डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘अंतर्राष्ट्रीय कवि और ख़तरनाक समीक्षक’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ व्यंग्य ☆ ‘अंतर्राष्ट्रीय कवि और ख़तरनाक समीक्षक’ ☆
नगर के जाने-माने अंतर्राष्ट्रीय कवि सरतारे लाल ‘निश्चिन्त’ सवेरे सवेरे टहलने निकले थे। जब से उन्हें दुबई और कनाडा के कवियों के साथ ऑनलाइन कविता-पाठ का मौका मिला था तब से वे छलाँग लगाकर स्थानीय से अंतर्राष्ट्रीय हो गये थे। कोविड के काल में कई स्थानीय स्तर के लेखक अंतर्राष्ट्रीय का पद पा गये। तब से ‘निश्चिन्त’ जी ने स्थायी रूप से अपने नाम के आगे ‘अंतर्राष्ट्रीय कवि’ चिपका लिया था।
‘निश्चिन्त’ जी उस दिन टहलते टहलते नगर के एक दूसरे कवि ‘आहत’ जी के घर पहुंच गये। आवाज़ दी तो ‘आहत’ जी बालकनी पर प्रकट हुए। ‘निश्चिन्त’ जी ने पूछा, ‘मेरे कविता-संग्रह पर कुछ लिखा क्या? चार छः लाइनें लिख देते तो कहीं छपने का जुगाड़ बैठाऊँ।’
‘आहत’ जी मूड़ खुजाते हुए बोले, ‘अरे क्या बताऊँ भैया। शादी-ब्याह में ऐसा फँसा कि लिखने का टाइम ही नहीं मिला। लेकिन निश्चिन्त रहें। मैंने आपका संग्रह गोकुल जी को दे दिया है। वे बढ़िया समीक्षा करते हैं। समझदार आदमी हैं। मैंने उन से निवेदन किया है कि जल्दी लिख दें।’
सुनकर ‘निश्चिन्त’ जी की आँखें कपार पर चढ़ गयीं। ठंड में भी माथे पर पसीना चुहचुहा आया। शरीर में झुरझुरी दौड़ने लगी। लगा कि वहीं भूमि पर गिर जायेंगे। ऊँचे स्वर में बोले, ‘अरे आपने उस हत्यारे को मेरी किताब क्यों दे दी? वह किताब को चीर-फाड़ कर रख देता है। सयानों का भी लिहाज नहीं करता। आपको याद नहीं उसी की समीक्षा के कारण नगर के प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय कवि ‘घायल’ जी को एक हफ्ते अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा था। यह आदमी दफा 302 के मुजरिम से कम नहीं है।’
‘आहत’ जी हँसकर बोले, ‘ऐसी कोई बात नहीं है। वह ज़बरदस्ती किसी की आलोचना नहीं करता। यह जरूर है कि वह बेलिहाज गुण- दोष के आधार पर लिखता है। उसकी अच्छी प्रतिष्ठा है। उसके लिखने से आपको फायदा ही होगा।’
‘निश्चिन्त’ जी बिफर कर बोले, ‘भाड़ में गया फायदा। वह जाने कहाँ से खोद खोद कर गलतियाँ और कमजोरियाँ निकालता है। हम तो इसलिए किताब देते हैं कि तारीफ के दो बोल सुनने को मिलेंगे। इसीलिए किताबें मित्रों को ही दी जाती हैं और ‘सो कॉल्ड’ निष्पक्ष समीक्षकों से बचा जाता है। आपने मेरी किताब गलत आदमी को दे दी। आप आज ही मेरी किताब उससे वापस ले लें। मैं शाम को आऊँगा। देर होने पर कहीं उसने समीक्षा लिखकर कहीं छपवा दी तो मैं मारा जाऊँगा। जब तक किताब मेरे हाथ में नहीं आ जाएगी तब तक मुझे चैन नहीं मिलने वाला। आपने मेरा आज का पूरा दिन खराब कर दिया।’
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈