हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 247 ☆ व्यंग्य – मीटिंग के लाभ ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय व्यंग्य – मीटिंग के लाभ )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 247 ☆

? व्यंग्य – मीटिंग के लाभ ?

मीटिंग से, कुछ भी गोपनीय नहीं रहता। कौन बली का बकरा बना। किसको फटकार पड़ी। किसकी प्रोग्रेस अच्छी है। किससे बड़े साहब खुश हैं, वगैरह वगैरह, सारी बाते, स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान के रूप में सरेआम होती हैं।

इन दिनों हर छोटे बड़े शहर में एक अदद सिटी चैनल भी टी.वी. मीडिया का अंग बन गया है। इन युवा पत्रकारों को भी टी.वी. कैमरा थामें किसी भी मीटिंग में गाहे बगाहें कवरेज करते देखा जा सकता है। इस प्रक्रिया से मीटिंग में हिस्सेदारी करते लोग, श्रेष्ठता का अनुभव करते हैं। वे अपने बीबी बच्चों को बता और जता सकते हैं, कि आखिर कितनी मशक्कत से वे नौकरी कर रहे हैं। प्रायः मीटिंग अटेंड करते रहने के और भी अनेकों लाभ हैं। आपकी जान पहचान अपने बाजू में बैठे अधिकारी से हो जाती है । आप उसके साथ मिलकर सुर में सुर मिला कर बड़े साहब की बुराई कर सकते हैं और इस तरह आपके संपर्क तथा लोकप्रियता का ग्राफ बढ़ता रहता है। जब कभी आपको व्यक्तिगत व्यस्तता से कार्यालय से गायब रहना हो, आप आफिस में, या घर पर मीटिंग में जाने का सीधा बहाना बना सकते हैं । कोई आप पर जरा भी शक नहीं करता। जब मिनिट्स आफ मीटिंग सरक्यूलेट हों, और उसमें आपकी सहभागिता प्रदर्षित करता कोई कमेंट आपके नाम के साथ आ जावे तो उसे रेखांकित कर अपने मातहतों को बताना न भूलें, इससे आपके सबर्डिनेट्स का हौसला बढ़ता है, और वे नई ऊर्जा के साथ अगली मीटिंग के लिये लम्बी चौड़ी तालिका में, आंकड़ों की फसल बोने लगते हैं।

इन दिनों लैपटाप का जमाना है। जो युवा अधिकारी मीटिंग में अपने साथ पी पी टी प्रेजेन्टेशन ले जावें, वे बड़ी आसानी से सबके लिए आकर्षण और उत्सुकता का केन्द्र बनते हैं। रंग बिरंगे बार चाटर्स के जरिये, डिजीटल फोटो और नक्शो के माध्यम से आप प्रगति के आंकड़े सजा सकते हैं, और बास की शाबासी पा सकते हैं । काम हो या न हो, साफ-सफाई और प्रस्तुति के अंक पूरे के पूरे, पाने का नायाब नुस्खा मीटिंग ही है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 246 ☆ व्यंग्य – उंगली उठाने की कश्मकश ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय व्यंग्य – उंगली उठाने की कश्मकश)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 246 ☆

? व्यंग्य – उंगली उठाने की कश्मकश ?

वोट डालने के लिये हमें प्रेरित करने कहा गया था कि लोकतंत्र में उंगली उठाने का हक तभी है जब उंगली पर वोटिंग वाली काली स्याही लगी हो। हमने भी नाखून के साथ आगे बढ़ती अपनी काली स्याही का निरीक्षण किया। इससे पहले कि वह निशान गुम हो जाये हमने उंगली उठाने का निर्णय लिया। उंगली उठाने से प्रसिद्धि मिलती है। अतः एक उंगली उठाने पर तीन स्वयं अपनी ओर उठती उंगलियों की परवाह किये बगैर हम उंगली उठाने के लिये मुद्दा तलाशने लगे। पहले सोचा मंहगाई को, बेरोजगारी को, लड़कियों की सुरक्षा को, सिनीयर सिटिजन्स की उपेक्षा को मुद्दा बनाये या फिर उंगली उठायें कि जो अंत्योदय की बातें करते हैं उनकी अलमारियों में करोड़ों भरे मिलते हैं। पर अगले ही पल विचार आया कि ये सब तो घिसे पिटे मुद्दे हैं, जब जो विपक्ष में होता है, इन्हीं मुद्दों पर तो सरकार को घेरता है। हमें किसी नये मौलिक मुद्दे की तलाश थी। अंततोगत्वा हमारे सद्यः चुने हुये जन प्रतिनिधियों ने ही हमारी मदद की। हमने यह कहते हुये उंगली उठा दी कि जो लोकतंत्र के नाम पर वोट मांगते हैं वे खुद अपना नेता हाईकमान की हिटलर शाही से चुनते हैं।

मुद्दा मिल जाने के बाद अब हमारी अगली समस्या थी कि आखिर उंगली कैसे उठाये ? उंगली उठायें भी और किसी को खंरोंच भी न आये तो ऐसी उंगली उठाने का कोई औचित्य नहीं था। सामान्य आदमी की ऐसी बेबसी पर हमें बड़ी कोफ्त हुई। सोचा इसी बेबसी को मुद्दा बनायेंगे कभी। पत्नी ने हमें बैचेन देखा तो कारण जान सलाह दी कि एक ट्वीट कर के अपना मुद्दा उछाल दो। हमें यह सलाह जंच गई। हमने फटाफट ट्वीट तो किया ही साथ ही पत्र संपादक के नाम लिखकर उंगली उठा दी।

हमारी उंगली पूरी तरह से उठ भी न पायी थी कि हमारा मेल मिलते ही मित्र संपादक जी का फोन ही आ गया। वे बोले अरे भाई हाईकमान तो हाईकमान होता है पक्ष वालों का हो या विपक्ष का, वह इत्मिनान से अपने निर्णय लेता है। हाईकमान को अपनी सरकार बनवाने की आतुरता तो बहुत होती है, पर जब जीत कर भी सरकार बनाने का दावा नहीं कर पा रहे हों तो उंगली उठाने के बजाय उनकी मजबूरी समझो। कैंडीडेट में सारी योग्यता तो हैं पर वह उस जाति का नही है जो होनी चाहिये। हाईकमान उहापोह में होता है कि जिसे उसने चुनने का मन बनाया है वह स्त्री भी होता तो और बेहतर होता। आखिर  जाति, जेंडर, क्षेत्र सब कुछ साधना होता है क्योंकि लोकतंत्र में जनाकांक्षा पूरी करना ही हाईकमान का परम लक्ष्य होता है। हमें ज्ञान प्राप्त हुआ और हम उंगली उठाने की जगह उंगली चटकाते चैनल बदलने के लिये टी वी का रिमोट दबाने लगे।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 220 ☆ व्यंग्य – लेखक-पाठक प्रेमपूर्ण संवाद ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है एक बेहतरीन व्यंग्य – ‘गुरूजी का अमृत महोत्सव’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 220 ☆

☆ व्यंग्य – लेखक-पाठक प्रेमपूर्ण संवाद 

‘हलो, चतुर बोल रहे हैं?’

‘जी, आपका सेवक चतुर। चरण स्पर्श। सबेरे सबेरे कैसे स्मरण किया?’

‘भैया, तुम बड़े चतुर हो गये हो। बिना पढ़े रचना पर ‘लाइक’ ठोकते हो। अभी मैंने रचना फेसबुक पर डाली, और पाँच सेकंड में तुम्हारा ‘लाइक’ प्रकट हो गया। तीन पेज

की रचना पाँच सेकंड में पढ़ ली? लेखक को मूर्ख बनाते हो?’

‘कैसी बातें करते हैं गुरुदेव! हम तो आपकी दो लाइनें पढ़ते ही पूरी रचना के मिजाज़ को पकड़ लेते हैं। एक चावल को टटोलकर पूरी हंडी का जायज़ा ले लेते हैं। आप जैसे हर-दिल- अज़ीज़ लेखक को पूरा पढ़ने की ज़रूरत ही नहीं होती। आपने वह कहावत सुनी होगी कि ख़त का मज़मूँ भाँप लेते हैं लिफाफा देखकर। और फिर आपकी तारीफ करने के मामले में हम किसी से पीछे क्यों रहें? हम तो आपके पुराने मुरीद हैं। सच कहूँ तो आपका नाम देखते ही उँगलियाँ ‘लाइक’ दबाने के लिए फड़कने लगती हैं।’

‘अरे भैया, तो पाँच दस मिनट बाद भी ‘लाइक’ ठोक सकते हो ताकि लेखक को लगे कि रचना पढ़ी गयी। तुम्हारा झूठ तो सीधे पकड़ में आता है। मेरे अलावा दूसरे भी समझते हैं।’

‘गलती हो गई गुरू। आइन्दा पाँच दस मिनट बाद ही ‘लाइक’ मारूँगा।’

‘पढ़ कर।’

‘बिलकुल गुरुदेव, पढ़कर ही मारूँगा। आप भरोसा रखें। इस बार की भूल को चित्त में न धरें।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 174 ☆ दृग उरझत टूटत कुटुम… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “दृग उरझत टूटत कुटुम। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 174 ☆

☆ दृग उरझत टूटत कुटुम… ☆

बदलाव की आँधी भले ही न चली हो किंतु वैचारिक परिवर्तन की लहर जोरों से चल रही है। सही भी है युवा पीढ़ी को नए – नए लोग चाहिए, जो सालों से चल रहा है उसे अपडेट होना होगा, भावनात्मक रिश्ता हमें एक ही ढर्रे पर चलने को निर्देशित करता है किंतु सत्ता का गलियारा प्रबुद्धजनों की सशक्त आवाज की माँग लंबे समय से कर रहा है।

भारत को विश्व गुरु बनना है तो ऐसे चौकानें वाले निर्णय करने होंगे, तभी सारे लोग इसकी ओर उम्मीद भरी निगाहों से देखेंगे। एक जुटता के साथ देश हित में प्रमुख बिंदुओं पर सभी को एक मत होना चाहिए।

बिगड़ी बात बनें नहीं, लाख करो किन कोय।

रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय।।

राजनीति की पाठशाला केवल जनता के बीच जाकर पढ़ने से नहीं चलेगी, ये तो प्रयोग का केंद्र है,अब तो नियमों को लागू करने के लिए दूरगामी प्रभावों को भी ध्यान में रखना होगा। शिक्षित समाज विश्व पटल पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए सर्वेसर्वा बनने की चाहत रखता है। डिजिटल युग ने सचमुच कर लो दुनिया मुट्ठी में कर दिया है। इसे आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो मोह माया पालना सचमुच दुःख का कारण बनता है। सामान्य कार्यकर्ता से आगे बढ़कर जो पाया था उसे कभी न कभी तो छोड़ना ही होगा, जो अपना था ही नहीं उसके लिए दर्द कैसा।

अब समय आ गया है कि कैलेंडर वर्ष के बदलाव के साथ हम अपनी सोच को भी नए रूप में स्वीकार करते हुए सबके साथ आगे बढ़ें।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 35 ☆ व्यंग्य – “समस्याएँ कम नहीं हैं मैकदा घर में बनाने में” ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य  “समस्याएँ कम नहीं हैं मैकदा घर में बनाने में”।) 

☆ शेष कुशल # 35 ☆

☆ व्यंग्य – “समस्याएँ कम नहीं हैं मैकदा घर में बनाने में” – शांतिलाल जैन 

कागजों में वे शिद्दत से कुछ ढूंढ रहे थे. पूछा तो बोले – पुराने इनकम टैक्स रिटर्न्स की कॉपी ढूंढ रहा हूँ. वजह ये कि कुछ दिनों पहले उत्तराखंड सरकार ने ‘होम मिनी बार’ योजना के अंतर्गत के लायसेंस देने की जो शर्तें रखीं हैं उनमें पहली शर्त यही रही कि पाँच साल के इनकम टैक्स रिटर्न दाखिल किए हुए होने चाहिए. वे आशावान हैं कि अपनी छत के नीचे आसवपान की जो योजना देवभूमि में लागू होने जा रही है वो एक दिन मध्यप्रदेश में भी लागू की जा सकती है. घर में मधुशाला उनका ड्रीम था, जल्द ही सच होता दीख रहा है. ये तो आचार संहिता लग गई श्रीमान वरना इन पंक्तियों के लिखे जाने तक कॉलोनी में कोई आगंतुक पूछ रहा होता – भाईसाहब, ये श्रीवास्तवजी कहाँ रहते हैं ?

कौनसे वाले श्रीवास्तवजी ? वोई जिनके घर में एक मैकदा है ? आप ऐसे करें आगे से बायीं ओर की दूसरी गली में मुड़ जाईए. जैसे ही मुड़ेंगे मदहोश बयार आने लगेगी, राईट साईड में जिस मकान के बाहर जोर का भभका आने लगे बस वहीं रहते हैं श्रीवास्तवजी.’ बहादुरशाह ज़फर होते तो ग़ज़ल का मिसरा बदल लेते – ‘जिस तरफ उसका घर उसी तरफ मैकदा.’

खैर यह जब होगा तब होगा,  फ़िलहाल समस्या ये भी है कि घर के किस हिस्से में बनाई जाए मधुशाला. वास्तुवाले कह रहे हैं ईशान कोण ठीक रहेगा, दारू में बरकत रहती है. पूर्व दिशा की ओर बैठकर पीने से सुरूर अच्छा चढ़ता है. बीम के नीचे नहीं पीना चाहिए, अटैक आने का खतरा रहता है. सो उत्तर-पूर्व का कमरा तय रहा. किचन लगा हुआ ही है, एक इंट्री इधर से भी दे देते हैं – आईस, चखना वगैरह लाने में ठीक रहेगा.

मैंने पूछा – ‘उल्टियाँ कहाँ करोगे ?’

वे बोले – ‘उस कार्नर में, दो तीन बड़े और गहरे आकार के वाश-बेसिन लगवाने से हो जाएगा.’  मैंने धीरे से मुआयना किया, इसी रूम के पीछे जो गली पड़ती है गिरने के लिए उसकी नाली मुफीद पड़ेगी. वे बोले – ‘पूजा घर पीछे माँ के रूम में शिफ्ट कर देते हैं और गेट पर बायोमेट्रिक्स लॉक भी लगवा लेते हैं.’

‘वो किसलिए ?’ – मैंने पूछा.

बोले – रूल है गौरमिंट का. होम मिनी बार में 21 वर्ष से कम के फेमेली मेम्बर्स की पहुँच नहीं रहनी चाहिए. चुन्नू, चिंकी और चिंटू के थम्ब इम्प्रैशन से खुलेगा नहीं – ‘द हाउस ऑफ़ वाईंस’. विक्की के इक्कीस बरस में चार महीने कम पड़ रहे हैं. लायसेंस आने तक वह भी पीने योग्य हो जाएगा.

मैंने पूछा –‘एट ए टाईम,  कित्ता माल रख सकोगे?’

वे बोले – उत्तराखंड सरकार ने तो अधिकतम नौ लीटर इंडियन फॉरेन लिकर, 18 लीटर फॉरेन लिकर, 9 लीटर वाइन और 15.6 लीटर बीयर स्टोर करने की परमिशन दी है. एम.पी. में इससे तो कुछ बढ़कर ही समझो. ओवरऑल लिमिट हंड्रेड लीटर्स की हो जाए तो सोने में सुहागा. संयुक्त परिवार है, रिश्तेदारी है, यारी दोस्ती है इतना स्टॉक रखना तो बनता है. कल को आप ही मिलने आए तो पूछना तो पड़ेगा कि ट्वंटी एमएल चलेगी शांतिबाबू.  मैंने कहा – आपको पता है मैं पीता नहीं हूँ.  बोले – वो मैंने एक बात कही. हम नहीं पूछते तो आप कहते – लो साब श्रीवास्तव के घर गए और उनने दो घूँट का पूछा तक नहीं. बहरहाल, कंपोजिट लायसेंस मिल गया तो थोड़ी देसी भी रख लेंगे – घर में नौकर-चाकर भी तो हैं.

मैंने कहा – ‘आबकारी नीति के अनुसार ड्राई-डे पर मिनी होम बार बंद रखना पड़ेगा.’

वे बोले – मना तो ट्रेन में भी होती है. तो क्या कोल्ड्रिंक में लेकर गए नहीं कभी ? श्रीवास्तव को आप जानते नहीं हो शांतिबाबू, सरकार डाल-डाल तो श्रीवास्तव पात-पात. उनके चेहरे पर किला फतह करने के भाव आए.

इस बीच खबर आई कि उत्तराखंड सरकार ने कुछ दिनों के लिए अपना निर्णय स्थगित कर दिया है. श्रीवास्तवजी आशावान हैं निरस्त तो नहीं किया ना! अच्छा है तब तक पुराने आईटीआर भी ढूंढ लेंगे और बाकी तैयारियाँ पूरी करके रख लेंगे. मुझे मेराज फैजाबादी याद आए – ‘मैकदे में किसने कितनी पी, खुदा जाने. मयकदा तो मेरी बस्ती के कई घर पी गया..’

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 216 ☆ “कौन बनेगा मुख्यमंत्री?” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक व्यंग्य – “कौन बनेगा मुख्यमंत्री?)

व्यंग्य – “कौन बनेगा मुख्यमंत्री?☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय  

सच में ये मीडिया वाले इतने निष्ठुर हो गए हैं कि आम आदमी की पीड़ा को भूलकर विज्ञापन और अपने फायदे में लगे रहते हैं। सेलेब्रिटी, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री आदि की तरफ देखते रहते हैं। एक चैनल के पत्रकार से कहा कि गंगू के यहां की गाय बियानी है बछड़ा के तीन आंखें हैं तो जाकर फोटो-ओटो, वीडियो-ईडिओ बना लो… लोगों को पता चलेगा तो दान दक्षिणा, चढ़ावा-चढ़ोत्री खूब होगी बेचारे गंगू की गरीबी दूर हो जाएगी। बेरोजगारों को रोजगार मिल जाएगा, नारियल अगरबत्ती, चिरौंजीदाना, प्रसाद, पकोड़ा, चाय-पान की दुकानें लग जाएंगी, श्रद्धालुओं की भीड़ बढ़ेगी… पर वो पत्रकार सुनता ही नहीं, कहता है अभी ‘कौन बनेगा मुख्यमंत्री’ के बहाने टीवी चैनल वालों को ज्यादा कमाई हो रही है।

आजकल हर मंत्री और बड़े नेताओं की बयानबाजी से चैनल और अखबार को बहुत फायदा मिल रहा है भरपूर विज्ञापन के साथ कुछ गोपनीय फायदे भी हो जाते हैं। सब तरफ झूठ और झटके का माहौल है। कुछ साल से झूठ के पांव इतने लम्बे और मजबूत हो गए कि मीडिया के कैमरे झूठ के पांव से दौड़ने लगे हैं। आजकल नेता लोग नशे में कुछ भी बोल देते हैं फिर होश आने पर बयानों में तोड़-फोड़ का आरोप लगाकर गंगा में नहा लेते हैं। अभी सबसे बड़ी बात है, सबसे बड़ा सस्पेंस मुख्यमंत्री कौन होगा है ।

यहां मंच के बीच में एक सजी-धजी कुर्सी रखी है कुर्सी में मुख्यमंत्री लिखा है… सब देख रहे हैं कि सच में ‘मुख्यमंत्री’ लिखा है। भीड़ में कुर्सी की सजावट की चर्चा है। पर्यवेक्षक के आने में थोड़ा देर है, सस्पेंस है, रोमांच है और इसे बढ़ाने में चैनल के चिल्लाने वाले एंकर खासकर महिलाएं खूब मजा ले रहीं हैं। तरह-तरह के तरीकों से झूठ-मूठ का सस्पेंस घुसेड़ने की तरकीबें चल रहीं हैं। गंगू के पेट में भूख कुलबुला रही है, दिमाग में टेंशन है, हाल-बेहाल हैं, पर ऐसे में सस्पेंस और रोमांचक क्षणों का स्वाद लेना ही पड़ेगा, बीच में भाग नहीं सकते। 

भीड़ से आवाज आयी – जिन्हें मुख्यमंत्री बनना है वे सब आने में देर क्यों कर रहे हैं ? 

पीछे से किसी ने कहा – दिल्ली गए थे डांट पड़ी है मन उदास है…

हलचल मची, वे सब आ गये शायद… सच में आ गए पर वे मुख्यमंत्री की कुर्सी तरफ नहीं गए सामने तरफ की पब्लिक वाली कुर्सी में धंस गए…। पूरे हाल में सन्नाटा छा गया, प्रश्न उछल – कूद करने लगे… सब परेशान। अपने तरफ से सब अंदाज लगाने लगे अचानक ये पुराने मुख्यमंत्री को क्या हो गया? अभी तक तो कुर्सी देख कर दौड़ लगा देते थे पर आज… कुर्सी से मोह भंग…।

आकाशवाणी हुई – क्या आज मुख्यमंत्री की कुर्सी खाली रहेगी? कुर्सी में कोई नहीं बैठेगा ? क्या आनंद की अनुभूति उदासी के साथ होगी?…

टी आर पी के चक्कर में मीडिया हैरान-परेशान दिखा। उनसे कुर्सी में बैठने का निवेदन हुआ पर वे टस से मस नहीं हुए। खड़े होकर उदास स्वर में बोले – “मैं तो जा रहा हूँ मेरी कुर्सी पर कोई भी बैठ सकता है…”

मुख्यमंत्री का ये बयान ‘धजी का सांप’ बन के फन काड़ के खड़ा हो गया। खबरिया चैनलों ने इसे गंभीर संकेत समझ लिया। बवडंर उठा और तूफान बनकर चैनलों में बहस में तब्दील हो गया। दिन भर सोशल मीडिया में अफवाहों का दौर चला। लोगों ने भावी मुख्यमंत्री के नामों का अंदाजा भी लगाना शुरू कर दिया। 

एक पर्यवेक्षक ने  अध्यक्ष और मुख्यमंत्री पर कमाल की बयानबाजी कर दी, पद के दावेदारों के मन ही मन में लड्डू फूटने लगे। अध्यक्ष की कुर्सी मिलते ही बड़ी भारी कुर्सी हिल गई। अध्यक्ष गोटी फिट करने में तेज हैं और लगा कि लक जो है तो लकलका रहा है…

मीडिया उतावलेपन और एक दूसरे को पीछे छोड़ने के फेर में पगला गया। राजनैतिक सरगर्मियां बढ़ गईं, बयानबाजी का बाजार लग गया। विपक्षी नेताओं के ट्वीट आने लगे। अफवाहों ने अचानक एक दावेदार को मुख्यमंत्री बनाकर परोस दिया। विपक्ष ने कहा कि पुराने वाले अब  हताश होकर निराश हो गये हैं तभी तो सजी-सजी सजाई कुर्सी में नहीं बैठे। मीडिया जो भी खबरें दे रहे थे  कन्फ्यूजन से भरी। आंखों में इमेज झोंक कर सच-झूठ एक साथ बोल रहे थे, कुर्सी का मोह बड़ा खराब होता है। ज्यादा हो-हल्ला मचता देख पुराने मुख्यमंत्री ने ट्विटर पर ट्वीट कर दिया कि हम ‘मिशन 29’ में बिजी हैं हमें मुख्यमंत्री की कुर्सी अभी सपने में दिख रही है, और मन में लड्डू फूट रहे हैं, तो हम क्या करें…

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 219 ☆ व्यंग्य – गुरूजी का अमृत महोत्सव ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है एक बेहतरीन व्यंग्य – ‘गुरूजी का अमृत महोत्सव’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 219 ☆

☆ व्यंग्य – गुरूजी का अमृत महोत्सव 

परमप्रिय शिष्य मन्नू,

स्वस्थ रहो और गुरुओं की सेवा के योग्य बने रहो। मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हें प्राप्त है।

आगे बात यह कि तुम्हें मालूम है कि जनवरी में मैं 75 वर्ष पार कर रहा हूँ। मुझे विश्वास है कि तुम जैसे मेरे सारे शिष्य मेरा अमृत महोत्सव मनाने के लिए अकुला रहे होंगे। तुम जैसे शिष्यों के होते हुए मेरा अमृत महोत्सव शानदार होगा इसमें मुझे रंच मात्र भी सन्देह नहीं है।

मेरा विचार है कि इस उत्सव की सफलता के लिए तुम मेरे निष्ठावान 50-60 शिष्यों से 10-10 हजार रुपये एकत्रित कर लो। उनसे कहना कि उनकी गुरुभक्ति की परीक्षा है और गुरु- ऋण चुकाने का अवसर आ गया है। इससे लगभग पाँच लाख रुपया प्राप्त हो जाएगा। इसमें से कुछ मेरे अभिनन्दन ग्रंथ पर खर्च होगा जो कम से कम छः सात सौ पेज का होना चाहिए।

अभिनन्दन ग्रंथ के लिए लेख मैं खुद ही लिखूँगा क्योंकि मुझसे बेहतर मुझे कौन जानता है? दूसरों को देने से लोग कई बार ऊटपटाँग लिख देते हैं जिससे मन खिन्न हो जाता है। मैंने 30-35 लेख लिख भी लिये हैं। ये सभी लेख मेरे शिष्यों के नाम से छपेंगे। बचपन से लेकर अभी तक के सारे फोटो निकाल लिये हैं जिन्हें अभिनन्दन ग्रंथ में स्थान मिलेगा।

मेरे खयाल से अभिनन्दन ग्रंथ और दीगर खर्चों के बाद दो ढाई लाख रुपया बच जाएगा। मेरा विचार है कि उस राशि को मियादी जमा में डालकर उसके ब्याज से एक ग्यारह हजार रुपये का पुरस्कार मेरे नाम से स्थापित किया जाए जो मेरे स्वर्गवासी होने के बाद भी चलता रहे। यह पुरस्कार प्रति वर्ष मेरे किसी शिष्य को ही दिया जाए ताकि मेरे जाने के बाद भी मेरे शिष्यों की भक्ति मेरे प्रति बनी रहे। इस पुरस्कार के प्रबंध की सारी जिम्मेदारी तुम्हारी होगी। इसमें कभी गफलत हुई तो तुम्हें पाप के साथ-साथ मेरा शाप लगेगा।

तो अब विलंब न करके काम पर लग जाओ। मुझे भरोसा है कि तुम हमेशा की तरह मेरे सुयोग्य शिष्य साबित होगे।

स्नेही

अनोखेलाल ‘सिद्ध’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 173 ☆ मजबूत शिला सी दृढ़ छाती… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “मजबूत शिला सी दृढ़ छाती। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 173 ☆

☆ मजबूत शिला सी दृढ़ छाती… ☆

परिस्थितियों के अनुसार एक ही शब्द के अलग- अलग अर्थ हो जाते हैं। सुनने वाला वही समझता है, जो उसके मन की कल्पना होती है और दोषारोपण दूसरे पर कर देता है।

ऐसा ही आपसी संबंधों में देखने को मिलता है। हमारी एक दूसरे से इतनी अपेक्षाएँ होती हैं कि जिनके पूरा न होने से एक अनचाही दीवार बन जाती है जिसे समय रहते न गिराया गया तो  सम्बन्धों में दरार निश्चित है। दृढ़तापूर्वक जब लक्ष्य निर्धारित हो और उसे पूरा करने के लिए जी जान से लोग जुटे हों तो परिणाम अप्रत्याशित होते हैं।

कदम फूँक-फूँक कर रखते हुए चलने से देरी भले हो रही हो किंतु धोखा होने की गुंजाइश नहीं रह जाती है। जनता जनार्दन जरूर होती है पर पूजा के समय का  निर्धारण पुजारी द्वारा होता है। सारे दावेदार भले ही शक्ति का दम्भ भरते दिखाई दे रहें हो लेकिन होगा वही जो ऊपर वाला चाहेगा।

चाहत और राहत का किस्सा साथ- साथ नहीं चल सकता है, चेहरा नए मोहरे के साथ जब भी आएगा कोई न कोई कमाल दिखायेगा। वक्त की आवाज परिवर्तन की माँग उठा रही है। सभी अपनी- अपनी शक्ति जरूर दिखा रहे हैं लेकिन शीर्ष नेतृत्व दूरगामी परिणामों  को ध्यान में रखकर युवा पीढ़ी पर विश्वास जताना चाहता है। जब तक नयापन न हो मजा नहीं आता। संगठन केवल पुराने कार्यों के लेखा – जोखा को ध्यान में रखकर यदि निर्णय लेता है तो नए को मौका कैसे मिलेगा। जब स्थिति मजबूत हो तो नवीन प्रयोग  करने चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 172 ☆ वह दीपशिखा सी शांत भाव… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना वह दीपशिखा सी शांत भाव। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 172 ☆

वह दीपशिखा सी शांत भाव… ☆

शांति की तलाश में व्यक्ति कहाँ से कहाँ तक भटकता फिरता है; पर मिलती स्वयं को बदलने से है। ये तो अनुभव की बात है किंतु डिजिटल युग में मोटिवेशनल स्पीकर अपने शॉर्ट्स रील द्वारा एक मिनट से भी कम समय में आपको प्रमुख बिंदु समझा देते हैं। मुख्य बिंदु को ध्यान में रखकर जब कथानक हाव- भाव के साथ प्रस्तुत किया जाता है तो सचमुच बात आसानी से समझ में आने लगती है। वैसे भी संगत की रंगत देखना हो तो इन्हें फॉलो करें,कुछ ही दिनों में बदलाव देखने को मिलेगा।

नियंत्रित मन व कार्यों की निरंतरता से सब संभव हो जाता है। बस एक दिशा में पूर्ण मनोयोग से जुड़े रहिए, जब लक्ष्य स्पष्ट हो, श्रेष्ठ गुरु का मार्गदर्शन हो तो राहें सहज होने लगतीं हैं। उन्हीं विषयों पर फोकस करें जिस पर आप कार्य करने की इच्छा रखते हैं।इस युग में सब आसानी से मिल रहा है, बस एकाग्रता की लगन जिसने लगा ली समझो उसकी मुट्ठी में चाँद- सितारे आ गए। अब चाँद तारे तोड़कर लाना कोई कल्पना की बातें नहीं हैं, यहाँ तक हमारे वैज्ञानिक तो पहुँच ही चुके हैं बस आम लोगों का पहुँचना बाकी है।

जब सब कुछ आपके इशारों से हो रहा हो तो मन पर नियंत्रण बहुत जरूरी हो जाता है। भटकता हुआ इंसान न केवल स्वयं को बर्बादी की कगार पर ले जाता है वरन सबको ऐसे गड्ढे में ढकेलने की क्षमता रखता है जो कोई सोच भी नहीं सकता है। जीवन की आपाधापी में हम अधिकारों के प्रति ज्यादा ही सचेत होने लगे हैं, कर्तव्यों को न तो जानते हैं न ही जानने की कोशिश करते हैं। ये अनजाना पन कहीं महंगा न पड़ जाए इसलिए जागिए और जगाइए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 171 ☆ सोता हुआ सागर जगा… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना सोता हुआ सागर जगा। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 171 ☆

सोता हुआ सागर जगा… ☆

जिस परिवेश में हम रहते हैं उसका प्रभाव हमारे व्यक्तित्व में पड़ना स्वाभाविक है। जब मन क्रोध के वशीभूत हो उस समय कोई निर्णय न करके मन शांत होने का इंतजार करें इससे किसी भी प्रकार के विवाद की संभावना से बचा जा सकता है। हम जो सोचते हैं वही शब्दों के रूप में हमारी वाणी से व्यक्त होता है। जिसे धोखे से कह दिया या जबान फिसल गयी का नाम दे दिया जाता है।

जो विष को धारण करना जानता है वही शिवत्व को प्राप्त करता है, कंठ में विष रखकर भी लोक कल्याण का भाव कैसे रखें ये तो भोलेनाथ से सीखा जा सकता है। स्वयं भले हलाहल के साथ रहें परन्तु सबको अमृत दें। कहते हैं जो देंगे वही मिलेगा, सकारात्मक भाव के साथ अच्छा चिंतन शुभफलदायी होता है। सनातन धर्म के सारे पर्वों का उद्देश्य यही है।विश्व कल्याण की भावना के साथ असत्य पर सत्य की जीत, बुराई पर अच्छाई की जीत को दर्शाने हेतु हर वर्ष रावण का दहन किया जाता है, ताकि जनमानस तक ये संदेश जाए कि बुराई का अंत समय- समय पर करते रहना चाहिए जिससे उसकी जड़ें न फैलने पाएँ। जब – जब पाप बढ़ा है तब- तब सत्य रूपी राम ने उसका वध किया है। वैचारिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग न करते हुए सर्वे भवन्तु सुखिनः का भाव रखकर अपने कार्यों को करें। कभी मंदिरों में जाकर देखिए आरती के बाद धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो आदि के स्वर गुंजित होते हैं।

तो आइए हम सब भी अपने अंदर की बुराइयों को पहचान कर उन्हें दूर करें तभी इन त्योहारों को सच्चे अर्थ में जीवन से जोड़ा जा सकेगा और समस्त जगत एक सूत्र में बांधकर मानवता को गौरवान्वित करेगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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