हिन्दी साहित्य ☆ कविता ☆ स्त्रियां घर लौटती हैं ☆ काव्य पाठ (श्री कमल शर्मा) ☆ श्री विवेक चतुर्वेदी

श्री विवेक चतुर्वेदी 

( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह  स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ।  यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया और वरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया। काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है।  ई-अभिव्यक्ति  की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है।   इस श्रृंखला की  अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं प्रमुख कविता “स्त्रियां घर लौटती हैं ”। )

अमेज़न लिंक >>>   स्त्रियां घर लौटती हैं

☆ प्रसिद्ध उदघोषक कमल शर्मा जी की आवाज़ में ‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ ☆

अपनी मखमली आवाज से रेडियो की दुनिया पर कई दशकों तक राज करने वाले 2017 में लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित आवाज के जादूगर माने जाने वाले श्री कमल शर्मा की आवाज़ में ‘स्त्रियां घर लौटती है’।। सुनिएगा जरुर… दृश्यावली का सुन्दर संयोजन अग्रज श्री आर के गरेवाल जी द्वारा …  (श्री विवेक चतुर्वेदी जी के फेसबुक वाल से sabhaar)

वीडियो लिंक >>>>

(काव्य पाठ – सुप्रसिद्ध रेडियो उद्घोषक श्री कमल शर्मा)

 

☆ कविता  – स्त्रियां घर लौटती हैं – श्री विवेक चतुर्वेदी  ☆

 

स्त्रियाँ घर लौटती हैं

पश्चिम के आकाश में

उड़ती हुई आकुल वेग से

काली चिड़ियों की पांत की तरह।

स्त्रियों का घर लौटना

पुरुषों का घर लौटना नहीं है,

पुरुष लौटते हैं बैठक में, फिर गुसलखाने में

फिर नींद के कमरे में

स्त्री एक साथ पूरे घर में लौटती है

वो एक साथ, आँगन से

चौके तक लौट आती है।

स्त्री बच्चे की भूख में

रोटी बनकर लौटती है

स्त्री लौटती है दाल-भात में,

टूटी खाट में,

जतन से लगाई मसहरी में,

वो आँगन की तुलसी और कनेर में लौट आती है।

स्त्री है… जो प्रायः स्त्री की तरह नहीं लौटती

पत्नी, बहन, माँ या बेटी की तरह लौटती है

स्त्री है… जो बस रात की

नींद में नहीं लौट सकती

उसे सुबह की चिंताओं में भी

लौटना होता है।

स्त्री, चिड़िया सी लौटती है

और थोडी मिट्टी

रोज पंजों में भर लाती है

और छोड़ देती हैं आँगन में,

घर भी, एक बच्चा है स्त्री के लिए

जो रोज थोड़ा और बड़ा होता है।

लौटती है स्त्री, तो घास आँगन की

हो जाती है थोड़ी और हरी,

कबेलू छप्पर के हो जाते हैं ज़रा और लाल

दरअसल एक स्त्री का घर लौटना

महज स्त्री का घर लौटना नहीं है

धरती का अपनी धुरी पर लौटना है।।

 

© विवेक चतुर्वेदी, जबलपुर ( म प्र ) 

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – कविता ☆ पेड़  की व्यथा! ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आई आई एम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।)

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी न केवल हिंदी और अंग्रेज़ी में प्रवीण हैं, बल्कि उर्दू और संस्कृत में भी अच्छा-खासा दखल रखते हैं.  हमने अपने प्रबुद्ध पाठकों के लिए कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी की अतिसुन्दर मौलिक रचना   Anguish of the Tree! कल के अंक में प्रकाशित की है। आज प्रस्तुत है इसी कविता का हिंदी अनुवाद “पेड़  की व्यथा!” )

☆  पेड़  की व्यथा! ☆

 

आये हैं पेड़ काटने

कुछ लोग!

मगर,

है धूप बहुत तेज

तो, बैठे हैं उसकी छाँव में !

 

बोल पड़ा यूहीं

वो फलदार दरख़्त:

काटना क्या है?

मैं तो यूहीं

मर जाता इस ग़म में

कि बैठा नहीं कोई

मेरे अपने साये में…

 

असर चिलचिलाती धूप का

क्या जाने वो

जो रहते

हमेशा ठंडी छाँवों मेँ…!

 

तकलीफों का अंदाज़

उन्हें क्या

जो रहे नही कभी

उजड़े वीरानों में…!!

 

क्या है अहसास तुम्हे

अपनो के खोने का?

है अगर, तो मत कटने दो,

मैं भी तुम्हारा अपना ही हूँ

 

छाँव दूँगा,

फल दूँगा…

अपनों से भी बढ़कर

तुम्हारे अपनों का भी साथ दूँगा!

 

© कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, पुणे

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 23 – तिलस्म ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना ‘तिलस्म । आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 23  – विशाखा की नज़र से

☆ तिलस्म ☆

 

वो तब भी था उसके साथ जब था वह कोसों कोसों दूर

था वह दुनियाँ की किसी खुशनुमा महफ़िल में

हो रही थी जब फ़ला फ़ला बातें फ़ला फ़ला शख़्स की

तब भी भीतर छुप किसी कोनें से वह कर रहा था उससे गुफ़्तगू

 

वह हो रहा था जाहिर जो कि एक तिलस्म था

वह हिला रहा था सर पर मौन था

वह दिख रहा था दृश्य में पर अदृश्य था

सब देख रहे थे देह उसकी पर आत्मा नदारद थी

वह दिख रहा था मशरूफ़ पर अकेला था

 

वह प्रेम का एक बिंदु था

बिंदु जो कि सिलसिलेवार था

वह पहुँचा प्रकाश की गति से

प्रेमिका  के मानस में

बिंदु जो अब पूर्णविराम था

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस विशेष – भाषा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस विशेष – भाषा  

 

‘ब’ का ‘र’ से बैर है

‘श’ की ‘त्र’ से शत्रुता

‘द’ जाने क्या सोच

‘श’, ‘म’ और ‘न’ से

दुश्मनी पाले है,

‘अ’ अनमना-सा

‘ब’ और ‘न’ से

अनबन ठाने है,

स्वर खुद पर रीझे हैं

व्यंजन अपने मद में डूबे हैं,

‘मैं’ की मय में

सारे मतवाले हैं

है तो हरेक वर्ण पर

वर्णमाला का भ्रम पाले है,

येन केन प्रकारेण

इस विनाशी भ्रम से

बाहर निकाल पाता हूँ

शब्द और वाक्य बन कर

मैं भाषा की भूमिका निभाता हूँ।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

16.12.18, रात्रि 11:55 बजे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 26 ☆ प्रभात ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी के मौलिक मुक्तक / दोहे   “प्रभात ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 26 ☆

☆ प्रभात ☆

सौगात

सूरज की यह लालिमा,देती सुखद प्रभात

खगकुल का कलरव मधुर,पूरब की सौगात

 

लालिमा

देख उषा की लालिमा,मन हर्षित हो जाय

करते सूरज को नमन,दिल से अर्घ चढ़ाय

 

पूरब

पूरब दिशा सुहावनी,पूरब घर का द्वार

उत्तम फल मिलता सदा,दूर भगे अँधियार

 

सूरज

सूरज की गर्मी सदा,करती नव बरसात

जिसके दिव्य प्रकाश से,डरती है यह रात

 

खगकुल

खगकुल की महिमा बड़ी,उनके रूप अनेक

देते संदेशा सुबह,काम करें सब नेक

 

प्रभात

प्रथम नमन माता-पिता,फिर प्रभात -सत्कार

करते जो उनके यहाँ,खुशियाँ सदाबहार

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अपने वरक्स ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – अपने वरक्स 

 

फिर खड़ा होता हूँ

अपने कठघरे में

अपने अक्स के आगे

अपना ही मुकदमा लड़ने,

अक्स की आँख में

पिघलता है मेरा मुखौटा

उभरने लगता है

असली चेहरा..,

सामना नहीं कर पाता

आँखें झुका लेता हूँ

और अपने अक्स के वरक्स

हार जाता हूँ अपना मुकदमा

हर रोज की तरह!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

( कविता संग्रह ‘मैं नहीं लिखता कविता’ से।)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 13 ☆ कविता – प्यार में ☆ डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘चक्र’ 

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी  का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  महान सेनानी वीर सुभाष चन्द बोस जी की स्मृति में एक एक भावप्रवण कविता  “प्यार में.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 13 ☆

☆ प्यार में ☆ 

 

प्यार में हम जिए या मरे

मुश्किलों से मगर कब डरे

 

आस्था का समर्पण रहा

अर्घ्य देकर रहे हम खरे

 

बचपना जब हवा हो गया

फूल, शूलों में जाकर झरे

 

लोग कहते रहे यूँ हमें

कोई पागल, कोई मसखरे

 

खेत, बच्चे, पखेरू, विटप

सब मेरे दिल को लगते हरे

 

मेरे अंदर के बच्चे सभी

मुझसे मिलते हैं खुशियाँ भरे

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ बदल रहा है ” सारे ज़हाँ से अच्छा ” ☆– श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”

श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”

 

☆ बदल रहा है ” सारे ज़हाँ से अच्छा “☆

मिलकर चलो…मिलकर चलो…

बदल रहा है ” सारे ज़हाँ से अच्छा “…

वक्त कि मांग है मिलकर चलों…

“हरा” तो हर किसी का है…

केसरिया तो सारे जग का है…

” नीला” गगन तो सबका है…

” सफेद ” शांति जग की चाहत है…

मिलकर चलो…मिलकर चलो…

बदल रहा है ” सारे ज़हाँ से अच्छा “…

 

जो गुमराह हैं उनको समझने दें…

भयभीत को शांत होने दें…

ये वक्त है कलम से तकदीर लिखने का…

नये वक्त की तस्वीरों में नये रंग भरने का…

वक्त है वतन कि नई ईबारत लिखने का…

मिलकर चलो…..मिलकर चलो…

बदल रहा है ” सारे ज़हाँ से अच्छा ”

 

सोचो लड़कर आपस में क्या मिलेगा…

ये संसार हँसेगा भी और हम पर राज भी करेगा…

न भीड़ को ताकत का नाम दे…

हो रहा है कुछ नया, इसका अनुभव होने दें…

बढ़ते कदम जब आशंकित होगें….

भीड़ से हम फिर रूख बदल देंगे…

मिलकर चलो…..मिलकर चलो…

बदल रहा है ” सारे ज़हाँ से अच्छा ”

 

© माधव राव माण्डोले “दिनेश”, भोपाल 

(श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”, दि न्यू इंडिया एश्योरंस कंपनी, भोपाल में उप-प्रबन्धक हैं।)

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 35 – सोच के अनुरूप ही परिणाम भी…. ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी  की एक प्रेरक कविता  “सोच के अनुरूप ही परिणाम भी….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 35 ☆

☆ सोच के अनुरूप ही परिणाम भी…. ☆  

 

एक पग आगे बढ़ो

पग दूसरा आगे चलेगा।

 

एक निर्मल मुस्कुराहट

पुष्प खुशियों का खिलेगा।

 

एक सच के ताप में

सौ झूठ का कल्मष जलेगा।

 

इक निवाला प्रेम का

संतृप्ति का एहसास देगा।

 

सज्जनों की सभासद में

एक दुर्जन भी खलेगा।

 

खोट है मन में यदि तो

आस्तीन विषधर पलेगा।

 

प्रपंचों पर पल रहा जो

हाथ वो इक दिन मलेगा।

 

जी रहा खैरात पर

वो मूंग छाती पर दलेगा।

 

अंकुरित होगा वही

जो बीज भूमि में गलेगा।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – निर्वसन धरती और हरियाली ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – निर्वसन धरती और हरियाली  

 

तपता मरुस्थल

निर्वसन धरती

सूखा कंठ

झुलसा चेहरा

चिपचिपा बदन

जलते कदम,

वातावरण-

दूर-दूर तक

शुष्क और बंजर था,

अकस्मात-

मेरी बिटिया हँस पड़ी,

अब-

लबालब पहाड़ी झरने हैं

आकंठ तृप्ति है

कस्तूरी- सा महकता बदन है

तलवों में मखमल जड़ी है

और अब-

दूर-दूर तक

हरियाली खिली है..!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares
image_print