हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 125 ☆ ग़ज़ल ☆ ।। बहुत ही यह बेमिसाल है जिंदगी।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 125 ☆

ग़ज़ल ☆ ।। बहुत ही यह बेमिसाल है जिंदगी।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[।।काफ़िया।। आल ।। -।।रदीफ़।। है जिंदगी।।]

[1]

खेलो तो  तब  गुलाल  है   जिंदगी।

बहुत ही यह बेमिसाल है   जिंदगी।।

[2]

हार जाये जब मन से कोई आदमी।

तो बस फिर इक़ मलाल है जिंदगी।।

[3]

बस यूँ ही गुजारी तनाव में  गर  तो।

जान लीजिए कि बेहाल है  जिंदगी।।

[4]

गर ढूंढा न जवाब हर बात का  हमने।

तो मानो सवाल ही सवाल है जिंदगी।।

[5]

जियो जिंदगी अंदाज़ नज़र अंदाज़ से।

नहीं तो फिर बस   बवाल है   जिंदगी।।

[6]

गर जी जिंदगी मिलकर   सहयोग  से।

तो जान लो फिर   कमाल है  जिंदगी।।

[7]

बस लगे रहे हमेशा. अपने मतलब में।

तो बन   जाती    बदहाल  है  जिंदगी।।

[8]

गर घिर गए हम नफरत के   जाल में।

तो फिर ये   बिगड़ी चाल.  है जिंदगी।।

[9]

जियो और जीने दो की राह पर चलो।

तो फिर   बनती   जलाल   है जिंदगी।।

[10]

हंस बस हँसकर ही काटो गमों दुःख में।

यकीन मानो रहेगी खुशहाल है जिंदगी।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 189 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – गीत – आओ नेह बढ़ायें… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण गीत  – “आओ नेह बढ़ायें। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 189 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – गीत – आओ नेह बढ़ायें ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

धो के मन का मैल आपसी, हिलमिल के हम गायें, आओ नेह बढ़ायें ।’

*

जहाँ जहाँ भी अंधियारा है, बुझा-बुझा जीवन-तारा है

घर को भूल जहाँ उलझन में भटक रहा मन-बंजारा है

आशा की किरणें बिखराने, आओ दीप जलायें ।। १ ।।

*

जहाँ भी सँकरा गलियारा है, साँस घुटी, जीवन हारा है

बेबस आहे, हूक हृदय में, आंखों में आँसू-धारा है

ढांढस देने उन दुखियों को, आओ गले लगायें ।। २ ।।

*

बिना सहारा भूखा-प्यासा मन फिरता मारा-मारा है

प्रेम नहीं तो जीवन-पथ में अँधियारा ही अँधियारा है

लाने नया सबेरा जग में ममता को अपनायें ।।३।।

*

धोके मन का मैल आपसी हिलमिल के सब गायें, आओ नेह बढ़ायें ।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ हे औघड़दानी ! ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ दोहे – हे औघड़दानी ! ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

औघड़दानी,हे त्रिपुरारी,तुम प्रामाणिक स्वमेव ।

पशुपति हो तुम,करुणा मूरत,हे देवों के देव ।।

श्रावण में जिसने भी पूजा,उसने तुमको पाया। 

पूजन से यह मौसम भूषित,शुभ-मंगल है आया।। 

कार्तिके़य,गजानन आये,बनकर पुत्र तुम्हारे। 

संतों,देवों ने सुख पाया, भक्त करें जयकारे।।

*

आदिपुरुष तुम, पूरणकर्ता, शिव,शंकर महादेव।

नंदीश्वर तुम,एकलिंग तुम,हो देवों के देव ।।

*

तुम फलदायी,सबके स्वामी,तुम हो दयानिधान।

जीवन महके हर पल मेरा,दो ऐसा वरदान।।

कष्ट निवारण सबके करते,तुम हो श्री गौरीश। 

देते हो भक्तों को हरदम,तुम तो नित आशीष।। 

*

तुम हो स्वामी,अंतर्यामी,केशों में है गंगा।

ध्यान धरा जिसने भी स्वामी,उसका मन हो चंगा।।

तुम अविनाशी,काम के हंता,हर संकट हर लेव।

भोलेबाबा,करूं वंदना,हे देवों के देव  ।।

तुम त्रिपुरारी, जगकल्याणक,महिमा का है वंदन। 

बार बार करते हम सारे,औघड़दानी वंदन।। 

*

पर्वत कैलाशी में डेरा,भूत प्रेत सँग रहते। 

सुरसरि की पावन जलधारा,आप लटों से बहती।। 

उमासंग तुम हर पल शोभित,अर्ध्दनारीश कहाते।

हो फक्खड़ तुम,भूत-प्रेत सँग,नित शुभकर्म रचाते।।

परम संत तुम,ज्ञानी,तपसी,नाव पार कर देव ।

महाप्रलय ना लाना स्वामी,हे देवों के देव ।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #244 ☆ भावना के दोहे… जल ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे… जल)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 244 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे… जल ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

रोज गिरे बिजली यहाँ, कष्टों का भंडार।

दीन दुखी के भाग में, नहीं सुखद आधार।।

*

बारिश रस्ता भूलती, सूखा पड़ा है गाँव।

गरमी का पुरजोर है, मिले नहीं है छाँव।।

*

बूँद – बूँद जल के लिए, होता हाहाकार।

आखिर ऐसा क्यों हुआ, अब तो करें विचार।।

*

 नैना बहते बाढ़ से, कैसे रोकूँ नाथ।

दर्शन देना प्रभु मुझे, तेरा ही तो साथ।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #226 ☆ दो मुक्तक… इंसानियत ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है दो मुक्तकइंसानियत आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 226 ☆

☆ दो मुक्तक इंसानियत ☆ श्री संतोष नेमा ☆

धर्म का अपने मान  करो तुम

बेशक खूब गुणगान करो तुम

धर्म  स्थलों को पर मत तोड़ो

गैरों  का न अपमान करो तुम

*

हिंसा  का  धर्म  में  स्थान  नहीं है

तोड़- फोड़ आगजनी शान नहीं है

इंसा  की  इंसा से  नफरत  करना

हैवानियत  है   यह  ज्ञान  नहीं  है

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

रिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 16 – नवगीत – गुरुवर वंदना… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – गुरुवर वंदना

? रचना संसार # 16 – नवगीत – गुरुवर वंदना…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

अंतस में विश्वास भरो प्रभु,

तामस को चीर।

प्रेम भाव से जीवन बीते,

दूर हो सब पीर।।

 *

मान प्रतिष्ठा मिले जगत में,

उर यही है आस।

शीतल पावन निर्मल तन हो,

सुखद हो आभास।।

कोई मैं विधा नहीं जानूँ

गुरु सुनो भगवान।

भरदो शिक्षा से तुम झोली,

दो ज्ञान वरदान।।

शिष्य बना लो अर्जुन जैसा,

धनुषधारी वीर ।

 *

बैर द्वेष तज दूँ मैं सारी,

खोलो प्रभो द्वार।

न्याय धर्म पर चलूँ सदा मैं,

टूटे नहीं तार।।

आप कृपा के हो सागर,

प्रभो जीवन सार।

रज चरणों की अपने देदो,

गुरु सुनो आधार।।

सेवा में दिनरात करूँ प्रभु,

रहूँ नहीं अधीर।

 *

एकलव्य सा शिष्य बनूँ मैं,

रचूँ फिर इतिहास।

सत्य मार्ग पर चलता जाऊँ,

हो जग उजास।।

ब्रह्मा हो गुरु आप विष्णु हो,

कहें तीरथ धाम।

रसधार बहादो अमरित की,

जपूँ आठों याम।।

दीपक ज्ञान का अब जला दो,

गुरुवर दानवीर।

 

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected][email protected]

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… नागपंचमी ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ 

(साहित्यकार श्रीमति योगिता चौरसिया जी की रचनाएँ प्रतिष्ठित समाचार पत्रों/पत्र पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं में सतत प्रकाशित। कई साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित। दोहा संग्रह दोहा कलश प्रकाशित, विविध छंद कलश प्रकाशित। गीत कलश (छंद गीत) और निर्विकार पथ (मत्तसवैया) प्रकाशाधीन। राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय मंच / संस्थाओं से 350 से अधिक सम्मानों से सम्मानित। साहित्य के साथ ही समाजसेवा में भी सेवारत। हम समय समय पर आपकी रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा करते रहेंगे।)  

☆ कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… नागपंचमी ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

[(नागपंचमी) चौरसिया दिवस]

चौरसिया यह है दिवस, नागपंचमी आज ।

पान बेल को पूजते, करते पूजन काज ।।1!!

*

दूध पिलाते नाग को,  मिलता आशीर्वाद ।

धूप-दीप नैवैद्य को, चढ़ा दूर अवसाद ।। 2!!

*

रक्षा लक्ष्मी की करें, नाग कुण्डली मार ।

घर में बढ़ती है कृपा, धन वैभव संसार ।।3!!

*

चित्र बना पूजन करें, रहे मान्यता  साथ ।

द्वार विराजे नाग जो, सभी झुकाएँ माथ ।।4!!

*

पाँच नाग को आँगना, बैठा पूजे द्वार ।

भोग लगाते हम सभी, नागपंचमी वार ।।5!!

*

रखवाली कर खेत की, बढ़ा सम्पदा रोज ।

धन्य साग फूलें सभी, सबको देते भोज ।।6!!

*

चौरसिया करते सदा, लक्ष्मी रक्षा ओट ।

मिला तभी वरदान है, पान बरेजे खोट ।।7!!

*

खोटें जब भी पान को, नहीं काटता नाग ।

नाग कृपा बनती रहे, संतति किस्मत जाग ।।8!!

*

कर रक्षा परिवार की, करें नाग उद्धार ।

सभी बंधु मिलकर जपें, खुशी सजे संसार ।।9!!

*

चौरसिया बनके अभी, जन्में  खुशी अपार ।

पुण्य किये थे काज को, मिला यही परिवार ।।10!!

© श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’

मंडला, मध्यप्रदेश मो –8435157848

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चुप्पी – 36 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  चुप्पी – 36 ? ?

(लघु कविता संग्रह – चुप्पियाँ से)

….और इसी संदर्भ की एक पुरानी कविता भी याद आ गई-

ऐसा लबालब

क्यों भर दिया तूने,

बोलता हूँ तो

चर्चा होती है,

चुप रहता हूँ तो

और भी अधिक

चर्चा होती है!

© संजय भारद्वाज  

अपराह्न 1:05 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ खामोशी… ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

(डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के नोबल कॉलेज में प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, दो कविता संग्रह, पाँच कहानी संग्रह,  एक उपन्यास (फिर एक नयी सुबह) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आपका उपन्यास “औरत तेरी यही कहानी” शीघ्र प्रकाश्य। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता खामोशी… ।)  

☆ कविता ☆ खामोशी… ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

बादल छाये आसमान में,

दिल झूमना चाहता है,

रिमझिम बारीश में,

कर रहा मना उदास मन,

खुश दिल को चीर रही खामोशी,

एक अनजान मौन छाया है,

एक खामोशी बस सब खत्म,

काट रही ख़ामोशी मानव को,

दिल कह रहा, नहीं खत्म…

अल्फ़ाज़ नहीं मिल रहे है,

अरे! यह क्या हो रहा है ?

कुछ भी तो मिल नहीं रहा,

मन करता है चिल्लाकर…

सबको इक्कट्ठा कर लें,

लेकिन हर्फे नहीं मिल रहे हैं,

ज़िक्र करना भी नहीं हो रहा है,

किसे पुकारे? अब कौन है?

इतना दुख जिंदगी में है,

नहीं मुस्कुराना, कतराता है मन…

मन को भी मनाना है,

पता है इन्सान को,

दुखती रग है खामोशी,

क्या यही है ज़िंदगी?

पूछ रहा है मन,

कमज़ोर दिल है मानव का,

साँसे भी चल रही तेज़ी से,

दिल की धड़कने भी तेज़ हुई,

यह क्या हो रहा है?

कुछ नहीं समझ आ रहा है,

सर्वत्र छाई खामोशी,

खामोशी चौंध रही ज़िंदगी को,

सुई की जगह ली है खामोशी ने,

नहीं कोई औज़ार चाहिए,

शब्दों के बीच स्वयं को ढूँढता,

खामोश जीवन है भयंकर,

अंधेरे में रोशनी की तरह,

उजाले की तरह चमका सूरज,

आज ढूँढ रहे रोशनी को,

जिंदगी की रोशनी खत्म,

हर तरफ अंधेरा, नहीं नहीं!

मुश्किल है, दिल को बयान करना…

एक चित्कार सब खामोश,

मन ने रोका इस दिल को,

नहीं बहाना कतरा आंसू का,

मुस्कुराते रहना भी है कठिन,

आज जब दूर हो रहा,

दिल का टुकडा, आँखों की रोशनी

उम्मीद मात्र एक परवरदीगार,

थामेगा हाथ दिल के टुकडे का

कर्ज है माँ का ईश्वर,

दुहाई है तुम्हें हे! अल्लाह,

जन्म भी दिया भगवान ने,

पृथ्वी पर लाया है, या खुदा!!

मन बहुत उदास कर रहा रोने को,

लेकिन आज मन है खामोश,

मत छूना खामोश मन को,

बिखर जाएगा सब कुछ,

नहीं मिला शब्द जिंदगी को,

मन को समेटकर,

खामोशी को चिरकर,

बयान कर रहा जिंदगी,

मुस्कुराना ही है जिंदगी,

मुस्कुराना ही है जिंदगी।

© डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

संपर्क: प्राध्यापिका, लेखिका व कवयित्री, हिन्दी विभाग, नोबल कॉलेज, जेपी नगर, बेंगलूरू।

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 295 ☆ आलेख – मन की सुंदरता का फिल्टर… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 295 ☆

? कविता – मन की सुंदरता का फिल्टर? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

मोबाइल से खींची हुई

सेल्फी

पोस्ट करने से पहले

गुजरती हैं

तरह तरह के फिल्टर और ब्राइटनिंग एप्प्स से

कोई दाग नहीं दिखता

इंस्टा, व्हाट्स अप या फेसबुक की डीपी में

सैकड़ो लाइक्स मिलते हैं

हर खूबसूरत फोटो पोस्ट पर

अदा, लोकेशन, स्टाइल

हर कुछ

नयापन लिए हुए होता है

 

काश

मन की सुंदरता का भी

कोई

फिलर, और फिल्टर

हो, जो

दिल की कलुषता को

परिमार्जित कर

एक धवल छबि और

मोहक व्यक्तित्व

बना दे मेरा

और मैं उसके

सपनो का राजकुमार

बन कर उतर जाऊं

सीधे उसके हृदय पटल पर

शासन करने।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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