हिन्दी साहित्य – नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 6 ☆ विचार ☆ – श्री प्रयास जोशी

श्री प्रयास जोशी

(श्री प्रयास जोशी जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आदरणीय श्री प्रयास जोशी जी भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स  लिमिटेड भोपाल से सेवानिवृत्त हैं।  आपको वरिष्ठ साहित्यकार  के अतिरिक्त भेल हिंदी साहित्य परिषद्, भोपाल  के संस्थापक सदस्य के रूप में जाना जाता है। 

ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  करेंगे ।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने यात्रा संस्मरण श्री सुरेश पटवा जी की कलम से आप तक पहुंचाई एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक सतत पहुंचा रहे हैं।  हमें प्रसन्नता है कि  श्री प्रयास जोशी जी ने हमारे आग्रह को स्वीकार कर यात्रा  से जुडी अपनी कवितायेँ  हमें,  हमारे  प्रबुद्ध पाठकों  से साझा करने का अवसर दिया है। इस कड़ी में प्रस्तुत है उनकी कविता  “विचार ”। 

☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 6 – विचार  ☆

 

तुम्हारे साथ

तुम्हारे

लेखक की

दो बड़ी

दिक्कत हैं

 

एक तो यह

कि तुम्हारा

लेखक

किसी को

स्वर्ग का

रास्ता

नहीं  बताता

और दूसरा

यह कि

दूसरों की तरह

यह

अमर भी

नहीं

होना चाहिता

 

ऐसा किसलिये?

ऐसा

इसीलिये।

 

©  श्री प्रयास जोशी

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ जीवन पथ ☆ – सुश्री शुभदा बाजपेई

सुश्री शुभदा बाजपेई

(सुश्री शुभदा बाजपेई जी  हिंदी साहित्य  की गीत ,गज़ल, मुक्तक,छन्द,दोहे विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं। सुश्री शुभदा जी कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं एवं आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर  कई प्रस्तुतियां। आज प्रस्तुत है आपकी  एक  अतिसुन्दर कविता “जीवन पथ ”. )

☆  जीवन  पथ  ☆

छोड़ो किस्से बात पुरानी

नया जमाना नई कहानी

 

गाँव बन गए भूल भुलैया

शहर बहुत भाता है भैया

रोजी रोटी के जुगाड़ में

दिन भर खटता है रामैया

नियति रोज उसको दौड़ाती

तब जुड़ता है दाना पानी!

 

झूठे वादों ने लूटा है

खुशियों का दामन छूटा है

व्याकुल  मन अब क्यों रोता है

सगा नहीं कोई होता है

जीवन पथ पर निकल पड़े हैं

चलती मन मे खींचा तानी।।

 

कहीं बबूलों के जंगल हैं

कहीं महकती अमराई है

पीले करने हाथ सिया के

उर में चिंता गहन समाई है

किससे मन की व्यथा बताये

दुनिया लगती है वीरानी।।

 

© सुश्री शुभदा बाजपेई

कानपुर, उत्तर प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 11 – विशाखा की नज़र से ☆ लागी लगन ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी रचना लागी लगन अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 11 – विशाखा की नज़र से

☆ लागी लगन ☆

 

प्रीत की धुन छिड़ी,
छिड़ी बस छिड़ती रही
अब तू नाच …..

 

देख स्वप्न , दिवास्वप्न भी
मूंद आँखे या अधखुली
अब तू जाग …….

 

बोलेगा हर अंग तेरा ,
हर राग तेरा , गीत तेरा
अब तू गा …….

 

प्रेमपथ पर देह चली ,
गीत गाते मीरा चली ,
कृष्ण की परिक्रमा उसका नाच है ,
अधखुली दृष्टि उसकी जाग है ,
समर्पण , प्रेम का दूजा नाम है ।
तो ,
अब तो तू जाग ………

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मेरा प्यार अभागा गाँव ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित  बदलते हुए ग्राम्य परिवेश पर आधारित एक अतिसुन्दर कविता – मेरा प्यार अभागा गाँव। इस रचना के सम्पादन के लिए हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के हार्दिक आभारी हैं । )

अगले सप्ताह रविवार से हम प्रस्तुत करेंगे श्री सूबेदार पाण्डेय जी  की एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली माई “।

☆ मेरा प्यार अभागा गाँव  ☆

उजड़  गये हैं घर-मुंडेर
 उजड़ रहे अब गाँव,
  पेड़ कट गए  दरवाजे के
   नहीं रही अब वो ठंडी छांव…
पट गये सब ताल-तलैया,
 सूख गया, कुँओं का नीर,
  पनघट खत्म हुए गाँवों से,
    कौन सुने अब उनकी पीर…
कौवे तक नहीं रहे गाँवों में,
 गोरी का सगुन  बिचारे कौन,
  पितृपक्ष भी हो गया सूना,
   आओ काग पुकारे कौन…
उजड़ गये सब बाग-बगीचे
 कजरी आल्हा हुए अब बंद,
  खत्म हुआ चहकना चिड़ियों का
   झुरमुट बंसवारी भी रहे चंद…
नहीं रही घीसू की मड़ई,
 नहीं रहे वो थिरकते पाँव
  नहीं रही वो सँकरी गलियाँ
   नहीं रहे वो चहकते गाँव…
नहीं रहा अब हुक्का-पानी,
 नहीं रहे वो गर्म-अलाव,
  गाँव की गोरी, चली शहर को,
   खाती नूडल, पास्ता और पुलाव…
जब से गगरी बनी सुराही,
 चला शहर गाँवो की ओर,
  खत्म हो गई लोकधुनें सब,
   रह गया बस डीजे का शोर…
खत्म हो गया अब  देशी
 गुड़, शर्बत और ठंडी लस्सी,
  ठेलों पर बिकता पिज्जा-बर्गर
   नहीं बनती है अब रोटी-मिस्सी…
शुरू हो गई अब गाँवों में
 आधुनिकता की अंधी रेस,
  ललुआ अब बन गया हीरो,
   धारे है निपट, जोकर  का वेश…
जब से आया शहर गाँव में,
 नहीं रही ममता की छाँव,
  रौनक सब खत्म हुई अब,
   उजड़ा-उजड़ा सा मेरा गाँव..

 

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – ☆ दीपिका साहित्य #1 ☆ कविता – ओंस की बूँदे  ☆ – सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

( हम आभारीसुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  के जिन्होंने ई- अभिव्यक्ति में अपना” साप्ताहिक स्तम्भ – दीपिका साहित्य” प्रारम्भ करने का हमारा आगरा स्वीकार किया।  आप मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में आपकी कविता “Sahyadri Echoes” में पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह में प्रकाशित हुई है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता  ओंस की बूँदे । अब आप प्रत्येक रविवार सुश्री दीपिका जी का साहित्य पढ़ सकेंगे।

 ☆ दीपिका साहित्य #1 ☆ कविता – ओंस की बूँदे  ☆ 

ओंस की पहली बूँद जब गिरी ,

तब तुम्हारी कल्पना हुईं ,

सर्दी की सूनी रातों में ,

तुम्हारी पायल की झंकार हुईं ,

खनकी जो तेरे हाँथो की चूड़ी ,

तो बिन बादल बरसात हुईं ,

तेरी इक झलक के लिए ,

भँवरों में भी यलगार हुईं ,

जब खुदा ने बनाया तुझे ,

तो उसके मन में भी दरार हुईं ,

उठी जो तेरी पलकें भरी महफ़िल में ,

तो हर नज़र बेक़रार हुईं ,

सहरा में जो तूने रखा कदम ,

तो हर डाली गुलज़ार हुईं

तेरे इक दीदार की चाहत में ,

हर गली परवानों से सरोबार हुईं  . .

 

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 17 ☆ समय की रेत ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की पर्यावरण और मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण कविता  “समय की रेत।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 17 ☆

☆ समय की रेत

समय की रेत छूटती जाए,
रे मनुज तेरे हाथों से…!
ये तो पल पल घटता जाए,
कण कण तेरे हाथों से….!

चढ़ता सूरज ढलता जाए,
तू क्यों सोचे बीता कल?
वर्तमान को देख ज़रा,
कण कण बीता तेरा कल।

तू समेट ले अपना मन,
अग्रसर हो ध्येय की ओर,
समय समय की राह चलेगा,
तू समय की राह पर चल।

© सुजाता काळे,

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684

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हिन्दी साहित्य – नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 5 ☆ एवरेज ☆ – श्री प्रयास जोशी

श्री प्रयास जोशी

(श्री प्रयास जोशी जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आदरणीय श्री प्रयास जोशी जी भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स  लिमिटेड भोपाल से सेवानिवृत्त हैं।  आपको वरिष्ठ साहित्यकार  के अतिरिक्त भेल हिंदी साहित्य परिषद्, भोपाल  के संस्थापक सदस्य के रूप में जाना जाता है। 

ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  करेंगे ।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने यात्रा संस्मरण श्री सुरेश पटवा जी की कलम से आप तक पहुंचाई एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक सतत पहुंचा रहे हैं।  हमें प्रसन्नता है कि  श्री प्रयास जोशी जी ने हमारे आग्रह को स्वीकार कर यात्रा  से जुडी अपनी कवितायेँ  हमें,  हमारे  प्रबुद्ध पाठकों  से साझा करने का अवसर दिया है। इस कड़ी में प्रस्तुत है उनकी कविता  “ सहारा  ”। 

☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 5 – एवरेज  ☆

 

फोटो देख,मित्र ने कहा-

अगली बार मैं भी चलूंगा

आप लोगों के साथ

—स्वागत है, बिल्कुल चलिये

हमारे साथ, किसी प्रकार की

कोई रोक-टोक और

फालतू तैयारी की

बहुत कम गुंजाइश है…

—लेकिन पहले

यह तो बताइये सर !

कि पैदल चलने में आदमी

अच्छा ऐवरेज

किस कारण से देता है

—अच्छे जूतों के कारण

—लाठी के कारण

—या फिर

कम बजन के कारण?

—इस बिषय में

हमारा अनुभव तो यह कहता है

कि इन सब के साथ

अगरआदमी / आनंद से भरी

इस कठिन यात्रा में

ड्रायफ्रुट की बजाए

दूध के साथ पोहा खाए तो

सुबह जल्दी उठने में

आना-कानी नहीं करता..

और अगर दूध में/बासी रोटी

गुड़ में मीड़ कर खाए

तो हर हाल में आदमी

18 किलो मीटर से

अधिक का ही/ ऐवरेज देगा…

 

©  श्री प्रयास जोशी

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – अखंड महाकाव्य ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  अखंड महाकाव्य

 

अखंड रचते हैं,

कहकर परिचय

कराया जाता है,

कुछ हाइकू भर

उतरे काग़ज़ पर

भीतर घुमड़ते

अनंत सर्गों के

अखंड महाकाव्य

कब लिख पाया,

सोचकर संकोच

से गड़ जाता है!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

सुबह 9.24, 20.11.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

writersanjay@gmail.com

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हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 24 ☆ कविता ☆ परिभाषित ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  उनकी कविता परिभाषित। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 24  साहित्य निकुंज ☆

☆ परिभाषित

 

कैसे करूं

तुम्हें परिभाषित

मन की क्या भाषा लिखूं।

प्रेम की क्या परिभाषा लिखूं।

चिंतनता का बिंदु क्या

सागर का सिंधु क्या

कैसे करूं

तुम्हें परिभाषित

 

आत्मा की गहराई में तुम

प्यार की ऊंचाई क्या?

कैसे करूं

तुम्हें परिभाषित

 

तुम ही हो देवत्व स्वरूप

देवत्व की पहचान क्या?

कैसे करूं

तुम्हें परिभाषित।

 

लिख रहे है खुशबुओं से

मन के मीत हो तुम ही

जीवन का संगीत तुम ही

कैसे करूं

तुम्हें परिभाषित ।

 

जीवन की आभा तुम ही

सुर की साधना तुम ही

प्रेम का संगीत तुम ही

कर दिया तुम्हें परिभाषित।

 

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : bhavanasharma30@gmail.com

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ये जग राई है ☆ – सुश्री शुभदा बाजपेई

सुश्री शुभदा बाजपेई

 

(सुश्री शुभदा बाजपेई जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप हिंदी साहित्य  की ,गीत ,गज़ल, मुक्तक,छन्द,दोहे विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं। सुश्री शुभदा जी कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं एवं आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर  कई प्रस्तुतियां। आज प्रस्तुत है आपकी एक आपकी एक  अतिसुन्दर कविता  “ये जग राई है ”. )

 

☆ ये जग राई है ☆

 

कश्ती है  या लंगर है

पानी-पानी कंकड़ है

 

सहरा-सहरा देखा है

शाने मस्त कलंदर है

 

मिट्टी- मिट्टी  धरती है

उसके बीच समंदर है

 

उछल कूद ये जारी है

आदमी है  या बंदर है

 

दौडा़  भागा  जाता है

बच्चा बडा़ खेलंदर है

 

बाहर -बाहर दुनिया है

दुनिया घर के अंदर है

 

‘शुभदा” ये जग राई है

या तो  सांप छछुंदर है

 

 

© सुश्री शुभदा बाजपेई

कानपुर, उत्तर प्रदेश

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