हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #242 ☆ भावना के मुक्तक ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के मुक्तक)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 242 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के मुक्तक ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

चमकती बूंदे बारिश की आया मौसम सावन का।

काले काले छाए बदरा मौसम है मन भावन का ।

छाई है हरियाली  इनकी  सुंदरता  बड़ी  न्यारी।

करते महिमा शिव की गान आया है सावन पावन। का – –

*

आया तीज का त्यौहार करते सबसे है व्यवहार।

बड़ा पावन महीना है मनाते सब है घर परिवार।

चमकती बूंदे बारिश की झलक दिखती है पत्तों पे।

लगी मेंहदी है हाथों पर दिखते है सब संस्कार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #224 ☆ एक पूर्णिका – बात रूह  से  रूह तक जब पहुंचे… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक पूर्णिका – बात रूह  से  रूह तक जब पहुंचे आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 224 ☆

☆ एक पूर्णिका – बात रूह  से  रूह तक जब पहुंचे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

दिलों में  जब  भी  खाई  होती  है

प्रीत  अपनी  नहीं  पराई  होती  है

*

मिल जाएं अगर दिल से दिल जहां

वहां ही तब  सच्ची खुदाई होती है

*

बात रूह  से  रूह तक जब पहुंचे

दिलों  में  तभी  सच्चाई  होती है

*

उसे  क्या  मिलेगा सुकून  जहां  में

साख जिसने अपनी गवाई होती है

*

रुलाती है  जो यहां हर  किसी  को

वो कुछ और नहीं महंगाई होती  है

*

रखते हैं वफा में मिलने की जुस्तजू

मंजूर  उन्हें  कहां  जुदाई  होती  है

*

याद लाती है जब भी करीब उनको

संतोष मैं और मेरी तनहाई होती है

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

रिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चुप्पी – 29 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  चुप्पी – 29 ? ?

(लघु कविता संग्रह – चुप्पियाँ से)

उच्चरित शब्द

अभिदा है,

शब्द की

सीमाएँ हैं

संज्ञाएँ हैं

आशंकाएँ हैं,

चुप्पी

व्यंजना है,

चुप्पी की

दृष्टि है

सृष्टि है

संभावनाएँ हैं!

© संजय भारद्वाज  

प्रातः 10:44 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 213 ☆ बाल गीत – ढमढम बजे नगाड़ा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 213 ☆

बाल गीत – ढमढम बजे नगाड़ा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

सुन्न हो रहे हाथ सभी के

दस्तक देता जाड़ा।

दाँत किटकिटी चले सैर के पर

पढ़ते सभी पहाड़ा।।

सूरज दादा छिपे कोहरे

ओस ठंड में अलसाई।

ठंडी – ठंडी हवा कह रही

अब ओढ़ो शीघ्र रजाई।

 *

ठंड ,  कोरोना पास न आए

पीओ प्रतिदिन काढ़ा।।

 *

काजू , पिस्ता और मूंगफली

गरम पकौड़ी हैं भातीं।

अदरक, तुलसी चाय जो पीएं

ठंडी दूर भाग जाती।

 *

काम करें व्यायाम , योग भी

ढमढम बजे नगाड़ा।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #239 – कविता – ☆ हम खुद को ही समझ न पाए… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता हम खुद को ही समझ न पाए” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #239 ☆

☆ हम खुद को ही समझ न पाए… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

कितनी भूलें, कितनी भटकन

बहके कितनी बार विगत में

सोच-सोच कर चिंतित है मन

कैसे अब उनको बिसराएँ।

.

बीत गए दिन कितने अनगिन

मृगतृष्णाओं के मररुथल में

खुशियों को, पाने के भ्रम में

गये उलझते ही, दलदल में,

रहे भुलावे में जीवन भर

हम खुद को ही समझ न पाए

सोच-सोच कर…

.

अहंकारमय बुद्धि का व्यापार

रहे करते अपनों में

नापतौल शब्दों की चलती रही

समय बीता सपनों में,

सहज सरल माधुर्य भाव धारा में

अब कैसे बह पायें

सोच-सोच कर…

.

कभी वासनाओं ने घेरा

लोभ कभी सिर पर मँडराया

कभी क्रोध में दूजों के सँग

अपने को भी खूब जलाया,

समय गँवाया जो प्रमाद में

नहीं उन्हें वापस दुहराएँ

सोच-सोच कर…

.

आत्ममुग्ध हो, खुद अपने से

रहे अपरिचित, सारा जीवन

मृगछौना मन, रहा भटकता

कस्तूरी की ले कर तड़पन,

है तलाश, बाहर-बाहर तो

अन्तर का सुख कैसे पाएँ

सोच-सोच कर…

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 63 ☆ उजालों के गीत… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “उजालों के गीत…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 63 ☆ उजालों के गीत… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

उजालों के गीत

रातों में लिखे हैं।

 

परिंदों की कथाओं में

चुप रहे सारे शिखर

और बादल ने बहाया

ढेर सा पानी मगर

 

घड़े पानी के

बहुत ऊँचे बिके हैं।

 

हर सबक़ झूठा लगा

अधूरी प्रविष्टियाँ

बाँच पाए नहीं अब तक

ज़िंदगी की चिट्ठियाँ

 

प्रेम के व्यवहार

घृणा से चुके हैं ।

 

क़ैद होकर रह गईं हैं

अपनी सभी पहचान

घोंसलों से दूर होती

साहस भरी उड़ान

 

सभी परिचय

डरे बैठे थके हैं।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 67 ☆ लिख दिया गर नसीब में क़ातिब… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “लिख दिया गर नसीब में क़ातिब“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 67 ☆

✍ लिख दिया गर नसीब में क़ातिब… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

खोलकर दिल सभी से मिलते हैं

ग़म छुपाकर ख़ुशी से मिलते हैं

कौम -ओ -मज़हब कभी न हम पूछें

जब किसी आदमी से मिलते हैं

 सोच बदली न पद न दौलत से

हम सदा सादगी से मिलते हैं

दूर रहने में हैं भला उनसे

लोग जो बेख़ुदी से मिलते हैं

समझे बिन दिल नहीं मिलाते हम

जब किसी अजनबी से मिलते हैं

चाह जिनकी हो वस्ल की गहरी

वो बड़ी बेकली से मिलते हैं

आम से खास हो गए जबसे

वो बड़ी बेरुखी से मिलते हैं

.

छोड़ते छाप हैं वही अपनी

जो भी जिंदादिली से मिलते हैं

.

गर्व जिनकी था हमको यारी पर

अब वही दुश्मनी से मिलते है

.

क्या हुआ प्यार कर बता उससे

सारे चहरे  उसी से मिलते हैं

.

ऐंब गैरों के आप को दिखते

क्या नहीं आरसी से मिलते हैं

.

वक़्त कैसा ये आ गया है अब

हक़ भी जो सरकशी से मिलते हैं

.

भूल जाते  थकन सभी दिन की

घर पे नन्ही परी से मिलते हैं

.

बात उनकी सदा सुनी जाती

जो बड़ी आजज़ी से मिलते हैं

.

लिख दिया गर नसीब में क़ातिब

सिंधु में वो नदी से  मिलते हैं

.

दुश्मनी व्यर्थ लगता मान लिया

तब ही वो दोस्ती से मिलते हैं

.

रोज़ मिलने को मन करे उनसे

जो सदा ताज़गी से मिलते है

.

टिमटिमाना वो भूले तारों सा

जब अरुण रोशनी से मिलते हैं

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ घुंगराले बाल… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कविता ?

☆ घुंगराले बाल☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

(स्मृतिशेष स्व. मामाजी को सादर समर्पित। ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि) 

कुछ दिन पहले,

मेरे नब्बे साल के मामाजी का फोन आया,

“ये तेरे बालों को क्या हुआ?”

“बालाजी को अर्पण किये है”

“इससे क्या होता है ?”

पढा था कहीं,

“बालाजी को बाल देने से,

हम जिन्दगी के सारे ऋणों से

मुक्त होते हैं।”

 

“ये अंधविश्वास है ʼ”– मामाजी बोले !

 

“और ऐसा भी लगता है,

नए बाल शायद सरल-सीधे आए” – मैं 

 

“क्यूं ? तुमको घुंगराले बाल क्यूं पसंद नहीं?”

 

“मेंटेन करना कठिन है ।”

 

“हाँ….” कहकर मामाजीने फोन बंद किया ।

 

बचपन में कहते थे लोग,

“घुंगराले बालों वाली लडकियाँ,

मामा के लिए भाग्यशाली होती है”!

 

सरल-सीधे  बालों की चाह होने पर भी,

अब मैं घुंगराले बाल ही माँगती हूँ…

मामाजी का भाग्य बना रहे ।

☆  

© प्रभा सोनवणे

१६ जून २०२४

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ प्रकृति…  ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

(डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के नोबल कॉलेज में प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, दो कविता संग्रह, पाँच कहानी संग्रह,  एक उपन्यास (फिर एक नयी सुबह) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आपका उपन्यास “औरत तेरी यही कहानी” शीघ्र प्रकाश्य। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता प्रकृति… ।)  

☆ कविता प्रकृति… ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

लोभ, मोह, क्रोध, काम,

है नियम मानव प्रकृति के,

मत होना कभी भी हवाले,

बल्कि उनको कर बस में,

देखो! प्रकृति है बड़ी सुंदर

देखो! हर तरफ हरियाली

नदी और समुंदर में उफ़ान,

पानी का झरना बह रहा,

इतनी मनमोहक! है प्रकृति,

सूरज और चांद की रोशनी,

आसमान घिरा काले बादलों से,

कभी श्याम घने तो कभी सफेद,

कभी बारीस तो कभी धूप,

कभी कडकती बिजली

कभी शांत वातावरण

शाम की यह किरणें,

हवा चल रही मंद-मंद,

कभी तेज़ हवा में,

बह चले लोग-ढूँढते चिराग,

अपनो को देकर दर्द,

धरती को रंगीन बना देती,

कभी खुशी तो कभी गम,

कभी मस्ती तो कभी दर्द-विरह,

कभी हँसी ठहाके तो कभी मातम,

जन्म और मरण के बीच,

अच्छे – बुरे की परिभाषा ढूँढते,

बस चल रही जिंदगी,

स्वीकार कर लो तो खुश,

अगर मना करो तो नाखुश,

जिंदगी भरी पड़ी है चीज़ों से,

हंमेशा मुस्कुराते रहो,

चाहे हो विरह कामना,

चाहे हो खुशी…

बस आंसू के साथ,

मुस्कुराते रहना ही है जिंदगी,

यही तो है ईश्वर की दुनिया

यही तो है प्रकृति।

© डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

संपर्क: प्राध्यापिका, लेखिका व कवयित्री, हिन्दी विभाग, नोबल कॉलेज, जेपी नगर, बेंगलूरू।

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 64 – दम भले ही हमारा निकलता रहे… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – दम भले ही हमारा निकलता रहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 64 – दम भले ही हमारा निकलता रहे… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

जब तलक चाँद छत पर टहलता रहे

खौफ तनहाइयों का भी टलता रहे

*

अपने होंठों से, साकी पिलाये जो तू 

दौर, फिर मयकशी का ये चलता रहे

*

गर्म साँसें जो साँसों से मिलती रहें 

इन शिराओं का शोणित पिघलता रहे

*

पत्थरों से भी रसधार आने लगे 

तू जो हौले से इनको मसलता रहे

*

वो न आएँगे मेंहदी लगाये बिना 

दम, भले ही हमारा निकलता रहे

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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