डॉ प्रतिभा मुदलियार
(डॉ प्रतिभा मुदलियार जी का अध्यापन के क्षेत्र में 25 वर्षों का अनुभव है । वर्तमान में प्रो एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय। पूर्व में हांकुक युनिर्वसिटी ऑफ फोरन स्टडिज, साउथ कोरिया में वर्ष 2005 से 2008 तक अतिथि हिंदी प्रोफेसर के रूप में कार्यरत। कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत। इसके पूर्व कि मुझसे कुछ छूट जाए आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया डॉ प्रतिभा मुदलियार जी की साहित्यिक यात्रा की जानकारी के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें –
जीवन परिचय – डॉ प्रतिभा मुदलियार
आज प्रस्तुत है डॉ प्रतिभा जी की एक भावप्रवण कविता बूढ़ी माई। कृपया आत्मसात करें । )
☆ बूढ़ी माई ☆
वो जो बूढ़ी माई
बैठी है उस पार पटरी के
जोह रही
घर ले जानेवाली
रेल की राह है।
जिये जा रही थी
भीड़ में अकेली
अपनों में पराये सी,
इन्सानों में जानवरों सी।
आरामतलब घर में
जब नहीं जला पायी नेह की बाती
तब उठाएं तन को
कदमों पर अपने
निकल पड़ी
उस घर की ओर
जिसका नहीं कोई ठांव और ठोर।
गठरी में थे उसके
रोटी के दो चार टुकडे सूखे
और कुछ कपड़े फटे पुराने
पल्लू के कोने में बांधी थी
कोई पुड़िया कागज़ की
जिसपे लिखा था
धुंधला सा नाम कोई
जिस पढ़ा न जा सके कभी।
पूछा जब उसे जाना कहाँ है
बोली वह मुस्कुराकर
जाती घर मैं अपने
जो है मीलों दूर यहाँ से
गाडी का है मुझे इंतजार
ले जाएगी जो उस पार।
मेरा है लाल उधर
और एक घर सुंदर
नहीं रास आया यह शहर
अब मैं चली अपने घर।
नहीं निकला था शब्द भी
कोई अस्पष्ट
उसके भरोसे पर
मेरा मौन ही था उत्तर।
और उठे थे मेरे भीतर
प्रश्न कई सारे।
क्यों काट देते हैं
जड़ें अपनों की
और रोप देते हैं
मिट्टी में परायों की …
क्यों खुदगर्ज हैं इतने
कि मतलब निकलते ही
छोड़ देते हैं बेसहारा
सडकों पर,
क्यों नहीं थाम लेते हैं
कांपते हाथ
कि ला सकें एक
निखालिस मुस्कान अधरों पर
कि थम जाए थके कदम
अपनी ही
दहलीज के भीतर।
उसकी आँखों में नहीं था
कोई डर या आतंक
तैर रहा था
उसकी गहरी आँखों में
खुले आसमान के नीचे
खुली सांस लेने का
परमानंद।।
© डॉ प्रतिभा मुदलियार
प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी अध्ययन विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय, मानसगंगोत्री, मैसूर 570006
दूरभाषः कार्यालय 0821-419619 निवास- 0821- 2415498, मोबाईल- 09844119370, ईमेल: [email protected]