डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – ‘फूलचन्द का बचत-प्रचार अभियान‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 269 ☆
☆ व्यंग्य ☆ फूलचन्द का बचत-प्रचार अभियान ☆
फूलचन्द भला आदमी है। उसे समाज- सेवा का ख़ब्त है। कुछ न कुछ करने में लगा रहता है। लेकिन उसकी समाज-सेवा माल-कमाऊ समाज-सेवा नहीं होती, जैसा आजकल बहुत से होशियार लोग कर रहे हैं। यानी सरकार से अनुदान लेना और समाज से ज़्यादा खुद अपना और अपने प्रिय परिवार का उत्थान करना। फूलचन्द अपना घर बिगाड़ कर समाज सेवा करता है, यानी बुद्धू और नासमझ है।
वह कभी झुग्गी-झोपड़ी वालों को परिवार-नियोजन का महत्व समझाने निकल जाता है, कभी अस्पताल जाकर मरीज़ों की सहायता में लग जाता है, कभी शहर की सफाई के लिए कोशिश में लग जाता है। सब अच्छे कामों की अगुवाई के लिए फूलचन्द हमेशा उपलब्ध है। कोई दुर्घटना होते ही फूलचन्द सबसे पहले पहुंचता है। सब पुलिस वाले, डॉक्टर, नर्सें उसे जानते हैं। संक्षेप में फूलचन्द उन लोगों में से है जिनकी नस्ल निरन्तर कम होती जा रही है।
आजकल फूलचन्द पर ख़ब्त सवार है कि लोगों को बचत के लिए समझाना चाहिए।
उसने कहीं पढ़ा है कि हमारे देश के लोग बहुत फिज़ूलखर्ची करते हैं—गहने ज़ेवर खरीदने में, फालतू संपत्ति खरीदने में, दिखावे में,अंधविश्वास में, शादी-ब्याह में, जन्म-मृत्यु में। उसका कहना है कि वह लोगों को प्रेरित करेगा कि फ़िज़ूलखर्ची रोककर अपना पैसा ऐसे कामों में लगायें जिनसे खुद उनका भी भला हो और देश का भी। उसने यह जानकारी इकट्ठी कर ली है कि किन-किन कामों में पैसा लगाना ठीक होगा।
एक दिन वह अपने अभियान पर मुझे भी पकड़ ले गया। हम जिस घर में घुसे वह दुमंजिला था। सामने ‘टी. प्रसाद’ की तख्ती लगी थी। मकान से समृद्धि की बू आती थी। वह कर्ज़- वर्ज़ लेकर मर मर कर बनाया गया मकान नहीं दिखता था। दो-तीन स्कूटर थे, झूला था, फूल थे, दीवारों पर अच्छा रंग-रोगन था।
घंटी बजाने पर सबसे पहले एक कुत्ता भौंका, जैसा कि हर समृद्ध घर में होता है। उसके बाद 50-55 की उम्र के एक सज्जन प्रकट हुए। वे हमें ससम्मान भीतर ले गये।
भीतर भी सब चाक-चौबन्द था। रंगीन टीवी, फोन, दीवारों पर पेंटिंग। पेंटिंग शान के लिए लगयी जाती है। कई बार खरीदने वाला खुद नहीं जानता है कि उसमें बना क्या है, या वह उल्टी टंगी है या सीधी। जो जानते हैं वे उन्हें खरीद नहीं पाते।
उन सज्जन ने प्रेम से हमें बैठाया। फूलचन्द ने उन्हें अपने आने का मकसद बताया तो वे प्रसन्न हुए, बोले, ‘मैं आपकी बात से पूरा इत्तफाक रखता हूं। हमें बचत करना चाहिए, फिज़ूलखर्ची रोकना चाहिए और अपने पैसे को उपयोगी कामों में लगाना चाहिए।’ फूलचन्द प्रसन्न हुए।
वृद्ध सज्जन, जो खुद टी.प्रसाद थे, बोले, ‘मुझे आपको यह बताने में खुशी है कि मैंने इस सिद्धान्त पर जिन्दगी भर अमल किया है। आपको जानकर ताज्जुब होगा मैंने अपनी चौबीस साल की नौकरी में से बीस साल लगातार अपनी पूरी तनख्वाह बचायी है।’
सुनकर हम चौंके। फूलचन्द ने आश्चर्य से पूछा, ‘बीस साल तक पूरी तनख्वाह बचायी है?’ टी.प्रसाद गर्व से बोले, ‘हां, पूरी तनख्वाह बचायी है।’ फूलचन्द ने कहा, ‘तो आपकी आमदनी के और ज़रिये रहे होंगे।’ प्रसाद जी ने जवाब दिया, ‘नहीं जी, और ज़रिये कहां से होंगे? सवेरे दस से पांच तक दफ्तर की नौकरी के बाद ज़रिये कहां से पैदा करेंगे? फिर मैं तो संतोषी रहा हूं। ज्यादा हाथ पांव फेंकना मुझे पसन्द नहीं।’
फूलचंद ने पूछा, ‘फिर आपका खर्च कैसे चलता रहा होगा?’
प्रसाद जी बोले, ‘मेरी भी समझ में नहीं आता कि मेरा खर्च कैसे चलता रहा। सब ऊपर वाले का करिश्मा है। इसीलिए मेरी भगवान में बड़ी आस्था है।’ वे चुप होकर मुग्ध भाव से ज़मीन की तरफ देखते रहे जैसे मनन कर रहे हों। फिर बोले, ‘आपने कहानियां पढ़ी होंगी कि कैसे कोई आदमी रात को जब सोया तो गरीब था और सवेरे उठा तो अमीर हो गया। पहले मुझे ऐसी कहानियों पर यकीन नहीं होता था, बाद में जब मेरे साथ होने लगा तो यकीन हो गया। मैं सवेरे दफ्तर जाता था तो मेरी जेब में फूटी कौड़ी नहीं होती थी। शाम को कुर्सी से उठता तो हर जेब में नोट होते थे। मेज़ की दराज़ में भी नोट। मेरी खुद समझ में नहीं आता था कि ये नोट कहां से आ जाते थे। अब भी यही होता है। नतीजा यह हुआ कि अपने आप पूरी तनख्वाह बचती रही।’
फूलचन्द बोला, ‘फिर तो आपके पास बहुत पैसा इकट्ठा हो गया होगा?’
टी. प्रसाद बोले, ‘हां जी, होना ही था। मैं क्या करता? मेरा कोई बस नहीं था।’
फूलचन्द ने फिर पूछा, ‘तो फिर आपने उस बचत का क्या किया?’
टी. प्रसाद बोले, ‘उसे अलग-अलग कामों में लगाया ताकि अपना भी फायदा हो और देश की भी तरक्की हो। देश की फिक्र करना हमारा फ़र्ज़ है, इसीलिए उसका कोई गलत इस्तेमाल नहीं किया।’
फूलचंद चक्कर में था। उसका बचत- प्रचार अभियान गड़बड़ा रहा था। बोला, ‘आपकी संतानें क्या कर रही हैं?’
टी. प्रसाद ने उत्तर दिया, ‘तीन बेटे हैं जी। दो नौकरी में हैं और दोनों होनहार हैं। दोनों मेरी तरह अपनी तनख्वाह बचा रहे हैं। मुझे उन पर फख्र है। तीसरा अभी पढ़ रहा है, लेकिन मुझे पूरा यकीन है कि वह भी इसी तरह बचत करेगा और अपने पैसे का गलत इस्तेमाल नहीं करेगा।’
फूलचन्द परेशानी के भाव से बोला, ‘आपके दफ्तर में सभी ऐसी ही बचत करते हैं?’
प्रसाद जी बोले, ‘हां जी, ज्यादातर ऐसा ही करते हैं। नये लोग ज़रूर नासमझ होते हैं। उन्हें बचत के तरीके समझने में टाइम लगता है। एक दो ऐसे नासमझ भी होते हैं जो अपने कपड़ों में जेब ही नहीं रखते, मेज़ का दराज़ बन्द रखते हैं। अब उन पर प्रभु की कृपा कहां से होगी? जब लक्ष्मी के लिए दरवाजा नहीं रखोगे तो लक्ष्मी कहां से आएगी? ऐसे लोग बचत नहीं कर पाते। ऐसे लोगों से देश का कोई भला नहीं होता। सीनियर होने के नाते मैं सबको समझा ही सकता हूं, ज़बरदस्ती नहीं कर सकता। मैं तो चाहता हूं कि सब बचत करें।’
हम बदहवास से वहां से उठे। टी. प्रसाद बोले, ‘आप बहुत अच्छा काम कर रहे हैं जी। लोगों को बचत के लिए समझा रहे हैं। आप कहें तो दफ्तर के बाद मैं भी आपके साथ चलकर लोगों को समझा सकता हूं। मुझे बड़ी खुशी होगी। समाज- सेवा करना चाहिए।’
फूलचन्द घबरा कर बोला, ‘नहीं नहीं। आपको कष्ट करने की कोई ज़रूरत नहीं है। आप दफ्तर में ही काफी बचत करवा रहे हैं, बाहर का काम हम कर लेंगे।’
प्रसाद जी हाथ जोड़कर बोले, ‘जैसी आपकी मर्जी। वैसे मेरी कभी ज़रूरत पड़े तो बताइएगा। देश के काम के लिए मैं हमेशा तैयार हूं।’
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈