हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 46 ☆ मातृ दिवस विशेष – माँ बेचारी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  मातृ दिवस के अवसर पर आपकी विशेष रचना माँ बेचारी । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे ।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 46

☆ मातृ दिवस विशेष – माँ बेचारी  ☆ 

 

माँ हर बार

ऐसा ही करती है

 

ऐसा ही सोचती है

मा़यका मन में हैं

किवाड़ की सांकल

वो अमरूद का पेड़

वो अमऊआ की डाली

वो प्यारी प्यारी सहेली

वो अम्मा की लम्बी टेर

बाबू के किताबों के ढ़ेर

पगडंडी की वो पनिहारिन

चुहुलबाज़ी वाली वो नाईन

मुंडेर पर बैठी हुई  गौरैया

हर बार माँ याद करती है

बड़बड़ाती हुई सो जाती है

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मातृ दिवस विशेष – माँ की मूर्त ☆ सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

( सुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। एच आर में कई प्रमाणपत्रों के अतिरिक्त एच. आर.  प्रोफेशनल लीडर ऑफ द ईयर-2017 से सम्मानित । आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में आपकी कविता पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह  “Sahyadri Echoes” में प्रकाशित हुई है। आज प्रस्तुत है  )

☆ मातृ दिवस विशेष – माँ की मूर्त 

अपनी माँ से अलग तो नहीं मैं,

उनके ही आँचल में पनपी हूँ मैं,

सहनशक्ति दया की मूर्ति ,

उनके जैसी धैर्यशीलता चाहती हूँ मैं,

लोग बनाना चाहते हैं इसके-उसके जैसा,

अपने माँ जैसी बनाना चाहती हूँ मैं,

अपनी इच्छाएं त्याग कर जी रही हैं वो,

उनकी ख़्वाहिशें जानना चाहती हूँ मैं,

ममता की हैं वो अनमोल मूर्त ,

उनकी परछाई बनाना चाहती हूँ मैं,

अपने अरमानों को विराम दे कर ,

उनकी आशाएं पूरा करना चाहती हूँ मैं,

अपना जीवन औरों के लिए समर्पित करने वाली,

उनके ही गुण अपनाना चाहती हूँ मैं,

बच्चों की ख़ुशी में अपनी हँसी ढूँढना,

मर्मभेदी इस रूप को सराहना चाहती हूँ मैं,

खुद भूखा रह कर बच्चों को खिलाना ,

इस भावना को नमन करना चाहती हूँ मैं,

उनकी, तमन्नाओं से जो बढ़ गयी हैं दूरियाँ,

सारथी बन उनको पार कराना चाहती हूँ मैं,

अपनी माँ से अलग तो नहीं मैं,

उनके ही आँचल में पनपी हूँ मैं . .

 

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य – मातृ दिवस विशेष – आई तुझे रुप ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है  मातृ दिवस  के  अवसर पर आपकी विशेष कविता  “आई तुझे रुप )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य ☆

☆ मातृ दिवस विशेष – आई तुझे रुप ☆

आई नाव देई

जगण्या आधार

आई तुझे रूप

वात्सल्य साकार.. . !

 

आई तुझा शब्द

पारीजात फूल

सेवेमध्ये तुझ्या

होऊ नये भूल.. . !

 

आई तुझे रूप

आदिशक्ती वास

घराचे राऊळ

ईश्वराचा भास. . . . !

 

आई तुझे स्थान

सदा  अंतरात

अन्नपूर्णा वसे

तुझ्या भोजनात.. !

 

आई तुझे रूप

चिरंतन पाया

स्नेहमयी गंगा

अंतरीची माया.. . !

 

*विजय यशवंत सातपुते,

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 33 – पाठ ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  एक सार्थक, सशक्त एवं भावपूर्ण रचना  ‘पाठ । आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़  सकते हैं । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 33– विशाखा की नज़र से

☆ पाठ  ☆

 

लेखन के क्रम में

शिक्षक ने मुझे

पहले अक्षर लिखना सिखाया

फिर बिना मात्रा वाले शब्द

बाद में मात्रा वाले शब्द

तदनन्तर वाक्य

 

तुम मेरे जीवन में

अक्षर की तरह आये

और मैं सीखती गई

प्रेम की भाखा

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मातृ दिवस विशेष – कभी-कभी माँ को …… ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी” जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की मातृ दिवस पर विशेष रचना  कभी-कभी माँ को ……। इस अतिसुन्दर रचना के लिए आदरणीया श्रीमती हेमलता जी की लेखनी को नमन। )

 ☆  मातृ दिवस विशेष – कभी-कभी माँ को …… ☆ 

कभी-कभी माँ को भी पिता बनना पड़ता है

जीवन के रणक्षेत्र में स्त्री को भी हथियार उठाना पड़ता है।।

 

मेंहदी की खूबसूरती इत्र की खुशबू चेहरे की चमक

इन सबको भूल कर पुरुषों सा भाल रंगना पड़ता है।।

कभी-कभी माँ को भी।।

 

बचपन को गलत मोड़ पर जाने से बचाने

माँ को भवानी दुर्गा काली भी बनना पड़ता है

हाँ ये अलग सच है कि उसकी ममता को मुँह छिपाए अंधेरे में रोना पड़ता है।।

कभी-कभी माँ को भी।।

 

आँसुओं की भाषा को संतान और दुनिया समझ ना पाए

पनीली पलकों पर ठहरे मोती दिल का हाल न कह जाएं

गुस्से के छद्म खोल में ह्दय के आहत बोल को छिपाना पड़ता है।।

कभी-कभी माँ को भी।।

 

दया क्षमा शांति स्नेह प्यार के दैविक गुणों को सायास छिपाकर

खुद को संतान हित निर्मोही हदयहीन स्वार्थी  अत्याचारी सिद्ध करना पड़ता है

घिसी चप्पलों को साड़ी में छिपाकर दुर्गम पथ पर चलना पड़ता है ।।

कभी-कभी माँ को भी।।

 

पिता की अस्मिता की रक्षा की खातिर संतान के संमुख

सारे बलिदानों को पिता के नाम लिख देना पड़ता है

दैवी नारीत्व की आहुति देकर कठोर पुरुषत्व का आवरण ओढ़ना पड़ता है ।।

कभी-कभी माँ  को भी।।

 

अपने सारे संघर्षों  और कटु अनुभवों को भुलाकर

झूठी खुशी झूठी चमक का ढिंढोरा पीटना पड़ता है

मैं खुश थी खुश हूँ खुश रहूँगी सदा जीवित अश्वत्थामा बन जीना पड़ता है ।।

कभी-कभी माँ को पुरुष।।

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – बेटी की अभिलाषा ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित  एक भावप्रवण रचना  – बेटी की अभिलाषा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – बेटी की अभिलाषा ☆

मैं बेबस हूँ लाचार हूं, मैं इस जग की ही नारी हूं।
सबने मुझ पे जुल्म किये मैं क़िस्मत की मारी हूं।

हमने जन्माया इस जग को‌, लोगों ने अत्याचार किया।
जब जी‌ चाहा‌ दिल से खेला, जब चाहा दुत्कार दिया।

क्यो प्यार की खातिर मानव, ताजमहल बनवाता है।
जब भी नारी प्यार करे, तो जग बैरी हो जाता है।

जिसने अग्नि‌ परीक्षा ली  वे गंभीर ‌पुरूष ही थे।
जो मुझको जूएँ में हारे, वे सब महावीर ही थे।

अग्नि परीक्षा दी हमने, संतुष्ट किसी को ना कर पाई।
क्यों चीर हरण का दृश्य देख, सबको शर्म नहीं आई।

अपनी लिप्सा की खातिर ही, बार बार मुझे त्रास दिया।
जब जी चाहा जूएँ में हारा और जब चाहा वनवास दिया।

कर्मों कर्त्तव्यों की बलि बेदी पर, नारी ही चढ़ाई जाती है।
कभी जहर पिलाई जाती है, कभी वैन में भेजी जाती है।

मेरा अपराध बताओ लोगों, क्यों घर से ‌मुझे निकाला था?
क्या अपराध किया था, क्यो हिस्से में विष का प्याला था?

मानव का दोहरा चरित्र, मुझे कुछ  भी समझ न आता है।
मैं नारी नहीं पहेली हूं, सारे जीवन में गमों से नाता है ।

अब भी दहेज की बलि वेदी पर, मुझे चढ़ाया जाता है।
अग्नि में जलाया जाता है, फांसी पे झुलाया जाता है।

दुर्गा काली का रूप समझ, मेरा पांव पखारा जाता है।
फिर क्यो दहेज के डर से, मुझे कोख में मारा जाता है

जब मैं दुर्गा मैं ही काली, मुझमें ही शक्ति बसती है।
क्यो अबला का संबोधन दे, दुनिया हम पे हंसती है।

अब तक तो नर ही दुश्मन था, नारी ‌भी उसी राह चली।
ये बैरी हुआ जमाना अपना, नां ममता की छांव मिली।

सदियों से शोषित पीड़ित थी, पर आज समस्या बदतर है।
अब तो जीवन ही खतरे में, क्या ‌बुरा कहें क्या बेहतर है।

मेरा अस्तित्व मिटा जग से, नर का जीवन नीरस होगा।
फिर कैसे वंश बृद्धि होगी, किस‌ कोख में तू पैदा होगा।

मैं हाथ जोड़ बिनती करती, मुझको इस जग में आने दो।
मेरा वजूद मत खत्म करो, कुछ करके मुझे दिखाने दो।

यदि मैं आइ इस दुनिया में, तो कुलों का मान बढ़ाऊंगी।

अपनी मेहनत प्रतिभा के बल पर, ऊंचा पद मैं पाऊंगी।

बेटी पत्नी मइया बन कर,   जीवन भर साथ निभाउंगी।
सबकी करूंगी सेवा रात दिवस,  बेटे का फर्ज निभाउंगी।

सबका जीवन सुखमय होगा, खुशियों के फूल खिलाऊंगी
सारे समाज की सेवा कर, मैं नाम अमर कर जाऊंगी।

मैं इस जग की बेटी हूं, मेरी अब यही कहानी है।
दिल  है भावों से भरा हुआ और आंखों में पानी है।

जब कर्मपथ पथ चलती हूं, लिप्सा की आग से जलती हूं।
अपने ‌जीवन की आहुति दे, मैं कुंदन बन के निखरती हूं।

 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 36 ☆ गुलमोहर ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी  द्वारा  प्रकृति के आँचल में लिखी हुई एक अतिसुन्दर भावप्रवण  कविता  “ गुलमोहर ”।  इसी  1 मई को  महाराष्ट्र के सतारा में  विधिवत गुलमोहर जन्म दिवस मनाया गया है ।  सुश्री सुजाता जी के आगामी साप्ताहिक स्तम्भों में नीलमोहर एवं  अमलतास पर अतिसुन्दर रचनाएँ साझा करेंगे।  )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 36 ☆

  ☆ गुलमोहर ☆

लाल साफा बाँधा है,

या पूर्व दिशा ही पहनी है!

सूरज की अटारी

 

पर रहते हो,

या सूरज ही

तुम पर बसता है।

 

डाल डाल की लालिमा

पात पात को

छुपाती है।

 

गुलमोहर तू यह तो

बता सिन्दूरी बन

क्यों बसते हो।

 

© सुजाता काळे

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोबाईल 9975577684

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ पुनर्पाठ – चुप्पियाँ – 4 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆  पुनर्पाठ – चुप्पियाँ-4

जो मैंने कहा नहीं,जो मैंने लिखा नहीं,

उसकी समीक्षाएँ

पढ़कर तुष्ट हूँ,

अपनी चुप्पी

बहुमुखी क्षमता पर

मंत्रमुग्ध हूँ…!

# घर में रहें। स्वस्थ रहें।
©  संजय भारद्वाज, पुणे

(1.9.18 रात्रि 11:37 बजे )

( कविता संग्रह *चुप्पियाँ* से।)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कर्ज सी है ज़िन्दगी ☆ सुश्री पूजा मिश्रा ‘यक्ष’

सुश्री पूजा मिश्रा ‘यक्ष’ 

( ई-अभिव्यक्ति में सुश्री पूजा मिश्रा ‘यक्ष’ जी का अयोध्या से हार्दिक स्वागत है। आप हिंदी साहित्य विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना  “कर्ज सी है ज़िन्दगी”।  हमें भविष्य में आपकी और सर्वोत्कृष्ट रचनाओं की प्रतीक्षा रहेगी।)

☆ कर्ज सी है ज़िन्दगी ☆

ये ज़मीं, ये आस्मां

सांसों का ये कारवां

कर्ज़ सी है जिंदगी

जाने क्यों हैं हम यहां

 

मोह की ये बेड़ियाँ

कर रहीं हैं सब बयां

फिर भी मन के घाट पर

बढ़ रहीं दुश्वारियां

जानता है वो ख़ुदा

भेजता वही यहाँ

छोड़ना पड़ेगा सब

इतनी सी है दास्तां

बांट अपना प्यार बस

मत भटक यहां वहां

कर्ज़ सी है……..

 

आरज़ू पे आरज़ू

चक्र में पड़ा है तू

सब है पहले से लिखा

कर न कोई जुस्तज़ू

जायेगा जहां जहां

पायेगा उसी को तू

कर्म की ही गठरियाँ

भाग्य की हैं आबरू

वो हमें नचा रहा

हम तो हैं कठपुतलियां

कर्ज़ सी है……….

 

© पूजा मिश्रा ‘यक्ष,

अयोध्या उत्तरप्रदेश

 

 

 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ पुनर्पाठ – चुप्पियाँ – 3 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆  पुनर्पाठ – चुप्पियाँ – 3

‘मैं और

मेरी चुप्पी’,

युग-युगांतर से

रच रहा हूँ

बस यही

एक महाकाव्य,

जाने क्या है कि

सर्ग समाप्त ही

नहीं होते…!

घर में रहें, सुरक्षित रहें।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(1.9.18, रात 11:31 बजे)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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