हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – भूमिकाएँ ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

भारतीय संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष और द्रष्टा व्यक्तित्व डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जी  की जयंती निमित्त उन्हें नमन। सभी मित्रों से अनुरोध है कि उनकी लिखी पुस्तकों में से कोई एक पढ़ना शुरू करें। लॉकडाउन में उनकी जयंती मनाने का यही श्रेष्ठ मार्ग भी होगा।

…संजय भारद्वाज।

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☆ संजय दृष्टि  – भूमिकाएँ ☆

 

उसने याद रखे काँटे

पुष्प देते समय

अनायास जो

मुझसे, उसे चुभे थे,

मेरे नथुनों में

बसी रही

फूलों की गंध सदा

जो सायास

मुझे काँटे

चुभोते समय

उससे लिपट कर

चली आई थी,

फूल और काँटे का संग

आजीवन है

अपनी-अपनी भूमिका पर

दोनों कायम हैं।

# घर में रहें। स्वस्थ रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

16 सितम्बर 2018

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कोरोना की हार हो ☆ श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट  एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।  आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। आज प्रस्तुत है उनकी  कविता “ कोरोना की हार हो।)

☆  कोरोना की हार हो ☆

आज गतिहीन देश को

शांति से गति दो

संबल मिलेगा पुन: पुन:

खुद को घर में रहने दो।

यह शांति और

मानवता का इम्तिहान है

जीतना होगा इसे हमें

एकता के दर्शन दो।

दुश्मन दर पे है खड़ा

रहेगा कुछ दिनों तक अड़ा

मिटाने को इसे यहाँ से

सब्र की ढाल दो।

कुछ पल अपनों से दूरी

है सबकी मजबूरी

इस मजबूरी के अस्त्र से

शत्रु पर मात दो।

दुश्मन बड़ा दक्ष है

हमपर गढ़े अक्ष है

इसे नजर न आए

इसे तड़प के मरने दो।

खुद को संभालो

औरों को बचालो

अपने से न फैले कोरोना

इसे ही दूर खड़ा कर दो।

खाना जब न मिले बैठकर

जवानों को याद करो

दो निवाले तो अपने मुख में

शासन को न ताना दो।

पुलिस, डाक्टर, नर्स  औ’ कर्मचारी

निभा रहे अपनी जिम्मेदारी

अब अपनी है बारी

अपने जज्बातों को विराम दो।

जीत हमारी पक्की है

अनुशासन का साथ दो

कोरोना मिट जाएगा

देश की अपने जीत हो।

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 35 ☆ दरवाज़े ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “दरवाज़े”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 35☆

☆  दरवाज़े ☆

कौन जाने

कितने दरवाज़े हैं

ज़िंदगी के इन रास्तों पर?

 

कहाँ खुलते हैं

यह तिस्लिमी दरवाज़े?

क्या यह किसी टूटे हुए किले की

दफनाई हुई दास्तानों को छुपाये बैठे हैं?

या फिर यह

किसी सुकून के रास्तों पर

ले जाने वाले खुशनुमा रास्ते हैं?

या फिर यह दरवाज़े

एक से दूसरे तक पहुंचाते हुए

बस उलझाकर रख देते हैं वक़्त को?

 

मन तो बहुत करता है

कि रुक जाऊँ पल दो पल को

और खोजूं इन रास्तों का मुकाम,

पर मैं इतना उलझ के रह जाती हूँ

सीढ़ियों पर ही

कि तह खोल ही नहीं पाती!

 

शायद तुम कभी आओ

और थामकर मेरी बाहें

ले चलो मुझे किसी एक दरवाज़े के भीतर

तो ए खुदा!

मैं पा लूंगी हर ख़ुशी!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – ग़ज़ल ☆ कोरोना कर्मों का फल है ☆ आचार्य भगवत दुबे

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

आचार्य भगवत दुबे

(आज प्रस्तुत है हिदी साहित्य जगत के पितामह  गुरुवार परम आदरणीय आचार्य भगवत दुबे जी की एक समसामयिक, प्रेरक एवं शिक्षाप्रद ग़ज़ल  ” कोरोना कर्मों का फल है“। आप आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विस्तृत आलेख निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं :

हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆ – हेमन्त बावनकर

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आपके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर तीन पी एच डी ( चौथी पी एच डी पर कार्य चल रहा है) तथा दो एम फिल  किए गए हैं। डॉ राज कुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी के साथ रुस यात्रा के दौरान आपकी अध्यक्षता में एक पुस्तकालय का लोकार्पण एवं आपके कर कमलों द्वारा कई अंतरराष्ट्रीय सम्मान प्रदान किए गए। आपकी पर्यावरण विषय पर कविता ‘कर लो पर्यावरण सुधार’ को तमिलनाडू के शिक्षा पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। प्राथमिक कक्षा की मधुर हिन्दी पाठमाला में प्रकाशित आचार्य जी की कविता में छात्रों को सीखने-समझने के लिए शब्दार्थ दिए गए हैं।

☆ कोरोना कर्मों का फल है ☆

 

मानव खुद विनाशकारी  है,  कोरोना कर्मों  का  फल है

पर्वत फोड़, उजाड़े जंगल, लगा दहकने अब मरुथल है।

 

केमिकल  परमाणु   बमों  की  फैली  है  दुर्गंध धरा पर

मानव ने पावन नदियों को बना दिया दूषित दलदल है।

 

फैलाया     विज्ञानविदों   ने   यह   विनाशकारी   कोरोना

महाशक्ति के अहंकार का आज स्वयं ढह रहा महल है।

 

लगभग एक करोड़ संक्रमित, मृतकों को दफनाना मुश्किल

इटली, चीन, रूस, अमरीका, पस्त हुआ इनका धन बल है।

 

वीरानी छाई सड़कों पर  आज  चतुर्दिक  भय  सन्नाटा

आपस में मिलने से डरते, छाया शंका का बादल है ।

 

मास्क   लगाएँ ,  रहें  घरों   में,  धोते रहें  हाथ  साबुन  से

केवल सामाजिक दूरी ही विकट समस्या का इक हल है।

 

इक मीटर की दूरी रखकर,  करें  लॉक  डाउन का पालन

घर में ही सीमित, बच्चों की रखना मिलकरचहल पहल है।

 

भगवत रखो भरोसा, इक दिन अंधकार यह छंट जाएगा

उत्साही साहस  वालों  को  मिला  धैर्य का मीठा फल है।

 

आचार्य भगवत दुबे 

शिवार्थ रेसिडेंसी, जसूजा सिटी, पो गढ़ा, जबलपुर ( म प्र) –  482003

मो 9691784464

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – भोर भई ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – भोर भई ☆

 

सृजन तुम्हारा नहीं होता। दूसरे का सृजन परोसते हो। किसीका रचा फॉरवर्ड करते हो और फिर अपने लिए ‘लाइक्स’ की प्रतीक्षा करते हो। सुबह, दोपहर, शाम अनवरत प्रतीक्षा ‘लाइक्स’ की।

सुबह, दोपहर, शाम अनवरत, आजीवन तुम्हारे लिए विविध प्रकार का भोजन, कई तरह के व्यंजन बनाती हैं माँ, बहन या पत्नी। सृजन भी उनका, परिश्रम भी उनका। कभी ‘लाइक’ देते हो उन्हें, कहते हो कभी धन्यवाद?

जैसे तुम्हें ‘लाइक’ अच्छा लगता है, उन्हें भी अच्छा लगता है।

….याद रहेगा न?

 

# घर में रहें। सुरक्षित और स्वस्थ रहें। 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(भोर 5.09 बजे, 4.8.2019)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 3 ☆ जरा सा दूर हो जाओ,  कोरोना वायरस से बच जाओ ☆ डॉ निधि जैन

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

डॉ निधि जैन 

ई- अभिव्यक्ति में डॉ निधि जैन जी का हार्दिक स्वागत है। आप भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपने हमारे आग्रह पर हिंदी / अंग्रेजी भाषा में  साप्ताहिक स्तम्भ – World on the edge / विश्व किनारे पर  प्रारम्भ करना स्वीकार किया इसके लिए हार्दिक आभार।  स्तम्भ का शीर्षक संभवतः  World on the edge सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद एवं लेखक लेस्टर आर ब्राउन की पुस्तक से प्रेरित है। आज विश्व कई मायनों में किनारे पर है, जैसे पर्यावरण, मानवता, प्राकृतिक/ मानवीय त्रासदी आदि। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक समसामयिक कविता  “जरा सा दूर हो जाओ,  कोरोना वायरस से बच जाओ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 3 ☆

☆ जरा सा दूर हो जाओ,  कोरोना वायरस से बच जाओ☆

 

जरा सा दूर हो जाओ,  कोरोना वायरस से बच जाओ,

न किसी के घर जाओ, ना किसी को घर बुलाओ,

कोरोना वायरस से बच  जाओ l

 

न दोस्तों से मिलो, पर दोस्ती निभाओ, दूर रह कर प्यार को  निभाओ,  किसी के घर मत  जाओ,

कोरोना वायरस से बच  जाओ l

 

मौसम की मार हो या बारिश की फुहार , धूप या सूरज का खुमार, जहाँ हो,  जैसे हो, वहाँ, वैसे ही खुशी मनाओ,

कोरोना वायरस से बच  जाओ l

 

कल मिलना आज रूठना, कल रूठना आज मिलना,

तुमसे मिलना ज़रूरी नहीं, तुम्हारा होना ज़रूरी है, फिर से तुम मिल जाओ, कोरोना वायरस से बच  जाओ l

 

रिश्तों पर संवेदनशील हो जाओ, सबकी जान की कीमत अपने जैसे  लगाओ l

कोरोना वायरस से बच  जाओ l

 

भगवान के मंदिर के दरवाजे बंद हो गए, गरीबों  में  भगवान का रूप देख आओ l

कोरोना वायरस से बच जाओ l

 

गुरुद्वारों के लंगर उठ जायें , भूखों का पेट भरने के लिए दान दे आओ l

कोरोना वायरस से बच जाओ l

 

आँखे बेहाल थमीं हुई सी ज़िन्दगी,  कोरोना का कहर चारों ओर,  जानें  बेहाल हैं कहती हैं  बचाओ l

कोरोना वायरस से बच जाओ l

 

आसमान मे पंछी उड़ते, इंसानो की आजादी का सवाल है, जानवरों और प्रकृति के प्रकोप को समझो ओर समझाओ l

कोरोना वायरस से बच जाओ l

 

सबके  रक्त का रंग एक है, मौत का डर भी सबका एक है, भेद भाव  छोड़ कर मानवता को बचाओ l

कोरोना वायरस से बच जाओ l

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 29 – दाना – पानी ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  स्त्री जीवन के कटु सत्य को उजागर कराती एक सार्थक रचना ‘दाना – पानी। आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़  सकते हैं । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 29 – विशाखा की नज़र से

☆ दाना – पानी ☆

नित रखती हूँ परिंदों के लिए दाना – पानी

वो करते हैं मेरी आवाजाही पर निगरानी

मैं रखती हूँ दाना

 

निकलती हूँ घर से , जुटाने दाना – पानी

दिखतें है कई बाजनुमा शिकारी

वो भी रखतें है मेरी आवाजाही पर निगरानी

मैं बन जाती हूँ दाना और

लोलुप जीभ का पानी

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ बस यूं ही ,,,,,,, ☆ डॉ रानू रूही

डॉ रानू रूही

( ई- अभिव्यक्ति में डॉ रानू रूही जी का हार्दिक स्वागत है। वर्तमान में सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत। कविता, गीत, ग़ज़ल, आलेख, कहानी आदि विभिन्न साहित्यिक विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर। देश प्रदेश की विभिन्न प्रतिष्ठित राष्ट्रीय स्तर की   पत्र- पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित । अब तक 4 पुस्तकें प्रकाशित एवं 15 पुस्तकें सम्पादित। अखिल भारतीय स्तर के कवि सम्मेलनों  / मुशायरों में प्रस्तुति। राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कारों / अलंकरणों  से  पुरस्कृत /अलंकृत।  आज प्रस्तुत है एक भावपूर्ण गीत  बस यूं ही ,,,,,,,. हम भविष्य में आपसे ऐसे ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा करते हैं।)

☆ गीत – बस यूं ही ,,,,,,, ☆

सुन लो ना सुन लो ना

तुम घर पर ही हो ना

जाने  दो होने दो

जो भी होगा होना

 

सुबह की आहट से

सूरज को चुन लेना

खिड़की से छनती सी

किरणों को बो लेना

 

ना मिलना तड़पाए

दिल जो भर भर आए

चुप चुप से छुप छुप के

खुद ही से कह लेना

 

गुन गुन सी आंगन में

किरणें जो छा जाएं

चेहरे को झटपट से

आंसू से धो लेना

 

भावों की आहो से

दीवारें रंग लेना

दर पर उम्मीदों की

आंखों से सो लेना

 

यादों के सिरहाने

बातें भी रख लेना

रातों के ख्वाबों में

ग़म सारे भर लेना

 

सुन लो ना सुन लो ना

तुम घर पर ही हो ना

जाने दो होने दो

जो भी होगा होना।

 

© डॉ रानू रूही

माढ़ोताल, जबलपुर (म प्र)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 3 ☆ दोहा सलिला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी रचना  ” दोहा सलिला”। )

 ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 3 ☆ 

☆  दोहा सलिला ☆ 

(व्यंजनाप्रधान)

केवल माया जाल है, जग जीवन जंजाल

घर तज बाहर घूमिए, मुक्ति मिले तत्काल

 

अगर कुशल से बैर है, नहीं चाहिए क्षेम

कोरोना से गले मिल, बनिए फोटो फ्रेम

 

मरघट में घट बन टँगें, तुरत अगर है चाह

जाएँ आप विदेश झट, स्वजन भरेंगे आह

 

कफ़न दफ़न की आरज़ू, पूरी करे तुरंत

कोविद दीनदयाल है, करता जीवन अंत

 

ओवरटाइम कर चुके, थक सारे यमदूत

मिले नहीं अवकाश है, बाकी काम अकूत

 

बाहर जा घर आइए, सबका जीवन अंत

साथ-साथ हो सकेगा, कहता कोविद कंत

 

यायावर बन घूमिए, भला करेंगे राम

राम-धाम पाएँ तुरत, तजकर यह भूधाम

 

स्वागत है व्ही आइ पी, सबसे पहले भेंट

कोरोना से कीजिए, रीते जीवन टेंट

 

जिनको प्रभु पर भरोसा, वे परखें तत्काल

कोरोना खुशहाल को, कर देगा बदहाल

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२१-३-२०२०

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गीतों ने चर्चित कर डाला ☆ डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया

डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया

( ई- अभिव्यक्ति  बहुमुखी प्रतिभा के धनी एवं साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर  डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया जी का हृदय से आभारी है । आपने चिकित्सा सेवाओं के अतिरिक्त साहित्यिक सेवाओं में विशिष्ट योगदान दिया है। अब तक आपकी नौ काव्य  कृतियां  प्रकाशित हो चुकी हैं एवं तीन  प्रकाशनाधीन हैं। चिकित्सा एवं साहित्य के क्षेत्र में कई विशिष्ट पदों पर सुशोभित तथा  शताधिक पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया जी  से हम अपने प्रबुद्ध पाठकों के लिए उनके साहित्य की अपेक्षा करते हैं। आज प्रस्तुत है उनका एक अतिसुन्दर भावप्रवण गीत गीतों ने चर्चित कर डाला। हम समय समय पर आपकी उत्कृष्ट रचनाओं को आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आपसे विनम्र अनुरोध है कि उन्हें आत्मीयता से आत्मसात करें। )

☆ गीतों ने चर्चित कर डाला ☆

 

मन की अनजनी पीड़ा को,गीतों ने परिचित कर डाला।

छोटी सी जीवन गाथा को,गीतों ने चर्चित कर डाला।।

कभी गीत तुलसी चौपाई,कभी कबीरा गान हुआ है।

कभी गीत रोया मीरा सा, और कभी रसखान हुआ है।

कभी गीत पद हुआ सूर का,कान्हा को अर्पित कर डाला।।

 

कभी गीत सूरज के वंशज,कभी चाँदनी बिखराई है।

कभी गीत मधुमास हो गये, कभी गीत में पुरवाई है।

कभी गीत ने लिखी उदासी,और कभी हर्षित कर डाला।।

 

कभी गीत पावन गंगाजल,कभी गीत गाये मधुशाला।

कभी गीत है सुधा भरा घट कभी गीत है बिष का प्याला।

कभी गीत ने मन के भीतर,सारा जग निर्मित कर डाला।।

 

कभी गीत हो गये पराये, और कभी अपने बन आये।

कभी गीत में चुभन शूल की,कभी सुमन कोमल मन भाये।।

कभी गीत ने मुरझाये मन,को पल में सुरभित कर डाला।।

 

कभी गीत ने प्यास लिखी तो,कभी गीत पावस का बादल।

कभी गीत है चमक मुकुट की,और कभी पैरों की पायल।।

कभी गीत ने खामोशी दी,और कभी मुखरित कर डाला।।

 

मन की अनजानी पीड़ा को ,गीतों ने परिचित कर डाला।

छोटी सी जीवन गाथा को,गीतों ने चर्चित कर डाला।।

 

© डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया

“श्री रघु गंगा” सदन,  जिया माँ पुरम फेस 2,  मेडिकल कालेज रोड सागर (म. प्र.)470002

मोबाईल:  9425635686,  8319605362

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