हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 6 ☆ यहाँ यादें बचपन की ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( श्री गणेश चतुर्थी पर्व के शुभ अवसर पर प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की  बचपन की यादों से परिपूर्ण कविता यहाँ यादें बचपन की। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 6 ☆

☆ यहाँ यादें बचपन की ☆

 

आता है याद मुझको बचपन का घर वो प्यारा
अपनो के साथ मैने जीवन जहाँ गुजारा

खुशियों के साथ बीता जहॉ बालपन बिना भय
नहीं थी न कोई चिन्ता न ही कोई जय पराजय

घर वह कि पूर्वजो ने जिसे था कभी बनाया
जिसने मुझे बढ़ाया दे अपनी स्नेह छाया

आँगन था जिसका सुदंर औं बाग वह सुहाना
मैने जहाँ सुना नित चिड़ियों का चहचहाना

फूलों की छवि निरख खिंच तितलियाँ जहाँ आती
जो मेरे बालमन को बेहद रही लुभाती

जिनको पकड़ने गुपचुप हम बार बार जाते
पर कोशिशें भी कर कई उनको पकड़  न पाते

कैसा था मस्त मोहक बचपन का वह जमाना
कभी बेफिकर थिरकना कभी साथ मिल के गाना

कभी गिल्ली डण्डा गोली लट्टू कभी घुमाना
कभी छत पै चढ़  के चुपके ऊँचे पंतग उड़ाना

कभी साथियो के संग मिल कुछ पढना या पढाना
कभी घूमने को जाना या सायकिल चलाना

नजरों मे बसी हुई है माँ नर्मदा की धारा
सब घाट और मंदिर पावन हरा किनारा

स्कूल, क्लास, शिक्षक, बस्ती, गली बाजारें
पिताजी की शुभ सिखावन माँ की मधुर पुकारे

ताजी है अब भी मन मे सारी पुरानी बातें
खुशियों भरे मनोहर सुबह शाम दिन औं रातें

बदलाव ने समय के दुनियां बदल दी सारी
दुनियाँ  के संग बदल गई सब जिंदगी हमारी

पर चित्त मे बसे है अब भी मधुर वे गाने
होकर भी जो पुराने नये से हैं क्यों न जाने

एकान्त में उभरता अब भी वो सौम्य सपना
जिससे अधिक सुहाना लगता न कोई अपना

ले आई खींच आगे बरसो समय की दूरी
लगता है मन की सारी इच्छाएं हुई न पूरी

आते हैं पर कभी क्या वे दिन जो बीत जाते
बस याद बन ही मन को रहते सदा रिझाते

जिनसे भरी रसीली सुखदायी शांति सारी
हर व्यक्ति के लिये है जीवन की निधि जो प्यारी

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ प्रस्तर की छाती तोड़ चलें ☆ श्री अमरेंद्र नारायण

श्री अमरेंद्र नारायण

( आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं  देश की एकता अखण्डता के लिए समर्पित व्यक्तित्व श्री अमरेंद्र नारायण जी की ओजस्वी कविता प्रस्तर की छाती तोड़ चलें)

☆ प्रस्तर की छाती तोड़ चलें ☆

प्रस्तर की छाती तोड़ चलें

निर्झर का कलकल गान करें

उत्साह ,शक्ति और भक्ति से

संजीवन हम पाषाण करें!

 

ईश्वर ने मन की शक्ति दी

संघर्ष हेतु क्षमता दी है

बाधाओं को कर सकें पार

मानव में कर्मठता दी है

 

हम एक पांव आगे धरते

दूजा तो स्वयं उठ जाता है

जो लक्ष्य दूर था दीख रहा

कुछ और निकट आ जाता है!

 

जब साथ हमारे हों अपने

संघर्ष गान बन जाता है

हर प्रस्तर में जीवन आता

उत्साह और बढ़ जाता है

 

आओ हम मिलकर साथ चलें

मरुथल में हरियाली लायें

हर मुखड़े पर मुस्कान खिले

जीवन संगीत सुना जायें!

 

यह सर्वसहा वसुधा अपनी

भला कब तक इतनी व्यथा सहे

पाषाण तोड़ निर्झर लायें

रसवंती जल की धार बहे!

 

©  श्री अमरेन्द्र नारायण 

जबलपुर

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ चुप्पी- दो चित्र ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ चुप्पी- दो चित्र ☆

1)

कई दिन चुप रही

फिर लौट गई चुप्पी,

कुछ प्रश्न खो गए

कुछ प्रश्न अनावृत्त हो गए!

2)

लौट आई है चुप्पी

जैसे लौट आई हो

टूटती साँस….,

चुप्पी का लौटना

कितनी अनुभूतियों को

शब्द दे गया….!

 

©  संजय भारद्वाज 

2.9.18, संध्या 6:40 बजे।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 43 ☆ कोरोना अपने घर जाओ ना! ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी  द्वारा  प्राकृतिक पृष्टभूमि में रचित एक अतिसुन्दर भावप्रवण  कविता  “कोरोना अपने घर जाओ ना!। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 43 ☆

कोरोना अपने घर जाओ ना!

बात पते की आज कह रहे

तुम घर वापस जाओ ना!

छह महिनों से  यहाँ टिके हो

कोरोना अपने घर जाओ ना!

 

बहुत दिनों से टिके हुए हो

काफी मिट्टी खोद चुके हो

आर्थिक सीमाओं की चट्टान

गरदन मरोड़ के तोड़ चुके हो।

 

कितना दुष्कर्म कर रहे हो

दुर्बल को ही छल रहे हो।

चुपके से गलियों में उसकी

बेवजह क्यों घूम रहे हो?

 

कैसा नरसंहार मचा रखा है?

उम्र का कोई लिहाज नहीं है

बुढ़ा- बच्चा, जवान न देखो

गर्भवती को ना छोड़ रहे हो।

 

गरीब हमारी जनता सारी

पाई पाई को मोहताज हुई है

सबके पेट में लात मारकर

छाती पर तुम मूँग दल रहे हो।

 

क्या तुम्हारी धरती तुमको

क्यों पुकार नहीं रहीं है?

जहाँ से आए हो तुम अब

वापस घर जाओ ना…

कोरोना अपने घर जाओ ना!

 

© सुजाता काळे

7/7/20

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोबाईल 9975577684

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 58 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 58 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

रोटी

तरसें रोटी के लिए,

दीनहीन  लाचार।

रोटी उनकी जिंदगी,

तन-मन मूलाधार।।

 

अनुवाद

संबंधों का कीजिए,

मधुर सरस अनुवाद।

जीवन जीना प्रेम से,

होगा नहीं विवाद।।

 

उल्लास

दृष्टि-दृष्टि को देखकर,

जाग उठा उल्लास।

मोह लिया मन आपने,

जगी प्रेम की आस।।

 

दर्पण

दर्पण में छवि देखकर,

आई मुझको लाज।

सीरत को पहचानकर,

बजे हृदय के साज।।

 

घाव

भूले से  देना नहीं,

इतने गहरे घाव।

सहन न कर पाएँ कभी,

जिनके दुखद प्रभाव।।

 

पंछी

पंछी की पीड़ा हमें,

करती है बेचैन।

बिना नीड़ के हो गया,

जिसका कलरव चैन।।

 

पहाड़

सुंदरता है प्रकृति की,

नदियाँ  पेड़ पहाड़।

फिल्मों की शोभा बढ़ी,

लेकर इनकी आड़।।

 

प्यास

जल बिन जीवन व्यर्थ है,

सूखी नदिया मौन।

सावन अंगारा लगे,

प्यास बुझाए कौन।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 49 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 49☆

☆ संतोष के दोहे ☆

रोटी

रोटी की खातिर चले,पैदल ही मजदूर

दबकर नीचे ट्रेन के,सपने चकनाचूर

 

घाव

कोरोना ने दे दिया,दिल पर ऐसा घाव

जीवन के प्रति कम हुआ,सब का आज लगाव

 

पंछी

पंछी को उन्मुक्त गगन,आजादी की चाह

मस्त पवन के संग उड़े,करें कहाँ परवाह

 

प्यास

धन-दौलत से कब बुझी,कभी किसी की प्यास

ये वो लालच है यहाँ,जिसकी खत्म न आस

 

पहाड़

अक्सर मुश्किल में लगे,जीवन हमें पहाड़

संकट में जब शेर हो,होती मन्द दहाड़

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 38 ☆ गीत – धरती गई उसारे में ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  गीत  “धरती गई उसारे में .)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 38 ☆

☆ गीत – धरती गई उसारे में ☆ 

अनगिन दीपक नए जले हैं

कुछ डूबे अँधियारे में

रिश्तों के ये महाबन्ध हैं

बात गईं चौबारे में।।

 

कभी बजे थे ढोल-मृदंगा

नर्तन की शहनाई थी

वही पड़ा शमशान लोक में

डूब गई तरुणाई थी

थे जिससे मधु-राग-फाग से

फिर से चौड़ी खाई थी

 

सावन की मल्हारें छूटीं

छूटा मेड़ों-हारों में।।

 

भाग रहे सब यंत्रवती से

बूढ़े हैं तन्हाई में

कोई श्रम कर स्वेद बहाए

कुछ हैं माल-मलाई में

जीवन के सब अर्थ खो रहे

छूटा धान गहाई में

 

काम हो रहे बड़े-बड़े अब

धरती गई उसारे में।।

 

मूल्यों पर आघात प्रपंची

शोर शराबा मेला है

जो था हीरा कभी कैरटी

आज वही अब धेला है

गुरू हो रहे गुड़ गोबर अब

चीनी-शक्कर चेला है

 

सत्ता-कुर्सी उलझ रही हैं

सब कुछ डूबा नारे में।।

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 59 – कुछ दोहे…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  आपके अतिसुन्दर कुछ दोहे…. । )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 59 ☆

☆ एक बाल कविता – कुछ दोहे…. ☆  

 

तप्त धरा शीतल हुई, खिली खिली सुप्रभात।

जड़-चेतन,जन हर्ष मय, शुभागमन बरसात।।

 

झिरमिर झिरमिर सावनी, पावस प्रीत फुहार।

हुलस-हुलस उफना रहा, मन में संचित प्यार।।

 

निर्मल मन की वाटिका, सौरभ पवन प्रवाह।

अंतस को पावन करे, भरे उमंग उछाह।।

 

ईर्ष्यालु दंभी मनुज, रचते सदा कुचक्र।

सीधे पथ पर भी चले, सांपों जैसे वक्र।।

 

मुफ्तखोर ललचाउ के, मन में ऊंची चाह।

छल, प्रपंच, पांसे चले, पकड़े उल्टी राह।।

 

सावन के झूले कहाँ, कहाँ आम के पेड़।

बचपन बस्ते से निकल, सीधे हुआ अधेड़।।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 10 – मेरे शब्द ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी  अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता मेरे शब्द।) 

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 10 –  मेरे शब्द 

 

आज जिन्दा हूँ तो कोई याद करता नहीं,

कल मेरी तस्वीर टंगी देखकर लोग रोने लगेंगे ||

 

माहौल बहुत गमगीन हो जाएगा,

जब मेरे बचपन की यादों में लोग मुझे ढूँढने लगेंगे ||

 

कल जब लोग मुझे अपने बीच नहीं पाएंगे,

यकीन कीजिए मेरे शब्द उनकी आंखे नम कर देंगे ||

 

जब चला जाऊँगा  लौट कर फिर ना आऊँगा,

मेरी कविताओं में लोग मुझे नम आँखों से ढूँढने लगेंगे ||

 

जो लोग मुझे कभी कोसते नहीं थकते,

मेरी कविताओं में मेरा किरदार  ढूँढने लगेंगे ||

 

मैं कल जब निःशब्द हो जाऊँगा  ,

लोग मेरी किताब के पन्ने पलट कर मुझे ढूँढने लगेंगे ||

 

जब निशब्द हो जाऊँ  परेशान ना होना,

मुझे किताबों में देख लेना, मैं हर शब्द में मिल जाऊँगा  ||

 

ढूँढतेरहोगे मुझे यादों के झरोखों में,

किताब के किसी मुड़े हुए पन्ने में तुम्हें मिल जाऊँगा ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 47 ☆ कोरोना ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “कोरोना”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 47 ☆

कोरोना

 

लचकती डालियाँ, लहराती नदियाँ,

यही तो क़ुदरत का वरदान हैं

झूलते हुए गुल, मुस्काती कलियाँ

यही तो मेरी धरती की शान हैं

 

उड़ते परिंदे, हवाएं बल खातीं

देखते थे हम सीना तान के

झूमती तितली, लहरें बहकतीं

बसंती दिन थे वो भी शान के

 

छोड़ के वो शान, खो हम गए थे

मोबाइल कहीं, कहीं लैपटॉप है

AC का है युग, क़ुदरत नदारद

नए युग का नया सा ये शौक था

 

बढती दूरियां, कैसी मजबूरियाँ

इंसान के अंदाज़ सिमट रहे थे

कौन था जानता, किसको थी खबर

मुसीबत से हम बस लिपट रहे थे

 

कोरोना का प्रकोप, रुकी ज़िंदगी

दुनिया सारी आज परेशान है

बेकार है कार, मचा हा-हाकार

मिटटी में मिल गयी सब शान है

 

इंसान डर रहा, इंसान मर रहा,

महामारी ने कहाँ किसे छोड़ा

लडखडाये साँस, कोई नहीं पास

दिलों को जाने कितना है तोड़ा

 

मुश्किल है घड़ी, परेशानी बड़ी

हारनी नहीं है पर हमें यह जंग

मुक़ाबला है करना, नहीं डरना

जिगर में तुम फैलने दो उमंग

 

सोचना हमें है, विजयी है होना

फासला हमने अब तक तय किया

जीतेंगे हम सुनो, हम में है दम

जीतेगा एक दिन सारा इंडिया

 

जीतेगा जोश, कोरोना को हरा

हमको लेना होगा सब्र से काम

पास मत आना, नियम तुम मानना

खूबसूरत ही होगा फिर अंजाम

 

बस यह बात तुम कभी न जाना भूल

क़ुदरत को करते रहना रोज़ नमन

क़ुदरत के बिना हम तो अधूरे हैं

महकता है उसी से बस ये जीवन

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

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