हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 68 ☆ लोग नेक कहते हैं… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “लोग नेक कहते हैं…“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 68 ☆

✍ लोग नेक कहते हैं… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

ढंग जब नहीं तुमको,मयकदे में आने का

कुर्बतों के क्या मानी, लुत्फ क्या पिलाने का

 *

ज़ोम दिल में है मेरे,आशियाँ बनाने का

शौक़ वो करें पूरा,बिजलियाँ गिराने का

 *

मयकदे मैं आने की, दोस्त है ये मजबूरी

रस्ता एक मिलता है, उनको भूल जाने का

 *

लोग नेक कहते हैं सब दुआएं देते हैं

काम नेक होता है, बिछड़े दिल मिलने का

 *

देखिए कहाँ तक हम कामयाब होते हैं

हौसला तो है दिल में, कुछ तो कर दिखाने का

 *

बनके एक दीवाना, उनकी राह में पहुँचा

रास्ता न जब पाया,उनके पास आने का

 *

माँ के पैर छूते हैं उठ के हम अरुण हर दिन

रास्ता सुरल है ये, स्वर्ग को कमाने का

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 65 – हैं बाण विषबुझे सब, उनकी जुबान के… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – हैं बाण विषबुझे सब, उनकी जुबान के।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 65 – हैं बाण विषबुझे सब, उनकी जुबान के… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

कमरे खुशी से खाली दिल के मकान के

आने से भर गये हैं इक मेहमान के

*

बाँकी वो उनकी चितवन, कितनों की जान लेगी 

पैने हैं तीर, उनकी भ्रू की कमान के

*

जिनने सबक सिखाया, इन्सानियत का हमको 

बदले हैं अर्थ हमने, गीता-कुरान के

*

नफरत, घृणा, अदावत, आतंकवाद जैसे 

सामान मजहबी हैं, उनकी दुकान के

*

लाशों के ढेर जिनकी आवाज पर लगे हैं 

हैं बाण विषबुझे सब, उनकी जुबान के

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 138 – बूढ़ी आजी माँ और मैं☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “बूढ़ी आजी माँ और मैं। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 138 – बूढ़ी आजी माँ और मैं ☆

मैं

टकटकी लगाए

देख रहा हॅूं ,

उन हाथों को

जो कर्मठता के

प्रतीक थे ।

माटी के लौंदो में

सने वे हाथ

अपने व अपने-

जिगर के टुकड़ों के लिए

घरौंदा बनाने

कितने उतावले थे ।

संग्रह की प्रवृत्ति ने

उन्हें कहीं का न छोड़ा था ,

तन तार-तार कर दिया था –

और सम्पूर्ण जीवन

लगा दिया था, दाँव पर ।

तब कहीं जा कर

एक घर बना था ।

ऐसा घर, जहाँ पूरा

कुनबा का कुनबा

रह रहा था-बड़े ठाट से,

बड़े आराम से ।

आज वही हाथ

झुर्रियों से भऱे थे –

और काँप रहे थे ,

किसी सहारे की आस में ।

इस कोने से उस कोने

घिसट- घिसट कर

लोगों के दिलों में

बैठने भर के लिये

स्थान ढूँढ़ रही थी ।

पर जगह तो

बिल्कुल सिमट कर

रह गयी थी ।

अब तो वह मात्र

पूजा गृह से बुहारे गये

बासे फूलों

और शेष बचे हवन के

कचरे जैसी थी ,

जिसे यूँ ही झाड़ कर

कहीं भी नहीं डालते

क्योंकि ऐसा करने से

लगता है -पाप ।

फिर तो उसे अभी कुछ दिन और

एक कोने में पड़े रहना है ।

जब तक वह ढेर न हो जाये,

ऐसा करने से किसी को भी

पाप नहीं लगेगा ।

और साथ ही सब पुण्य के

भागीदार बनेंगे ।

बस सभी को इंतजार है,

उनकी मृत्यु और उनसे मुक्ति का ।

जीवन का यह अंतिम सत्य

इसी तरह बार-बार दुहराया जाता है ।

इसीलिए कभी -कभी

मुझे अपना शरीर भी

झुर्रियों के आवरण से ढॅंका,

कमानी सा झुका,

खाँसता खखारता-

और हड्डियों के ढाँचे सा

किसी डॉक्टर की डिस्पेंसरी में टंगा

कैडलॉक सा नजर आता है।

बूढ़ी आजी के

काँपते तन के समान

स्वयं को पाता हूँ ।

और लगता है- मैं भी

उस कचरे के समान पड़ा हूँ ,

एक किनारे

ढेर होने के लिए ।

कोई आए और मुझे भी

विसर्जित कर आए ।

शायद इसी को

प्रत्येक के जीवन की

नियति कहते हैं ।

या कृतघ्नता की

पराकाष्ठा ।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चुप्पी – 33 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  चुप्पी – 33 ? ?

(लघु कविता संग्रह – चुप्पियाँ से)

-कुछ कहो

तुम्हारी चुप्पी

बरदाश्त नहीं होती,

मैंने कोरा कागज़

मोड़कर थमा दिया,

-पढ़ लो, सारा कुछ

इस पर लिख दिया है,

ज़िंदगी भी

एक करवट ले चुकी

उसका बाँचना

बदस्तूर जारी है,

सोचता हूँ

इतना ज़्यादा तो

नहीं लिखा था मैंने!

© संजय भारद्वाज  

12:25 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 200 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 200 – कथा क्रम (स्वगत)… ✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

क्रमशः आगे…

यह गंधर्व विद्या की ज्ञाता  है

देव दुर्लभ रूप है

अवश्य ही यह

अनेक तेजस्वी संतानों को

जना देने में

समर्थ है।

काम मोहित

हर्यश्व ने

दीन स्वरों में

कहा

‘ऋषिवर

मैं दे सकूँगा

केवल

दो सौ श्यामकर्ण अश्व ।

और

यह सौन्दर्य प्रतिमा

बनेगी

मेरे एक पुत्र की

”जननी।’

और फिर

माधवी बनी

हर्यश्व की

अंकशायिनी,

जन्म दिया

पुत्र

वसुमना को ।

फिर

पीछे छूटा

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 200 – “मुरझा गया गुलाब रोप…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत मुरझा गया गुलाब रोप...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 200 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “मुरझा गया गुलाब रोप...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

टिका दी गई कोने में

वह छड़ी और चश्मा

जिसे टेक कर चला किये

थी इस घर की अम्मा

 

सोचा करती भ्रमणहीन

वह फटी हुई  छतरी

जो अम्मा के बिना पौर में

ऐसे ही पसरी

 

आले में रोया करता है

कलईदार लोटा

जो बिसूरता लगता है

वह बिर्रा का रोटा

 

कहीं कैरिया* पड़ी

साथ में चूने की डिब्बी

तैरतैर जाती आँखों मै

जैसे पनडुब्बी

 

वहीं तख्त पर रखा

पवित्तर रामायण गुटका

जिसके नीचे सन्दुकिया में

अलीगढी लटका

 

संचित रही सम्पदा कुल

अम्मा की थी जिसमें

जिसे देख गृहवधु सोचती

कब हों सब रस्में

 

रिश्तेदारो की आमद

पर रोती घूँघट में

अम्मा जैसी सास

नहीं देखी जीवन घट में

 

मुरझा गया गुलाब रोप

अम्मा जिसको गुजरी

मन की फुलबगियाँ सब

लगती जैसे हों उजरीं

 

श्यामा अपनी थान

खड़ी है भूली पगुराना

घर की ज्यों खपरैल

चुकाती घर का हरजाना

 

गौरैया चुपचाप घोंसले

में बैठी स्थिर

वह मुडेर का कौआ भी

है भूला अपना स्वर

 

नहीं बजा करती अब

साँकल घर की चौखट पर

सारी दरजें खिन्नमना हैं

दिखतीं फाटक पर

 

अब पड़ौस भूलने लगा है

लाठी की ठक ठक

और मोहल्ले की सुहागिने

देख रहीं एकटक

 

लेकिन अम्मा दूर गगन में

बन करके चिड़िया

उड़कर गई वहाँ जो भी घर

उनको था बढ़िया

 * कैरिया = तम्बाकू रखने की कपड़े की थैली

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

26-07-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चुप्पी – 31 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  चुप्पी – 31 ? ?

(लघु कविता संग्रह – चुप्पियाँ से)

कितने दिन से

धधक रही थीं

चुप्पियाँ,

सारी की सारी

उँड़ेल दी एक साथ

खौलते पानी की तरह?

विनम्रता से कहता हूँ

मेरी चुप्पियाँ

बद्री विशाल में

माँ अलकनंदा की

हिमलहरों में

गर्म पानी का सोता है,

इसे अनुभव करना है

तो बद्रीधाम की यात्रा

तो करनी ही पड़ेगी।

 

© संजय भारद्वाज  

11:58 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 187 ☆ # “वर्षावास के प्रारंभ पर” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “वर्षावास के प्रारंभ पर”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 187 ☆

☆ # “वर्षावास के प्रारंभ पर” # ☆

रंग बिरंगी तितलियां

उड़ रही आकाश में

इंद्रधनुष लग रहा जैसे

निकला हो पास में

 

छुप छुप कर आती है किरणें

हम सब का अंत:करण हरणे

उन्मुक्त हवा के झोंकें

लिपटे है वृक्षों के सहवास में

 

भीग रही वसुंधरा

सब कुछ हो गया हरा भरा

छोटे छोटे जीव जंतु

लोट रहे हरी-हरी घास में

 

मेघ छाये घनघोर हैं 

तुफानों का जोर है

जंगल में नाच रहा मोर

वर्षा के आभास में

 

मानसून का मौसम है

बूंदों की छम छम है

भीग रही है तरूणाई

सावन के इस मास में

 

बिजुरी का कड़कना

मेघों का गरजना देख

वंचित आंखें हर्षित है

कुछ चमत्कार की आस में

 

त्यागकर संसार, भूख और प्यास

धम्म को अर्पित कर हर सांस

वो दीप जलाकर ध्यान में लीन

कोई भिक्खु बैठा है “वर्षावास” में

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – आगमन… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता ‘आगमन…‘।)

☆ कविता – आगमन… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

सजा दो गांव की गलियां, वो मेरा लाल आया है,

लिपट कर वो तिरंगे से, तिरंगा साथ लाया है,

*

बता दो सबकी आंखों को, कोई नम आंख न होए,

रखी है लाज बेटे ने, मां का सर उठाया है,

*

चिता कोअग्नि देने को, हजारों बेटे आए हैं,

गया था जब, अकेला था, हजारों साथ लाया है,

*

सजाई है चिता उसकी, बिखेरे पुष्प देवों ने,

किया स्वागत, है अभिनंदन, यही सौगात लाया है,

*

सदा कहता था, है कर्जा, मुझ पर मातृ भूमि का,

नहीं रखा, कोई कर्जा, चुका कर ही वो आया है,

*

सुनाता था, कई किस्से, वो जब भी गांव आता था,

सभी किस्से अधूरे हैं, अधूरापन वो लाया है,

*

सहारा था मुझे तेरा, सहारा ना रहा अब तू,

सितारों से भरे नभ ने, सितारा नव सजाया है,

*

तेरा बलिदान सरहद पर, ना भूलेंगी कई सदियां,

हमेशा याद सब करना, यही सपना सजाया है.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 197 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 197 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 197) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 197 ?

☆☆☆☆☆

मुख़्तसर सा गुरूर भी

ज़रूरी है जीने के लिए

ज़्यादा  झुक  के मिलो

तो  दुनिया पीठ को ही

पायदान  बना लेती है…

☆☆

Some arrogance, too,  is

Necessary to live, if you

bend too much to meet

Then  the  world makes

your back a footmat only…

☆☆☆☆☆

माना  तेरी  उलझन हूँ  मैं

पर तेरी सुलझन भी हूँ  मैं…

थोड़ा दीवाना ही सही मैं

मगर  बड़ा दिलदार हूँ  मैं…

☆☆

Agreed I’m your riddle only…

But I’m your solution too…

Though I am  bit crazy

But a large-hearted one!

☆☆☆☆☆

क्या करोगे अब तुम

मेरे पास आकर भी..

खो दिया है तुमने मुझे

बार-बार आजमा कर…

☆☆

What will you do now

By coming close to me…

You’ve lost me for good

By trying again and again

☆☆☆☆☆

हर  वक़्त  फ़िजाओं  में,

महसूस करोगे तुम हमको…

हम दोस्ती की वो ख़ुशबू हैं,

जो महकते रहेंगे  उम्र भर…

☆☆

At all times in environment

You  will  always  feel  me

I’m fragrance of friendship

That will last the whole life

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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