English Literature – Poetry (भावानुवाद) ☆ एक शमां हरदम जलती है/A flame remains lit forever…. – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for sharing his literary and artworks with e-abhivyakti.  An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national-level projects.

Captain Pravin Raghuvanshi ji  is not only proficient in Hindi and English, but also has a strong presence in Urdu and Sanskrit.   We present an English Version of Ms. Neelam Saxena Chandra’s  Classical Poetry एक शमां हरदम जलती है with title  “A flame remains lit continuously….” .  We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation.)

आपसे अनुरोध है कि आप इस रचना को हिंदी और अंग्रेज़ी में आत्मसात करें। इस कविता को अपने प्रबुद्ध मित्र पाठकों को पढ़ने के लिए प्रेरित करें और उनकी प्रतिक्रिया से  इस कविता की मूल लेखिका सुश्री नीलम सक्सेना चंद्र जी एवं अनुवादक कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी को अवश्य अवगत कराएँ.

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा  

☆ एक शमां हरदम जलती है  ☆

जब कोई डर सताए,

जब कोई दिल दुखाये,

जब बहाव थम सा जाए,

जब पाँव के नीचे शूल ही शूल चुभ रहे हों,

जब लगे कि ख्वाब पूरी तरह टूट गए हों,

और कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा हो,

जब हर साथी साथ छोड़ दे-

तब याद रखना

कि तुम्हारी खुद की रूह के भीतर भी

एक शमां है

जो हरदम जलती रहती है!

 

आँखें बंद कर

दो क्षण को बैठ जाना

और ध्यान देना कुछ लम्हों के लिए

उस शमां पर…

 

उसे देखना सुलगते हुए,

सुनना उसकी बातें

जो तुमको आगे बढ़ने की

प्रेरणा दे रही होंगी,

महसूस करना

उसकी उष्णता

जो तुममें नई स्फूर्ति भर रही होगी…

 

सुनो,

अकेलापन एक मिथ्या है-

तुम अकेले कभी नहीं होते!

अपनी रूह की सुनोगे

तो मुस्कुराते हुए हरदम बढ़ते ही रहोगे!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

पुणे

❃❃❃❃❃❃❃❃❃❃

 ☆ A flame remains lit continuously…. ☆

When something scares you,

When someone hurts you,

When the flow is stopped,

When thorns after thorn

prick your feet persistently,

When you feel the dreams

have shattered completely,

When all doors are closed

There seems to be noway out,

When everyone deserts you…

 

Then you must remember-

That even within your own soul

There’s always  a flame

Which keeps on burning incessantly!

 

Close your eyes

Just sit for a while

And, concentrate on that

flame for few moments

Keep gazing it smoldering,

Listen to its words

Which you shall find

Inspiring you

To get up and rise

and  move forward…

You shall feel

Its warmth energizing you…

 

Listen,

Loneliness is utter falsehood

You are never alone!

If you listen to your conscience

You’ll always march forward with tenacity, smilingly!

 

© Captain (IN) Pravin Raghuanshi, NM (Retd),

Pune

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 28☆ माँ शारदे ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  वीणावादिनी माँ सरस्वती वंदना की काव्याभिव्यक्ति  माँ शारदे। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 28 ☆

☆ माँ शारदे ☆

विनती  माँ तुमसे मैं करती

सबकी पीड़ा पल में हरती

 

श्वेत वस्त्र धारिणी माँ शारदे

कमल के आसन  विराजती

 

बुध्दि, शुध्दि  विकार त्यागी

एकाग्रता को तुम ही संवारती

 

ज्योति प़काश दे तम को विखेरती

माँ वीणावादिनी स्वर को संवारती

 

तेरी शरण माँ निखार शब्द उर के

अभ्यास ज्ञान  लय को निखारती

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 37 ☆ एक शमां हरदम जलती है ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “एक शमां हरदम जलती है ”।  यह कविता आपकी पुस्तक एक शमां हरदम जलती है  से उद्धृत है। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 37 ☆

☆ एक शमां हरदम जलती है  ☆

 

जब कोई डर सताए,

जब कोई दिल दुखाये,

जब बहाव थम सा जाए,

जब पाँव के नीचे शूल ही शूल चुभ रहे हों,

जब लगे कि ख्वाब पूरी तरह टूट गए हों,

और कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा हो,

जब हर साथी साथ छोड़ दे-

तब याद रखना

कि तुम्हारी खुद की रूह के भीतर भी

एक शमां है

जो हरदम जलती रहती है!

 

आँखें बंद कर

दो क्षण को बैठ जाना

और ध्यान देना कुछ लम्हों के लिए

उस शमां पर…

 

उसे देखना सुलगते हुए,

सुनना उसकी बातें

जो तुमको आगे बढ़ने की

प्रेरणा दे रही होंगी,

महसूस करना

उसकी उष्णता

जो तुममें नई स्फूर्ति भर रही होगी…

 

सुनो,

अकेलापन एक मिथ्या है-

तुम अकेले कभी नहीं होते!

अपनी रूह की सुनोगे

तो मुस्कुराते हुए हरदम बढ़ते ही रहोगे!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कोरोना योद्धा – मैं भी सिपाही बन जाता हूँ ☆ श्रीमती संदीपा वर्मा

☆ कोरोना योद्धा – मैं भी सिपाही बन जाता हूँ ☆

( ई- अभिव्यक्ति  सभी कोरोना योद्धाओं  के जज्बे को सलाम करता है जो अपने जीवन को मानवता के लिए दांव पर लगा कर मानव सेवा में तत्पर हैं । हम उनके परिवार के जज्बे को भी सलाम करते हैं जो उन्हें भरपूर मानसिक और संवेदनात्मक सहयोग दे रहे हैं। हम डॉ मौसमी परिहार जी के हार्दिक आभारी हैं, जिन्होंने अपनी मित्र श्रीमती संदीपा वर्मा , जबलपुर की उनके पति के लिए रचित यह काव्यात्मक अभिव्यक्ति  प्रेषित की है। )

 

 

 – श्रीमती संदीपा वर्मा , जबलपुर

डॉ मौसमी परिहार जी के शब्दों में –

“मेरी एक फ्रेंड है उसके हसबेंड लगातार कोरोना वॉरियर के रूप में सेवाएं दे रहे है। वे एक लेब में कार्यरत है ,,जहां टेस्टिंग हो रही है । उन्हें सेल्यूट करते हुए मेरी सहेली ने  अपने पति के लिये एक कविता लिखी है।,,, आप सभी ऐसे योद्धाओं के लिये भी प्रार्थना कीजिये,,, ”

 

प्रस्तुति –  डॉ मौसमी परिहार

रवीन्द्रनाथ टैगोर  महाविद्यालय, भोपाल मध्य प्रदेश  में सहायक प्राध्यापक।

 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ विनिमय ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆  अंतर्प्रवाह

हलाहल निरखता हूँ

अचर हो जाता हूँ,

अमृत देखता हूँ

प्रवाह बन जाता हूँ,

जगत में विचरती देह

देह की असीम अभीप्सा,

जीवन-मरण, भय-मोह से

मुक्त जिज्ञासु अनिच्छा,

दृश्य और अदृश्य का

विपरीतगामी अंतर्प्रवाह हूँ,

स्थूल और सूक्ष्म के बीच

सोचता हूँ मैं कहाँ हूँ..!

# दो गज की दूरी, है बहुत ही ज़रूरी।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(रात्रि 3:33,  23.3.2020)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 51 ☆ कविता – ईद ऐसी दोबारा न हो ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की भाईचारे एवं  सौहार्द के पर्व ईद-उल-फितर के अवसर पर रचित एकअतिसुन्दर कविता “ईद ऐसी दोबारा न हो।  श्री विवेक जी  की लेखनी को इस अतिसुन्दर कविता  के लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 51 ☆ 

☆ कविता  – ईद ऐसी दोबारा न हो 

 

घर ही मस्जिद बन गई

सजदे में हैं लोग

माफी मांगें खुदा से

रब रोको यह रोग

 

मस्जिद में है बेबसी

लाचारी का बोझ

समझे बिना कुरान को

न अब फतवे थोप

 

मोमिन गलती हम करें

रब को कभी न कोस

अल्ला कभी न चाहते

बम गोले और तोप

 

मस्जिद रहीं पुकार हैं

बिन बोले ही बोल

गुनो सुनो समझो सदा

सुधरो खुद को तोल

 

ईद न ऐसी हो कभी

फिर दोबारा चांद

गले लगा मिल सकें

न,बेबस हैं इंसान

 

धर्म सभी पहुंचे वहीं

धरती तो है गोल

सभी साथ हिलमिल रहें

न कड़वाहट घोल

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 2 – सृजनतंत्र का सुख ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आपने ई- अभिव्यक्ति के लिए “साप्ताहिक स्तम्भ -अभिनव गीत” प्रारम्भ करने का आग्रह स्वीकारा है, इसके लिए साधुवाद। आज पस्तुत है उनका अभिनव गीत  “सृजनतंत्र का सुख “ ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 2 – ।। अभिनव गीत ।।

☆ सृजनतंत्र का सुख ☆

गणित हो गई शुरू

वर्ष के पहले जाड़े की

गिनती में गुम हुई वेदना

आज पहाड़े की

 

लिपट गये हैं अंक

किताबों के खुद से खुद में

खोज रहे हैं अर्थ

परिस्थितियों के अंबुद में

 

रोज किया करते हैं कसरत

सम्बोधन चुप चुप

उलझ गई है दाव पेंच में

बुद्धि अखाड़े की

 

जोड़ लगाते थके

भूलते गये इकाई को

पता तब चला जब विरोध

में देखा भाई को

 

जिस हिसाब से गिरवी रक्खे

थे सारे गहने

वहीडुबो दी रकम रही जो

बेशक गाढ़े की

 

जितने अभिमंत्रित घटना के

आदिसूत्र घर थे

वे सारे के सारे थोथे

मूलमंत्र भर थे

 

उन पर अधिरोपित था अपने

सृजनतंत्र का सुख

बैसे यह है कथा पुरानी

इस रजवाड़े की

 

© राघवेन्द्र तिवारी

01-05-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

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हिन्दी साहित्य ☆ कविता ☆ ईद के पहले ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा सं स्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला  स्वभाव एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध। आज प्रस्तुत है डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी  की एक समसामयिक कविता  ”ईद के पहले “।  ईद – उल – फितर या मीठी ईद  कहा जाने वाला यह पर्व खासतौर पर भारतीय समाज के ताने-बाने और उसकी भाईचारे की सदियों पुरानी परंपरा का वाहक है।डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी  के इस सार्थक एवं समसामयिक  कविता के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन।  ) 

 ☆ ईद के पहले  ☆

इधर कई सालों से

कटने लगा हूँ

अपने बचपन के दोस्त

आसिफ से

लोगों से बच बचाकर

जाता हूँ उसके घर

मुझे भी

वह अब उतना

अज़ीज़ नहीं लगता

उसकी ज़ालीदार टोपी

मुझे चिढाती -सी लगती है

मुझे उत्तेजना -सी

होने लगती है उससे

फनफना उठता है मन

इन दिनों

उस टोपी से ज़्यादा

उसमें दिखने लगे हैं छेद

वह बडा अफसर है

प्रगतिशील विचारक है

फिर क्यों ज़रूरी समझता है

चिकन के कुर्ते पाजामे पर पहनना

क्रोशिया की टोपी

ईद के दिन

कभी-कभी शुक्रवार को

जींस पर भी

पहन लेता है यह टोपी

और चला जाता है मस्ज़िद

न जाने क्यों

चुभता है मुझे

एक दिन के लिए भी

उसका इस तरह

मुसलमान हो जाना

उसे भी चुभता होगा

अल्हड़ जवानी के दिनों में

हर मंगलवार को

मेरा टीका लगाकर

मंदिर से सीधे उसके घर जाना

यानी हिंदू हो जाना

उन दिनों जिस चाव से

गपक लेता था मेरे लड्डू

अब नहीं खाता

शुगर का बहाना बनाके

दो-तीन बुंदियां भर

छुड़ा लेता है लड्डू से

हमारे भी गले में

अटक जाती हैं

उसके घर की

सुस्वादु सिवइयां

अब तो बस

अपने-अपने दर्द

अपने -अपने भीतर दबाए

बिना रस की

निभा रहे हैं दोस्ती

हम समझ नहीं पा रहे हैं कि

ईद के पहले

हमारा मन क्यों हो रहा है खट्टा

आखिर क्या है उसका रिश्ता

हमारे इस खट्टेपन से

उसे भी तो शायद यह पता नहीं

यह वातावरण

इतना विषाक्त क्यों है कि

होली और ईद पर

मिलते हुए गले वह गर्माहट

नहीं है

हम दोनों की सांसों में

बस छू भर लेते हैं सीने

नहीं तो

गले मिलते हुए

ऐसे छूटती थीं सांसें

जैसे साइकिल में भर रहे हों हवा

और,

भरते ही रहते थे

दोनों दिलों के

टायरों का मेढकों-से फूल जाने तक

हम आने वाली पीढियों तक

कैसे पहुंचा पाएंगे

मिठास

सिंवइयों,गुझियों और लड्डू-पेडों की

जो मरती जा रही है बेतरह

दिनोंदिन

कुछ तो गड़बड़ है जो

हमारे लाख प्रयासों के बावज़ूद कि

बनी रहे दोस्ती

उतनी ही सरस और विश्वसनीय

मरता जा रहा है विश्वास

सूखती जा रही है

हमारे भीतर के

अपनेपन की सरिता.

 

©  डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

सूरत, गुजरात

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 9 ☆ चाँद पाने का सफर ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता  “चाँद पाने का सफर ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 9 ☆ 

☆ चाँद पाने का सफर  ☆

चांदी की कटोरी से माँ ने चाँद दिखाया था कभी,

चाँद छूने की आकांक्षा को जगाया था कभी।

 

उसे पाने को जी भी ललचाया था कभी,

गोल-गोल चाँद से जड़ा आकाश,

आकाश में तारों के बीच में अड़ा,

सुन्दर कोमल, माँ की कटोरी से शायद बड़ा,

चांदी की कटोरी से माँ ने चाँद दिखाया था कभी,

चाँद छूने की आकांक्षा को जगाया था कभी।

 

छत पर खड़ी करती रहती हूँ मैं कोशिश कभी,

कैद करना चाहती हूँ आकाश के ये सुन्दर पूत को कभी,

छू लेना चाहती हूँ उस मौन प्रतीक को कभी,

क्या ये कोशिश पूरी हो पायेगी कभी,

चांदी की कटोरी से माँ ने चाँद दिखाया था कभी,

चाँद छूने की आकांक्षा को जगाया था कभी।

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 9 ☆ मुक्तिका ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है  आपकी भावप्रवण  “ मुक्तिका”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 9 ☆ 

☆ मुक्तिका ☆ 

 

शब्द पानी हो गए

हो कहानी खो गए

 

आपसे जिस पल मिले

रातरानी हो गए

 

अश्रु आ रूमाल में

प्रिय निशानी हो गए

 

लाल चूनर ओढ़कर

क्या भवानी हो गए?

 

नाम के नाते सभी

अब जबानी हो गए

 

गाँव खुद बेमौत मर

राजधानी हो गए

 

हुए जुमले, वायदे

पानी पानी हो गए

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

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