श्री मच्छिंद्र बापू भिसे
(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। अब आप प्रत्येक बुधवार उनका साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज पढ़ सकेंगे । आज प्रस्तुत है उनकी नवसृजित कविता “काँटे बन चुभ गए”।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज – # 6☆
☆ काँटे बन चुभ गए ☆
जिंदगी के रंगीन सफर में,
सबको अपना मान गए,
फूल बनके पास आए कईं,
काँटे बन चुभ गए.
जब तक मिलती हमसे सेवा,
कभी न खफ़ा हो गए,
देखकर अपना हाथ खाली,
पल में दफ़ा हो गए,
मिठास भरें हम जीवन में,
पल में जहर घोल गए,
फूल बनके…
बेटा-भाई-दोस्त कहकर,
दिल में इतने घुल गए,
स्वार्थ का पर्दा जब खुला,
दिल में ही छेद कर गए,
जिनको हमने सब कुछ माना,
झूठा विश्वास भर गए,
फूल बनके…
मीठी बातें, मीठी मुस्कानें,
वाह, वाह, हमारी कर गए,
मुँह मुस्कान, दिल में जलन,
मुखौटे यार चढ़ा गए,
वक्त भँवर में जब भी झुलसे,
कौन हो तुम? हमको ही पूछ गए,
फूल बनके…
अपना पथ, अपनी मंजिल,
इस सच्चाई को हम जान गए,
बाकि सब स्वार्थ के संगी,
दुनिया के रंगरेज जान गए,
अपनी मंजिल बने अपनी दुनिया,
अब खुद को आजमाना सीख गए.
फूल बनके पास आए कईं,
काँटे बन चुभ गए.
© मच्छिंद्र बापू भिसे
भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)
मोबाईल नं.:9730491952 / 9545840063
ई-मेल: [email protected] , [email protected]