श्री आशीष कुमार
Retired दोपहर
कविता, गजल, शायरी आदि।
श्री आशीष कुमार
Retired दोपहर
हेमन्त बावनकर
तिरंगा अटल है
अचानक एक विस्फोट होता है
और
इंसानियत के परखच्चे उड़ जाते हैं
अचानक
रह रह कर ब्रेकिंग न्यूज़ आती है
सोई हुई आत्मा को झकझोरती है
सारा राष्ट्र नींद से जाग उठता है
सबका रक्त खौल उठता है
सारे सोशल मीडिया में
राष्ट्र प्रेम जाग उठता है
समस्त कवियों में
करुणा और वीर रस जाग उठता है।
देखना
घर से लेकर सड़क
और सड़क से लेकर राष्ट्र
जहां जहां तक दृष्टि जाये
कोई कोना न छूटने पाये।
शहीदों के शव तिरंगों में लपेट दिये जाते हैं
कुछ समय के लिए
राजनीति पर रणनीति हावी हो जाती है
राजनैतिक शव सफ़ेद चादर में लपेट दिये जाते हैं
तिरंगा सम्मान का प्रतीक है
अमर है।
सफ़ेद चादर तो कभी भी उतारी जा सकती है
कभी भी।
शायद
सफ़ेद चादर से सभी शहीद नहीं निकलते।
हाँ
कुछ अपवाद हो सकते हैं
निर्विवाद हो सकते हैं
गांधी, शास्त्री, अटल और कलाम
इन सबको हृदय से सलाम।
समय अच्छे अच्छे घाव भर देता है
किन्तु,
समय भी वह शून्य नहीं भर सकता
जिसके कई नाम हैं
पुत्र, भाई, पिता, पति ….
और भी कुछ हो सकते हैं नाम
किन्तु,
हम उनको शहीद कह कर
दे देते हैं विराम।
परिवार को दे दी जाती है
कुछ राशि
सड़क चौराहे को दे दिया जाता है
अमर शहीदों के नाम
कुछ जमीन या नौकरी
राष्ट्रीय पर्वों पर
स्मरण कर
चढ़ा दी जाती हैं मालाएँ
किन्तु,
हम नहीं ला सकते उसे वापिस
जो जा चुका है
अनंत शून्य में।
समय अच्छे-अच्छे घाव भर देता है
जीवन वैसे ही चल देता है
ब्रेकिंग न्यूज़ बदल जाती है
सोशल मीडिया के विषय बदल जाते हैं
शांति मार्च दूर गलियों में गुम जाते हैं
कविताओं के विषय बदल जाते हैं।
तिरंगा अटल रहता है
रणनीति और राजनीति
सफ़ेद कपड़ा बदलते रहते हैं।
गंगा-जमुनी तहजीब कहीं खो जाती है
रोटी कपड़ा और मकान का प्रश्न बना रहता है
जिजीविषा का प्रश्न बना रहता है।
खो जाती हैं वो शख्सियतें
जिन्हें आप महामानव कहते हैं
उन्हें हम विचारधारा कहते हैं
गांधी, शास्त्री, अटल और कलाम
जिन्हें हम अब भी करते हैं सलाम।
© हेमन्त बावनकर
श्री विवेक चतुर्वेदी
नर्मदा – विवेक की कविता
(प्रस्तुत है जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी की एक भावप्रवण कविता – श्री जय प्रकाश पाण्डेय)
© विवेक चतुर्वेदी
सुश्री मीनाक्षी भालेराव
वैलेन्टाइन डे
(कवयित्री सुश्री मीनाक्षी भालेराव जी की वैलेन्टाइनडे पर एक मार्मिक एवं भावप्रवण विशेष कविता।)
© मीनाक्षी भालेराव, पुणे
श्री सदानंद आंबेकर
ब च प न
(श्री सदानंद आंबेकर,गायत्री तीर्थ शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण से जुड़े हैं एवं गंगा तट पर 2013 से निरंतर प्रवासरत हैं । )
डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल
यहाँ सब बिकता है
(प्रस्तुत है डॉ उमेश चंद्र शुक्ल जी की एक बेहतरीन गजल)
खुला नया बाज़ार यहाँ सब बिकता है,
कर लो तुम एतबार यहाँ सब बिकता है॥
जाति धर्म उन्माद की भीड़ जुटा करके,
खोल लिया व्यापार यहाँ सब बिकता है॥
बदल गई हर रस्म वफा के गीतों की,
फेंको बस कलदार यहाँ सब बिकता है॥
दीन धरम ईमान जालसाजी गद्दारी,
क्या लोगे सरकार यहाँ सब बिकता है॥
एक के बदले एक छूट में दूँगा मैं,
एक कुर्सी की दरकार यहाँ सब बिकता है॥
सुरा-सुन्दरी नोट की गड्डी दिखलाओ,
लो दिल्ली दरबार यहाँ सब बिकता है॥
अगर चाहिए लोकतन्त्र की लाश तुम्हें,
सस्ता दूँगा यार यहाँ सब बिकता है॥
© डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल, मुंबई
डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन)
सुश्री मीनाक्षी भालेराव
रसोई
(कवयित्री सुश्री मीनाक्षी भालेराव जी का e-abhivyakti में स्वागत है।)
जब हर रोज़ रसोई घर में
कैद हो जाती है सांसें
कुछ बदल नहीं सकती हूँ
अपनी सीमाओं को तब
कभी कभी खाने में परोस
दिया करती हूँ ।
अपना भरोसे से भरा परांठा
अपनी खुशी, नाराजगी, उदासी की मिक्स सब्जी
टुटे, बिखरे, सहमे ख्यालों का पुलाव
कभी तीखे, खट्टे, रूखे स्वभाव को
ढेर सारा उंडेल कर
बेस्वाद, बदहजमी वाला खाना
कभी-कभी खाने में परोस देती हूँ ।
खाने की टेबल पर बिछा देतीं हूँ
अपनी अधुरी महत्वाकांक्षाएं से बुना
टेबल क्लोथ
खाली ग्लास में भर देती हूँ
उम्मीदों का पानी ।
थाली, कटोरी, चम्मच जब सब को
भर देती हूँ
अपनी आंखों की नमीं से
मुंह में कैद हुऐ अलफाजों से
कुछ गीले लम्हों से
और थोड़ी सी खामोशी से
तब अस्तित्व टूट कर टेबिल के
नीचे बिखर जाता है
जूठन सा और
आत्मविश्वास सहम जाता है
खरखट सा हो जाता है ।
© मीनाक्षी भालेराव, पुणे
सुश्री गुंजन गुप्ता
(युवा कवयित्री सुश्री गुंजन गुप्ता जी का e-abhivyakti में स्वागत है।)
गीत
मैं चन्दा की धवल चांदनी,
तू सिन्दूरी शाम पिया।
मन्द-मन्द अधरों में पुलकित,
तू मेरी मुस्कान पिया॥
जैसे ब्रज की विकल गोपियाँ,
उलझ गयी हों सवालों में।
जैसे तम के दिव्य सितारे,
गुम हो जाएँ उजालों में।
बेसुध हो जाऊँ जिस मधुर-मिलन में,
तू ऐसी मुलाक़ात पिया॥
संदली स्वप्न की मिट्टी में,
बोकर अपने जीवन मुक्ता को।
भावों की नयी कोपलों को,
सींचा नित नयनों के जल से।
भीग जाऊँ जिस प्रेम सुधा से,
तू ऐसी बरसात पिया॥
मैं चन्दा की धवल चांदनी
तू सिन्दूरी शाम पिया।
मन्द-मन्द अधरों में पुलकित
तू मेरी मुस्कान पिया॥
© सुश्री गुंजन गुप्ता
गढ़ी मानिकपुर, प्रतापगढ़़ (उ प्र)
सुश्री नूतन गुप्ता
पेंसिल की नोक
(संयोग से इसी जमीन पर इसी दौरान एक और कविता की रचना श्री विवेक चतुर्वेदी जी द्वारा “पेंसिल की तरह बरती गई घरेलू स्त्रियां“ के शीर्षक से रची गई। मुझे आज ये दोनों कवितायें जिनकी अपनी अलग पहचान है, आपसे साझा करने में अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है।
प्रस्तुत है सुश्री नूतन गुप्ता जी की भावप्रवण कविता ।)
© नूतन गुप्ता