्मि उर्मि है गीत।।

 

कहनी अन कहनी सुनी, भरते रहे हुँकार ।

क्रोध जताया आपने, हम समझे हैं प्यार ।।

 

कितनी दृढ़ता मैं रखूँ, हो जाता कमजोर ।

मुश्किल लगता खींच कर, रखना मन की डोर।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 22 – फिर समेटे दिन कहीं…. ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “फिर समेटे दिन कहीं ….। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 22– ।। अभिनव गीत ।।

☆ फिर समेटे दिन कहीं…. ☆

 

शाम घिरते  होगया धुँधला

वह कनक गुम्बद हवेली का

आँख को ज्यों खूब भाया,

प्रीतकर सुरमा बरेली  का

 

स्याह हो उट्ठे दिशाओं के

बनैले चुप पखेरू

थरथराहट लाँघती

दिनमान के अनगिन सुमेरू

 

फिर समेटे दिन कहीं

गायब हुआ है

खुशनुमा वह सूर्य

पीली इस पहेली का

 

चिपचिपी होने लगी है

ओसारे की ,वाट गीली

थाम हाथों में पहाड़ों को

गरम  होती पतीली

 

घूमती, आँखों अधूरापन

सम्हाले

अँधेरे में चीन्हती

जो गुड़ करेली   का

 

फिर किसी सौभाग्य से

जा पूछती उन्नत शिखरणी

क्यों उदासी ओढ़ती  मृगदाब

की  अनजान हिरणी

 

देखती जो राह

सारे दिन रही है

चैन भी जिसको मिला

न एक धेली  का

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

24-01-2019

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ अक्षय ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ अक्षय ☆

मैं पहचानता हूँ

तुम्हारी पदचाप,

जानता हूँ

तुम्हारा अहंकार भी,

झपटने, गड़पने

का तुम्हारा स्वभाव भी,

बस याद दिला दूँ,

जितनी बार गड़पा तुमने,

नया जीवन लेकर लौटा हूँ मैं,

तुम्हें चिरंजीविता मुबारक

पर मेरा अक्षय होना

नहीं ठुकरा सकते तुम..!

©  संजय भारद्वाज 

प्रात: 12.11बजे, 22.10.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #15 ☆ बहुत मुश्किल है ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है।  सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग  स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर , अर्थपूर्ण एवं भावप्रवण  कविता “ बहुत मुश्किल है ”। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 15 ☆ 

☆ बहुत मुश्किल है ☆ 

घटनाएं अच्छी-बुरी

घट रही थी

जिंदगी खुशी खुशी

कट रही थी

यह कैसा प्रलय आया

जिसने तूफान लाया

इससे बच पाना

बहुत मुश्किल है

 

हमने तो जीवन भर

फूलों के पौधे लगाए

फूलों के संग संग

कांटे भी उग आए

फूलों पर कब्जा

जमाने ने कर लिया

कांटों से दामन

हमारा भर दिया

फूलों से बेहतर

हमने कांटों को बनाया

तराशा,

खुशबू से महकाया

फिर भी इनको कांटों की

क्षमता पर शक है

क्या वाकई इनको

ये कहने का हक है

इन तंगदिल वालों से

जीत पाना

बहुत मुश्किल है

 

घर उनका जला है तो

खुश हो रहे हो

बेफिक्र, खूब

तानकर सो रहे हो

कल घर तूम्हारा जलेगा

तो तुम्हें पता चलेगा

इस आग की कोई

धर्म या जाति नहीं होती

आग लगती है तो वो

सबकुछ है जलाती

यह इन दिग्भ्रमित

लोगों को समझाना

बहुत मुश्किल है

 

कसौटी पर परखो

फिर उसे चाहों

इन्सान ही रहने दो

खुदा ना बनाओं

खुदा जो बन गया तो

तूम्हारी नहीं सुनेगा

अपनी प्रशंसा के ही

सपने बुनेगा

उसके डर से

या उसके कहर से

इन नशे में गाफिल

लोगों को बचा पाना

बहुत मुश्किल है।

© श्याम खापर्डे 

18/10/2020

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़)

मो  9425592588

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