हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – वह ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  वह  ? ?

(16)

वह परिभाषित

नहीं करती यौवन को,

यौवन उससे

परिभाषित होता है,

वह परिभाषा को

यौवन प्रदान करती है!

 

(17)

वह जानती है

बोलते ही ‘देह’

हर आँख में उभरता है

उसका ही आकार,

इस आकार को मनुष्य

सिद्ध करने के मिशन में

सदियों से जुटी है वह!

 

(18)

वह माँजती है बरतन,

चमकाती है बरतन,

धरती को

महापुरुषों की चमक

उसीके बूते मिली है!

 

(19)

वह बुहारती है झाड़ू,

सारा कचरा

घर से बाहर निकालती है,

मन की शुचिता के सूत्र

उसीने दिये हैं!

 

(20)

वह धोती है कपड़े,

फटकारती है कपड़े,

निचोड़ती है कपड़े,

ज्ञान के आदिसूत्र

उसकी ही देन हैं!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

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अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 179 ☆ # “रिश्ते और दर्द” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “रिश्ते और दर्द”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 179 ☆

☆ # “रिश्ते और दर्द” #

जब कभी चलते चलते

जीवन रूक जाता है

सांस का तूफान

दर्द में छुप जाता है

जब जीवन का अर्थ

समझ में आता है

तब अहंकार का भरम

अचानक टूट जाता है

 

चाहे कितना भी बलशाली हो

आंखों में धन की हरियाली हो

जब देखते देखते टूटतीं हैं सांसें

तब लगता है हाथ कितने खाली हैं  

 

हर पल जिनके लिए जीते हैं

दुःख दर्द जिनके लिए पीते हैं

वो ही जब फेर लेते हैं आंखें

कांपते होठों को

मजबूरी में सी लेते हैं

 

किससे कोई फरियाद करें

किसको बताएं ,

किसको याद करें

किसको अब हमारी परवाह है

कोई क्यों अपना समय बर्बाद करें

 

रिश्ते भी यहां पर अजीब हैं

कौन किसके यहां कितने करीब हैं

परस्पर देते हैं

एक दूसरे को धोका

रिश्ते निभ जाये तो

उसका नसीब है

 

रिश्तों और दर्द का संबंध

बहुत पुराना है

इस मे बंधा हुआ

सारा ज़माना है

मौत भी इनको

जुदा नहीं करती

हर जगह गूंजता  

यही तराना है /

*

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 189 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 189 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 189) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com.  

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 189 ?

☆☆☆☆☆

उनके हाथों में मेहंदी लगाने

का यह फायदा हुआ

कि रात भर हम उनके

चेहरे से ज़ुल्फ हम हटाते रहे..

☆☆

The advantage of applying mehndi 

On her hands was that I kept on

Removing the tufts of hair from 

Her face throughout the night…

☆☆☆☆☆

अगर इश्क़ करो तो

अदब ए  वफ़ा भी सीखो

ये चंद दिनों की बेकरारी

मोहब्बत नहीं होती..

☆☆

If you love someone then

Learn to practise loyalty too

A few days of restlessness

Is not construed as love…!

☆☆☆☆☆

तेरी एक झलक ही काफ़ी 

है जीने के लिए पर दिल का 

मोह ही है सारी उम्र मिल 

जाये तो भी कम है

☆☆

Your one glimpse alone is

Just enough to live for but it’s the 

Fascination of heart that finds

It less even if it get entire lifetime

☆☆☆☆☆

कर्ज़ होता तो

उतार  भी देते

कमबख्त इश्क़ था

बस चढ़ा ही रहा…!

☆☆

If it was a loan

Would’ve paid it off

But this wretched love

Just kept piling up…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 188 ☆ दोहा मुक्तिका ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है दोहा मुक्तिका…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 188 ☆

☆ दोहा मुक्तिका ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

झुरमुट से छिप झाँकता, भास्कर रवि दिननाथ।

गाल लाल हैं लाज से, दमका ऊषा-माथ।।

*

कागा मुआ मुँडेर पर, बैठ न करता शोर।

मन ही मन कुछ मानता, मना रहे हैं हाथ।।

*

आँख टिकी है द्वार पर, मन उन्मन है आज।

पायल को चुप हेरती, चूड़ी कंडा पाथ।।

*

गुपचुप आ झट बाँह में, भरे बाँह को बाँह।

कहे न चाहे ‘छोड़ दो’, देख न ले माँ साथ।।

*

कुकड़ूँ कूँ ननदी करे, देवर देता बाँग।

बीरबहूटी छुइमुई, छोड़ न छोड़े हाथ।।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

९.४.२०१५

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – वह ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  वह  ? ?

(11)

वह खीझती है,

इस खीझ में

होती है तपिश

सर्द पड़तेे रिश्तों को

गरमाने की!

 

(12)

वह उत्तर नहीं देती,

प्रश्न जानते हैं

उत्तर आत्मसात

रखने की उसकी क्षमता,

प्रश्न, निरुत्तर हो जाते हैं!

 

(13)

वह सींचती है

तुलसी चौरा,

जानती है

शालिग्राम को

बंधक बनाने की कला!

 

(14)

वह बनाती है रसोई,

देह में समाकर

देह को अस्तित्व देकर,

देह को सिंचित, पोषित कर

गढ़ती है अगली पीढ़ी!

 

(15)

वह जलाती है लकड़ी

फूँकती है चूल्हा,

आग में तपकर

कुंदन होती है वह!

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #238 – 123 – “क़यामत एक दिन तो लाज़िमी है,…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल क़यामत एक दिन तो लाज़िमी है…”)

? ग़ज़ल # 123 – “ क़यामत एक दिन तो लाज़िमी है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

बहर में  रहता मुसव्विर तेरा,

लहर में  रहता तसव्वुर तेरा।

*

फ़लक पर चमक होती है तुझसे,

तुझे रोशन करता मुनव्वर तेरा।

*

क़यामत एक दिन तो लाज़िमी है,

तेरी  राह  देखे  मुंतज़िर  तेरा।

*

जो हो सके तू मुकम्मिल ग़ज़ल,

हर महफ़िल में हो मुक़र्रर तेरा।

*

तू गुम किस ख़्याल में रहता है,

तुझे ढूँढ़े  आतिश दरबदर तेरा।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 116 ☆ मुक्तक – ।। क्रोध,बुद्धि का हरण,रिश्तों का क्षरण।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 116 ☆

☆ मुक्तक – ।। क्रोध,बुद्धि का हरण,रिश्तों का क्षरण।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

दूसरों की गलती सजा खुद को देने का काम है।

आपका धैर्य बुद्धि   विवेक   हो जाता बेनाम है।।

क्रोध नुकसान पहले करताअंदाजा होता बाद में।

गुस्सा केवल एक   पागलपन का दूसरा नाम है।।

[2]

हताशा की अभिव्यक्ति  ही  गुस्सा बन जाता है।

अहम दंभ का   अंधकार   गुस्सा बन जाता है।।

क्षमा करना क्षमा मांग लेना क्रोध करता खत्म।

नही तो नफरत अहंकार   गुस्सा बन जाता है।।

[3]

क्रोध में  व्यक्ती   खुद का ही अहित करता है।

गुस्से का मूल्य   भविष्य   में  मनुष्य भरता है।।

क्रोध की आग आंधी आपका घर नही छोड़ती।

क्रोध से हर  रिश्ता  बस   धीरे धीरे झरता है।।

[4]

क्रोध का अपना ही   एक खानदान होता है।

घृणा राग  द्वेष  ईर्ष्या  और अपमान होता है।।

मनचाहा न होने से अनचाहा करा देता है गुस्सा।

क्रोध में सोच से परे  अदृश्य नुकसान होता है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 178 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – अभी भी बहुत शेष है ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “अभी भी बहुत शेष है। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘अनुगुंजन’ से – अभी भी बहुत शेष है ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

मंजिले पार करते हुये नित नई जिंदगी आज इस ठौर तक आ गई ।

राह फिर भी अभी भी बहुत शेष है इन चरण के चिरन्तन चलन के लिये ।। १ ।।

*

राह में मोड़ आये, चौराहे मिले कई उतारों-चढ़ावों के भी सिलसिले ।

कुछ तो सीखा है, फिर भी बहुत शेष है मौन मन के निरन्तर मनन के लिये ।। २ ।।

*

सड़कें चिकनी औ’ चौड़ी चमकदार हैं फिर भी कचरों औ’कांटों के अम्बार हैं।

रोशनी कम अँधेरा बहुत शेष है दूर करने अभी भी, किरण के लिये ।। ३ ।।

*

आये दिन सुख के नये लाखों साधन बने लोग फिर भी हैं सहमें, डरे अनमने ।

सीखना सबको अब भी बहुत शेष है रीति नई. प्रीति के आचरण के लिये ।। 8 ।।

*

पर लगा, आदमी बहुत उड़ने लगा छोड़ धरती सितारों से जुड़ने लगा ।

पर समझना सभी को बहुत शेष है यह धरा ही है जीवन मरण के लिये ।। ५ ।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ पुल- विश्वास का ☆ डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक ☆

डॉ जसप्रीत कौर फ़लक

कविता – पुल- विश्वास का ☆ डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक 

पहले

हमारे बीच बहुत गहरा रिश्ता था

प्रेम की नदी पे  बने

     विश्वास के पुल की तरह

 

उस पुल से हम

     देखा करते थे

कभी इन्द्र धनुष के रंग

     कभी ढलती शाम

 

कभी दूर

आलिंगन करते

    पंछियों को

उड़ते बादलों को

उसी पुल पे खड़े सुना करते थे

    मधुर लहरों का संगीत

 

तुम्हारे बाल उड़ा करते थे

महकी हवाओं में

     कितने प्रश्न हुआ करते थे

तुम्हारे होंठों पर…

 

      तुम उकताई हुई

रोज़मर्रा के जीवन से

       देखती रहतीं

खुला आकाश

 

        मेरा हाथ पकड़े

ढूँढतीं कोई अदृश्य सी राह…

 

  …..आज रिश्ता वही है

मगर…उस पे

अविश्वास की धूप अधिक है

 

          क्या

तुम्हें भी कभी लगा ऐसा..?

          या यूँ ही  मेरे मन में

यह ख़याल आता है

 

कभी सोचो

    क्या तुम

अब भी खड़ी हो

उसी विश्वास के पुल पर

मेरी नयी किताब लिए

        और

लहरों को सुना रही हो

मेरी नयी कविता

         उसी उमंग से

उसी तरंग से

          जो पहले तुम्हारे होंठों पे थी…

 

कहो — कुछ तो कहो…

 

क्या तुम्हें

ऐसा नहीं लगता

     कि वह पुल ढह गया है

 

 जीवन की

       यातनाओं की धुंध में

हम तुम खड़े हैं

नदी के उस पार तुम

इस पार मैं…

संवेदनाओं के

वेदनाओं के

वृक्ष से लग कर

     विवशताओं की टहनियाँ

पकड़ कर…।

☆ 

© डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक

संपर्क – मकान न.-11 सैक्टर 1-A गुरू ग्यान विहार, डुगरी, लुधियाना, पंजाब – 141003 फोन नं –  9646863733 ई मेल- [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 8 – नवगीत – बस वेदना ही वेदना है… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – बस वेदना ही वेदना है

? रचना संसार # 8 – नवगीत – बस वेदना ही वेदना है…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

लगे पैबंद कपड़ों में उनके,

फ़ीकी पड़ती आस।

गुज़र रहे दिन भी अभाव में,

खोया है विश्वास।।

 *

बस वेदना ही वेदना है,

रूठा है शृंगार।

अंग-अंग में काँटे चुभते,

चलते हैं अंगार।।

मन अधीर तृषित धरा भी,

कौन बुझाये प्यास।

 *

चीर रही उर पिक की वाणी,

कांपें कोमल गात।

रोटी कपड़ा मिलना मुश्किल,

अटल यही बस बात।।

साधन हीन हुआ उर गूँगा,

करें लोग परिहास।

 *

आग धधकती लाक्षागृह में,

विस्फोटक सामान।

अन्तस जलता घुटता दम है,

कैसा है तूफ़ान।।

हुआ अभिशप्त जीवन सारा,

चीख रही हर साँस।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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