हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – दौर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  दौर 

आजकल

कविताएँ लिखने पढ़ने का

दौर खत्म हो गया क्या..?

नहीं तो ;

पर तुम्हें ऐसा क्यों लगा..?

फिर रोजाना ये अनगिनत

विकृत,नृशंस कांड

कैसे हो रहे हैं..!!!

बाँचना, गुनना नियमित रहे, मनुष्यता टिकी रहे।

( कविता संग्रह ‘मैं नहीं लिखता कविता’ से।)

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 28 ☆ उलझन ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है उनकी  एक भावप्रवण कविता  ‘उलझन।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 28 साहित्य निकुंज ☆

☆ उलझन

(मन के भावों से एक प्रयास उलझन विषय पर)

मैं आज

कुछ बताना चाहती हूं

उलझन को सुलझाना चाहती हूं

मैं सोच रही हूं

उन लम्हों को

जिनको तुम्हारे साथ जिया है

लगा यूं अमृत का घूंट पिया है

मैंने

उन सहजे हुए पल को

अलमारी में रखा है

जब मन करता है

तब उन्हें उलट पलट कर देख लेती हूं।

वो लम्हा जी लेती हूं

आज उलटते हुए

मन हुआ

अंतर्मन ने छुआ

हूं आज मैं गहन उलझन में

शायद तुम ही

सुलझा सको इन्हें

क्या ?

तुम्हारे दिल के किसी कोने में

मेरी महक बाकी है।

मैं अब इस उलझन से निजात चाहती हूं

क्या तुम मुझे अपनाकर

अपने गुलदान की

शोभा बनाओगे

अपने घर आंगन को महकाओगे।

प्रिये

कहो फिर से कहो

ये सुनने के लिए

कान तरस गए

नैन बरस गए

हमने सोचा तुमने

मेरे अहसासों को

नहीं किया स्पर्श

स्पंदन को नहीं छुआ

लेकिन

तुमने महसूस किया

मेरे अहसास को

न जाने कितनी पीड़ा थी

मन में

थी कितनी उलझन

अब

किया तुमने समर्पण।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 19 ☆ लो आ गया अब नया साल ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण  कविता  “लो आ गया अब नया साल”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 19 ☆

☆ लो आ गया अब नया साल ☆

लो आ गया अब नया साल

पिछले भूलो सभी मलाल

लो आ गया अब नया साल

 

शीतल सर्द मद मस्त हवा

गिरती ओस अल मस्त सबा

जो नित नये करती कमाल

लो आ गया अब नया साल

 

गुजरा वक्त बड़ा निराला

कुछ ने कीचड़ खूब उछाला

राजनीति के नए जंजाल

लो आ गया अब नया साल

 

नफरतों की होली जलाएँ

एक दूजे को गले लगाएँ

प्रेम संग सब करें धमाल

लो आ गया अब नया साल

 

बना रहे सद्भाव सभी में

हों न कभी दुराव सभी में

शक के रहें न कभी सवाल

लो आ गया अब नया साल

 

खट्टी मीठी यादें शेष

साल बदलता अपना भेष

अब यह बीस रहे खुशहाल

लो आ गया अब नया साल

 

पूर्ण हों अब सबकी आशा

पास रहे ना अब निराशा

हो ना कभी कोई बवाल

लो आ गया अब नया साल

 

सभी के मन “संतोष” रहे

नया वर्ष नया जोश रहे

हो न अब कोई तंगहाल

लो आ गया अब नया साल

 

एक और अब निकला साल

सबको मुबारक नया साल

लो आ गया अब नया साल

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 7 ☆ कविता – अहम ब्रह्मास्मि! ☆ डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ. राकेश ‘चक्र’

 

 

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। यह हमारे लिए गर्व की बात है कि डॉ राकेश ‘चक्र’ जी ने  ई- अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से अपने साहित्य को हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर लिया है। इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण कविता    “अहम ब्रह्मास्मि!.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 7 ☆

☆   कुछ मित्र मिले ☆ 

 

हे सर्वज्ञ

सर्वव्यापक परमपिता

तुम हो विराजे ह्रदय में

अनगिन नाम

अनगिन काम

निराकार

साकार हर रूप में

आते रहे भक्तों का उद्धार करने

मैं क्यों भटकता रहा

इधर से उधर

शहर-शहर

देखा है मैंने उस मूर्तिकार को

जो है गढ़ता रहा काल्पनिक

तुम्हारे चित्र अनेकानेक रूपों में

लेकिन वही है करता व्यभिचार

अनाचार

पड़ा रहा सदैव नर्क में

इस धरती पर

मैंने है देखा बार-बार

 

समझ गया गया हूँ मैं

तुम कारणों के हो कारण

हो अजन्मा

अविनाशी, विश्वासी

मेरी आत्मा के

 

मुझे बसाए रहना

सदैव अपने ह्रदय में

सुख-दुख में न भूलूँ

माया के आवरण भी

न घेरें

जन्मजन्मांतर न फेरें

 

न मैं आर्त् हूँ

न जिज्ञासु

न ज्ञानी

न अर्थार्थी

मैं हूँ बस एक रसिक

बिना एक आसन में बैठे

सुमिरन रहा करता

चलते-फिरते

भोग-विलास

और काम-धंधा दिनचर्या

करते-करते

 

तुम हो विराजमान

प्राण स्वरूप

दिव्य स्वरूप

प्रकाश स्वरूप

ज्योतिरीश्वर

सदैव करते रहे मार्गदर्शन

अतः मैं हूँ कह रहा

अहम ब्रह्मास्मि!

मैं हूँ आत्मा !

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – जाता साल और आता साल ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  जाता साल और आता साल   

(जाता साल’ और ‘आता साल’ पर कुछ वर्ष पूर्व लिखी  दो रचनाएँ साझा कर रहा हूँ।)

एक

☆ जाता साल ☆
(संवाद 2019 से)

करीब पचास साल पहले
तुम्हारा एक पूर्वज
मुझे यहाँ लाया था,
फिर-
बरस बीतते गए
कुछ बचपन के
कुछ अल्हड़पन के
कुछ गुमानी के
कुछ गुमनामी के,
कुछ में सुनी कहानियाँ
कुछ में सुनाई कहानियाँ
कुछ में लिखी डायरियाँ
कुछ में फाड़ीं डायरियाँ,
कुछ सपनों वाले
कुछ अपनों वाले
कुछ हकीकत वाले
कुछ बेगानों वाले,
कुछ दुनियावी सवालों के
जवाब उतारते
कुछ तज़ुर्बे को
अल्फाज़ में ढालते,
साल-दर-साल
कभी हिम्मत, कभी हौसला
और हमेशा दिन खत्म होते गए
कैलेंडर के पन्ने उलटते और
फड़फड़ाते गए………
लो,
तुम्हारे भी जाने का वक्त आ गया
पंख फड़फड़ाने का वक्त आ गया
पर रुको, सुनो-
जब भी बीता
एक दिन, एक घंटा या एक पल
तुम्हारा मुझ पर ये उपकार हुआ
मैं पहिले से ज़ियादा त़ज़ुर्बेकार हुआ,
समझ चुका हूँ
भ्रमण नहीं है
परिभ्रमण नहीं है
जीवन परिक्रमण है
सो-
चोले बदलते जाते हैं
नए किस्से गढ़ते जाते हैं,
पड़ाव आते-जाते हैं
कैलेंडर हो या जीवन
बस चलते जाते हैं।

दो

☆ आता साल ☆
(संवाद 2020 से)

शायद कुछ साल
या कुछ महीने
या कुछ दिन
या….पता नहीं;
पर निश्चय ही एक दिन,
तुम्हारा कोई अनुज आएगा
यहाँ से मुझे ले जाना चाहेगा,
तब तुम नहीं
मैं फड़फड़ाऊँगा
अपने जीर्ण-शीर्ण
अतीत पर इतराऊँगा
शायद नहीं जाना चाहूँ
पर रुक नहीं पाऊँगा,
जानता हूँ-
चला जाऊँगा तब भी
कैलेंडर जन्मेंगे-बनेंगे
सजेंगे-रँगेंगे
रीतेंगे-बीतेंगे
पर-
सुना होगा तुमने कभी
इस साल 14, 24, 28,
30 या 60 साल पुराना
कैलेंडर लौट आया है
बस, कुछ इसी तरह
मैं भी लौट आऊँगा
नए रूप में,
नई जिजीविषा के साथ,
समझ चुका हूँ-
भ्रमण नहीं है
परिभ्रमण नहीं है
जीवन परिक्रमण है
सो-
चोले बदलते जाते हैं
नए किस्से गढ़ते जाते हैं,
पड़ाव आते-जाते हैं
कैलेंडर हो या जीवन
बस चलते जाते हैं।

आपको और आपके परिवार को 2020 के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

 

 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नव वर्ष विशेष – स्वागत नूतन वर्ष तुम्हारा ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

 

(प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की नव वर्ष पर कविता  ‘स्वागत नूतन वर्ष तुम्हारा‘। ) 

 

स्वागत नूतन वर्ष तुम्हारा जन-जन को हर्षाने वाले

जग के कोने कोने में हे! मधु मुस्काने लाने वाले।

उषा की उज्जवल शुभ किरणें तुम सारे जग में फैलाओ-

खुशियाँ पायें वे सब निर्बल जो हैं दुख में रहने वाले ।।1।।

 

ऐसा वातावरण बनाओ जिससे हो घर-घर खुशहाली

जहाँ उदासी पलती आई वहाँ पर भी आये जीवन लाली।

उपजे मन में सदाचार सद्भाव प्रेम की शुभ इच्छायें-

कहीं कोई मन प्रेम शांति सुख खुशियों से अब रहे न खाली ।।2।।

 

प्रगति सभी को सदा साथ दे, कहीं कोई न हो कठिनाई

सुख-दुख की घड़ियों में सारे  लोग रहें ज्यों भाई-भाई।

अधिकारों के साथ सभी को कर्तव्यों का बोध सदा हो-

निष्ठा और विश्वास आपसी सबके हित नित हो सुखदायी ।।3।।

 

कर्म- धर्म की रीति नीति से भूले भटके जो रहवासी

सही राह पर चल सकने को वे बन जायें उचित विश्वासी।

ऐसा करो प्रयास कि दुनियाँ फुलवारी  सी हो सुखकारी-

कभी विफल हो न निराश हो कर्म मार्ग का कोई प्रत्याशी ।।4।।

 

सबके हित मंगलकारी हो तन आगमन हे आने वाले!

समझदार हो हर एक मानव, नित अपना कर्तव्य संभाले ।।

 

प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव ’विदग्ध’, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर

 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नव वर्ष विशेष – नव वर्ष पर एक नव गीत ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी   नव वर्षाभिनंदन पर  नवीन कविता     “नव वर्ष पर एक नव गीत। )

☆ नव वर्ष पर एक नव गीत

आज पर विमर्श लिखें…….

 

चलो, नया वर्ष लिखें

स्वागत – वन्दन करते

अभिनव चिंतन करते

प्रमुदित मन,हर्ष लिखें।

 

बीते से,  सीखें   हम

नये कुछ,सलीके हम

हो चुकी अगर भूलें

करें नहीं,उनका गम

नव प्रभात किरणों से

आज पर, विमर्श लिखें,

चलो, नया वर्ष ——–।

 

संक्रमणित हलचल का

कुटिल,कौरवी  दल का

देव – भूमि भारत में

अंश न बचे,छल, का,

राष्ट्र हितैषी मिल कर

विजयी, निष्कर्ष लिखें

चलो, नया वर्ष———।

 

समता के, भाव जगे

भेद – भाव, दूर, भगे

धर्म, जाति-भेद भूल

निश्छल मन, गले लगें,

अन्तर स्थित सब के

उस प्रभु का दर्श लिखें

चलो, नया वर्ष———।

 

संकल्पित हों,जन-जन

देश-प्रेम हित,  चिन्तन

करुणामय धर्म-ध्वजा

फहरे,जल-थल व गगन,

नव-विवेक, शुचिता से

मंगल उत्कर्ष लिखें

आज पर विमर्श लिखें—-।।

 

सुरेश कुशवाहा तन्मय

बी – 101, महानंदा ब्लॉक, विराशा हाइट्स, दानिशकुंज ब्रिज, कोलार रॉड भोपाल

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नव वर्ष विशेष – नव वर्ष ☆ सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

( सुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  की नव वर्ष पर प्रस्तुत है एक कविता  नव वर्ष ।

☆ नव वर्ष  ☆ 

 

नव वर्ष की नयी उमंग ,

लायी है सूरज की पहली सुरमयी किरण ,

जो बीत गया उसे सँवारने ,

आयी है नयी सोच की लहर सलंग ,

हर पल जीना है उत्साह से ,

यही है इस नव वर्ष का प्रण ,

हर मददग़ार की मदद करना ,

यहीं पर हुआ है इस नयी सोच का उत्पन्न ,

साँझ जैसा ढल रहा है बीता साल ,

उगते सूरज सा है नए साल का आगमन ,

अपने- पराये सब भेदभाव छोड़ छाड़  के ,

करना है इस नयी लहर का स्वागतं ,

छोटो की भूल चूक करके माफ़ ,

बड़ो के आशीर्वाद से करना है साल का प्रारम्भ ,

“मुस्कान”  की तो यही है आशा ,

नव वर्ष हो सबके लिए अन्न-जल-धन से संपन्न ,

नव वर्ष की नयी उमंग ,

लायी है सूरज की पहली सुरमयी किरण . . .

 

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नव वर्ष विशेष – नव वर्ष का नव सोपान है ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  की  नव वर्ष 2020 पर एक कविता  नव वर्ष का नव सोपान है .) 

 

 

☆ नव वर्ष का नव सोपान है ☆ 

 

नव प्रात लिए, नव आस लिए

नव वर्ष का नव सोपान है

नव प्रीत लिए, नव भाव लिए

पुरातन का अवसान है ।

 

है बीता जो भी अशुभ उसे

रखना नहीं है स्मरण में

नव ऊर्जा धारण करना है और

नव उत्ताप भी नव जागरण में ।

 

हो मन में स्नेह का नव अंकुर

नव उच्छ्वास का मलय बहे

क्रोध, अहं, द्वेष, विराग छोड़

नर-नार जगत में सदय रहे ।

 

ज्ञान, चेतना, मति की धारा

नव श्रृंखला में प्रवाहित हो

नव उद्दोग से नव वर्ष में

जन-जन उन्नत, पुलकित हो ।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 28 – ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी के आयु के 71 वर्ष के शुभारंभ पर कविता   “साठोत्तरीय…….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 28☆

☆ साठोत्तरीय……. ☆  

 

इकहत्तर की वय में, वही चेतना, प्राण वही है

परिवर्तित मौसम में भी, मन में अरमान वही है।

 

है, उमंग – उत्साह, बदन  में  चाहे  दर्द  भरा  हो

पीड़ा की पगडंडी यदि, मंजिल का एक सिरा हो

पा लेंगे चलते – चलते, जो सोचा यहीं कहीं है.

परिवर्तित———-

 

आत्म शक्ति और  संकल्पों का, लेते हुए सहारा

आशाओं के बल पर, टिका हुआ विश्वास हमारा

शिथिल शिराएं हुई, किन्तु हम शक्तिहीन नहीं हैं

परिवर्तित———–

 

कई   तरंगे  रंग  बिरंगी, अन्दर   दबी  पड़ी  है

जग को कुछ नूतन देने को, तत्पर चाह खड़ी है

सब उतार दें कागज पर, जो अबतक नहीं कही है

परिवर्तित————

 

पाया जो जग से अब तक, लौटाने की है बारी

देखें  कर्ज चुकाने की, क्या की  हमने   तैयारी

सींचें उन्हें और, जिनसे जीवन रसधार बही है

परिवर्तित————

 

आदर्शों  की  लिखें  वसीयत  नवपीढ़ी के  नाम  करें

अबतक अपने लिए जिये, आगे कुछ ऐसे काम करें

नीर क्षीर हों पावन, जीने का ये मार्ग सही है

परिवर्तित————-

 

महकाएं  इस  मनमंदिर को, मुरझाने  से पहले

तन्मय हो निर्मल सरिता बन, अंतर्मन में बह लें

द्रष्टा बनें स्वयं के, बाहर के प्रपन्च सतही है

परिवर्तित मौसम में——

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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