मैंने अपनी सगी सहेली ? “”ख्याति” से कहा–यार मुझे “डंका”” शब्द बहुत भाता है। बहुत प्यार है इससे। उच्चारण करते ही लगता है कि इसकी गूँज ब्रह्माण्डव्यापी हो गई है और सारी ध्वनियां इसमें समा गई हैं। शब्द में भारी वज़न है।
अब देखो ना, इसमें से “आ” की मात्रा माइनस कर दो तो बन जाता है “डंक”। बिच्छू और ततैया ही नहीं डंक तो कोई भी मार सकता है।
“जो डंकीले हैं वो डंकियाते रहते हैं।” उन्हें इस पराक्रम से कौन रोक सकता है भला। और हां डंक शब्द का एक अर्थ “निब” भी तो होता है।
ख्याति छूटते ही बोली– ये प्यार व्यार सब फालतू बाते हैं। इससे कुछ हासिल नहीं होता। बस बजाना आना चाहिए।
—- पर मुझे तो नहीं आता। डंकावादकों की तर्ज पर कोशिश तो की थी पर नतीजा सिफर। मेरे प्यार को तुम प्लेटोनिक लव जैसा कुछ कुछ कह सकती हो।
—- सर्च करो रानी साहिबा– बजाना सिखानेवाली क्लासेस गली गली मिल जायेंगी। वह भी निःशुल्क।
— ऐसा क्यों ?
— क्योंकि यह राष्ट्रीय उद्यम है। जो देशभक्त है, वही डंका बजाने की ट्रेनिंग लेता है। सारा मीडिया अहोरात्र डंका बजाने में मशगूल है। बात सिर्फ इतनी सी है कि डंका बजाओ या बजवाओ। दोनों ही सूरत में ध्वनि का प्रसारण होना है। किसी में तो महारत हो।एक तुम हो “जीरो बटा सन्नाटा।”
चलो मैं तुम्हें विकल्प देती हूं। डंका नहीं तो “ढोल ” बजाओ !
— ‘ख्याति मुझे ढोल शब्द से सख्त नफरत है। कितना बेडौल शब्द है। अव्वल तो पहला अक्षर “ढ” है। मराठी में, बोलचाल में ढ यानी गधा।
—- ठीक है बाबा। ढोल नहीं तो डंका पीटो पर तबीयत से पीटो। फिर भी पीटना न आये तो पीटनेवाले या पिटवानेवाले की व्यवस्था करो।और रही बात डंके की कीमत तो इतनी ज्यादा भी नहीं है कि तुम अफोर्ड न कर सको।
लोकतंत्र में कुछ भी पीटने की आजादी सभी को है।
“डंका पीटोगी तभी तो औरों की लंका लगेगी ना।”
देखो सखी अभी अभी मेरे दिमाग में एक धांसू आइडिया आया है। तुम “डंकोत्सव का आयोजन” क्यों नहीं करतीं। उसमें डंका शब्द की व्युत्पत्ति पर शोध पत्र का वाचन करो। उसमें डंके की चोट पर कुछ उपाधियों का वितरण करो यथा—- “डंकेन्द्र”, “डंकाधिपति”, “डंकेश”, “डंकाधिराज”, “डंकेश्वर”, “डंका श्री”, “डंका वाचस्पति”, “डंका शिरोमणि”, “डंका रत्न” आदि आदि।
सोचो सखी, शिद्दत से सोचो। नेकी और पूछ पूछ, जुट जाओ आयोजन में। डंके में शंका न करो।
—- ‘इतना ताम झाम करके भी डंका ठीक से न बजा तो–‘
— बेसुरा ही सही पर बजाओ—बजाते रहो—बजाते रहो। जब तक जां में जां है। डंका कभी निष्फल नहीं जाता।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “साहित्यकार श्रीश्री १००८ “।)
अभी अभी # 139 ⇒ साहित्यकार श्रीश्री १००८… श्री प्रदीप शर्मा
होली का मौसम नहीं, एक अप्रैल भी नहीं, यह उपाधियों का नहीं, लेखकों, साहित्यकारों और व्यंग्यकारों की सूची बनाने का मौसम है। असेसमेंट ईयर की तरह वर्ष २०२३-२४ की सौ साहित्यकारों की सूची जारी कर दी गई। शगुन के १०१ भी नहीं, पूरे कलदार सौ। पढ़कर और गिन परखकर देख लीजिए, पूरा टंच सिलेक्सन है।
हमने सोचा, कुछ अपने वाले नाम जोड़कर इसे १०८ तक पहुंचा दिया जाए, श्री श्री १०८ सबके आगे, अपने आप लग जाएगा, लेकिन किसी हसरत जयपुरी ने बीच में ही साहित्य और कलामंडल के १११ प्रकाशवान सितारों की, ए टू ज़ेड अल्फाबेटिकल सूची जारी कर दी, जिसमें प्रथम स्थान पर अरुण कमल भले ही ना हों, लेकिन ब से बैंक वाले सुरेश कांत, जरूर निन्यानवे स्थान पर मिल जाएंगे।।
साहित्य में आज किसका स्थान कहां है, गए जमाने सूर, तुलसी और केशवदास के, आप जिसे जहां चाहें वहां बिठा दें, लेकिन असली लेखक और साहित्यकार तो वही है, जो पाठकों के दिल में बैठा हो। आखिर मसखरी का भी कोई वक्त होता है।
हमने भी सोचा, क्यों न वर्ष 2024-25 की एक लंबी सारी सूची हम भी जारी कर दें, शीर्ष लेखक, व्यंग्यकार और साहित्यकारों की, जिसका शीर्षक ही श्रीश्री १००८ हो। जी हां, जब अकेले रविशंकर श्रीश्री रविशंकर हो सकते हैं, तो हमारे १००८ साहित्यकार श्रीश्री क्यों नहीं।।
अभी समय बहुत है, मौका भी है और दस्तूर भी ! श्रीश्री १००८ में शायद सभी प्रतिभाओं के साथ न्याय हो सकेगा। केवल सूची जारी करने से काम नहीं चलेगा। इनका शॉल और श्रीफल से सम्मान भी किया जा सकता है।
जो जहां है, वहीं उसका सम्मान वहीं के पाठक मिलकर कर दें। चौंकिए मत, यह सूची पाठकों द्वारा ही बनाई जाएगी जिसमें शायद सुरेंद्र मोहन पाठक का नाम भी हो। जिसे मिर्ची लगना हो लगे। कौन लोकप्रिय है और कौन नहीं, इसका पता साहित्य अकादमी से ज्यादा तो सुधी पाठकों को होता है।।
अगर गंभीर चिंतन नहीं कर सकते, तो कम से कम मजाक तो ढंग का हो।
अगर यह मजाक बेढंगा हो तो संभावित श्रीश्री १००८ साहित्यकारों से अग्रिम माफी। हम यह भी जानते हैं, साहित्य में इसे गंभीर चिंतन कहा भी नहीं जाता।
एक पाठक और एक मतदाता की एक जैसी हालत है। जो परोस दिया उसे स्वीकार कर लो। अगर पसंद नहीं, तो दूसरी दुकान देख लो। पूरा घान ही ऐसा है। कहीं अल्फाबेटिकल तो कहीं इल्लॉजिकल।।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “आतम ज्ञान बिना सब सूना…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 164 ☆
☆ आतम ज्ञान बिना सब सूना… ☆
बिना परिश्रम कुछ भी नहीं मिलता, सही दिशा में कार्य करते रहें। यह मेरे एक परिचित जिन्हें ज्ञान बांटने की आदत है, उन्होंने अभी कुछ देर पहले कही और पूरी राम कहानी सुना दी।
दरसअल उनको किसी ने ब्लॉक कर दिया यह कहते हुए कि इतना ज्ञान सहन करने की सामर्थ्य मुझमें नहीं। अब बेचारे ज्ञानचंद्र तो परेशान होकर घूमने लगे तभी ध्यानचंद्र जी ने कहा मुझे सुनाते रहें , जब जी आए टैग भी करें क्योंकि मैं सात्विक विचारों का हूँ, सकारात्मक चिंतन मेरी विशेषता है। अनावश्यक बातों को एक कान से सुन दूसरे से निकालता जाता हूँ। आँखें मेरी बटन के समान हैं जो केवल फायदे में ही कायदा ढूढ़ती हैं।
पर ज्ञानचंद्र को तो एक ही बात खाये जा रही थी कि लोग सकारात्मकता को तो ब्लॉक कर रहे हैं, जबकि नकारात्मक लोगों के नजदीक जाकर ज्ञानार्जन करने की वकालत करने से नहीं चूकते हैं। और तो और उनका सम्मान कर रहें हैं, अरे भई निंदक की महिमा वर्णित है पर बिना साबुन और पानी के मुफ्त में कब तक मन को स्नान कराते रहोगे, अभी भी वक्त है, सचेत हो अन्यथा किसी और को ज्ञान बटेगा आप इसी तरह ब्लॉक करो बिना ये जाने की लाभ किसमें है। फेसबुक और व्हाट्सएप का बन्दीकरण तो सुखद हो सकता है पर दिमाग में लगा ताला अंधकार तक पहुँचाकर ही मानेगा।
कोई क्षमायाचना को अपना औजार बनाकर भरपूर जिंदगी जिए जा रहा है तो कोई क्षमा को धारण कर सबको माफ करने में अपना धर्म देखता है। कहते हैं क्षमा वीर आभूषण होता है, बात तो सही है, आगे बढ़ने के लिए पुरानी बातों पर मिट्टी डालनी चाहिए। जब मंजिल नजदीक हो तो परेशानियों से दो- चार होना पड़ता है। बस लक्ष्य को साधते हुए माफी का लेनदेन करने से नहीं चूकना चाहिए।
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी के स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य “जाग रहा हूँ मैं, कृपया अब और न जगाएँ”।)
☆ शेष कुशल # 32 ☆
☆ व्यंग्य – “जाग रहा हूँ मैं, कृपया अब और न जगाएँ”– शांतिलाल जैन ☆
‘जागो फलाने, जागो’.
मि. फलाने मुसीबत में हैं साहब. जगा तो दिया मगर कब तक जागते रहना है, कोई बता नहीं रहा. वे भी नहीं बता पा रहे जिन्होंने मि. फलाने को जगाया है. जागने को कोई कितना जाग सकता है, बताईये भला. मि. फलाने तो पहला सन्देश मिलने के बाद ही जाग गए थे मगर अभी भी, हर थोड़ी थोड़ी देर में कोई न कोई मेसेज कर ही देता है ‘जागो फलाने जागो’. बेचारे फलाने! खुद ही खुद को चिमटी काट कर देख ले रहे हैं, तस्दीक कर ले रहे हैं. बोले – “शांतिबाबू, मैं एफिडेविट दे सकता हूँ. मैं जाग रहा हूँ. मेरी मदद करो यार, इनको बोलो कि मेरी जान नहीं खाएँ. कसम खाकर कहता हूँ जब तक वे आकर लोरी नहीं गाने लगेंगे तब तक मैं सोऊंगा नहीं, बस अब और मैसेज भेजना बंद कर दें.”
“मैसेज से तुम्हें क्या परेशानी है ? इग्नोर मार दो.”
“रोंगटे खड़े हो जाते हैं शांतिबाबू, जगाने के लिए ऐसा वीडिओ डालते हैं कि मारे डर के नींद उड़ जाती है. बाद में फेक्ट-चेकर्स बताते हैं कि वीडिओ डॉक्टर्ड था मगर तब तक नींद तो काफूर हो ही जाती है.”
“तो आप उन्हें बता दीजिए कि आप जाग रहे है, कृपया अब और न जगाया जाए.” – मैंने कहा.
“बताया मैंने, मगर वे नहीं माने. कहते हैं नहीं अभी और जागो. अभी नहीं जागे तो कभी नहीं जाग पाओगे. जागते रहो. इत्ते सालों से तो सो रहे हो, और कित्ता सोओगे ? हज़ार साल पहले गुलाम हुए, इसलिए कि मैं सोया हुआ था. बताईये शांतिबाबू, इत्ती तो मेरी उमर भी नहीं है.”
“यार, तुम धैर्य रखो. विचलित मत हुआ करो.”
“शांतिबाबू, वे यहीं नहीं रुकते. चैलेंज करते हैं – तुम फलाने की असली औलाद हो तो जागो, जागते रहो. कहते हैं सो गए तो कायर कहलाओगे. अब जागने में भी वीरता समा गई है, बताईये भला.”
“तुम बीच बीच में झपकी ले लिया करो. पॉवर नैप.”
“नहीं नहीं शांतिबाबू, वे मुझे गीदड़ की औलाद कह देंगे. वे चाहते हैं मैं इस कदर जागता रहूँ कि मौका-ए-जरूरत ढ़िकाने को सुला डालूँ. सुला भी ऐसा डालूँ कि अगला चिरनिद्रा में चला जाए, कभी जाग ही न पाए.”
“सो नहीं सकते तो कम से कम लेट जाओ. उकडूँ काहे बैठे हो ?”
“कहते हैं सांप बिस्तर के नीचे बैठा है. हर थोड़ी देर में गद्दा हटा कर देख रहा हूँ मगर साला मिल नहीं रहा. पूछा तो कहते हैं जब तुम सोओगे तब कटेगा. बस तब से जाग ही रहा हूँ, शांतिबाबू.”
मि. फलाने न ठीक से सो पा रहे हैं, न ठीक से लेट पा रहे हैं. उनकी तकलीफ यहीं समाप्त नहीं होती. इन दिनों उनको जगाने वालों की बाढ़ सी आई हुई है. पहले चंद लोग जगाने का काम किया करते थे. अब उन्होंने मंच, संस्थाएँ, समूह बना लिए हैं. अलाना जागृति मंच, फलाना जगाओ समिति, ढ़िकाना जागरण फोरम. एक बार हुआ ये कि मि. फलाने फ्लाईओवर पर सो गए. तब से जागृति मंच वालों ने वहाँ एक बड़ा सा होर्डिंग लगवा दिया है. नुकीले सिरों से एक दूसरे को क्रॉस करती हुई बड़ी बड़ी दो तलवारों के बीच लिखा है ‘जागो फलाने जागो’. सिर पर तलवार लटकी हो तो कौन सो सकता है. तीस से ज्यादा फोटूएँ तो जगानेवालों की सजी हैं. संयोजकजी की बड़ी सी, हाथ जोड़ते हुए, नुकीली मूछों की राजसी धजवाली तस्वीर लगी है. वे यह कार्य निस्वार्थ रूप से कर रहे हैं. उन्हें मि. फलाने से कुछ नहीं चाहिए, बस जब मौका आए तो ईवीएम् पर उनकी छाप का खटका दबाना है. कुल मिलाकर, वे केवल वाट्सअप से ही नहीं जगाते, होर्डिंग लगाकर भी जगाते हैं. वे कोई एंगल बाकी नहीं रखते, वे ढोल-ताशों के साथ भी जगाने निकलते हैं, समूह में, मोर्चा जुलूस निकालकर. कभी कभी वे मोर्चे में तमंचा लेकर भी निकलते हैं, कोई सोता हुआ नज़र आए तो हवाई फायर की आवाज़ से जगा देते हैं. घिग्घी बंध जाती है श्रीमान. मि. फलाने तो क्या उनकी संतातियाँ भी सो नहीं पाती.
बहरहाल, कौन समझाए उन्हें कि लम्बे समय तक जागने से भी आदमी बीमार हो जाता है. बीमार आदमी ढ़िकाने से नफरत करने लगता है. वो ढ़िकाने से सब्जी खरीदना बंद करके विजेता होने के टुच्चे अहसास से भर उठता है. ढ़िकाने के घरों पर बुलडोज़र चल जाए तो खुश हो जाता है और प्रशासन की कार्रवाई के वीडियो वाइरल करने लगता है. उसको पंचर पकानेवाले में मुग़ल शहंशाह नज़र आने लगते है. नफरत उसे और बीमार बनाती है. फ़िलवक्त तो जागने-जगाने का जूनून सा तारी है और मि. फलाने उसकी चपेट में है. वह दुष्चक्र में फंस गया है. परेशानी से निजात पाने का कोई रास्ता उसे नज़र नहीं आया तब उसने भी दूसरों को जगाने का काम हाथ में ले लिया है. अब वो वाट्सअप पर बाकी फलानों को कह रहा है – ‘जागो फलाने, जागो’.
वैसे आप ये मत समझिएगा श्रीमान कि परेशान सिरिफ मि. फलाने ही हैं. ढ़िकानों के स्वयंभू आकाओं ने उनको भी जगा दिया है. वे भी बार बार अपनी गादी-गुदड़ियों के नीचे सांप ढूंढ रहे हैं. कमाल की बात तो ये कि सांप जेहन से सरसराता हुआ विवेक में प्रवेश कर गया है और वे उसे गद्दों-बिस्तरों के नीचे ढूंढ हैं. एक दिन एक सौ चालीस करोड़ लोग अपने गद्दों-बिस्तरों के नीचे सांप ढूंढ रहे होंगे. दरअसल, वे जिसे जागना समझ रहे हैं वो नफ़रतभरी नीम बेहोशी है, काश कोई उन्हें कह सके – ‘जागो और होश में आओ, यारों.’
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है हरिशंकर परसाई जन्मशती के अवसर पर उनका सुप्रसिद्ध व्यंग्य – “गर्दिश के दिन”।)
☆ हरिशंकर परसाई जन्मशती विशेष – गर्दिश के दिन – हरिशंकर परसाई ☆ प्रस्तुति – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
लिखने बैठ गया हूँ पर नहीं जानता संपादक की मंशा क्या है और पाठक क्या चाहते हैं, क्यों आखिर वे उन गर्दिश के दिनों में झांकना चाहते हैं, जो लेखक के अपने हैं और जिन पर वह शायद परदा डाल चुका है। अपने गर्दिश के दिनों को, जो मेरे नामधारी एक आदमी के थे, मैं किस हैसियत से फिर से जीऊँ?-उस आदमी की हैसियत से या लेखक की हैसियत से ? लेखक की हैसियत से गर्दिश को फिर से जी लेने और अभिव्यक्ति कर देने में मनुष्य और लेखक, दोनों की मुक्ति है। इसमें मैं कोई ‘भोक्ता’ और ‘सर्जक’ की नि:संगता की बात नहीं दुहरा रहा हूँ। पर गर्दिश को फिर याद करने, उसे जीने में दारुण कष्ट है। समय के सींगों को मैंने मोड़ दिया। अब फिर उन सींगों को सीधा करके कहूँ -आ बैल मुझे मार!
गर्दिश कभी थी, अब नहीं है, आगे नहीं होगी-यह गलत है। गर्दिश का सिलसिला बदस्तूर है, मैं निहायत बेचैन मन का संवेदनशील आदमी हूँ। मुझे चैन कभी मिल ही नहीं सकता, इस लिये गर्दिश नियति है।
हाँ, यादें बहुत हैं। पाठक को शायद इसमें दिलचस्पी हो कि यह जो हरिशंकर परसाई नाम का आदमी है, जो हँसता है, जिसमें मस्ती है, जो ऐसा तीखा है, कटु है-इसकी अपनी जिंदगी कैसी रही? यह कब गिरा, फिर कब उठा ?कैसे टूटा? यह निहायत कटु, निर्मम और धोबी पछाड़ आदमी है।
संयोग कि बचपन की सबसे तीखी याद ‘प्लेग’ की है। १९३६ या ३७ होगा। मैं शायद आठवीं का छात्र था। कस्बे में प्लेग पड़ी थी। आबादी घर छोड़ जंगल में टपरे बनाकर रहने चली गयी थी। हम नहीं गये थे। माँ सख्त बीमार थीं। उन्हें लेकर जंगल नहीं जाया जा सकता था। भाँय-भाँय करते पूरे आस-पास में हमारे घर में ही चहल-पहल थी। काली रातें। इनमें हमारे घर जलने वाले कंदील। मुझे इन कंदीलों से डर लगता था। कुत्ते तक बस्ती छोड़ गये थे, रात के सन्नाटे में हमारी आवाजें हमें ही डरावनी लगतीं थीं। रात को मरणासन्न माँ के सामने हम लोग आरती गाते-
ओम जय जगदीश हरे,
भक्त जनों के संकट पल में दूर करें।
गाते-गाते पिताजी सिसकने लगते, माँ बिलखकर हम बच्चों को हृदय से चिपटा लेतीं और हम भी रोने लगते। रोज का यह नियम था। फिर रात को पिताजी, चाचा और दो -एक रिश्तेदार लाठी-बल्लम लेकर घर के चारों तरफ घूम-घूमकर पहरा देते। ऐसे भयानक और त्रासदायक वातावरण में एक रात तीसरे पहर माँ की मृत्यु हो गयी। कोलाहल और विलाप शुरू हो गया। कुछ कुत्ते भी सिमटकर आ गये और योग देने लगे।
पाँच भाई-बहनों में माँ की मृत्यु का अर्थ मैं ही समझता था-सबसे बड़ा था।
प्लेग की वे रातें मेरे मन में गहरे उतरी हैं। जिस आतंक, अनिश्चय, निराशा और भय के बीच हम जी रहे थे, उसके सही अंकन के लिये बहुत पन्ने चाहिये। यह भी कि पिता के सिवा हम कोई टूटे नहीं थे। वह टूट गये थे। वह इसके बाद भी ५-६ साल जिये, लेकिन लगातार बीमार, हताश, निष्क्रिय और अपने से ही डरते हुये। धंधा ठप्प। जमा-पूँजी खाने लगे। मेरे मैट्रिक पास होने की राह देखी जाने लगी। समझने लगा था कि पिताजी भी अब जाते ही हैं। बीमारी की हालत में उन्होंने एक भाई की शादी कर ही दी थी-बहुत मनहूस उत्सव था वह। मैं बराबर समझ रहा था कि मेरा बोझ कम किया जा रहा है। पर अभी दो छोटी बहनें और एक भाई थे।
मैं तैयार होने लगा । खूब पढ़ने वाला, खूब खेलने वाला और खूब खाने वाला मैं शुरू से था। पढ़ने और खेलने में मैं सब कुछ भूल जाता था। मैट्रिक हुआ, जंगल विभाग में नौकरी मिली। जंगल में सरकारी टपरे में रहता। ईंटे रखकर, उन पर पटिया जमाकर बिस्तर लगाता, नीचे जमीन चूहों ने पोली कर दी थी। रात भर नीचे चूहे धमाचौकड़ी करते रहते और मैं सोता रहता। कभी चूहे ऊपर आ जाते तो नींद टूट जाती पर मैं फिर सो जाता। छह महीने धमाचौकड़ी करते चूहों पर मैं सोया।
बेचारा परसाई?
नहीं, नहीं, मैं खूब मस्त था। दिन-भर काम। शाम को जंगल में घुमाई। फिर हाथ से बनाकर खाया गया भरपेट भोजन शुद्ध घी और दूध!
पर चूहों ने बड़ा उपकार किया। ऐसी आदत डाली कि आगे की जिन्दगी में भी तरह-तरह के चूहों मेरे नीचे ऊधम करते रहे, साँप तक सर्राते रहे, मगर मैं पटिये बिछा कर पटिये पर सोता रहा हूँ। चूहों ने ही नहीं मनुष्यनुमा बिच्छुओं और सापों ने भी मुझे बहुत काटा- पर ‘जहरमोहरा’मुझे शुरू में ही मिल गया। इसलिये ‘बेचारा परसाई’ का मौका ही नहीं आने दिया। उसी उम्र से दिखाऊ सहानुभूति से मुझे बेहद नफरत है। अभी भी दिखाऊ सहाननुभूति वाले को चाँटा मार देने की इच्छा होती है। जब्त कर जाता हूँ, वरना कई शुभचिन्तक पिट जाते।
फिर स्कूल मास्टरी। फिर टीचर्स ट्रनिंग और नौकरी की तलाश -उधर पिताजी मृत्यु के नजदीक। भाई पढ़ाई रोककर उनकी सेवा में। बहनें बड़ी बहन के साथ, हम शिक्षण की शिक्षा ले रहे थे।
फिर नौकरी की तलाश। एक विद्या मुझे और आ गयी थी-बिना टिकट सफर करना। जबलपुर से इटारसी, टिमरनी, खंडवा, देवास बार-बार चक्कर लगाने पड़ते। पैसे थे नहीं। मैं बिना टिकट बेखटके गाड़ी में बैठ जाता। तरकीबें बचने की बहुत आ गयीं थीं। पकड़ा जाता तो अच्छी अंग्रेजी में अपनी मुसीबत का बखान करता। अंग्रेजी के माध्यम से मुसीबत बाबुओं को प्रभावित कर देती और वे कहते-लेट्स हेल्प दि पुअर ब्वाय।
दूसरी विद्या सीखी उधार माँगने की। मैं बिल्कुल नि:संकोच भाव से किसी से भी उधार मांग लेता। अभी भी इस विद्या में सिद्ध हूँ।
तीसरी चीज सीखी -बेफिक्री। जो होना होगा, होगा, क्या होगा? ठीक ही होगा। मेरी एक बुआ थी। गरीब, जिंदगी गर्दिश -भरी, मगर अपार जीव शक्ति थी उसमें। खाना बनने लगता तो उनकी बहू कहती-बाई, न दाल ही है न तरकारी। बुआ कहती-चल चिंता नहीं। राह-मोहल्ले में निकलती और जहाँ उसे छप्पर पर सब्जी दिख जाती, वहीं अपनी हमउम्र मालकिन से कहती- ए कौशल्या, तेरी तोरई अच्छी आ गयी है। जरा दो मुझे तोड़ के दे। और खुद तोड़ लेती। बहू से कहती-ले बना डाल, जरा पानी जादा डाल देना। मैं यहाँ-वहाँ से मारा हुआ उसके पास जाता तो वह कहती-चल, चिंता नहीं, कुछ खा ले।
उसका यह वाक्य मेरा आदर्श वाक्य बना-कोई चिन्ता नहीं। गर्दिश, फिर गर्दिश!
होशंगाबाद शिक्षा अधिकारी से नौकरी माँगने गये। निराश हुये। स्टेशन पर इटारसी के लिये गाड़ी पकड़ने के लिये बैठा था, पास में एक रुपया था, जो कहीं गिर गया था। इटारसी तो बिना टिकट चला जाता। पर खाऊँ क्या? दूसरे महायुद्ध का जमाना। गाड़ियाँ बहुत लेट होतीं थीं। पेट खाली। पानी से बार-बार भरता। आखिर बेंच पर लेट गया।चौदह घंटे हो गये । एक किसान परिवार पास आकर बैठ गया। टोकरे में अपने खेत के खरबूजे थे। मैं उस वक्त चोरी भी कर सकता था। किसान खरबूजा काटने लगे। मैंने कहा- तुम्हारे ही खेत के होंगे। बडे़ अच्छे हैं। किसान ने कहा- सब नर्मदा मैया की किरपा है भैया! शक्कर की तरह हैं। लो खाके देखो। उसने दो बड़ी फांके दीं। मैंने कम-से-कम छिलका छोड़कर खा लिया। पानी पिया। तभी गाड़ी आयी और हम खिड़की में घुस गये।
नौकरी मिली जबलपुर से सरकारी स्कूल में। किराये तक के पैसे नहीं। अध्यापक महोदय ने दरी में कपडे़ बाँधे और बिना टिकट चढ़ गये गाड़ी में। पास में कलेक्टर का खानसामा बैठा था। बातचीत चलने लगी। आदमी मुझे अच्छा लगा। जबलपुर आने लगा तो मैंने उसे अपनी समस्या बताई। उसने कहा -चिन्ता मत करो। सामान मुझे दो। मैं बाहर राह देखूँगा। तुम कहीं पानी पीने के बहाने सींखचों के पास पहुँच जाना। नल सींखचों के पास ही है। वहाँ सींखचों को उखाड़कर निकलने की जगह बनी हुई है। खिसक लेना। मैंने वैसा ही किया। बाहर खानसामा मेरा सामान लिये खड़ा था। मैंने सामान लिया और चल दिया शहर की तरफ। कोई मिल ही जायेगा, जो कुछ दिन पनाह देगा, अनिश्चय में जी लेना मुझे तभी आ गया था।
पहले दिन जब बाकायदा ‘मास्साब’ बने तो बहुत अच्छा लगा। पहली तनख्वाह मिली ही थी कि पिताजी की मृत्यु की खबर आ गयी। माँ के बचे जेवर बेचकर पिता का श्राद्ध किया और अध्यापकी के भरोसे बड़ी जिम्मेदारियाँ लेकर जिंदगी के सफर पर निकल पड़े।
उस अवस्था की इन गर्दिशों के जिक्र मैं आखिर क्यों इस विस्तार से कर गया? गर्दिशें बाद में भी आयीं, अब भी आतीं हैं, आगे भी आयेंगी, पर उस उम्र की गर्दिशों की अपनी अहमियत है। लेखक की मानसिकता और व्यक्तित्व निर्माण से इनका गहरा सम्बन्ध है।
मैंने कहा है- मैं बहुत भावुक, संवेदनशील और बेचैन तबीयत का आदमी हूँ। सामान्य स्वभाव का आदमी ठंडे-ठंडे जिम्मेदारियाँ भी निभा लेता, रोते-गाते दुनिया से तालमेल भी बिठा लेता और एक व्यक्तित्वहीन नौकरीपेशा आदमी की तरह जिंदगी साधारण सन्तोष से गुजार लेता।
मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ, जिम्मेदारियाँ, दुखों की वैसी पृष्ठभूमि और अब चारों तरफ से दुनिया के हमले -इस सब सबके बीच सबसे बड़ा सवाल था अपने व्यक्तित्व और चेतना की रक्षा । तब सोचा नहीं था कि लेखक बनूँगा। पर मैं अपने विशिष्ट व्यक्तित्व की रक्षा तब भी करना चाहता था।
जिम्मेदारी को गैर-जुम्मेदारी की तरह निभाओ।
मैंने तय किया-परसाई, डरो मत किसी से। डरे कि मरे। सीने को ऊपर-ऊपर कड़ा कर लो। भीतर तुम जो भी हो। जिम्मेदारी को गैर-जुम्मेदारी की तरह निभाओ। जिम्मेदारी को अगर जिम्मेदारी के साथ निभाओगे तो नष्ट हो जाओगे। और अपने से बाहर निकलकर सब में मिल जाने से व्यक्तित्व और विशिष्टता की हानि नहीं होती। लाभ ही होता है। अपने से बाहर निकलो। देखो, समझो और हँसो।
मैं डरा नहीं । बेईमानी करने में भी नहीं डरा। लोगों से नहीं डरा तो नौकरियाँ गयीं। लाभ गये, पद गये, इनाम गये। गैर-जिम्मदार इतना कि बहन की शादी करने जा रहा हूँ। रेल में जेब कट गयी, मगर अगले स्टेशन पर पूड़ी-साग खाकर मजे में बैठा हूँ कि चिन्ता नहीं। कुछ हो ही जायेगा। मेहनत और परेशानी जरूर पड़ी यों कि बेहद बिजली-पानी के बीच एक पुजारी के साथ बिजली की चमक से रास्ता खोजते हुये रात-भर में अपनी बड़ी बहन के गाँव पहुँचना और कुछ घंटे रहकर फिर वापसी यात्रा। फिर दौड़-धूप! मगर मदद आ गयी और शादी भी हो गयी।
इन्हीं परिस्थितियों के बीच मेरे भीतर लेखक कैसे जन्मा, यह सोचता हूँ। पहले अपने दु:खों के प्रति सम्मोहन था। अपने को दुखी मानकर और मनवाकर आदमी राहत पा लेता है। बहुत लोग अपने लिये बेचारा सुनकर सन्तोष का अनुभव करते हैं। मुझे भी पहले ऐसा लगा। पर मैंने देखा, इतने ज्यादा बेचारों में मैं क्या बेचारा! इतने विकट संघर्षों में मेरा क्या संघर्ष!
मेरा अनुमान है कि मैंने लेखन को दुनिया से लड़ने के लिये एक हथियार के रूप में अपनाया होगा। दूसरे, इसी में मैंने अपने व्यक्तित्व की रक्षा का रास्ता देखा। तीसरे, अपने को अवशिष्ट होने से बचाने के लिये मैंने लिखना शुरू कर दिया। यह तब की बात है, मेरा ख्याल है, तब ऐसी ही बात होगी।
पर जल्दी ही मैं व्यक्तिगत दु:ख के इस सम्मोहन-जाल से निकल गया। मैंने अपने को विस्तार दे दिया।दु:खी और भी हैं। अन्याय पीड़ित और भी हैं। अनगिनत शोषित हैं। मैं उनमें से एक हूँ। पर मेरे हाथ में कलम है और मैं चेतना सम्पन्न हूँ।
यहीं कहीं व्यंग्य – लेखक का जन्म हुआ । मैंने सोचा होगा- रोना नहीं है, लड़ना है। जो हथियार हाथ में है, उसी से लड़ना है। मैंने तब ढंग से इतिहास, समाज, राजनीति और संस्कृति का अध्ययन शुरू किया। साथ ही एक औघड़ व्यक्तित्व बनाया। और बहुत गम्भीरता से व्यंग्य लिखना शुरू कर दिया।
मुक्ति अकेले की नहीं होती। अलग से अपना भला नहीं हो सकता। मनुष्य की छटपटाहट मुक्ति के लिये, सुख के लिये, न्याय के लिये।पर यह बड़ी अकेले नहीं लड़ी जा सकती। अकेले वही सुखी हैं, जिन्हें कोई लड़ाई नहीं लड़नी। उनकी बात अलग है। अनगिनत लोगों को सुखी देखता हूँ और अचरज करता हूँ कि ये सुखी कैसे हैं! न उनके मन में सवाल उठते हैं न शंका उठती है। ये जब-तब सिर्फ शिकायत कर लेते हैं। शिकायत भी सुख देती है। और वे ज्यादा सुखी हो जाते हैं।
कबीर ने कहा है-
सुखिया सब संसार है, खावै अरु सोवे।
दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रोवे।
जागने वाले का रोना कभी खत्म नहीं । व्यंग्य-लेखक की गर्दिश भी खत्म नहीं होगी।
ताजा गर्दिश यह है कि पिछले दिनों राजनीतिक पद के लिये पापड़ बेलते रहे। कहीं से उम्मीद दिला दी गई कि राज्यसभा में हो जायेगा। एक महीना बड़ी गर्दिश में बीता। घुसपैठ की आदत नहीं है, चिट भीतर भेजकर बाहर बैठे रहने में हर क्षण मृत्यु-पीडा़ होती है। बहादुर लोग तो महीनों चिट भेजकर बाहर बैठे रहते हैं, मगर मरते नहीं। अपने से नहीं बनता। पिछले कुछ महीने ऐसी गर्दिश के थे। कोई लाभ खुद चलकर दरवाजे पर नहीं आता। चिरौरी करनी पड़ती है। लाभ थूकता है तो उसे हथेली पर लेना पड़ता है, इस कोशिश में बड़ी तकलीफ हुई। बड़ी गर्दिश भोगी।
मेरे जैसे लेखक की एक गर्दिश और है। भीतर जितना बवंडर महसूस कर रहे हैं, उतना शब्दों में नहीं आ रहा है, तो दिन-रात बेचैन हैं। यह बड़ी गर्दिश का वक्त होता है, जिसे सर्जक ही समझ सकता है।
यों गर्दिशों की एक याद है। पर सही बात यह है कि कोई दिन गर्दिश से खाली नहीं है। और न कभी गर्दिश का अन्त होना है। यह और बात है कि शोभा के लिये कुछ अच्छे किस्म की गर्दिशें चुन लीं जाएं। उनका मेकअप कर दिया जाये, उन्हें अदायें सिखा दी जायें- थोडी़ चुलबुली गर्दिश हो तो और अच्छा-और पाठक से कहा जाए-ले भाई, देख मेरी गर्दिश!
प्रस्तुति – जय प्रकाश पाण्डेय
416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002 मोबाइल 9977318765
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक व्यंग्य ‘बंडू के शुभचिन्तक‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 206 ☆
☆ व्यंग्य – बंडू के शुभचिन्तक ☆
बंडू ने बड़े उसूलों के साथ शादी की— कोई लेन-देन नहीं, कोई तड़क-भड़क, कोई दिखावा नहीं। सादगी से शादी कर ली। दोस्तों, परिचितों को आमंत्रित करके मिठाई खिला दी, चाय पिला दी। बस।
बंडू ने कुछ और भी क्रांतिकारिता की। शादी के बाद यह व्रत लिया कि कम से कम तीन साल तक देश की जनसंख्या में कोई योगदान नहीं देना है। पत्नी गुणवंती को उसके माँ-बाप ने आशीर्वाद दिया था—‘दूधों नहाओ,पूतों फलो।’ दूधों नहाना तो अच्छे अच्छों के बस का नहीं रहा, पूतों फलने में कोई हर्रा-फिटकरी नहीं लगता। आशीर्वाद का यह हिस्सा आसानी से फलीभूत हो सकता था। लेकिन बंडू ने उस पर भी पानी फेर दिया। गुणवंती भी मन मारकर रह गयी। सोचा, अभी मान लो, फिर धीरे-धीरे पतिदेव को समझाएंगे।
लेकिन पड़ोसी, रिश्तेदार नहीं माने। इस देश में साल भर में बच्चा न हो तो अड़ोसी-पड़ोसी पूछने लगते हैं—‘ कहो भई, क्या देर है? कब मिठाई खिलाने वाले हो?’ बच्चा न होने की चिन्ता पति-पत्नी को कम, पड़ोसियों को ज़्यादा होने लगती है।
बंडू का एक साल खूब आनन्द और मस्ती से गुज़रा। मर्जी से घूमे, मर्जी से खाया, मर्जी से सोये, मर्जी से उठे। कोई चें पें नहीं। पति के प्रेम का हिस्सेदार कोई नहीं। बंडू का एकाधिकार।
लेकिन एक साल बाद परिचित और पड़ोसी अपनी शुभचिन्ता से उनके आनन्द में सुई टुच्चने लगे। कोई देवी बड़े गर्व से कहती, ‘भई, हमारे पेट में तो पहले ही साल में लट्टू आ गया था, दूसरे साल में नट्टू आया और तीसरे साल में टुन्नी आयी। फिर दो साल का गैप रहा। उसके बाद गट्टू और फिर चट्टू।’
अफसोस यही है कि ऐसी माताएँ भारत में जन्म लेती और देती हैं। रूस में होतीं तो राष्ट्रमाता के खिताब से विभूषित होतीं।
दूसरी महिलाएँ गुणवंती की सास को सुनाकर कहतीं, ‘भई, हमारी बहू भली निकली कि पहले साल में ही हमें नाती दे दिया। अब हम नाती खिलाने में मगन रहते हैं।’
जिन महिलाओं ने अपना सारा जीवन क्रिकेट या हॉकी की एक टीम को जन्म देने में गला दिया था और बच्चों को जन्म देते देते जिनका शरीर खाल और हड्डी भर रह गया था, वे भी गुणवंती के सामने श्रेष्ठता-बोध से भर जातीं।
दो साल होते न होते गुणवंती को देखकर महिलाओं में खुसुर-फुसुर होने लगी। वृद्ध महिलाएँ उसकी सास का दिमाग चाटती रहतीं— ‘क्या बात है? यह कैसी फेमिली प्लानिंग है? क्या बुढ़ापे में बच्चा पैदा करेंगे? बंडू की शादी करने से क्या फायदा जब अभी तक नाती का मुँह देखने को नहीं मिला।’
गुणवंती की सास परेशान। वह यह सब सुनकर दुखी और उम्मीद भरी निगाहों से बहू की तरफ देखती, जैसे कहती हो— ‘बहू, सन्तानवती बनो और मुझे इन शुभचिन्तकों से निजात दिलाओ।’
गुणवंती के आसपास हमेशा एक सवाल लटका रहता। महिलाएँ तरह-तरह की नज़रों से उसे देखतीं— कोई उपहास से, कोई सहानुभूति से, तो कोई दया से।
बीच में परेशान होकर गुणवंती बंडू से कहती, ‘अब यह व्रत बहुत कठिन हो रहा है। अब इन शुभचिन्तकों पर दया करो और अधिक नहीं तो एक सन्तान को धरती पर अवतरित होने की अनुमति दो।’
लेकिन बंडू एक नंबर का ज़िद्दी। लोग जितना टिप्पणी करते उतना ही वह अपनी ज़िद में और तनता जाता।
तीसरा साल पूरा होते-होते पड़ोस की वृद्धाएँ पैंतरा बदलने लगीं। अब वे सिर हिला हिला कर गुणवंती की सास से कहतीं, ‘बहू की डॉक्टरी जाँच कराओ। हमें तो कुछ दाल में काला नजर आता है।’
यह बातें सुनकर अब गुणवंती का जी भी घबराने लगा। वह बंडू से कहती, ‘देखो जी, ये लोग मेरे बारे में क्या-क्या कहती हैं। अब तो अपना व्रत छोड़ दो।’
लेकिन बंडू कहता, ‘मुझे दुनिया से कोई मतलब नहीं। हम इन सब को खुश करने के लिए अपनी योजना खत्म नहीं करेंगे।’
और कुछ वक्त गुज़रा तो और नये सुझाव आने लगे— ‘भई, हमारे खयाल से तो बहू बच्चा पैदा करने लायक नहीं है। जाँच वाँच करवा लो। जरूरत पड़े तो तलाक दिलवा कर बंडू की दूसरी शादी करवा दो। बिना सन्तान के मोक्ष कैसे मिलेगा?’ मसान जगाने और कनफटे नकफटे बाबा के पास जाने के सुझाव भी आये।
हमारे देश में अभी तक बच्चा न होने पर उसके लिए पत्नी को ही दोषी समझा जाता है। डॉक्टरी जाँच भी अक्सर पत्नी की ही होती है। पतिदेव की जाँच पड़ताल किये बिना ही उनकी दूसरी शादी की तैयारियाँ होने लगती हैं।
ये सब बातें सुनकर गुणवंती के प्राण चोटी तक चढ़ने लगे। वह पति की चिरौरी करती— ‘नाथ, मुझ दुखिया के जीवन का खयाल करके द्रवित हूजिए और एक सन्तान को आने की अनुमति प्रदान कीजिए।’
अब स्थितियाँ बंडू के लिए भी असह्य होने लगी थीं। उसकी माँ बेचारी दो पाटों के बीच फँसी थी— इधर बेटा बहू, उधर शुभचिन्तकों की फौज।
अन्ततः एक दिन गुणवंती ने वे लक्षण प्रकट कर दिए जो किसी स्त्री के गर्भवती होने का प्रमाण देते हैं। उसकी सास ने चैन की साँस ली। बात एक मुँह से दूसरे मुँह तक चलते हुए पूरे मुहल्ले में फैल गयी। गुणवंती के दुख में दुखी सब महिलाओं ने सिर हिलाकर संतोष प्रकट किया।
लेकिन दुख की बात यह हुई कि उनके मनोरंजन और उनकी दिलचस्पी का एक विषय खत्म हो गया। अब किसे सलाह दें और किसकी तरफ झाँकें? अब उनकी नज़रें किसी दूसरे बंडू और दूसरी गुणवंती की तलाश में इधर-उधर घूमने लगीं।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “जनु बरसा ऋतु प्रगट बुढ़ाई…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 163 ☆
☆ जनु बरसा ऋतु प्रगट बुढ़ाई… ☆
दोषारोपण करते हुए आगे बढ़ने की चाहत आपको बढ़ने नहीं दे रही है। पत्थरों को चीर कर नदियाँ राह बनाती हैं, यहाँ तक कि थोड़ी सी संधि में से बीज भी अंकुरित होकर कि वृक्ष का रूप धारण कर लेते हैं। जो लगातार कुछ सार्थक करेगा वो तो मंजिल तक पहुँचेगा। परन्तु क्या कारण है? कि कोई चलना चाहता है किंतु कागजों में, कल्पनाओं में या फिर मीडिया की पोस्ट में। जाहिर सी बात है जब कागज़ कोरा रहेगा तो परिणाम कोरे रहते हुए केवल हास्य प्रस्तुत करने के काम आएंगे। आश्चर्य की बात है कि आज के समय में जब हर व्यक्ति समय का सदुपयोग कर रहा है तो कुछ लोग कैसे हवाई घोड़े दौड़ा कर उसके पीछे – पीछे भागने की तस्वीरों को प्रायोजित ढंग से सजा रहे हैं।
खैर सावन के अंधे को हरियाली ही हरियाली दिखती है, कितनी बढ़िया कहावत है, इसका अर्थ तो अलग रूप में प्रयोग किया जाता है किन्तु इस दृश्य को देखकर मुझे यही अनायास याद आया कि ऐसा ही कुछ रहा होगा जब इस कहावत का पहली बार प्रयोग हुआ होगा।
क्या आप ने ऐसे प्राकृतिक स्थलों की सैर की है जो जन मानस की छेड़ – छाड़ से अभी अछूते हैं और हरियाली व सावन के सुखद मिलन को बयां करते हैं।
पोखर में भरा हुआ जल, आस – पास लगी हुई बड़ी- बड़ी घास, वृक्षों की झुकी हुई डालियाँ मानो जल को स्पर्श करने आतुर हो रहीं हैं।हरे रंग के कितने प्रकार हो सकतें हैं ये आपको ऐसे ही स्थानों में जाकर पता चलेगा, गहरा हरा, मूंगिया या काई हरा, तोता हरा, हल्का हरा व जो आपकी कल्पनाशक्ति महसूस कर सके वो सब दिखाई दे रहा है।यहाँ की ताज़गी, ठंडक व शुद्ध वायु तो आकर ही महसूस की जा सकती है।
मानसून के मौसम में ही खुद को ऊर्जा से भरपूर करें, आसपास की प्रकृति से जुड़ें, लोगों को जोड़ें व हरियाली बचाएँ।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “संगी साथी राह निहारे…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 162 ☆
☆ संगी साथी राह निहारे… ☆
गुरु जी सत्संग के दौरान अपने शिष्यों से कह रहे थे, स्नेह की दौलत आपको कमानी पड़ती है, इस दौलत को पाने हेतु सच्चे हृदय से कार्य करें, मैं का परित्याग कर बसुधैव कुटुम्बकम के अनुयायी बनें।
धन की देवी लक्ष्मी की आराधना कर दौलतमंद बन सकते हैं, बल बुद्धि आप गौरी सुत की कृपा से पा सकते हैं, विद्या व सप्तसुरों का ज्ञान आप माँ शारदे की कृपा से पा सकते हैं किन्तु…स्नेह रूपी दौलत बिना परिश्रम व त्याग के नहीं मिलेगी। नश्वर जगत में सब कुछ यहीं रह जायेगा, जायेंगे तो केवल सत्कर्म, ऐसा प्रवचन करते हुए गुरुजी भाव विभोर हो भक्तों को देखने लगे।
एक शिष्य ने कहा कई बार अति स्नेह में हम दूसरा पक्ष नहीं सोचते। मैं तो आप लोगों की वजह से आश्वस्त रहता हूँ। क्लीन चिट दी थी आपके प्रमुख शिष्य ने अपने कार्यकाल की। बस बेलगाम का घोड़ा मन है जो भागता रहता है।
आर्थिक अभाव दिमाग़ घुमा देता है, सारे सच धरे के धरे रह जाते हैं एक भक्त सत्संग में बोल उठा।
किसे… नहीं …नहीं कहीं मेरी ओर इशारा तो नहीं एक शिष्य ने कहा।
मुझे एक सीध में सोचना आता है, गुरुदेव भक्तों व शिष्यों की ओर देखते हुए गम्भीर मुद्रा बना कर कहने लगे। जो दायित्व है उसे साम दाम दंड भेद कैसे भी पूरा करना मानव का उद्देश्य बनता जा रहा है। अब इसके लिए कोई भी कुर्बानी क्यों न देनी पड़े।
इतने दिनों में सभी एक दूसरे के स्वभाव से परिचित हो चुके हैं, सब सही है – प्रमुख शिष्य ने कहा।
अभी समय के अनुसार, रेस्ट लेना तो सही है पर पद त्याग नहीं, ये रिश्ते नाते यहीं धरे रह जाएँगे, पुण्य कर्मों के क्षेत्र में संगम जैसा जीवन हो, जो भी आये समाहित करते चलो, भगवान का अस्तित्व कायम कर देते हैं तो सारी दुनिया रिश्ते जोड़ने के लिए लालायित दिखेगी।
आज ही आदरणीय सोमेश जी के कितने रिश्तेदार दिखे सोशल मीडिया पर।
हम व्यवस्थित हो सकते हैं, यदि योजना अच्छे से बनाकर फिर उसे विभिन्न लोगो को सौंप कर लागू करें गुरुदेव ने कहा। मैं कई दफा हतोत्साहित हुआ इस साल, जब भक्त कम होने लगते हैं तो सारा ज्ञान धरा का धरा रह जाता है।
प्रिय शिष्य ने कहा क्योंकि समय के साथ -साथ हमें नीति व योजना निर्माण में व्यवस्था बनानी होगी। कीजिए कुछ, बड़ा हौच-पौच हो रहा है। विज्ञापन में पचासों हजार खर्च हुए थे, बंद होने की कगार पर है अपना धंधा। समाचार पत्र बंद हो गया।
एक चेली की ओर मुख़ातिब होते हुए गुरुदेव ने कहा आप के दर्शन तो अब होते ही नहीं किसी नए भगवान की तलाश में तो नहीं हैं।
जी…मैं अधिकतर समय पढ़ती रहती हूँ या तो फेसबुक पर अच्छी पोस्ट या पुस्तक।
आर्थिक उन्नति बहुत हो चुकी, अब दर्शन से जुड़ने की वज़ह, जीवन को अधिक से अधिक जानना व समझना।
दरबार की रोज हाजिरी लगाइए चारो धाम यहीं हैं, कोई प्रश्न नहीं जिसका उत्तर न मिले प्रिय शिष्य ने कहा।
यही तो घर में सुनने मिलता है दिनभर करती क्या हूँ ???? इसी प्रश्न का उत्तर खोजने में व्यस्त हूँ कि कुछ ऐसा करूँ जिससे देर से ही सही ये लगे कि मैंने समय बर्बाद नहीं किया।
मुझे ऐसा लगने लगा है कि ये पद बाद में विवादित हो सकता है इसलिए मुक्त होकर अपना एक आश्रम खोलना चाहती हूँ।
व्यंग्य के लिए विषय मिल गया जिस प्रश्न को लेकर आध्यात्म के रथ पर सवार हुई आज भी वही प्रश्न, वर्ष और जगह बदल रही है पर प्रश्न वही करती क्या हूँ ??
सही कहते हैं… हठहठहठह…ये तो मैंने भी पकड़ लिया।
वो ऐसा करने वाला काम गुरु सेवा ही है। अब क्या खोज़ रही हैं ? एक बात ध्यान रखनी है कि भगवानौ आकर प्रवचन देगें तो भी कोई नहीं सुनेगें।
प्रजातंत्र का समय है, जब तक आप दूसरों को रिकोग्नाइज नहीं करेंगी तब तक आपको कोई पूछने वाला नहीं। यहाँ बड़े-बड़े लोग घूम रहे हैं कि कोई तो ध्यान दे। लाखों रुपए की धार्मिक किताबें छपवाकर दीमको को खिलाने को मज़बूर हैं लोग। आप कितना भी अच्छा लिख लें या कितना भी अच्छा पढ़ लें। आप अन्यों को प्रोत्साहित करें तभी अन्य आपको पढ़ने सुनने को तैयार होंगे।
सही है गंभीर होते हुए सभी ने सिर हिलाया।
गुरु माँ आप अवश्य सफल होंगी। और इस प्रश्न का जवाब संपूर्ण विश्व को मिलेगा कि आप करती क्या हैं। एक भक्त ने दीदी माँ की ओर हाथ जोड़ कहा – फिर वही प्रश्न कौन हूँ मैं
शब्द मूर्छित हैं मौन हूँ मैं ?
आज के सत्संग से जीवन के विभिन्न पहलुओं को समझने का साक्षात्कार हुआ हहहहहहहह…।
कभी कभी परिहास से अनछुआ सच झाँकने लगता है। लगता है ईश्वर ने टमाटर की तकदीर बड़ी फुर्सत में लिखी है। भूतकाल में प्याज ने मयूरासन डुला दिया था। पता नहीं टमाटर के मन में क्या खदबदा रहा है।
अखबार छाप रहे हैं-लाल सिलेंडर,लाल डायरी,लाल टमाटर और झंडी भी लाल लाल ! बात जंतर मंतर जैसी लगी।
ऐसे तो आदमी का लहू भी लाल है। पर वह तो बहुत सस्ता है। कोई कहीं भी बहा देता है।
लाल मणि कैसे और क्योंकर आसमान छूने लगे।
टमाटरों के सरदार ने अपना नाम घमंडीलाल रख लिया है। सुनते हैं।उसे z+ सुरक्षा मिली हुई है। है किसी की मजाल जो उसके आसपास भी फटके। सुरक्षा के सात घेरे तोड़ने पड़ेंगे। हवा तक बगैर अनुमति के छू नहीं पाती।
पिछली बार इन्दौर में बंदूकों के साये तले महफूज रहे बेचारे। जिनके घर टनों टमाटर उन्हें रतजगा करना ही होगा। टमाटरपतियों का बी पी बढ़ रहा है। स्वयं टमाटर डरे हुये हैं पर उन्हें पता है–डर के आगे जीत है। खबरपतियों को खबर ही नहीं।
सबसे ज्यादा बेचैन हैं किचन क्वीन यानी महिलाएं। वे धन्यताभाव से भर जायें अगर उनके सिरीमान(श्रीमान) कर्णफूल , बिन्दी, कंगन, बाजूबंद करधनी, पाजेब, मुद्रिका, चन्द्रहार, टमाटराकृति ले आयें। पानी की प्यास कोल्ड्रिंक से बुझानी पड़ती है कभी कभी। टमाटर का रुतबा है ही ऐसा।
लाल डायरी से ज्यादा रहस्यमय है टमाटरों की दुनिया।
टमाटरों के बगैर सब्जियां स्वाद छुपाने लगी हैं। मैंने उन्हें मना लिया है। वे टमाटर की फोटू देखकर मान जाती हैं। काम चल रहा है।
चुड़ैल सब्जियां बाजार में आम आदमी को देखकर खींसे निपोरती हैं।टमाटर की फोटू धड़ल्ले से बिक रही है।
अकड़ू टमाटर का भी अपना इतिहास है। है कोई माई का लाल जो उसका इतिहास बदलने की जुर्रत करे। वामपंथियों पर तोहमत लगा दे कि तुम्हीं ने उसे स्पेनिश कहा।भारत में तो आदि मानव टमाटरों पर जिन्दा रहता था। इतिहास ,किसका भला नहीं होता। हर वर्तमान का इतिहास होता है।
सच तो ये है कि टमाटर स्पेन से चला।चलते चलते यूरोप पहुँचा और फिर सारी दुनिया में छा गया। उसने ठान लिया था कि वो 192 देश घूमकर रहेगा। सो घूमा।स्पेनिश लोगों ने कह तो दिया लव एप्पल पर ला टोमेटिना उत्सव पर खूब लातें घूसे मारे। जमकर कुटाई की।कचूमर निकाल दिया।
इस दुनिया में कुछ भी होता है। प्यादे से फर्जी होने में टाइम कितना लगता है। कल तक जो छुट्टा यानी चिल्लर था आज उसे डाॅलर बना दिया।विकास के मानी क्या खाक समझेंगे जो पेट्रोल, बिजली, सब्जी ,भाजी, और जीरे, के मन की बात नहीं समझते।उन्हें तो चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए।
स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी का आकलन है कि नाम में बहुत कुछ नहीं, सब कुछ रखा है।सब्जियों के नाम धाकड़ हों तो जज़्बात पैदा होते हैं।आजमाने में क्या हर्ज है।नाम बदलना नहीं है ,सिर्फ नाम के आगे विशेषण लगाने हैं –जैसे “घमंडी समोसा” “सिजलिंग बीन्स” डायनामाइट चिली”(भूत जोलोकिया)—-इसी क्रम में “ड्रैक्यूला टमाटर” कैसा रहेगा ?
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक सार्थक एवं विचारणीय व्यंग्य ‘सुदामा के तन्दुल‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 204 ☆
☆ व्यंग्य ☆ सुदामा के तन्दुल ☆
चुनाव के बादल गहरा रहे थे। पता नहीं कब बरस पड़ें। मंत्री जी ने अपने चुनाव क्षेत्र का ‘टूर’ निकाला। अब अपनी जनता की सुध लेना बहुत ज़रूरी हो गया था। यह बंगला, ये कारें, यह रुतबा सब जनता की मेहरबानी से है। दुबारा जनता की खोज-खबर लेने के दिन आ गये।
मंत्री जी अपने फौज-फाँटे के साथ जमालपुर के डाक बंगले में रुके। उनके पहुँचते ही डाक-बंगला तीर्थ स्थल बन गया। लोगों की भीड़ बढ़ने लगी। कुछ उनके परिचय के आदमी, कुछ अपने परिचय को भुनाने के इच्छुक, कुछ ऐसे ही कि ‘जगदीश भैया आये हैं, चलो मिल आते हैं’ वाले। बहुत से सयाने यह देखने आये कि ‘जगदिसवा अब हमें पहचानता है कि मिनिस्टर बन के भूल गया।’
बड़ी रात तक मंत्री जी अपने ‘आदमियों’ से घिरे, अपनी घटती लोकप्रियता को फिर से ऊपर ढकेलने की तरकीबें सोचते रहे। बहुत उधेड़बुन हुई, लेकिन साफ-साफ कुछ बात बनी नहीं। तरकीब ऐसी हो कि सब विरोधी चारों खाने चित्त गिरें।
सबेरे मंत्री जी उठे तो मन परेशान था। कौन सा दाँव लगायें कि दंगल जीत लें? मंत्री जी नाश्ता करते जाते थे और सोचते जाते थे। सामने गांधी जी का चित्र टँगा था। वही, घुटने तक धोती और हाथ में लाठी। मंत्री जी के दिमाग में कुछ कौंधा। लो, समाधान सामने है और ढुँढ़ाई दुनिया भर में हो रही है। जनता का मन जीतने के लिए अपने को गरीब जनता जैसा ही बनाना होगा। शान-शौकत दिखाने से वोट नहीं मिलने वाले।
निजी सचिव को बुलाया, कहा, ‘अस्थाना साहब, आज हम किसी गाँव के गरीब की झोपड़ी में विश्राम करेंगे। यह कूलर, यह पंखा सब बेकार। दोपहर का भोजन भी वहीं करेंगे। जो गरीब खाएगा वही खाएँगे। हमारे और गरीब के बीच भेद रहेगा तो हम उसका दिल कैसे जीतेंगे?’
अस्थाना साहब की सिट्टी-पिट्टी गुम। यह कहाँ की मुसीबत आ गयी। भीतर से गुस्सा उठा— कहाँ कहाँ के खब्त इन पर सवार होते रहते हैं।
ऊपर से विनम्रता से बोले, ‘मैं कोई माकूल घर देख कर आपको सूचित करता हूँ सर।’
अस्थाना साहब सुरक्षा अधिकारी को लेकर निकले। सोचा, कस्बे का कोई घर चुनना ठीक नहीं। कस्बे के लोग बदमाश होते हैं। विरोधी लोग खामखाँ कोई तूल खड़ा कर देंगे। कस्बे से तीन चार मील दूर एक गाँव में गये। सरपंच से मुलाकात की, और सुखलाल का घर चुन लिया।
सुखलाल के घर में यह फायदा कि वह एक तो इतना गरीब घर नहीं की घुसते ही घिन आये। यानी कि ज़रा कायदे का गरीब। दूसरे, उसका घर सरपंच के घर के एकदम पास, करीब करीब सरपंच साहब की छत्रछाया में था। तीसरी बात यह कि सुखलाल के घर के पीछे एक दरवाज़ा था,कि कुछ चुपके से घर के भीतर ‘स्मगल’ करना हो तो पीछे से चुपचाप लाया जा सके। यह बड़ी भारी सुविधा थी।
सरपंच साहब से कहकर सुखलाल के घर के आसपास सफाई करा दी गयी। घर की भी सफाई हुई, लेकिन इस तरह कि सब स्वाभाविक लगे। सालों से पल रहे जाले-जंगल साफ हो गये। मुद्दत से स्थायी आश्रय पाये कीड़ों- मकोड़ों को खदेड़ दिया गया। बहुत सा अंगड़- खंगड़ दूर फेंक दिया गया। कुछ गैर-ज़रूरी सामान दूसरे घरों में स्थानांतरित कर दिया गया। सुखलाल को एक सलीके का गरीब बना दिया गया।
सुखलाल साफ-सुथरा कुर्ता धोती पहने यह सब भागदौड़ देखता घूमता था। कुर्ता सरपंच साहब का था, धोती नयी-नयी अस्थाना साहब ने बनिये के यहाँ से उठवा दी थी। घर की सफाई हो गयी। सामने की ऊँची नीची जमीन भी ठीक हो गयी। रास्ते में उगे आलतू फालतू झाड़ साफ हो गये। मिट्टी से सारा घर पोत दिया गया। टूट-फूट सुधर गयी। एक तरफ तुलसी का बिरवा कहीं से लाकर लगा दिया गया। नया घड़ा पानी से भर कर रख दिया गया। उस पर सब तरफ ‘साँतिये’ बना दिए गये। दरवाज़े पर आम के पत्तों की झालर लटका दी गयी।
सुखलाल कमर पर हाथ धरे दूल्हे के बाप की तरह घूमता था। कोई उसे कुछ करने ही नहीं देता था। सब काम अपने आप हो रहा था। पूरे गाँव के लोग उसे और उसके घर को ईर्ष्या से देखते थे।
सुखलाल के घर में दो झिलंगी खाटें थीं, ऐसी कि कोई अच्छा पाला-पोसा शरीर उन पर रख दिया जाए तो मूँज का दम टूट जाए। उन दोनों खाटों को घर से बाहर कर दिया गया। सरपंच साहब के घर से दो मजबूत, कसी हुई खाटें आयीं कि गरीबी का भ्रम भी बना रहे और मंत्री जी के शरीर को तकलीफ भी न हो।
आसपास के घरों में मंत्री जी के सहायकों और पुलिस वालों के विश्राम की व्यवस्था कर दी गयी। मंत्री जी का हुकुम था कि उन्हें छोड़कर बाकी लोग अपने अपने भोजन की व्यवस्था करके लायेंगे, लेकिन ऐसा कैसे होता? सरपंच को इशारा मिल गया था कि सबके लिए व्यवस्था करनी है। इशारा नहीं भी होता तो सरपंच साहब इतना गलत काम कैसे होने देते?
इसलिए सुखलाल के घर के पीछे भट्टी बनाई गयी। उस पर गाँव की पाक कला में कुशल महिलाओं को लगाया गया। सुखलाल की बीवी को उसके पास भी फटकने नहीं दिया गया। उसके बच्चे सकते की हालत में दूर खड़े सारा तमाशा देखते रहे। सुखलाल के घर के सामने तो थोड़े से ही लोग थे, लेकिन घर के पीछे मेला लग गया था। वही से सारा सामान ‘सप्लाई’ होना था। करीब बारह बजे मंत्री जी लाव-लश्कर के साथ पधारे। दरवाज़े पर उनकी आरती हुई। सुखलाल को उनके सामने पेश किया गया। मंत्री जी बोले, ‘भाई सुखलाल, आज हम तुम्हारे ही घर भोजन और विसराम करेंगे।’
सुखलाल बोला, ‘हमारे बड़े भाग हजूर।’
मंत्री जी हाथ उठाकर बोले, ‘हजूर वजूर मत कहो। प्रजातंत्र में सब बराबर हैं। न कोई छोटा, न कोई बड़ा। समझे?’
‘ऐसा न कहें हजूर।’
‘फिर वही हजूर? यह हजूर हजूर बन्द करो।’
सुखलाल बोला, ‘आप बड़े हैं मालिक। हम आप की बराबरी के कैसे हो सकते हैं? आपको हजूर न कहें तो क्या कहें?’
मंत्री जी हार गये। बोले, अच्छा चलो, तुम्हारे घर में चलते हैं।’
भीतर गये तो देखा मूँज की खाट पर नया दरी-चादर और उस पर गुदगुदा तकिया। मंत्री जी समझ गये, लेकिन अनदेखा कर दिया। तकिये के सहारे उठंग गये। गाँव के लोग खाट के पास सिमट आये। दुनिया भर की फरियादें, रोना-धोना। अस्थाना साहब हाथ में नोटबुक लिये सब के नाम और शिकायतें नोट करते थे। गाँव वालों को लगता था आज सारे संकट टल गये। दो घंटे तक यह कचहरी चलती रही।
घंटे बाद अस्थाना साहब आकर फुसफुसाये, ‘सर, खाना तैयार है।’
मंत्री जी मुड़कर सुखलाल से बोले, ‘कहो सुखलाल जी, हमें क्या खिलाओगे?’
सुखलाल हड़बड़ा गया। उसे पता नहीं था कि भट्टी पर क्या पक रहा है। उसने अस्थाना साहब की तरफ देखा। अस्थाना साहब बोले, ‘बताओ भई।’
सुखलाल क्या कहे? कुछ मालूम हो तो बताये।
मंत्री जी फिर मिठास के साथ बोले, ‘बताओ सुखलाल।’
सुखलाल ने पीछे आटे का बोरा देख लिया था। बोला, ‘हजूर, रोटी खिलाएंगे, और फिर जो सरपंच साहब की मरजी।’
अस्थाना साहब उसे घुड़क कर बोले, ‘सरपंच साहब की मरजी का क्या मतलब? खिलाना तो तुम्हें है।’
मंत्री जी भाँप कर बोले, ‘अच्छा, जो भी हो ले आओ।’
सरपंच साहब की पत्नी लंबा घूँघट खींचकर काँसे की चमकती थाली में भोजन रख गयी— दाल, सब्जियाँ, चटनी, रायता, रोटी, चावल। चावल बहुत बढ़िया तो नहीं, लेकिन मामूली भी नहीं। रोटियों में लगे घी का स्पष्टीकरण अस्थाना साहब ने दिया, ‘सर, इसके भाई के घर में गाय है। वहीं से घी और दही माँग लाया। हमने मना किया था, लेकिन नहीं माना।’
मंत्री जी मुस्कराये, पूछा, ‘किसने पकाया है?’
सुखलाल फिर चक्कर में। अस्थाना जी ने उसका उद्धार किया, कहा, ‘इसकी घरवाली ने, सर।’
मंत्री जी बोले, ‘वाह! बड़े भाग्यवान हो, सुखलाल।’
बड़े प्रेम से भोजन हुआ। पीछे पड़ी हुई मंत्री जी की बारात ने भी भोजन किया।
फिर मंत्री जी बोले, ‘भई, अब हम थोड़ा आराम करेंगे।’
थोड़ी देर में वे सो गये। नाक बजने लगी। सुखलाल खड़ा उन्हें पंखा झलता रहा।
तीन घंटे बाद मंत्री जी की नींद टूटी। अँगड़ाई लेकर उठे। बोले, ‘आज जैसी सुख की नींद बहुत दिन बाद आयी। गरीब के घर जैसा चैन और शांति कहीं नहीं। सच कहा है कि गरीब आदमी भगवान का रूप होता है।’
अस्थाना जी से बोले, ‘अस्थाना जी,आज भोजन में जो स्वाद मिला वह अपने बंगले के भोजन में कभी नहीं मिला। आत्मा तृप्त हो गयी। रोटी चटनी से ज्यादा स्वादिष्ट भोजन संसार में नहीं।’
फिर सुखलाल से बोले, ‘सुखलाल भाई, अब हम जाएँगे। आपके घर में और आपके भोजन में हमें बहुत आनन्द मिला। हम आपके हैं। हमें अपना समझिए। ऊपरी टीम- टाम देखकर हमें अपने से अलग मत समझिए।’
इसके बाद मंत्री जी सब को हाथ जोड़कर अपने काफिले के साथ चले गये। थोड़ी देर पहले का गुलज़ार वीरान हो गया। पीछे रह गये सामान को सहेजते सरपंच साहब और गाँव वाले। जैसे बारात की विदा हो जाने के बाद लड़की वाले रह जाते हैं।
मंत्री जी के जाने के बाद सुखलाल सरपंच से बोला, ‘हजूर, हमें भी भोजन दिलवा दो। हम तो रह ही गये।’
सरपंच जी ज़ोर से हँसे, बोले, ‘वाह! तुम्हारे नाम से दुनिया भोजन कर गयी और तुम्हीं रह गये?’
सुखलाल सपरिवार भोजन करने बैठा। सरपंच जी सामान समिटवाने में लगे थे। खाते-खाते सुखलाल कुछ सोच कर सरपंच से बोला, ‘हजूर, एक अरज है। अगली बार जब मंतरी जी आएँ तो हमारे घर में ही रहवास और भोजन होवे।’
सरपंच जी उसकी बात सुनकर हँसते-हँसते लोटपोट हो गये और सुखलाल झेंप कर सिर खुजाने लगा।