हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 173 ☆ “दास्ताने दर्द…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक समसामयिक विषय पर आधारित माइक्रो व्यंग्य – “दास्ताने दर्द)

☆ व्यंग्य # 173 ☆ “दास्ताने दर्द…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

दास्ताने दर्द…

डाक्टर, अस्पताल, दवाई और ठगी, लुटाई शब्दों के गठबंधन ने सांस लेना दूभर कर दिया है दूरदराज गांव के अपढ़ गरीब डाक्टर, अस्पताल और दवाओं से त्रस्त हैं। पेट खोलकर पैसे का तकाजा करना। लाश को कई दिनों तक वेंटिलेटर में रखकर बिल बढाना, बिल जमा होने पर ही लाश देना ऐसे अनगिनत कितने हादसों की लम्बी कतार है। एक गांव के गरीब मरीज के वेदनामय स्वर को हम इस व्यंग्यकथा के रुप में प्रस्तुत कर रहे हैं जो एक गांव के गरीब मरीज की दर्द भरी दास्तान है।

“गांव के गरीब मरीज के हंसते हुए वेदनामय स्वर”

दुनिया रंगमंच जैसी है, खूब अभिनय भी कराती है, रुलाती भी है…. खुद पर शाबासी भी दे देती है। किस पर विश्वास कर लें।

सूरज आज भी निकला है। हवाएं बह रहीं हैं तेज… बेशर्म के हजारों फूल खिलखिलाकर हंस रहे हैं। नदिया के किनारे काले पत्थर में बैठकर नहाने – धोने की बात सोचते – सोचते फिर पेट में दर्द का इतिहास उखड़ गया है। गांव के नाड़ी वैद्य को दिखाया था तो पेट पकड़ कर बोले थे – शीत वात पित्त का लफड़ा है तुम्हारे पेट में तीनों इकठ्ठे होकर राजनीति कर रहे हैं आपस में दलबदल कर रहे हैं जब पित्त दलबदल कर शीत बन जाता है तो वात पेट में मरोड़ लाता है। दो महीने चूर्ण खाना, दो जनेऊ पहन लेना फिर चुनाव के बाद देखते हैं। बड़ी गजब बात है कि गांव के लिए डॉक्टर बनाए जाते हैं और गांव में कोई पढ़ा लिखा डाक्टर आने तैयार नहीं होता। सुना है कि कहीं जुगाड़ नहीं बैठा तो एक कोटे वाली डाक्टरनी पिछले हफ्ते आयी है गांव। सो हम नहाए भी खूब और धोए भी खूब फिर डाक्टरनी बाई को दिखाने चल दिए, डाक्टरनी ने दो पाइप दोनों कान में डाले और चिटी धप्प जैसी चीज पेट में रख दी… गुदगुदी हुई तो डाक्टरनी बोली – “पांव भारी हैं…. जुड़वे लग रहे हैं। गांव भर में हवा फैल गई कि हमारे पांव भारी हैं, गांव की महिलाएं गर्म भजिया और खट्टी चटनी खिलाकर पुण्य कमाने के चक्कर में थीं। पड़ोसन ने खट्टे आम टोकनी भर भिजवा दिये। हम कहीं मुंह दिखाने काबिल नहीं रहे तुरंत जनेऊ उतार के फेंक दिया। घरवाली भी शक की निगाह से देखने लगी…. एक तो पेट में दर्द और ऊपर से लांछन पे लांछन…. ।तंग आ गये पैर तरफ नजर डाली तो पैरों में खूब सारी सूजन और अब सचमुच पैर भारी लगने लगे। पत्नी बोली – चलो पास के शहर में दिखा लेते हैं, हो सकता है कि डाक्टरनी झूठ बोल रही हो क्योंकि आजकल झूठ बोलने का फैशन बढ़ गया है, कुछ मालूम नहीं तो झूठ बोल कर टाल दो…. झूठ की अपनी महत्ता अपनी उपयोगिता और अपना इतिहास है यूं तो झूठ का ‘विकास’ मानव सभ्यता के साथ हुआ पर इन दिनों झूठ – झटका और विकास का बोलबाला है। वे “झूठ बोले कौआ काटे….” वाला गाना सुनकर खूब झूठ बोलते हैं झटके मारते हैं पर कौआ उनको नहीं काटता इसलिए वे फेंकू उस्ताद कहलाते हैं। झूठे अच्छे दिन आने वाले हैं। बड़ा गजब है झूठ बोलने वाला होशियारी और दिलेरी से सफेद झूठ बोलता है और सुनने वाला उसे पूरी सच्चाई से सुनकर मान लेता है…… पत्नी लगातार बड़बड़ाये जा रही है। पत्नी जब बड़बड़ा रही हो तो बीच में बोलने से फटाके जैसे फट पड़ती है इसलिए उस समय चुप रहने से सुरक्षा बनी रहती है सो हमने चुप रहना ज्यादा ठीक समझा, चुप रहने का भी इतिहास है जनेऊ कान में लगाने से चुप रहने की कला सीख सकते हैं।

चुपचाप कपड़े – लत्ते रखके बस में बैठ गए, शहर पहुंचे तो डॉक्टर बोला – पैर में सूजन मतलब किडनी में गड़बड़ी…… तुरत-फुरत डाक्टर ने कहीं फोन लगाया “किडनी आ गई है”। भर्ती किया सब टेस्ट कराए आपरेशन कर दिया हम का जाने कि आजकल किडनी की चोरी भी होत है। कुछ दिन में छुट्टी हुई बोला – दो महीने बाद दिखाना। दो महीने बाद गये तो पैरों की सूजन और बढ़ गई है डाक्टर बोला – दिल का मामला है हार्ट वाले को दिखाओ, हमने अपना काम कर लिया है।

हार्ट वाला डाक्टर बोला – ‘ब्लॉकेज ही ब्लॉकेज हैं’ तभी तो पैर भारी लग रहे हैं पैरों में भरपूर सूजन है, एंजियोगराफी, एंजियोप्लास्टी और न जाने क्या क्या करके पत्नी के गहने और घर बिकवा दिया, बोला – जी है तो जहान् है…… ।पत्नी फिर बड़बड़ाने लगी – ये सब झूठे हैं, ठगने के बहाने डराते हैं, साले सब परजीवी हैं, गरीबों पर दया नहीं करते, एक किडनी चुरा ली, अब दिल चुराने में लगे हैं, कोई पांव भारी हैं कहता है कोई दिल की नाली चोक की बात करता है,………. हमने फिर पत्नी को टोंका – भागवान थोड़ा चुप रहो डाक्टर सुन लेगा तो बिल बढ़ा देगा…… बिल बढ़ने के नाम पर पत्नी थोड़ा चुप हो गई।

आठ महीने बीत गए थे कुछ हो नहीं रहा था नौवें महीने की शुरुआत हो चुकी थी पेट में उथल-पुथल मची गई, पीड़ा का इतिहास पर्वत बन रहा था पेट और पांव की सूजन इतिहास बनाने के लिए दोंदरा मचा रही है।

कोई ने कहा – बराट को दिखाओ पुराना डाक्टर है मर्ज पकड़ लेता है, सो एक दिन बराट के दवाखाने चले गए। डाक्टर ने लिटाया और पूछा – कैसा लगता है ?

हमें गुस्सा आ गया हम बोले – “का कैसो लगत है” सब डाक्टर परजीवी जैसे लगते हैं, कभी पत्नी भी परजीवी लगती है बच्चे होते तो वे भी परजीवी लगते, सब कुछ परजीवी लगता है कभी पड़ोसी तो कभी मेहमान भी परजीवी लगते हैं। कभी कभी लगता है एक भारत माता है और उसकी आंतों में बड़े बड़े परजीवी मंत्री, नेता अफसर, डाक्टर सब चिपक कर खून चूस रहे हैं फिर कभी लगता है कि 140 करोड़ आबादी अच्छे दिन ले के आओ कह के चिल्ला रही है और उनकी आवाज दबाने हर क्षेत्र में नये-नये परजीवी पैदा हो रहे हैं जिन्होंने देश को भाषा धर्म और जाति के आधार पर बांट रखा है कुछ परजीवी बनकर कुर्सियों में चिपके हैं और भ्रष्टाचार फैला रहे हैं…….
ज्यादा मुंह चलता देख डाक्टर ने ऐसा पेट दबाया कि हमारा मुंह बंद हो गया……….

डाक्टर बोला – जिन परजीवियों की बात कर रहे हो सब तो तुम्हारे पेट में भरे हैं बहुत से जुड़वा भरे हैं। सुन के हम डर गये, बड़ी मुश्किल है कि हमने कुछ किया ही नहीं तो इतने सारे कहां से भर गये, घबराके भागने लगे तो डाक्टर ने पकड़ लिया…. ढाढस बंधाया बोला – “आपरेशन नहीं करुंगा…. गोली से निकाल दूंगा।

हमें कुछ समझ नहीं आ रहा था सो हम अब हर बात पर हां… हां करते हुए बैठ गए।

डाक्टर ने तीन गोली एक साथ खिलाई। रात भर सोये, सुबह रेल पटरी के किनारे खुले में शौच करने बैठे तो भलभला के निकलने चालू हो गये….

पहले दो निकले आधे निकले और फंस गए तो हमने खींच के निकाला, फिर दो और निकल आए, दो – दो करते निकलते रहे, हम खींचतान करके निकालते रहे। लाईन लगा के निकलते रहे। इतिहास रच डाला। फिर हमने सबको धोया – पोंछा और पत्नी को दिखाया…. पत्नी की जीभ निकल आयी बोली – अरे…. ये तो पटार हैं पटार पेट में पाया जाने वाला एक्स्ट्रा लार्ज परजीवी कृमि है परजीवी बनके चूस डाला। पांव भारी करके बदनामी करायी, इनके चक्कर में किडनी चोरी हुई, दिल का दिवाला निकल गया।
जाओ नाली में फेंक दो इनको…….. ।

पेट से निकले पटारों को देख देख कर अंदर से बड़ी आत्मीयता और ममता फूट रही है क्यों न फूटे…. नौ महीने से पेट में पले बढ़े हैं नौ महीनों से इन्होंने भी भूख प्यास, सुख दुख सब कुछ मेरे साथ सहा है, और पेट में ही रहे आये इधर उधर भगे नहीं, इन्होंने नयी-नयी देशभक्ति जैसी निभाई चूसते भले रहे पर आधार को लिंक करने की मांग नहीं उठाई। जीव हत्या का पाप डाक्टर को लगेगा पर हमें इन पर दया आ रही है ये जो लम्बे लम्बे तंदुरुस्त से पड़े हैं। इन बेचारों ने डाक्टरों के इतिहास के काले पन्ने पढ़ने का मौका दे दिया। पटार महराज ने हमें इतिहास लिखना सिखा दिया।

गिला किसी से नहीं……. शिकायत किसी से नहीं…. दर्द अपनी जगह था पर अपना अपना इतिहास में हमारे पटार महराज का इतिहास निखालिस कहलाएगा, हालांकि इतिहास विवाद का विषय बनता जा रहा है इन दिनों, इतिहास से राजनीति गरमा जाती है, इतिहास से दंगा फसाद का डर हो गया इन दिनों। नाक कटने का डर….. गला काटने के फरमान। इतिहास पर फतवे……. राम… राम ।खेल खतरनाक हो रहा है पर गीता पर हाथ रखकर हम कह रहे हैं कि पटार प्रकरण इतिहास सत्य है और सत्य के अलावा कुछ नहीं है और न ही इस इतिहास में कोई खतरे हैं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #178 ☆ व्यंग्य – बल्लू की परेशानी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक व्यंग्य ‘बल्लू की परेशानी’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 178 ☆

☆ व्यंग्य ☆ बल्लू की परेशानी

बल्लू कई दिन से ग़ायब है। पहले रोज़ कॉफी-हाउस में पहुँचकर दो-तीन घंटे बहस-मुबाहिसे  में बिताना उसका प्रिय शग़ल था। अब वह गूलर का फूल हो गया है और हम उसे तलाशते फिरते हैं।

धीरज चुका तो हम उसके घर पहुँच गये। बुलाने पर निकलकर ड्राइंग-रूम में आया। अचानक ग़ायब हो जाने का कारण पूछने पर उँगलियाँ मरोड़ता धीरे-धीरे बोला, ‘तबियत ठीक नहीं रहती। डिप्रेशन का असर है।’

मैंने पूछा, ‘हे भाई, तू सर्व प्रकार से सुख में है, फिर डिप्रेशन की वजह क्या है?’

बल्लू बोला, ‘भाई, मैं बहुत दिनों से जुमला-वायरस से परेशान हूँ जो मुझे कोरोना वायरस से भी ज़्यादा डराता है। ये वायरस बार-बार हमला करता है। एक जुमला जाता है तो दूसरा उसकी जगह खड़ा हो जाता है। चैन से रहने नहीं देता।’

मैंने पूछा, ‘भाई, तू कौन से जुमलों की बात करता है जो तेरे लिए परेशानी का सबब बने हुए हैं?’

बल्लू बोला, ‘पता तो तुम सभी को है, लेकिन तुम लोग फिक्र नहीं करते। मैं कुछ ज़्यादा सोचता हूँ, इसलिए ज़्यादा परेशान होता हूँ।

‘जुमले अब टिड्डियों जैसे हमला कर रहे हैं। पहले जब कुछ लेखकों-कवियों ने अपने पुरस्कार लौटाये तो ‘अवार्ड वापसी गैंग’ का जुमला आया। मैंने उसकी फिक्र नहीं की क्योंकि अपने पास तो लौटाने को कोई पुरस्कार था ही नहीं। इसके बाद जे.एन.यू. वाला ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ का जुमला आया। उससे भी अपन को कोई फर्क नहीं पड़ा क्योंकि अपन को जे.एन.यू. से क्या लेना देना? लेकिन जब ‘देशद्रोही’ वाला जुमला आया तो अपन को डर लगा क्योंकि देशद्रोही की कोई मुकम्मल परिभाषा नहीं थी। किसी को भी इस में लपेट लेना मुश्किल नहीं था।

‘फिर ‘बुद्धिजीवी’, ‘लिबरल’ और ‘स्यूडो सेकुलर’ यानी ‘छद्म धर्मनिरपेक्ष’ जैसे जुमले आये। मैंने तत्काल अपने को बुद्धिजीवी कहना बन्द किया और बुद्धिजीवियों की सोहबत में उठना-बैठना बन्द कर दिया। ‘लिबरल’ के ठप्पे से बचने के लिए पोंगापंथी और अंधविश्वास पर टिप्पणी करना बन्द कर दिया, और ‘स्यूडो सेकुलर’ की चिप्पी से बचने के लिए दूसरे धर्मों की तारीफ करने से परहेज़ करने लगा।

‘इसके बाद एक जुमला ‘अर्बन नक्सल’ आया जो काफी ख़तरनाक था। इससे बचने के लिए अपन ने समाज-सेवा और आदिवासी-कल्याण जैसे मंसूबे अपने दिमाग़ से निकाल फेंके।

‘फिर नयी परेशानी तब हुई जब एक मंत्री ने गद्दारों को गोली मारने का नारा लगवाया। मुझे डर इसलिए लगा क्योंकि ‘गद्दार’ की कोई ‘डेफिनीशन’ ज़ारी नहीं हुई। यह स्पष्ट नहीं किया गया कि डेफिनीशन ऊपर से आएगी या गोली मारने वाले अपने हिसाब से गद्दारों को चिन्हित करेंगे। आदमी को विरोधी विचारों वाले सब गद्दार ही लगते हैं।

‘अब ‘सनातनी’ और ‘गैर-सनातनी’ वाले जुमले हवा में तैर रहे हैं और मैं ‘सनातनी’ का मतलब समझने के लिए किताबों से मगजमारी कर रहा हूँ।

‘कुल मिलाकर मैं बहुत परेशान हूँ और बार-बार डिप्रेशन का शिकार होता हूँ।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #177 ☆ व्यंग्य – पाँव छुआने वाले सर ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक व्यंग्य पाँव छुआने वाले सर । इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 177 ☆

☆ व्यंग्य ☆ पाँव छुआने वाले सर

सक्सेना सर शहर के नामी स्कूल से रिटायर हुए। उनके स्कूल का प्रताप ऐसा कि शहर के अलावा आसपास के कस्बों के लड़के प्रवेश के लिए पहले वहीं लाइन लगाते रहे। इसीलिए सक्सेना सर के चेलों की संख्या हज़ारों में है। हर दफ्तर में उनके दो चार चेले मिल जाते हैं। सक्सेना सर कभी बाज़ार जाते हैं तो न जाने कहाँ से प्रकट होकर दस बीस सिर उनके चरणों में झुक जाते हैं। कभी रेलवे स्टेशन जाते हैं तो वहाँ भी भीड़ से टूटकर पाँच दस सिर उनके चरणों को टटोलने लगते हैं। उनके नाती-पोते कहते हैं, ‘दादा जी, आपको तो चुनाव में खड़े होना चाहिए। आपको बिना माँगे हज़ारों वोट मिल जाएँगे।’ सुनकर सक्सेना सर का चेहरा गर्व से दीप्त हो जाता है।

उनकी कॉलोनी में भी उनका बड़ा मान- सम्मान है। कॉलोनी के युवक-युवतियाँ उनके सामने आते हैं तो आँखें झुका लेते हैं। किसी नेता को कॉलोनी में आमंत्रित किया जाता है तो सक्सेना सर को उनके बगल में बैठाया जाता है। अक्सर नेताजी भी सक्सेना सर के शिष्य निकलते हैं।
सक्सेना सर की लोकप्रियता देखते हुए कॉलोनी वासियों ने उन्हें कॉलोनी की कल्याण- समिति का अध्यक्ष बना दिया है। काम-धाम तो दूसरे करते हैं, उन्हें इसलिए चुना गया है ताकि कॉलोनी अधिकारियों के अनावश्यक हस्तक्षेप और खींचतान से बची रहे। कॉलोनी वासियों के लिए वे तुरुप का पत्ता हैं जो उस वक्त काम आता है जब दूसरे उपाय फेल हो जाते हैं।

कॉलोनी वालों के कुछ ज़रूरी काम नगर-विकास के दफ्तर में अटके हैं। कॉलोनी के सभी प्लॉट लीज़ पर हैं। उन्हें फ्रीहोल्ड कराने की मंज़ूरी ऊपर से आ चुकी है। अब दफ्तरी कार्यवाही बाकी है, जिसके लिए कॉलोनी वासी दफ्तर के चक्कर लगा रहे हैं। किसी न किसी बहाने मामला टाला जा रहा है और कॉलोनी वासी परेशान हैं।

लाचार कॉलोनी वालों ने सक्सेना सर का दामन थामा। उन से निवेदन किया गया कि संबंधित दफ्तर चलकर प्रमुख अधिकारी को दर्शन दें और कॉलोनी वालों की समस्या उनके सामने रखें। सक्सेना सर मान गये और एक दिन सक्सेना सर को दूल्हे की तरह आगे करके दस बारह लोगों की बरात दफ्तर पहुँच गयी।

सक्सेना सर दफ्तर के बरामदे में पहुँचे तो वहाँ उन्हें देखकर लोगों के कदम ठमकने लगे। गर्दनें उनकी तरफ मुड़ने लगीं। थोड़ी ही देर में उनके भूतपूर्व शिष्य अपने-अपने कमरों से निकलकर आने लगे। थोड़ी देर में उनके चरन, स्पर्श के लिए झुके हुए नरमुंडों में छिप गये। सक्सेना सर गर्व से अपने साथ आये लोगों की तरफ देखते रहे।

दफ्तर के प्रमुख अधिकारी भी दौड़ते हुए आ गये। बोले, ‘कैसे पधारे सर? फोन कर दिया होता। आपको कष्ट करने की क्या ज़रूरत थी?’

सक्सेना सर ससम्मान चेंबर में ले जाए गये, जहाँ पूरी मंडली के सामने चाय पेश की गयी। मंडली सक्सेना सर को मिल रहे सम्मान से गद्गद थी।

लोगों ने अपनी समस्या प्रमुख अधिकारी जी के सामने रखी। अधिकारी ने संबंधित लिपिक झुन्नी बाबू को बुलाकर कैफियत ली, फिर सर से बोले, ‘मैं दो-तीन दिन में फोन से खबर दूँगा। आप चिन्ता न करें। हमारे रहते आपको चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं है।’

सर खुश खुश लौट आये। उनकी मंडली के पाँव ज़मीन पर नहीं थे। सक्सेना सर का जलवा ही अलग है! काम हुआ ही समझो।

दो-तीन दिन की जगह हफ्ते से ऊपर हो गया, लेकिन दफ्तर से कोई फोन नहीं आया। लोग बेचैन होने लगे। एक बार फिर सक्सेना सर से अनुरोध किया गया। एक बार फिर सक्सेना सर बरात लेकर दफ्तर पहुँचे। एक बार फिर दफ्तर के शिष्य उनके चरणों में झुके, लेकिन इस बार प्रमुख अधिकारी जी बाहर नहीं निकले।

सक्सेना सर उनके चेंबर में घुसे तो वे रूमाल से मुँह पोंछने लगे। झुन्नी बाबू को तलब किया गया। वे आये और मिनमिनाते हुए साहब को कोई दिक्कत बताते रहे, जो मंडली की समझ में नहीं आयी। साहब सक्सेना सर से मुखातिब हुए,बोले, ‘आप फिकर न करें। मैं दो-तीन दिन में पक्का देख लूँगा। अभी कुछ बिज़ी हो गया था। मैं फोन करूँगा। आप निश्चिंत रहें।’

बरात फिर लौट आयी। फिर आठ दस दिन गुज़र गये, लेकिन उस तरफ सन्नाटा ही रहा। कोई फोन नहीं आया। कॉलोनी वाले फिर छटपटाने लगे। एक दो लोग कहीं से झुन्नी बाबू का फोन नंबर ले आये। डरते डरते फोन लगाया। झिझकते हुए पूछा, ‘झुन्नी बाबू, हम लोग सक्सेना सर के साथ आये थे। हमारे लीज़ वाले मामले का क्या हुआ?’

उस तरफ से थोड़ी देर सन्नाटा रहा। फिर झुन्नी बाबू बोले, ‘भैया, काम कराना हो तो सही रास्ते से चलो। सक्सेना सर के साथ आओगे तो उनके सामने मन की बात कैसे होगी? सब लोग पाँव ही छूते रहेंगे, आगे कुछ नहीं होगा। इसलिए जिसका काम है वह आकर बात करे। काम कराना हो तो अब सक्सेना सर को लेकर मत आना।’

तब से कॉलोनी के लोग सक्सेना सर से कन्नी काटते फिर रहे हैं। वे सामने आते दिखते हैं तो लोग दाहिने बायें से निकल जाते हैं। वे तीसरी बार भी उस दफ्तर में जाने को तैयार हैं, लेकिन उन्हें ले जाने वाले ग़ायब हैं। सुना है कि लोग मन की बात करने के लिए अलग-अलग झुन्नी बाबू के पास पहुँचने लगे हैं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 133 ☆ भाषा का विज्ञान ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना भाषा का विज्ञान। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 132 ☆

☆ भाषा का विज्ञान 

मन की बात को समझने हेतु नयनों को पढ़ना जरूरी होता है। दिमाग में क्या चल रहा है, इसे माइंडरीडर आसानी से बता देते हैं। मौन जब मुखरित होता है तो अनकहा भी सुनाई देने लगता है। जरा सोचिए सुनने- सुनाने से क्या होगा? आपको समाधान की ओर जाना चाहिए। हम आसानी से दूसरों के मन को समझ लेते हैं, किंतु कहीं वो कुछ माँगने न लगे इसलिए जान बूझ कर अनजान बनने का नाटक करते हैं।

अब सोचिए कि क्या जरूरत है सब के विचारों को पढ़ने की? हम स्वयं को समझे बिना सब को ज्ञान बाँटने चल देते हैं। देखा- अनदेखा सब कुछ नजर अंदाज करते हुए व्यर्थ का गाल बजाने लगते हैं। हर तर्क विज्ञान की कसौटी पर कसा जा सकता है बस प्रयोगशाला कैसी होगी इसका ध्यान जरूर रखना चाहिए।

मन के भावों को शब्दों से व्यक्त करना उतना आसान नहीं होता जितना हाव- भाव को देखकर समझना सरल होता है। हर चेहरा मुस्कराए इसके लिए एक ही उपाय लागू नहीं किया जा सकता है। जैसे हर मर्ज की दवा  अलग- अलग होती है, वैसे ही मनोभाव आवश्यकता अनुसार बदलते रहते हैं। जिसको जिस तरीके से समझ में आए वैसा समझाने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए।

धर्म की कसौटी पर खुद को परखना बहुत सरल होता है, क्योंकि जब से समझ शुरू होती है, हम कोई न कोई विचारधारा के साथ जुड़ते चले जाते हैं। श्रद्धा और विश्वास के सहारे अपने सभी कार्यों को प्रार्थना द्वारा आसानी से पूर्ण करते जाते हैं। बस यहीं से हमारी आस्था धार्मिक विचारों के प्रति सुदृढ़ होती जाती है। क्या फर्क पड़ता है कि हम किस तरह से स्वयं को विकसित कर पाते हैं? जो भी हमें मानसिक सुकून दे उस भाषा को पढ़ना, समझना आना ये भी तो एक कला है। सच्चाई के साथ जुड़कर सर्वमंगल का भाव रखते हुए कार्यों को करते कराते रहें एक न एक दिन सत्य सब को समझ में आएगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 132 ☆ सबको साथ लेकर चलना ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सबको साथ लेकर चलना। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 132 ☆

☆ सबको साथ लेकर चलना ☆ 

फूलों के साथ खुशबू, रंग, शेड्स व काँटे रहते हैं। सबका अपना- अपना महत्व होता है। क्या आपने महसूस किया कि जीवन भी इसी तरह होता है जिसमें सभी को शामिल करते हुए चलना पड़ता है। इस सबमें समझौते का विशेष योगदान होता है। जो अपने आपको निखारने में लगा हुआ हो उसे केवल सुख  की चाहत नहीं होनी चाहिए, दुख तो सुख के साथ आएगा ही। हम सबमें संतुष्टि का अभाव होता है, जिसके चलते सफलता और शीर्ष  दोनों चाहिए। प्रतिद्वंद्वी हो लेकिन कमजोर। ताकतवर से दूरी बनकर चलते हुए कहीं न कहीं हम स्वयं को निरीह करते चले जाते हैं। इस तरह कब हम दौड़ से बाहर हो गए पता ही नहीं चलता।

हाँ एक बात जरूर है, मानसिक रूप से कमजोर व्यक्ति दबाब नहीं सह पाते, दूसरों की तारीफ व उपलब्धियों से आहत होकर अपना रास्ता बदल देते हैं। जहाँ के लिए निकले हैं वहाँ तो पहुँचिए। कमजोर मन की यही निशानी है कि वो दूसरों द्वारा संचालित होता है। यदि आप उच्च पद पर विराजित हैं तो सहना आना चाहिए। आग सी तपिश, धूप की तेजी यदि नहीं होगी तो कोई भी आसानी से उल्लू बनाकर चलता बनेगा।

चलने से याद आया जो रास्ते पर चलेगा वो अवश्य ही कुछ न कुछ बनेगा क्योंकि धूल में बहुत ताकत है। धरती मैया का आशीर्वाद समझ कर इसे स्वीकार कीजिए और आगे बढ़ते रहिए। जब सोच सही होगी तो साथी मिलने लगेंगे। आसानी से जो कुछ मिलता है उसमें भले ही चमक दमक हो किन्तु लोगों को उसमें कोई जुड़ाव नहीं दिखता है। जब मन ये तय कर लेता है कि प्रतिदिन इतनी दूरी तो तय करनी ही है, तो असम्भव कुछ नहीं रह जाता। सारा दिमाग का खेल है। किसी को परास्त करना हो तो उसके दिमाग व मनोभावों से खेलिए, यदि उसमें लक्ष्य के प्रति लगन का भाव नहीं होगा तो वो आपसे दूरी बना लेगा। हम जब तक आरामदायक स्थिति से दूर नहीं होंगे तब तक आशानुरूप परिणाम नहीं मिलेंगे।

तरक्की पाने हेतु लोग अपना गाँव, शहर, प्रदेश व देश तक छोड़ देते हैं। बाहर रहकर पहचान बनाना कोई आसान कार्य नहीं होता है। जिसमें जो गुण होता है वो उसे तराश कर आगे बढ़ने लगता है।

अन्ततः यही कहा जा सकता है कि समय का उपयोग करते हुए स्वयं के साथ- साथ सबको सजाते- सँवारते रहें।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 31 ☆ व्यंग्य – नंगे हो तो नंगे दिखो भी ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य  “नंगे हो तो नंगे दिखो भी”।) 

☆ शेष कुशल # 31☆

☆ व्यंग्य – “नंगे हो तो नंगे दिखो भी” – शांतिलाल जैन ☆ 

(इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे व्यंग्यकार के सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें।)

हम तो कहेंगे साहब कि ये हवाईजहाज़ बनाने वाली कंपनी की गलती है. इतने बड़े एयरक्राफ्ट के अन्दर खम्बे फिट करना भूल गई. अब किसी को एक पैर ऊपर करके हल्का होना हो तो वो आसमान में कहाँ जाए, बताईये भला ? फ्लाईट में बैठनेवाले सभी तो इंसा नहीं होते हैं ना, कुछ सूंघ कर करनेवाले भी होते हैं. धुत्त नशे में जो इंसा इंसा नहीं रहा उसके लिए क्या तो महिला और क्या तो खम्बा. करने को तो वे टायर पे भी कर सकते थे मगर आसमां में विमान के टायर बाहर नहीं होते सो अन्दर ही हल्का होना पड़ा.

बहरहाल, आसमां पर रहनेवाले आभिजात्य के लिए नीचे की पूरी दुनिया एक यूरीनल है, वे जब जैसे जहाँ चाहे यूरिनेट कर सकते हैं. वे ओरिजनलिटी में रहते हैं, नंगे हो तो नंगे दिखो भी. उन्होंने नंगापन दिखाया तो, आई मीन ज़िप खोल के जेनिटल्स दिखाए ना. अखबार में तो यही लिखा रहा. पूछने का मन किया किया कि बिना ज़िप खोले उनपे धार कैसे मारी जा सकती थी जो दादी नहीं तो माँ की उम्र की तो हैं ही. शराब तो बस तड़का लगाती है, असल नशा पद, पैसे, रसूख का होता है. एक तो फ्रिक्वेंट फ्लायर,  मल्टीनॅशनल कंपनी का वाईस प्रेसिडेंट,  करोड़ दो करोड़ का पैकेज तो रहा ही होगा, कमाल का पढ़ा लिखा मगर अंततः नंगा जो ठहरा. नंगे के नौ-ग्रह बलवान.  केबिन-क्रू को भी अपनी नौकरी प्यारी जो ठहरी. न एयर इंडिया सरकारी रही न उनकी नौकरियाँ. अब गई कि तब गई. तलवार की धार पर चलना है तो धार मारनेवाले कस्टमर को भी नाराज़ नहीं कर सकते. घुटना डॉलर की तरफ मुड़ता है. एविएशन का मार्किट है श्रीमान, यहाँ उपभोक्ता राजा होता है. राजा को नंगा तो कोई अबोध बालक ही कह सकता है, कप्तान पायलट की क्या बिसात ?

वो राजा ही नहीं ‘राजा बेटा’ भी है. पप्पा बचाव में उतर आए हैं. जितनी घिनौनी हरकत लाड़ले ने की उतना ही खूबसूरत दलीलें धृतराष्ट्र ने दी. अपन के बाऊजी होते तो इससे हज़ार गुना छोटी हरकत पे भी हवाई अड्डे से घर तक जुतियाते हुए लाते और थानेदार को बोलते कि दो डंडे तू भी लगा नालायक के, बिरादरी में नाक कटा दी. अभिजनों के  संसार में पैसा ही नाक है, माल हो ज़ेब में तो नाक तो टाईटेनियम की भी लग जाती है. होड़ सी लगी है – बेटा इत्ता नंगा तो बाप इत्ते पे और इत्ता. वैसे भी जो लोग सभ्यता  के चरम पर पहुँच जाते हैं वे कब आदिम दौर में प्रवेश कर जाते हैं पता ही नहीं चलता,  वल्कल वस्त्र से भी पूर्व की अवस्था में. उसी का मुज़ाहिरा पेश किया सुसु भैया ने. संभ्रांतजन उस सभ्य समाज की नुमाईंदगी करते हैं जो दीखते साथ में हैं मगर होते अकेले है. अकेले सहा दादी ने. पुरुष तो बहुत थे साथ में, कमी रही तो बस एक अदद मर्द की. एक ऐसे मर्द की जो टॉमी को लतियाकर भगा पाता.

बहरहाल,  विमान के अन्दर खम्बों का इंतज़ाम किए जाने तक विमानन कंपनियों को चाहिए कि वे हर एग्जिट गेट के पास एक-एक पुराना टायर रख दे, उस प्रजाति का यात्री सूंघे और हल्का हो ले. दूसरे यात्रियों के कपड़े गीले न हों. विमान की आंतरिक दीवारों पर बाकी जगह लिखा हो – ‘यहाँ पेशाब करना मना है, पकड़े जाने पर पांच सौ रूपये जुर्माना’.

और हाँ, टेक-ऑफ से पहले एक जरूरी उद्घोषणा – “यात्रीगण कृपया ध्यान दें, इस फ्लाईट में पुरुष सह-यात्री डायपर पहन कर नहीं आए हैं अतः महिला यात्री अपनी सीट के नीचे रखे रेनकोट पहन लें और उतरते समय कुर्सी की पेटी खोलने के संकेत होने तक पहने रहें. आपकी यात्रा सूखी और शुभ हो.”

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #175 ☆ व्यंग्य – एक अभिनव पुरस्कार-योजना ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक बेहद मज़ेदार व्यंग्य  ‘एक अभिनव पुरस्कार-योजना’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 175 ☆

☆ व्यंग्य ☆ एक अभिनव पुरस्कार-योजना

नगर की नामी साहित्यिक संस्था ‘साहित्य संहार’ ने एक सनसनीखेज़ विज्ञप्ति ज़ारी की है जिससे नगर ही नहीं, पूरे देश के साहित्यकारों के बीच हड़कंप मचा है। संस्था एक अभिनव पुरस्कार योजना लेकर आयी है, जिसमें सबसे बड़ा सम्मान ‘साहित्य सूरमा’ का होगा।

संस्था ने अपनी विज्ञप्ति में लिखा कि हिन्दी साहित्य में अब तक पुरस्कारों और सम्मानों  के मामले में नासमझी और नाइंसाफी होती रही है। इसमें लेखक के वाक्चातुर्य को तवज्जो दी गयी और उसकी मेहनत को नकारा गया। ऐसा हुआ कि एक दो रचना लिखने वाला मशहूर हो गया और सौ दो-सौ लिखने वाले का कोई नामलेवा नहीं हुआ। कोई गुलेरी जी हुए जो एक कहानी के बल पर अर्श पर चढ़ गये और मोटे पोथे लिखने वाले टापते रह गये। ऐसे ही एक श्रीलाल शुक्ल हुए जो एक उपन्यास के बूते बहुत से सम्मान पा गये। हम चाहते हैं कि साहित्य में श्रम की प्रतिष्ठा हो और लेखन में पसीना बहाने वालों को महत्व मिले।

संस्था ने आगे लिखा कि इसी असमानता और नाइंसाफी को दूर करने के उद्देश्य से उसके द्वारा स्थापित होने वाला ‘साहित्य सूरमा’ सम्मान लेखक के चातुर्य पर नहीं, उसके कुल लेखन के वज़न पर आधारित होगा। इस पुरस्कार के लिए संस्था के कार्यालय के दरवाज़े पर वज़न तौलने वाली मशीनें लगायी जाएँगीं जहाँ लेखक अपना कुल उत्पाद प्रस्तुत करेंगे। सामग्री जिन थैलों या बोरों में लायी जाएगी उनकी बारीकी से जाँच होगी कि ऊपर पाँच दस किताबें या रजिस्टर डालकर नीचे वज़न बढ़ाने के लिए लोहा-लंगड़ न डाल दिया गया हो। दोषी पाये जाने वाले लेखकों को ब्लैक-लिस्ट किया जाएगा और भविष्य में भागीदारी से वंचित किया जाएगा। सामग्री पाँच अक्टूबर को संध्या पाँच बजे तक स्वीकार की जाएगी।

विज्ञप्ति ज़ारी होते ही साहित्यकारों के बीच भगदड़ मच गयी। सड़कें साहित्यकारों से सूनी हो गयीं। कॉफी-हाउसों में लेखकों की बैठकें  ग़ायब हो गयीं। सब लेखक अपने-अपने कमरों में बन्द होकर लेखन में पिल पड़े। मित्रों-संबंधियों के आने की मुमानियत हो गयी। अभी पाँच अक्टूबर को डेढ़ महीना बाकी है। इतने समय में दिन-रात मेहनत करके तीन चार किताबें लिखी जा सकती हैं।

नगर के जाने-माने कवि अच्छेलाल ‘वीरान’ इस समय अठारह घंटे कविता रच रहे हैं। उन्हें भोजन भी परिवार के लोग अपने हाथ से कराते हैं ताकि लिखने में खलल न पड़े। एक दिन बाथरूम से लौटते में चक्कर खाकर गिर गये। तब दो-तीन दिन तक बायें हाथ में ड्रिप लगी रही और दाहिने हाथ से लिखते रहे।

रोज़ सवेरे लेखकों के दरवाज़े पर प्रकाशकों की गाड़ियाँ आती हैं जो चौबीस घंटे के उत्पादन को समेट कर ले जाती हैं। समेटने वाले लेखक को आगाह करते जाते हैं कि प्रूफ्र-रीडिंग की उम्मीद न की जाए क्योंकि काम युद्ध-स्तर पर चल रहा है। छपने का काम लोकल ही हो रहा है क्योंकि बाहर भेजने का टाइम नहीं है।

जब लिखित सामग्री जमा करने की तारीख नज़दीक आने लगी तब नगर के नये लेखकों की ओर से संस्था के सम्मुख एक आवेदन प्रस्तुत किया गया जिसमें लिखा था कि समय कम होने के कारण हाड़-तोड़ मेहनत करने के बाद भी वे पुराने लिक्खाड़ों के बराबर नहीं आ सकेंगे। यह भी लिखा गया कि कई लेखक लिखते लिखते बीमार होकर अस्पताल में भर्ती हो गये हैं और वे  अपनी बेड पर ही लिख रहे हैं। अतः लेखकों की प्राणरक्षा की दृष्टि से लिखित सामग्री जमा करने की तारीख कम से कम छः माह बढ़ा दी जाए। तभी पुराने लिक्खाड़ों को टक्कर दी जा सकेगी और नाइंसाफी दूर हो सकेगी।

इस पर पुराने लेखकों की ओर से आपत्ति दर्ज करायी गयी कि जो लेखक कम लिख पाये वह उनके आलस्य और लापरवाही के कारण है। अतः सामग्री जमा करने की तिथि आगे बढ़ा कर आलस्य को पुरस्कृत न किया जाए।

संस्था ने नये लेखकों के आवेदन पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करते हुए सामग्री जमा करने का काम फिलहाल स्थगित कर दिया है। अगली तिथि छः माह बाद घोषित की जाएगी। तब तक लेखक अपने लेखन-कोष को समृद्ध करने का काम ज़ारी रख सकते हैं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 131 ☆ गीत – संगीत में बसी दुनिया ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “गीत – संगीत में बसी दुनिया। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 131 ☆

☆ गीत – संगीत में बसी दुनिया ☆ 

भाषा के महत्व को सभी पहचानते हैं। जब हम किसी ऐसे प्रदेश में हों जो अहिन्दी भाषी हो तो वहाँ अपनी बात चेहरे के भावों से या धुन के द्वारा बतानी होती है। आज भी हम बड़े शान से अंग्रेजी बोलते हुए स्वयं को इंटरनेशनल घोषित करना नहीं भूलते हैं। सोचिए जब कोई अन्य भाषा वाला हिंदी प्रदेशों में आता है तो उसे कैसे संवाद का हिस्सा बनाया जाए। इस सम्बंध में एक वाकया याद आ रहा है, उच्चवर्गीय पार्टी में सभी प्रदेशो से लोग आमंत्रित थे। सब तो भारतीय होने के नाते हिंदी को समझ रहे थे किंतु दक्षिण भारतीय लोग थोड़ा कम घुल मिल पा रहे थे, भाषा की समस्या उनसे जुड़ने में बाधक हो रही थी। इस बात को आर्केस्ट्रा वालों ने बहुत जल्दी भाँप लिया , बस फिर क्या था उन्होंने दक्षिण भारतीय फिल्मों का हिट संगीत  बजाना शुरू कर दिया। अब तो वो परिवार भी मुस्कुराने लगा, चेहरे पर संतृप्ति का भाव देखते ही उनको बुलाया गया कि वे इस गीत को स्वर दें, देखते ही देखते पूरी पार्टी थिरक उठी अब तो वहाँ ऐसा कोई नहीं बचा जो झूम न रहा हो।

इस सबसे एक बात तो तय है कि वास्तव में गीत- संगीत अपनी लय से हमें जोड़े रखता है। अर्थ समझ में भले न आये किन्तु ताल से ताल मिलाते हुए कदम थिरकने ही लगते हैं। पूरे विश्व को भारतीय फिल्में जोड़ रहीं हैं अपनी सम्प्रेषण क्षमता के कारण। हमें अपने कथ्यों पर भी नजर रखनी चाहिए क्योंकि पूरी दुनिया हमें उम्मीद भरी निगाहों से देख रही है।

अन्ततः यही कहा जा सकता है कि सकारात्मकता से सब कुछ सम्भव है बस जुड़े रहिए कुछ सीखने के लिए। मन को पढ़ने की कला जिसको आ गयी उसे सफल होने से कोई नहीं रोक सकता है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 188 ☆ व्यंग्य  – व्यंग्य लेखन में बदलते व्यवहार  ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  व्यंग्य  – व्यंग्य लेखन में बदलते व्यवहार 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 188 ☆  

? व्यंग्य  – व्यंग्य लेखन में बदलते व्यवहार ?

व्यंग्यकार भी आखिरकार समाज का ही हिस्सा होता है, वह रोबोट की तरह नियमो में बंधा आदर्श लेखन मात्र नही कर सकता। वह पूर्वाग्रहों से मुक्त कैसे हो? स्त्री, विद्रूप शरीर, अपनी आदतों के चलते जातियां विशेष जैसे सरदार जी या सिंधी, कंजूसी के चलते महाराष्ट्रीयन आदि पर व्यंग्य किए जाते थे, किंतु समय ने परिवर्तन किए हैं, इन इंगित लोगों में भी और व्यंग्यकार की मानसिकता पर भी, अब इन पर हास्य कम हो रहे हैं, होने भी नहीं चाहिए। अब अष्टाव्रक को देख सभा मखौल उड़ाने की जगह संवेदना के भाव रखने लगी है, जो सर्वथा सही है।

किंतु आतंक के लिए पाकिस्तान या सामान की कम गुणवत्ता के लिए चीन जैसे नए समीकरण नई विसंगतियां उठ खड़ी हुई हैं। इन पर चोट करने से शायद व्यंग्यकार को आनंद मिलता है। तो वह इन जैसे विषयों पर स्वान्तः सुख के साथ साथ पाठको के लिए लिख रहा है।

इसे हम सामाजिक समरसता के विरुद्ध कह जरूर सकते हैं किंतु व्यंग्यकार का काम ही उन मुद्दों को कुरेदना  है जो आम आदमी को चोट करते हैं।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #174 ☆ व्यंग्य – फर्ज़ बनाम इश्क ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय व्यंग्य  ‘फर्ज़ बनाम इश्क’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 174 ☆

☆ व्यंग्य ☆ फर्ज़ बनाम इश्क

हाल में एक सनसनीख़ेज़ ख़बर पढ़ी कि बांग्लादेश की सीमा पर ड्यूटी पर तैनात सीमा सुरक्षा बल की स्निफ़र कुतिया ने तीन बच्चों या पिल्लों को जन्म दे दिया।  सनसनीख़ेज़ इसलिए कि ड्यूटी पर तैनात कुतियों को गर्भ धारण करने की इजाज़त नहीं होती।इसकी वजह यह है कि गर्भ धारण के काल में कुतियों की सूँघने की क्षमता क्षीण हो जाती है। ड्यूटी के दौरान उनके आचरण के ऊपर सख़्त निगरानी रखी जाती है और वे तभी बच्चे पैदा कर  सकती हैं जब विभाग का पशु-चिकित्सक इजाज़त दे। अब यह समझना मुश्किल हो रहा है कि इतनी चौकसी के बावजूद कुतिया ने अपने ‘हैंडलर्स’ की नज़र बचाकर अपना प्रेमी कैसे तलाश लिया। ज़ाहिर है कि कुतिया ने फर्ज़ के ऊपर इश्क को तरजीह दी, जो अक्षम्य अपराध है।इस मामले में कोर्ट ऑफ़ इनक्वायरी बैठा दी गयी है। कुतिया को ड्यूटी पर इश्क फरमाने की जो भी सज़ा मिले, उसके ‘हैंडलर्स’ की जान निश्चित ही साँसत में होगी।

अभी बच्चों के पिता के बारे में कोई जानकारी प्राप्त नहीं हुई है। मेरी चिन्ता यह है कि चूँकि यह लव-स्टोरी बांग्लादेश की सीमा पर घटित हुई है, कहीं ऐसा न हो कि देश के सयानों के द्वारा इसमें भी लव-जिहाद का कोण ढूँढ़ लिया जाए।ऐसा हुआ तो हमारे न्यूज़ चैनलों की पौ-बारह हो जाएगी। उन्हें दिन भर मुर्गे लड़ाने के लिए मसाला और वसीला बिना मेहनत के मिल जाएगा। उम्मीद है इस घटना का भारत-बांग्लादेश रिश्तों पर असर नहीं होगा।

मेरी चिन्ता की ख़ास वजह यह है कि यह जुमला इंसानों पर कई बार चिपकाया जा चुका है, इसलिए अब पशु-पक्षियों का नंबर लगने की पूरी संभावना है। इस सिलसिले में मुझे कथाकार पुन्नी सिंह की मार्मिक कहानी ‘काफ़िर तोता’ याद आती है। तोता जिस परिवार में रहता है उसके सदस्य उसे अपने धर्म के अनुसार मंत्र आदि सिखाते हैं।कुछ समय बाद वह परिवार तोते को वहीं छोड़कर अन्यत्र चला जाता है और घर में दूसरे समुदाय का परिवार आ जाता है। बेचारा पक्षी इस परिवर्तन का मतलब नहीं समझ पाता और वह वही दुहराता है जो उसे सिखाया गया है। नतीजतन उसे अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। मतलब यह कि निरीह पशु-पक्षियों को भी आदमी के पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों से अपनी जान बचा पाना मुश्किल है।

मशहूर कथाकार सआदत हसन मंटो की कहानी ‘टिटवाल का कुत्ता’ भी याद आती है। कुत्ता सीमा पर तैनात हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी फौजों के बीच भोजन के लालच में दौड़ता रहता है और अंततः दोनों  की आपसी घृणा का शिकार होकर मारा जाता है। एक सिपाही टिप्पणी करता है, ‘अब कुत्तों को भी या तो हिन्दुस्तानी होना पड़ेगा या पाकिस्तानी।’ संदेश साफ है, जो बँटेंगे नहीं वे मारे जाएंगे।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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