श्री मनीष तिवारी
☆ साहित्यिक सम्मान की सनक ☆
(प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर ही नहीं ,अपितु राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध साहित्यकार -कवि श्री मनीष तिवारी जी की यह कविता जो आईना दिखाती है उन समस्त तथाकथित साहित्यकारों को जो साहित्यिक सम्मान की सनक से पीड़ित हैं । यह उन साहित्यिकारों पर कटाक्ष है जो सम्मान की सनक में किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। संपर्क, खेमें, पैसे और अन्य कई तरीकों से प्राप्त सम्मान को कदापि सम्मान की श्रेणी में रखा ही नहीं जा सकता।
साथ ही मुझे डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी के पत्र की निम्न पंक्तियाँ याद आती हैं जो उन्होने मुझे आज से 37 वर्ष पूर्व लिखा था –
“एक बात और – आलोचना प्रत्यालोचना के लिए न तो ठहरो, न उसकी परवाह करो। जो करना है करो, मूल्य है, मूल्यांकन होगा। हमें परमहंस भी नहीं होना चाहिए कि हमें यश से क्या सरोकार। हाँ उसके पीछे भागना नहीं है, बस।”)
सच कह रहा हूँ भाईजान
मेरी उम्र को मत देखिए
न ही बेनूर शक्ल की हंसी उड़ाइए
आईये
मैं आपको बतलाऊँ
मेरी साहित्यिक सनक को देखिए
सम्मान के कीर्तिमान गढ़ रही है,
जिसे साहित्य समझ में नहीं आता
मेरे साहित्य को पढ़ रही है।
सनक एकदम नयी नयी है
नया नया लेखन है
नया नया जोश है,
मैं क्या लिख रहा हूँ
इसका मुझे पूरा पूरा होश है।
सब माई की कृपा है
कलम घिसते बनने लगी
कितनी घिसना है
कहाँ घिसना है
कैसी घिसना है
ये तो मुझे नहीं मालूम
पर घिसना है तो घिस रहे हैं।
हमने कहा- भाईजान जरूर घिसिये
पर इतना ध्यान रखिये
आपके घिसने से कई
समझदार साहित्यकार पिस रहे हैं।
वे अकड़कर बोले,
मेरा हाथ पकड़कर बोले-
आप बड़े कवि हैं
हम पर व्यंग्य कर रहे हैं
अत्याचार कर रहे हैं
आपको नहीं मालूम
पूरी दुनिया के पाठक
मेरी साहित्यिक सनक की
जय जयकार कर रहे हैं।
मेरा अभिनंदन कर रहे हैं
मैं उन्हें बाकायदा धनराशि देता हूँ
पर वे लेने से डर रहे हैं।
जबकि मैं जानता हूँ
मेरे जैसे लोगो का
अभिनन्दन करने वाले
अपना घर भर रहे हैं।
हमारी रचनाएं अनेक देशों में
साहित्यिक रक्त पिपासुओं द्वारा
भरपूर सराही जा रही हैं।
घनघोर वाहवाही पा रही हैं।
हमने कहा- भाईसाब
मेरा ये ख्याल है
इसी सनकी प्रतिभा का तो हमें मलाल है।
जो कविता हमें और
हमारे साहित्यिक कुनबे को
समझ में नहीं आ रही है
आपकी सर्जना को
सिरफिरी दुनिया सिर पर उठा रही है।
आखिर आप क्यों?
हिंदी साहित्य में स्वाइन फ्लू फैला रहे हैं,
और अफसोस
उस बीमारी को समझकर भी
लोग तालियां बजा रहे हैं।
आप क्या समझते हैं
आपके तथाकथित सृजन और पठन से
श्रोता जाग रहे हैं,
आपको पता ही नहीं आपका नाम सुनते ही
श्रोता दहशत में हैं और भाग रहे हैं।
आयोजकों के पीछे डंडा लेकर पड़े हैं,
हाल खाली है और दरवाजे पर ताले जड़े हैं।
लगता है विदेशियों ने
साहित्यिक षड्यंत्र रचा दिया है
जैसे पूरी दुनिया ने
भारतीय बाजार पर कब्ज़ा कर
कोहराम मचा दिया है।
ये लाईलाज बीमारी है
आपके अनर्गल प्रलाप को सम्मानित कर भारत के
गीत, ग़ज़ल, व्यंग्य, कथा, कहानी और
नाटक को कुचलने की तैयारी है।
आप अपने सम्मान पर गर्वित हैं, ऐंठे हैं
आपको पता नहीं
आप एक बारूद के ढेर पर बैठे हैं।
आपको पता नहीं चल रहा कि
आपकी दशा है या दुर्दशा है
आपको सम्मान का अफीमची नशा है।
आपको पता ही नहीं कि
आपके सम्मान के रंग में
कितनी मिली भंग है,
सच कहूं आपकी सृजनशीलता
पूरी तरह से नंग धड़ंग है।
मर्यादा का कलेवर आपके
तथाकथित अभिमान को ढक नहीं सकता
और, मेरे मना करने पर भी
आपका इस तरह लेखन रूक नहीं सकता।
आप अपनी वैचारिक विकलांगता
साहित्यिक विकलांगों के बीच में ही रहने दो
आप अपनी कीर्ती के कमल
गंदगी के कीच में ही रहने दो।
आपने हिंदी साहित्य का गला घोंटने
अपना जीवन अर्पित कर दिया,
परिणामस्वरूप स्वम्भू साहित्यकारों ने
आपको सम्मानित किया और चर्चित कर दिया।
आपके सम्मान से साहित्य के सम्रद्धि कलश भर नहीं सकते
और सायनाइट में भी डुबोने पर भी
आपके अंदर हलचल मचा रहे
साहित्यिक कीटाणु मर नहीं सकते।
आपकी गलतफहमी है
इक्कसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों के
साहित्यिक सांस्कृतिक अवदान में
आपका भी नाम लिखा जाएगा
ध्यान रखना
वास्तविक साहित्यिक समालोचक
आपको आईना दिखा जाएगा।
आप आत्ममुग्ध हो
अपने सम्मान से स्वयं अविभूत हो
आप सोचते हो कि
अनन्तकाल तक जीते रहोगे
भूत नहीं बन सकते,
प्रेमचंद, परसाई, नीरज, महादेवी, दुष्यंत और
जयशंकर प्रसाद के वंशज
आपके तथाकथित साहित्य को
अलाव में भी फेंक दें पर
आप भभूत नहीं बन सकते।
मैंने पढ़ा है-
दूषित धन की कभी शुद्धि नहीं हो सकती
ऐसे ही
दूषित विचारों के रचनाकार की
शुद्ध बुद्धि नहीं हो सकती।
आपकी इस तरह की सृजनशीलता से
राष्ट्र की वैचारिक अभिवृद्धि नहीं हो सकती।
आपका पेन सामाजिक, सांस्कृतिक,
कुरीतियों, कुप्रथाओं पर
अमोघ बाण नहीं हो सकता
आप जैसे सनकियों से
राष्ट्र का कल्याण नहीं हो सकता।
हे ! माँ सरस्वती
या तो इनकी कलम को
शुभ साहित्य से भर दीजिये
या इन्हें तथाकथित साहित्यिक सम्मान की
सनक से मुक्त कर दीजिए।
© पंडित मनीष तिवारी, जबलपुर