डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
(अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ “तन्मय साहित्य ” में प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर सामयिक रचना “आ गए विज्ञापनों के दिन”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 15 ☆
☆ आ गए विज्ञापनों के दिन ☆
आ गए, विज्ञापनों के दिन
पल्लवित-पुष्पित जड़ों से
दम्भ में, फूले तनों के दिन।
पुष्प-पल्लव,हवा का रुख देख कांपे
टहनियां सहमी हुई, भयभीत भांपे
देख तेवर हो गई, गुमसुम जड़ें भी
आसरे को दूर से, खग – वृन्द झांके
मौसमों के साथ अनुबंधित समय भी
हर घड़ी को, बांचने में लीन
आ गए, विज्ञापनों के दिन।
आवरण – मुखपृष्ठ पन्ने भर रहें हैं
खुद प्रशस्ति गान, खुद के कर रहे हैं
डरे हैं खुद से, अ, विश्वसनीय हो कर
व्यर्थ ही प्रतिपक्ष में, डर भर रहे हैं,
एक, दूजे के परस्पर, कुंडली-ग्रह
दोष-गुण ज्योतिष, रहे हैं गिन
आ गए, विज्ञापनों के दिन।
खबर के संवाहकों का, पर्व आया
चले चारण-गान, मोहक चित्र माया
विविध गांधी-तश्वीरों की, कतरनों में
बिक गए सब, झूठ का बीड़ा उठाया,
मनमुताबिक, दाम पाने को खड़े हैं
राह तकते, व्यग्र हो पल-छिन
आ गए विज्ञापनों के दिन।
© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
जबलपुर, मध्यप्रदेश
मो. 9893266014
(अग्रज डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी की फेसबुक से साभार)