हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 140 –मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “सजल – बदल गया है आज जमाना। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 140 – मनोज के दोहे ☆

(दोहा – सृजन हेतु शब्द – वारिद, वर्षा, पुरवा, पछुआ, पावस)

वारिद लाए विपुल जल, बुझी धरा की प्यास ।

धरती ने फिर ओढ़ ली, हरित चूनरी खास।।

*

वर्षा ने हर्षित किया, जड़ चेतन संजीव।

मंदिर में कृष्णा हँसे, शांत दिखे गांडीव।।

*

पुरवा सुखद सुहावनी, कर मन को आल्हाद।

हर लेती मन के सभी, क्षण भर में अवसाद।।

*

पूरब में पछुआ बही, बदली उनकी चाल।

फटी जीन्स की आड़ में, दिखें युवा बेहाल।।

*

पावस ने सौगात दी, हरियाली चहुँ ओर ।

झूम उठा मन बावला, झरनों का सुन शोर।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 202 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 202 – कथा क्रम (स्वगत)… ✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

क्रमशः आगे…

दिवोदास की पत्नी

निश्चित समय के लिये।

माधवी मां बनी

और जन्म लिया

पुत्र प्रतर्दन ने ।

समयावधि बीती

उपस्थित हुए

गालव ।

माधवी ने

फिर त्यागा

राजमहल

और सद्यः जात शिशु ।

हवा में

उड़ते रहे

राजमहल के परदे

बजती रहीं

घंटियाँ

और सिसकता रहा शिशु ।

चलती रही

गंगा की

प्रवहमान परम्परा

छूटते रहे

अभिशप्त वसु ।

अब

गालव का

पड़ाव था

भोजनगर ।

भेंट हुई

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 202 – “जीवन का संघर्ष कठिन…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत जीवन का संघर्ष कठिन...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 202 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “जीवन का संघर्ष कठिन...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

वो जो हैं कमजोर, लड़कियां

कचरा बीन रहीं

पता चला है सगी बहिन

गिनती में तीन रहीं

 

ताड़ी  पीकर बाप

पड़ा रहता है झुग्गी में

भाई भी जो व्यस्त ताश

की इक्की दुग्गी में

 

झुग्गी पर जो ढकी

प्लास्टिक की चिन्दी चिन्दी

बरस रहे पानी मे स्थिति

थी गमगीन रही

 

यह दीवार वेशरम के

डंडो से गई गढ़ी

बारिश में वे हरियाये

थी उलझन बहुत बड़ी

 

जैसे तैसे रोक रहीं थीं

घर की बौछारें

जीवन का संघर्ष कठिन

कथनी प्राचीन रही

 

एक फटी पन्नी को

लेकर फिर से वे आयीं

किन्तु पड़ोसी की नजरों

को वे तीनों भायीं

 

अधोवस्त्र थे फटे

सो रहीं थीं बेसुध होकर

घुसा पडौसी, जिसे मार

विजयी वे तीन रहीं

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

04 – 8 – 2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लेखन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  लेखन ? ?

(कविता संग्रह ‘योंही’)

जीवन की वाचालता पर

ताला जड़ गया,

मृत्यु भी अवाक-सी

सुनती रह गई

बगैर ना-नुकर के

उसके साथ चलने का

मेरा फैसला…,

जाने क्या असर था

दोनों एक साथ पूछ बैठे-

कुछ अधूरा रहा तो

कुछ देर रुकूँ…?

मैंने काग़ज़ के माथे पर

क़लम से तिलक किया

और कहा-

बस आज के हिस्से का

लिख लूँ,

तो चलूँ…!

© संजय भारद्वाज  

 अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 189 ☆ # “सावन की झड़ी” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता सावन की झड़ी

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 189 ☆

☆ # “सावन की झड़ी” # ☆

 “

 

आइये आप की प्रतीक्षा है बड़ी

देखिये लग गई है सावन की झड़ी

 

भीगा भीगा है तन

भीगा भीगा है मन

भीगा भीगा है मौसम

भीगा भीगा है बदन

इंतजार कर रही है

बूंदों की लड़ी

आइये आप की प्रतीक्षा है बड़ी

देखिये लग गई है सावन की झड़ी

 

उफ़! यह कैसा भीगने का डर

बारिश आ रही है रूक रूक कर

आ भी जाओ थोड़ी हिम्मत कर

कहीं बीत ना जाये भीगने का पहर

कब तक यूं ही रहोगी

दरवाजे पर खड़ी

आइये आप की प्रतीक्षा है बड़ी

देखिये लग गई है सावन की झड़ी

 

तू दुपट्टा अपने सर पर डाल

भीगने दे अपने रेशम से बाल

तू तेज़ कर देना अपनी चाल

आरक्त हुए हैं तेरे भीगकर गाल

मदिरा से भरी हुई है

तेरी आंखें बड़ी-बड़ी

आइये आप की प्रतीक्षा है बड़ी

देखिये लग गई है सावन की झड़ी

 

सावन की फुहारों में

भीगती जवानी है

कितना खुशकिस्मत

वर्षा का पानी है

हर एक बूंद की

अपनी कहानी है

साजन से मिलने

आतुर दिवानी है

सावन में मिलन की

कभी बीते ना यह घड़ी

आइये आप की प्रतीक्षा है बड़ी

देखिये लग गई है सावन की झड़ी/

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 199 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 199 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 199) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 199 ?

☆☆☆☆☆

अधूरी कहानी पर ख़ामोश

लबों का पहरा है

चोट रूह की है इसलिए

दर्द ज़रा गहरा है….

☆☆

Silent lips are the sentinels

Of  the  unfulfilled fairytale…

Wound is of the spirited soul

So the pain is rather intense….

☆☆☆☆☆

हंसते हुए चेहरों को गमों से

आजाद ना समझो साहिब

मुस्कुराहट की पनाहों में भी

हजारों  दर्द  छुपे होते  हैं…

☆☆

O’ Dear, Don’t even consider that

Laughing faces are free of sorrow

Innumerable  pains are  hidden

Even behind the walls of a smile…

☆☆☆☆☆

चुपचाप चल रहे थे

ज़िन्दगी के सफर में

तुम पर नज़र क्या पड़ी

बस  गुमराह  हो  गए…

☆☆

Was walking peacefully

In  the  journey of the life

Just casting a glance on you

Made my journey go astray…

☆☆☆☆☆

ज़रा सी कैद से ही

घुटन होने  लगी…

तुम तो पंछी पालने

के  बड़े  शौक़ीन थे…

☆☆

Just a little bit of confinement

Made you feel so suffocated

But keeping the birds caged

You were so very fond of…!

☆☆☆☆☆ 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सूना जहाँ… ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

(डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के नोबल कॉलेज में प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, दो कविता संग्रह, पाँच कहानी संग्रह,  एक उपन्यास (फिर एक नयी सुबह) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आपका उपन्यास “औरत तेरी यही कहानी” शीघ्र प्रकाश्य। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता सूना जहाँ… ।)  

☆ कविता ☆ सूना जहाँ… ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

कुछ भी नहीं भाता,

सूरज की रोशनी कहाँ ?

पौधे भी सूख गए,

फूल भी मुरझा गए,

कौन देगा पानी इन्हें?

वह भी हुए प्यासे,

वह किलकिलाती हँसी,

वह नटखटपन तेरा,

कभी पेड़ पर चढ़ना,

कभी पत्थर से मारना,

कभी तेरा यूँही चिल्लाना,

माँ….माँ…..माँ… माँ…

कभी नाटक करना…

लगता है मानो ! आज….        

माँ का आँचल हुआ सूना,

हर तरफ अँधेरा ही अँधेरा,

धूल ही धूल आँखों में है,

सोमनाथ, द्बारिका या गिरनार,

कुछ भी तो नहीं भाता,

फीके सारे पकवान,

फीके सारे त्योहार,

अब कौन मार खाएगा?

अब किसे लाड़ लड़ायेंगे?

अब कौन करेगा ईश्वर की आरती?

अब कौन करेगा शंखनाद?

अब कौन बुलाएगा देवकी को?

मेरे कान्हा, मेरे लाल !!!

सूना हुआ आँगन तेरे बगैर,

आधा रह गया, सा..रे..ग..म..प…

पैरों ने थिरकना बंद कर दिया,

नहीं हो रहा ता ता थैया,

ज़िंदगी की मंजिल भी थम सी गई.

मानो, तूफ़ान आया ज़िंदगी में,

मानो प्रकृति ने मुँह मोड़ लिया,

झरनों में पानी थम गया,

नदी में पानी सूख गया,

ज़िंदगी की आयु भी हुई कम,

जुबाँ लडखडा रही है,

फिर भी उड़ान जारी है,

अल्फाज़ नहीं मिल रहे है,

बात करना जारी है,

मंजिल औ’ रास्ता भी तुम,

सुनहरी शाम और चांदनी रात,

आज हर जगह सिर्फ फैली निशा,

कहाँ है वह शीतल चाँदनी?

नहीं नज़र आ रहा है कुछ भी.,.

सभी तो धुँधला सा नज़र आ रहा है,

घर काटने को दौड़ रहा है,

लग रहा है मानो….

यह आँचल हुआ खाली,

कौन पूछेगा हमें?

कौन थामेगा हाथ?

किसे पुकारेंगे कान्हा?

कितने सावन, भादों आए और गए

बस तेरी याद सता रही है

अभी तो मात्र रूदन सुनाई दे रहा,

खामोश हवा की ध्वनि,

घर से आ रही है,

आज यह नहीं घर…

लग रहा मकान,

चारदीवारी मात्र नज़र आ रही,

लोग परेशान हो गए है,

फिर से कब बनेगा घरौंदा?

अब माँ को देखनेवाला कौन?

माँ का आगे कौन हवाल?

माँ गिरना मत,

माँ, धीरे से चलना…

दवाई समय पर खाना,

खाना वक्त पर खाना,

माँ देखो, अपना खयाल रखना…

कहने वाला लाल कहाँ?

कमरा हुआ खाली,

घरौंदा हुआ शून्य,

न कोई भी पुकारता,

माँ…माँ… माँ… माँ…

लगता मानो! जहाँ सूना पड़ा,

शून्य हुआ फिर से यह जहाँ,

फिर भी माँ की दुआ है,

आशीर्वाद है, मानव बनकर लौटना

तुम हो ज़िगर का टुकडा,

कभी ना भूलना जन्म स्थान को,

कभी ना भुलना अपनों को,

फिर से घरौंदा बनाना,

सब साथ हो जहाँ पर,

वही आवाज़ फिर से,

गूँजने दो जो पहले कभी थी,

आज हर तरफ छाया शून्य,

सुनसान बन गई है जगह,

नहीं नज़र आता फर्क कोई…

श्मशान और मकान में,

आँखे भी हुई है सूनी,

सूख गये आँसू भी,

फिर से लगा दो सुर,

फिर से छेड़ दो वही मल्हार राग,

सुनने को बेताब सुरीली आवाज़ कान को,

देखना चाहते नैन सिर्फ…

वही नाच ज़िंदगी का,

फिर से थिरकने दो पैरों को,

गूँजने दो घुँघरू की आवाज़,

पानी को बहने दो संसार में,

प्यासे को पिला दो पानी,

सुनने दो दुनिया को एक माँ का प्यार,

दुनिया को बताओ माँ की सफल कहानी,

माँ का संघर्ष जिंदगी का बताओ,

माँ का वही घर लाकर दो लाल,

आँखों को फिर से इंतज़ार उसी घर का,

तुम हो मेरे नूर, स्वाभिमानी कान्हा…

आत्मविश्वास है, तुम लेकर आओगे घरौंदा…

निकालोगे सूनेपन को मकान से,

सूने जहाँ को कर सकते हो आबाद,

मकान नहीं घर चाहिए, बस मात्र घर ।

© डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

संपर्क: प्राध्यापिका, लेखिका व कवयित्री, हिन्दी विभाग, नोबल कॉलेज, जेपी नगर, बेंगलूरू।

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 199 ☆ गीत – वाम से इतर… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है गीत – वाम से इतर…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 199 ☆

☆ गीत – वाम से इतर☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

*

आओ! कुछ काम करें

वाम से इतर

*

लोक से जुड़े रहें

न मीत दूर हों

हाजमोला खा न भूख

लिखें सू़र हों

रेहड़ीवाले से करें

मोलभाव औ’

बारबालाओं पे लुटा

रुपै क्रूर क्यों?

मेहनत पैगाम करें

नाम से इतर

सार्थक भू धाम करें

वाम से इतर

*

खेतों में नहीं; जिम में

पसीना बहा रहे

पनहा न पिएँ कोक-

फैंटा; घर में ला रहे

चाट ठेले हँस रहे

रोती है अँगीठी

खेतों को राजमार्ग

निगलते ही जा रहे

जलजीरा पान करें

जाम से इतर

पनघटों का नाम करें

वाम से इतर

*

शहर में न लाज बिके

किसी गाँव की

क्रूज से रोटी न छिने

किसी नाव की

झोपड़ी उजाड़ दे न

सेठ की हवस

हो सके हत्या न नीम

तले छाँव की

सत्य का सम्मान करें

दाम से इतर

छोड़ खास, आम वरें

वाम से इतर

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१२-४-२०१७

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #248 – 133 – “हरेक शख़्स को कूच करना है एक दिन…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल हरेक शख़्स को कूच करना है एक दिन,…” ।)

? ग़ज़ल # 133 – “हरेक शख़्स को कूच करना है एक दिन,…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

ज़िक्र छेड़ा है तो माहौल बनाए रखिये,

कुछ तो लौ अरमानों की जलाए रखिये।

*

सिर रोज खपायेंगी अजीब दुश्वारियाँ,

ख़्यालों संग ख़्वाबों को सजाए रखिये।

*

हरेक शख़्स को कूच करना है एक दिन,

साथ भरोसेमंद कन्धों का बनाए रखिए।

*

बूढ़ा शेर भी कभी घास खाते नहीं दिखता,

शिकारी अन्दाज़ मैदान में दिखाए रखिए।

*

‘आतिश’ ज़ाया न कोई पल चिंता चिता में,

लम्हा कूच तक क़िस्सा लय बचाए रखिये।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आँखें ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – आँखें ? ?

(लघु कविता संग्रह – चुप्पियाँ से)

आँखें,

जिन्होंने देखे नहीं

कभी उजाले

कैसे बुनती होंगी

आकृतियाँ-

भवन, झोपड़ी,

सड़क, फुटपाथ,

कार, दुपहिया,

चूल्हा, आग,

बादल, बारिश,

पेड़, घास,

धरती, आकाश

दैहिक या

प्राकृतिक सौंदर्य की,

‘रंग’ शब्द से

कौनसे चित्र

बनते होंगे

मन के दृष्टिपटल पर,

भूकम्प से

कैसा विनाश चितरता होगा,

बाढ़ की परिभाषा क्या होगी,

इंजेक्शन लगने से पूर्व

भय से आँखें मूँदने का

विकल्प क्या होगा,

आवाज़ को

घटना में बदलने का

पैमाना क्या होगा,

चूल्हे की आँच

और चिता की आग में

अंतर कैसे खोजा जाता होगा,

दृश्य या अदृश्य का

सिद्धांत कैसे समझा जाता होगा,

और तो और

ऐसी दो जोड़ी आँखें

जब मिलती होंगी

तो भला आँखें

मिलती कैसे होंगी..,

और उनकी दुनिया में

वस्त्र पहनने के मायने

केवल लज्जा ढकने भर के

तो नहीं होंगे…!

कुछ भी हो

इतना निश्चित है

ये आँखें

बुन लेती हैं

अद्वैत भाव,

समरस हो जाती हैं

प्रकृति के साथ,

सोचता हूँ

काश!

हो पाती वे आँखें भी

अद्वैत और

समरस

जो देखती तो हैं उजाले

पर बुनती रहती हैं अँधेरे!

© संजय भारद्वाज  

 अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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