हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #222 ☆ एक पूर्णिका – न करते मुहब्बत तो कुछ गम नहीं… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक पूर्णिका – न करते मुहब्बत तो कुछ गम नहीं आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 222 ☆

☆ एक पूर्णिका – न करते मुहब्बत तो कुछ गम नहीं ☆ श्री संतोष नेमा ☆

हम  मिलते रहे जिंदगी  की तरह

वो हमसे मिले अजनबी की तरह

*

प्यार में संजीदा वो हो नहीं सकते

हम  निभाते  रहे  बंदगी  की तरह

*

न करते मुहब्बत तो कुछ गम नहीं

पेश  आते  मगर  आदमी की तरह

*

उन्हें  दोस्ती  कबूल न थी  ना सही

पर मिला न करें  दुश्मनी  की तरह

*

प्यार क्या है समझ सके न वो कभी

अदा लगती रही  मसखरी की तरह

*

हम समझते रहे उनको  सबसे जुदा

वो निकले मगर हर  किसी की तरह

*

हमें  मंजूर है  हम अजनबी ही सही

संतोष मिलते रहो मजहबी की तरह

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय ११ — विश्वरूपदर्शनयोग — (श्लोक १ ते ११) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय ११ — विश्वरूपदर्शनयोग — (श्लोक १ ते ११) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

संस्कृत श्लोक… 

अर्जुन उवाच

मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसञ्ज्ञितम्‌ ।

यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ॥ १॥

कथित अर्जुन 

कृपा करुनीया मजवरती कथिले गुह्य अध्यात्माचे

आकलन होउनिया तयाचे ज्ञान जाहले अज्ञानाचे ॥१॥

*

भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया ।

त्वतः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्‌ ॥२॥

*

विस्ताराने ज्ञान ऐकले उत्पत्तीचे प्रलयाचे

कमलनेत्रा तसेच तुमच्या अविनाशी महिमेचे ॥२॥

*

एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर ।

द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम ॥३॥

*

वर्णन केले अपुले आपण तसेच तुम्ही हे परमेश्वर

रूप पाहण्या दिव्य आपुले नेत्र जाहले माझे आतुर ॥३॥

*

मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो ।

योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम्‌ ॥४॥

*

प्रभो असेन जर मी पात्र तुमच्या दिव्य दर्शनासी

दावावे मज योगेश्वरा तुमच्या अविनाशी स्वरुपासी॥४॥

श्रीभगवानुवाच

पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः ।

नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ॥५॥

कथित श्रीभगवान 

विविध वर्ण आकाराचे  शतसहस्र रूपे माझीअर्जुना

सिद्ध होई तू आता माझ्या अलौकीक या रूप दर्शना ॥५॥

*

पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा ।

बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ॥६॥

*

माझ्याठायी दर्शन घेई आदित्यांचे वसूंचे तथा रुद्रांचे

अवलोकन होईल तुजला अश्विनीकुमारांचे मरुद्गणांचे

पूर्वी न देखिल्या अनेक देवतांच्या विस्मयकारी रूपांचे

भरतवंशजा इथेच तुजला दर्शन होइल त्या सकलांचे ॥६॥

*

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्‌ ।

मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टमिच्छसि ॥७॥

*

दृष्टीगोचर एकठायी स्थित चराचर सारे जगत

देही माझ्या पहायचे जे अन्य त्यासी पाही पार्थ  ॥७॥

*

न तु मां शक्यसे द्रष्टमनेनैव स्वचक्षुषा ।

दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्‌ ॥८॥

*

दर्शन घेण्या या सर्वांचे चर्मचक्षु तव ना कामाचे

चक्षु अलौकिक प्रदान तुजला मम योगेश्वरी शक्तीचे ॥८॥

संजय उवाच

एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः ।

दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्‌ ॥९॥

कथित संजय 

कथुनी ऐसे रूप दाविले पापनाशक महायोगेश्वर भगवंताने

परम  दिव्यस्वरूपी ऐश्वर्य-रूप प्रकटता पाहिले त्या पार्थाने ॥९॥

*

अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम्‌ ।

अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्‌ ॥१०॥

*

दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्‌ ।

सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्‌ ॥११॥

*

बहुविधानने अनेक नयन दिव्याभूषण युक्त

दिव्यायुधे धारियलेली काया दिव्य गंध युक्त

मुखे व्यापिती सर्व दिशांना असीम विस्मय युक्त

विराट दर्शन परमेशाचे अवलोकित अर्जुन भक्त ॥१०, ११॥

 

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – शोषण ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – शोषण ? ?

मीलों यात्रा करती हैं,

फूल-फूल भटकती हैं,

बूँद-बूँद संचित करती हैं,

परिश्रम की पराकाष्ठा से

छत्ते का निर्माण करती हैं,

मधुमक्खियाँ…,

 

मनुष्य, तोड़कर

निकाल लाता है छत्ता,

चट कर जाता है शहद,

देखती रह जाती हैं

हताश, निराश मधुमक्खियाँ..,

 

आदिकाल से शोषित हैं

मधुमक्खियाँ,

पर अफ़सोस,

शोषण के इतिहास में

मधुमक्खी का उल्लेख नहीं मिलता..!

© संजय भारद्वाज  

प्रात: 7:51 बजे, 10 जुलाई 2024

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना ज्येष्ठ पूर्णिमा तदनुसार 21 जून से आरम्भ होकर गुरु पूर्णिमा तदनुसार 21 जुलाई तक चलेगी 🕉️

🕉️ इस साधना में  – 💥ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। 💥 मंत्र का जप करना है। साधना के अंतिम सप्ताह में गुरुमंत्र भी जोड़ेंगे 🕉️

💥 ध्यानसाधना एवं आत्म-परिष्कार साधना भी साथ चलेंगी 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #178 – बाल कविता – वो भी क्या दिन थे… ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक बाल कविता – “वो भी क्या दिन थे)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 178 ☆

☆ बाल कविता – वो भी क्या दिन थे ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

सुबह सैर को जाते

नदी में खूब नहाते

 तैरा करते जी भर

थक हार के घर आते।

मोबाइल से हीन थे ।।

वो भी क्या दिन थे ।।

 *

शाम ढले घर आते

दादाजी  संग बतियाते

खेला करते दिन भर

कभी ना हम सुस्ताते ।

कई मित्र अभिन्न थे ।।

वे भी क्या दिन थे ।।

 *

गप्पी भी मारा करते

भूत प्रेत से ना डरते

खेलखेल में सब कोई 

आपस में ही लड़ते।

दोस्त नहीं, जिन थे।।

वो भी क्या दिन थे।।

 *

पेड़ देख कर जाते

आपस में स्पर्धा करते

कलमडाल जैसे ही

खेल कई खेला करते।

मस्ती में ही लीन थे।।

वो भी क्या दिन थे।।

 *

खेतों पर भी जाते थे

नई चीजें खाते थे

ना कोई मोलभाव था

मुफ्त तोड़ लाते थे।

उनके हम पर ऋण थे।।

वह भी क्या दिन थे।।

 *

दिवाली खूब मनाते

नए कपड़े सिलवाते

ईदी भी सबसे लेते

सेवइयां भी खाते।

हम शैतानी के जिन्न थे।।

वो भी क्या दिन थे।।

 *

खेल कई खेला करते

आपस में ही लड़ते

क्षण भर में मिलते

बिल्डिंग पर चढ़ते ।

राग द्वेष से भिन्न  थे।।

वो भी क्या दिन थे।।

चना चबैना लाते

मिल बांट कर खाते

नित नई चीजें पाकर

खुशियां खूब मनाते।

रिश्ते हमारे अभिन्न थे।।

वो भी क्या दिन थे।।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

09-09-20200

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 211 ☆ बाल कविता – कैम्पटी फॉल मसूरी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 211 ☆

बाल कविता – कैम्पटी फॉल मसूरी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

चले सैर को पवन , सारिका

सँग – सँग मम्मी पापा के ।

मन में नूतन लिए उमंगें

हर्षित झूमे मुस्का के ।।

लिए साथ में वस्त्र उन्होंने

टॉवल ली रोएं वाली।

चले कैम्पटी फॉल नहाने

सर्पीली सड़कें काली।।

 *

बैठ कार में चले मसूरी

पर्वत भी खूब सुहाए।

माह सितंबर खिला – खिला – सा

फूलों से पौधे मुस्काए।।

 *

ठंडी पावन वायु बह रही

ऊँचे , पर्वत हैं घाटी।

छोटे – छोटे गाँव पहाड़ी

खेतों में उगती साठी।।

 *

कहीं हैं झरने नदियाँ कल  – कल

झरने का पीया पानी।

ठंडा पानी मीठा – मीठा

मन पर लिखी इक कहानी।।

 *

कैम्पटी फॉल अद्भुत झरना

देख सभी मन हरषाए।

खूब नहाए झरने मिलजुल

तन में सुन्नी – सी चढ़ जाए।।

 *

पानी गिरता चाँदी – चाँदी

ऋतु लगती बड़ी सुहानी।

खुशियाँ लेकर वापस आए

मसूरी – सा न है सानी।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #237 – बाल कविता – कंप्यूटर मोबाइल के खेल… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एबाल कविता – “कंप्यूटर मोबाइल के खेल…)

☆ तन्मय साहित्य  #237 ☆

☆ बाल कविता – कंप्यूटर मोबाइल के खेल ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

कंप्यूटर मोबाइल ने ये

क्या-क्या खेल निकाले।

हम  बच्चों के बने  खिलौने,

जो चाहें सो पा लें।।

*

बिल्ली एक नहाती है

शावर स्वयं चलाती है

बदन पोंछ कर फिर अपना,

होले से मुस्काती है

आँख मूँद फिर ध्यान लगा

चूहों पर डोरे डाले।

कंप्यूटर मोबाइल ने……

*

एक  कार  रफ्तार से

चली जा रही प्यार से

पीछे दूजी कार लगी

दोनों को  डर हार से,

भाग दौड़ में टकरा जाए

किसको कौन सँभाले।

कंप्यूटर मोबाइल ने…….

*

मछली की निगरानी में

भैंस  तैरती पानी में

कछुए ने ली टाँग पकड़

मेंढक  है  हैरानी  में

मगरमच्छ बीमार हुआ

पड़ गए दवा के लाले।

कंप्यूटर मोबाइल ने…….

*

संसारी या जोगी है

मोबाइल के रोगी हैं

मम्मी पापा के सँग अपनी

ये पैसेंजर बोगी है,

बिना रिजर्वेशन के इनकी

सिंपल टिकट कटा लें।

कंप्यूटर मोबाइल ने ये

क्या-क्या खेल निकाले।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 61 ☆ बरसात… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “बरसात…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 61 ☆ बरसात… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

टपकती है बूँद

होंठों पर छुअन सी

यादों में लिपटी हुई बरसात।

 

बाँह पकड़े

कल तलक जो

चल रही थी नाव

लहर चंचल

कूदती है

भुलाकर सब घाव

 

आँख बैठा मूँद

माझी तन जलन की

मन के आँगन में घिरी बरसात।

 

ढीठ नाला

छू रहा है

पाँव देहरी के

पाँव भारी

हो गये हैं

घर की महरी के

 

हो रहा है मेल

धरती गगन खनकी

चूड़ियों में बज रही बरसात।

 

फुदकती है

बूँद चिड़िया

खेत पकड़े हाथ

आँजती है

झील काजल

बादलों के साथ

 

नदिया का आँचल

हुआ मैला है जो

बाढ़ लाकर धो रही बरसात।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 65 ☆ परिंदों की चहक शीतल पवन  पूरब दिशा स्वर्णिम… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “परिंदों की चहक शीतल पवन  पूरब दिशा स्वर्णिम“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 65 ☆

✍ परिंदों की चहक शीतल पवन  पूरब दिशा स्वर्णिम… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

मदद को मुफ़लिसों की हाथों को उठते नहीं देखा

किसी भी शख़्स को इंसान अब बनते नहीं देखा

हवेली को लगी है आह जाने किन गरीबों की

खड़ी वीरान है इंसां कोई  रहते नहीं देखा

 *

हमारे रहनुमा की हैसियत आवाम  में क्या है

कभी किरदार मैंने इतना भी गिरते नहीं देखा

 *

किसी की आह लेकर ज़र जमीं कब्ज़े में मत लेना

गलत दौलत से मैंने घर कोई हँसते नहीं देखा

 *

परिंदों की चहक शीतल पवन  पूरब दिशा स्वर्णिम

वो क्या जानें जिन्होंने सूर्य को उगते नहीं देखा

 *

तो फिर किस बात पर हंगामा आरायी जहां भर में

इबादतगाह जब तुमने कोई ढहते नहीं देखा

 *

जहां में जो भी आया है हों चाहे ईश पैग़ंबर

समय की मार से उनको यहाँ बचते नहीं देखा

 *

बनेगा वो कभी क्या अश्वरोही एक नम्बर का

जिसे गिरकर दुबारा अस्प पे चढ़ते नहीं देखा

 *

पड़ेगें कीड़े पड़ जाते है जैसे गंदे पानी में

विचारों को अगर पानी सा जो बहते नहीं देखा

 *

बड़े बरगद की  छाया से अरुण कर लो किनारा तुम

कि इसके नीचे रहने वाले को बढ़ते नहीं देखा

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ रिश्ता ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

(डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के नोबल कॉलेज में प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, दो कविता संग्रह, पाँच कहानी संग्रह,  एक उपन्यास (फिर एक नयी सुबह) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आपका उपन्यास “औरत तेरी यही कहानी” शीघ्र प्रकाश्य। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता रिश्ता।)  

☆ कविता ☆ रिश्ता ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

रिश्ता होता है कच्चा धागा,

टूट्ते ही चटखाए,

मत टूटने देना धागे को,

यह धागा है प्रेम संबंध का,

ध्यानकेंद्रित कर मानव,

संजोए रखना है इसे,

एक रिश्ता है प्रभु के साथ भी,

मत भूलना कभी भी…

कर्मो का लेखा कर भेजता है,

मत डर चैतन्य प्रभु से,

डरना है सही अर्थों में…

अपने बुरे कर्मों से,

हर बात का है लेखा-जोखा,

अंतर्यामी है प्रभु,

ज्ञात है हर अंतःस्थ की बात,

एक अटूट रिश्ता बना उससे,

एक पूजा का रिश्ता,

नहीं उम्मीद उसे पूजा की भी

बस मात्र दिल से पुकार,

रिश्ता दो तरह का है होता,

दिल और खून का…

स्वयं में परिपूर्ण होकर,

निभाना है हर रिश्ता,

रिश्ता होता है अनंत,

बना एक गहरा रिश्ता,

मत उलझ रिश्तों के ताने-बाने में,

काँटों का होना है स्वाभाविक,

फूल की कोमलता का,

पता कैसे चलता?

हम कठपुतली है

खेल रहा मात्र ईश्वर,

प्रभु को पुकार,

नहीं छोड़ेगा साथ कभी

साथ देगा वह निरंतर

बुरे या अच्छे कर्मों को

निभाता है वह मात्र वह

कीचड़ में कमल की…

तरह रहना है मानव !

एक दृढ़ रिश्ता बनाना,

परवरदीगार से…

रखवाली करता हर इन्सान की,

धानी का रंग भर देता,

जिंदगी में भरोसा कर,

प्रेम ईश्वर से कर,

कभी स्वयं न दूर करेगा,

हर मुश्किल में थामेगा हाथ,

आगे बढ़ मत सोच,

इतना किसी भी…

रिश्ते के बारे में,

मत पूछ क्या कहलाता है,

यह रिश्ता….

बस निभाता चला जा राही,

न तेरा न मेरा हम सबका,

रिश्ता है अनमोल।

© डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

संपर्क: प्राध्यापिका, लेखिका व कवयित्री, हिन्दी विभाग, नोबल कॉलेज, जेपी नगर, बेंगलूरू।

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 62 – चातक व्रत का वरण किया है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – चातक व्रत का वरण किया है।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 62 – चातक व्रत का वरण किया है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

शायद तुमने स्मरण किया है 

रातों को जागरण किया है

*

कुशगुन के करील क्यों आये 

जब शुभ हस्तांतरण किया है

*

था सुखान्त सम्पूर्ण कथानक 

क्यों दुखान्त संस्करण किया है

*

यह वक्रोक्ति समझ ना आये 

कठिन, प्रणय व्याकरण किया है

*

परकीयक आरोप मढ़ो मत 

चातक व्रत का वरण किया है

*

पल में, पिघल जाएगा, जो यह 

पत्थर अंतःकरण किया है

*

मैं रूठा, तो पछताओगे 

अब तक तो संवरण किया है

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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