हिन्दी साहित्य – कविता – वे अद्भुत क्षण! – श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

वे अद्भुत क्षण!

याद करें

वे अद्भुत क्षण?

जिन्हें आपने बरसों सँजो रखे हैं

सबसे छुपाकर

बचपन के जादुई बक्से में,

डायरी के किसी पन्ने में,

मन के किसी कोने में,

एक बंद तिजोरी में।

 

जब कभी

याद आते हैं,

वे अद्भुत क्षण?

 

तब कहीं खो जाता है।

वो बचपन का जादुई बक्सा,

वो डायरी का पन्ना,

वो बंद तिजोरी की चाबी

होने लगती है बेताबी।

 

साथ ही

खोने लगता है

वो मासूम बचपना

वो अल्हड़ जवानी

और लगने लगती है

सारी दुनिया सयानी।

 

भीग जाता है

वो मन का कोना

वो आँखों का कोना।

 

बरबस ही

याद आ जाते हैं

वे अद्भुत क्षण!

 

जब थी रची

सबसे प्रिय कृति

कविता, संस्मरण,

व्यंग्य, लेख, कहानी

और

खो गई है उनकी प्रति।

 

जब था उकेरा

साफ सुथरे केनवास पर,

विविध रंगों से सराबोर,

मनोभावों का बसेरा।

 

जब था रखा

मंच/रंगमंच पर प्रथम कदम

और

साथ कोई भी नहीं था सखा।

तालियाँ सभी ने थी बजायीं

किन्तु,

स्वयं को स्वयं ने ही था परखा।

 

यह मेरी प्रथम

अन्योन्यक्रियात्मक (Interactive) कविता है

जो

आपसे सीधा संवाद करती है।

मनोभावों की शब्द सरिता है

किन्तु,

आपसे बहुत कुछ कहती है।

 

ई-अभिव्यक्ति के मंच पर

आपसे उपहार स्वरूप

आपकी सबसे प्रिय कृति लानी है।

जो मुझे

आपकी जुबानी

सारी दुनिया को सुनानी है।

 

© हेमन्त बावनकर

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हिन्दी साहित्य – कविता – चिड़िया – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

जय प्रकाश पाण्डेय

 

चिड़िया

 

जब चिड़िया फुदकती है,
तो नहीं पूछो उसकी जाति,

जब चिड़िया चहकती है,
तो नहीं पूछो उसका धर्म,

चिड़िया पंख पसारती है,
तो नहीं पूछो वो मकसद,

चिड़िया हमारे मन में,
पैदा करती है उड़ने का भ्रम,

चिड़िया हमें सिखाती है,
घोंसले बनाने जैसा परिश्रम,

चिड़िया धर्म नहीं मानती,
चुगती है दाना बनाके झुंड,

चिड़िया उदास नहीं होती,
घोंसला टूटने के बाद,

फिर से हौसला बढ़ाती है,
उत्साह से हर तिनके साथ,

© जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – जिन्दगी का गणित – श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

जिंदगी का गणित 

वैसे भी
मेरे लिए
गणित हमेशा से
पहेली रही है।

बड़ा ही कमजोर था
बचपन से
जिंदगी के गणित में।
शायद,
जिंदगी गणित की
सहेली रही है ।

फिर,
ब्याज के कई प्रश्न तो
आज तक अनसुलझे हैं।

मस्तिष्क के किसी कोने में
बड़ा ही कठिन प्रश्न-वाक्य है
“मूलधन से ब्याज बड़ा प्यारा होता है!”
इस
‘मूलधन’ और ‘ब्याज’ के सवाल में
‘दर’ कहीं नजर नहीं आता है।
शायद,
इन सबका ‘समय’ ही सहारा होता है।

दिखाई देने लगता है
खेत की मेढ़ पर
खेलता – एक छोटा बच्चा
कहीं काम करते – कुछ पुरुष
पृष्ठभूमि में
काम करती – कुछ स्त्रियाँ
और
एक झुर्रीदार चेहरा
सिर पर फेंटा बांधे
तीखी सर्दी, गर्मी और बारिश में
चलाते हुये हल।

शायद,
उसने भी की होगी कोशिश
फिर भी नहीं सुलझा पाया होगा
इस प्रश्न का हल।

आज तक
समझ नहीं पाया
कि
कब मूलधन से ब्याज हो गया हूँ ?
कब मूलधन से ब्याज हो गया है ?

यह प्रश्न
साधारण ब्याज का है?
या
चक्रवृद्धि ब्याज का है?

मूलधन किस पीढ़ी का है ?
और
उसे ब्याज समेत चुकाएगा कौन?
और
यदि चुकाएगा भी
तो किस दर पर
और
किसके दर पर ?

© हेमन्त बावनकर

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हिन्दी साहित्य – कविता – अर्जुन सा जनतंत्र…. मायावी षडयंत्र – डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

अर्जुन सा जनतंत्र…. मायावी षडयंत्र 

अभिलाषाएं  अनगिनत,  सपने  कई हजार

भ्रमित मनुज भूला हुआ, कालचक्र की मार।

 

दोहरा जीवन जी रहे,सुविधा भोगी लोग

स्वांग संत का दिवस में,रैन अनेकों भोग।

 

पानी पीते छानकर, जब हों बीच समाज

सुरा पान एकान्त में, बड़े – बड़ों  के राज।

 

यदि योगी नहीं बन सकें, उपयोगी बन जांय

दायित्वों के साथ में, परहित कर सुख पांय।

 

रामलीला में राम का अभिनय करता खास

मात – पिता को दे दिया, उसने ही वनवास।

 

सभी मुसाफिर है यहाँ,जाना है कहीं ओर

मंत्री  –  संत्री, अर्दली,  साहूकार  या  चोर।

 

लगा रहे हैं कहकहे, कर के वे दातौन

मटमैली सी  देहरी, सकुचाहट में मौन।

 

मोहपाश में है घिरा , अर्जुन सा जनतंत्र

कौरव दल के  बढ़ रहे, मायावी षडयंत्र।

 

बदल रही है बोलियां, बदल रहे हैं ढंग

बौराये से सब लगे, ज्यों  खाएं हो भंग।

 

ठहर गई है  जिंदगी,  मौन  हो  गए  ओंठ

रुके पांव उम्मीद के, गुमसुम गुमसुम चोट।

 

भूल  गए  सरकार जी, आना  मेरे  गाँव

छीन ले गए साथ मे, मेल-जोल सद्भाव।

 

शकुनि  से   पांसे  चले, ये   सरकारी   लोग

तबतक खुश होते नहीं,जबतक चढ़े न भोग।

 

जब से मेरे गाँव में, पड़े शहर के पांव

भाई  चारे प्रेम के, बुझने लगे अलाव।

 

लिखते – पढ़ते, सीखते, बढ़े आत्मविश्वास

मंजिल पर पहुंचे वही, जिसने किए प्रयास।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

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हिन्दी साहित्य – कविता – दीप पर्व / दीवाली (दो कवितायें) – डॉ.राजकुमार “सुमित्र”

डॉ.राजकुमार “सुमित्र”

दीप पर्व

दीप पर्व का अर्थ है,  जन मन भरो उजास ।

केवल अपना ही नहीं ,सबका करो विकास।।

 

दीप उजाला बांटकर ,  देता है   संदेश ।

अपना हित साधो मगर, सर्वोपरि हो देश।।

 

बांध ,रेल, पुल में नहीं, अपना  हिंदुस्तान ।

सच्चे मन से देख  ले ,बच्चों की मुस्कान।।

 

नारे व्यर्थ विकास के, भाषण सभी फिजूल।

हंसते गाते यदि  नहीं ,  बच्चों  के   स्कूल ।।

 

दाता ने हमको  दिये, अन्न ,वस्त्र ,  स्कूल  ।

देश देवता को करें, अर्पित जीवन फूल ।।

 

एक अंधेरा  उजाला , किंतु नहीं है मित्र ।

सदभावों की सुरभि से ,होंगे सभी सुमित्र।।

 

© डॉ.राजकुमार “सुमित्र”



दीवाली

 

दीवाली की दस्तकें, दीपक की पदचाप।

आओ खुशियां मनायें,क्यों बैठे चुपचाप।।

 

अंधियारे की शक्ल में, बैठे कई सवाल ।

कर लेना फिर सामना ,पहले दीप उजाल।।

 

कष्टों का अंबार है ,दुःखों का अंधियार ।

हम तुम दीपक बनें तो ,फैलेगा  उजियार ।।

 

© डॉ.राजकुमार “सुमित्र”

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हिन्दी साहित्य – कविता – दीपों की मौन अभिव्यक्ति – श्री हेमन्त बावनकर

दीपों की मौन अभिव्यक्ति

आज से हम सबके घर-आँगन प्रकाशोत्सव दीपावली पर्व के पावन अवसर पर जगमगाने लगे हैं। किन्तु, ऐसे भी कुछ घर-आँगन हैं जो उनकी बाट जोह रहे हैं जो सीमा पर शहीद हो गए हैं और कभी लौट के नहीं आएंगे। उन समस्त परिवारों को नमन एवं वीरों को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए मेरे काव्य संग्रह “शब्द ….. और कविता” में प्रकाशित एक कविता “दीपों की मौन अभिव्यक्ति”।

 

 

 

 

 

 

 

 

मराठी मित्र मंडल, फ़्रांकेन जर्मनी द्वारा एर्लांगेन शहर में रविवार 22 अक्तूबर 2017 को दीपावली समारोह के आयोजन के अवसर पर मेरी काव्य प्रस्तुति ‘दीपों की मौन अभिव्यक्ति’ का विडियो लिंक निम्न है:

विडियो लिंक – दीपों की मौन  अभिव्यक्ति

© हेमन्त बावनकर

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हिन्दी साहित्य – कविता – मकड़-जाल – श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा
मकड़-जाल। 
(दीपावली  पर तन्हा दम्पत्ति को समर्पित)
संतान! हाँ संतान की हर उम्र की
होतीं अलग-अलग समस्याएँ
शैशव, बचपन, किशोर, युवा, प्रौढ़
रेशमी धागे हैं एक जाल के
देखा है हर माँ-बाप ने पाल कर।
परेशानियों से लड़ते
पल-पल क्षण-प्रतिक्षण
उलझते, सुलझते
एक-एक क़दम रखते
वे संभाल-संभाल कर।
संतान को समस्या की तरह
समस्या को संतान की तरह
उलट-पुलट कर परखते
बढ़िया से बढ़िया हल ढूँढते
हर नज़र से देख भाल कर।
दिक़्क़तों पर दिक़्क़तें सुलझाते
तन मन धन से
सुलगते देह दिमाग़ से
सब जानते समझते
उलझते जाते जान कर।
भुनभुनाते खीझते चिल्लाते
उलझते जाते महीन रेशों में
ख़ुद के बनाए घरोंदे में
गुज़ारते समय
एक-एक साल कर।
उन्हें जीवन देने में
फिसलती जाती
जीवन मुट्ठी से रेत
रीते-हाथ थके-पाँव
बैठे अब निढ़ाल कर।
लड़का-बहु अमेरिका में व्यस्त
बेटी-दामाद बैंगलोर में मस्त
हम अपने बुने जाल में क़ैद
सूनी दीवारों पर तैर रहे
साँस संभाल-संभाल कर।
हाँ! हम मकड़ी हैं
बुनते मोह का ख़ुद जाल
उलझते जाते उसमें
धन दौलत भाव तृष्णा
अकूत डालकर।
बचपन की बगिया में
जवानी की खटिया में
कमाई के कोल्हू में
बुने थे जो ख़्वाब
बिखर गए निस्सार कर।
© सुरेश पटवा

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हिन्दी साहित्य – कविता – शामियाना/छोड़ चक्कर – डॉ भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(1)

शामियाना 

शामियाने के होते

है कई रूप

मिल गया मुझे मेरे अनुरूप

जब से मिल गया

तेरा शामियाना

सुकून और चैन

छा गया मेरे आँगना।

तन मन हो गया

सभी का प्रफुल्लित

हो गई तेरी कृपा

दिन रात तुझे ही जपा।

हम सबको

सूरज देता है प्रकाश

छाया है शामियाना आकाश

धरती पर उतरती है

धीरे-धीरे रूप की

सुनहरी धूप

छाया है नूर का सुरूर

जब तक है तेरा शामियाना

तब तक अस्तित्व है हुजूर।

प्रभु तेरे शामियाने का

अनोखा है रूप

कभी ओलो की बरसात

कभी फसलें दुखी

कभी फसलें सुखी

कभी बरसता अमृत रूपी पानी

कभी धरती होती धानी

तेरे शामियाने के रूप

हैं अनूप।

दीवाली में लगते है

हर जगह शामियाने

कहीं मिठाई

कहीं पटाखे

कहीं मचती है नृत्य की धूम

कहीं राम नाम की धुन

शामियाने के रूप अनेक

जब तक हैं धरती पर पांव

रहेगी हम पर तेरी छाँव।

© डॉ भावना शुक्ल

 

(2)

छोड़ चक्कर 

शामियाने

उखड़े-गड़े

छोटे बड़े ।

शामियाना लगा है तो

वाह है

शामियाना मिले हमको

यह सभी की चाह है

किंतु

खाली शामियाना क्या करेगा

खाली हुई गुण संपदा

कहां से लाकर भरेगा

छोड़ चक्कर

शमियानों का

मचानो का

ख्याल कर ले

भूख से जर्जर

मकानों का ।

© डॉ भावना शुक्ल

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हिन्दी साहित्य – कविता – नाखुश-खुश। – श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा
नाख़ुश-ख़ुश। 
ज़िंदगी में बहुत है ऐसा कुछ
जो है नाख़ुश
लेकिन बहुत कुछ और भी है
अनचीन्हा अलसाया सा
अनदेखा लावारिस ख़ुश
छिटका हुआ
नज़र की अयाल पर
समय के भाल पर।
ज़िंदगी मियादी जमा में
बढ़ती रक़म का अंबार तो नहीं,
जिलेटिंन में सजी दवाइयों
की गिनतियों का जोड़ तो नहीं,
सुई की नौक पर
सहमा अहसास तो नहीं
सिमट जाएँ जिसमें सांसें
उलझ जाए दिमाग़
सूख जाएँ रिश्ते
छीज जाए सृजन
देखो नज़र डाल कर।
बहती हवा, उड़ते परिंदे, बहते झरने
रिमझिम बारिश की बूँदें
दोस्तों के ठहाके, रिश्तों की महक
बिछड़ों की कसक
पुराने गानों की महीन धुन
साँसों में घुली सुबह की ख़ुश्बू
दिन भर की थकान
शाम के धुँधलके की उदासी
रात की जागती हुई बेचैनी
अच्छी नींद के बाद का सुकून
पेट में पैदा होती अच्छी भूख
परस में आते गरम-गरम फुल्के
मनपसंद सब्ज़ी का पहला कौर
ऐसे कई हैं जीवन के ठौर
हमारे अहसास के भूखे
जिनके सायों में छुपे मर्म
वो देखो ठिठके से खड़े हैं
दिल की दहलीज़ पर
जकड़ लो उन्हें भींच कर।
© सुरेश पटवा

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हिन्दी साहित्य – कविता – मैं दीपक था  – डॉ.राजकुमार “सुमित्र”

डॉ.राजकुमार “सुमित्र”

मैं दीपक था 

 

मैं दीपक था किंतु जलाया

चिंगारी की  तरह    मुझे

इतना बहकाया है तुमने

छल लगती है सुबह मुझे ।

तुमने समझा हृदय खिलौना

खेल समझ कर छोड़ दिया

कभी देवता सा    पूजा  तो

कभी स्वप्न-सा तोड़ दिया ।

जन्म मृत्यु की आंख मिचौनी

और ना   अब  मुझसे  खेलो

बहुत बहुत पीड़ा तन मन की

कुछ मैं ले लूं कुछ तुम   झेलो।

© डॉ.राजकुमार “सुमित्र”

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