हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 157 ☆ मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 157 ☆

☆ मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः

मन ही मानव के बंधन और मोक्ष का कारण है। ये पंक्तियाँ जब सत्संग में सुनी तो बरबस आगे की चर्चा को मन आतुर हो उठा, सही कहा गया है कि मौसम के अनुसार रंग रूप बदलने की क्षमता केवल गिरगिट में ही नहीं महत्वाकांक्षी व्यक्तियों में भी पायी जाती है। ये आवश्यकता अनुसार परिवर्तन करते जाते हैं। अपनी गोटी किसी भी तरह जीत की ओर ले जानी है। इस समय सावन का महीना है। बारिश गर्मी की तपन को दूर करती है साथ ही साथ सूखे हुए वृक्ष व झाड़ियों में प्राण भर देती है। जीवंत हरियाली इसी की देन है। ग्रीष्म और शीत के बीच सेतु का कार्य ये बूंदे बखूबी कर रहीं हैं। जून, जुलाई, अगस्त, सितंबर ये चार माह धरती की प्यास को बुझा कर पूरे वर्ष भर का पानी एकत्र कर लेते हैं। शायद यही कारण है कि चौमासे में सारे कार्य तो बंद हो जाते हैं पर तीज त्योहार बहुत मनाये जाते हैं। मन है कि मानता नहीं वो अपनी चाहत को पाने हेतु कभी भी जोड़- तोड़ करने से नहीं चूकता।

समय के साथ -साथ प्रकृति ने भी अपने स्वरूप को बदलते हुए बारिश को कहीं बहुत अधिक तो कहीं बहुत कम कर दिया है। और ये अब केवल तीन महीनों में सिमट कर रह गयी है। वर्षा का चक्र भी अपनी बूंदों को सुरक्षित रखने की कोशिश करने लगा है।

चौमासे का अस्तित्व संकट में दिखना कहीं न कहीं संकेत है कि अगर वर्षा का मान नहीं रखा तो जल्दी ही बूंदों की संख्या कम होगी जिससे जीवन की गति अनछुई नहीं रह सकती।

मेरा तेरा के चक्कर में व्यक्ति इस तरह उलझा हुआ है कि क्या- क्या न बटोर ले, ये समझ ही नहीं पा रहा और लगा हुआ है लालच की जद्दोजहद में।

क्या आपने कभी गौर किया कि जिस चीज पर आपकी आसक्ति सबसे ज्यादा होती है वही चली जाती है, बात साफ है कि लगाव ही दुःख का कारण होता है इसलिए ईश्वर अपने भक्तों को वो नहीं देना चाहते जो उनके मोक्ष में बाधक बनें।

अतः हर स्थितियों में समभाव रखते हुए प्रसन्नता पूर्वक जिएँ और जीने दें।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 195 ☆ हरिशंकर परसाई जन्मशती विशेष – विकलांग श्रद्धा का दौर ☆ प्रस्तुति – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है हरिशंकर परसाई जन्मशती के अवसर पर उनका सुप्रसिद्ध व्यंग्य – “विकलांग श्रद्धा का दौर)

☆ हरिशंकर परसाई जन्मशती विशेष – विकलांग श्रद्धा का दौर ☆ प्रस्तुति – श्री जय प्रकाश पाण्डेय  

परसाई जन्मशती पर उनका एक महत्वपूर्ण व्यंग्य  –  “विकलांग श्रद्धा का दौर”

अभी-अभी एक आदमी मेरे चरण छूकर गया है। मैं बड़ी तेजी से श्रद्धेय हो रहा हूं, जैसे कोई चालू औरत शादी के बाद बड़ी फुर्ती से पतिव्रता होने लगती है। यह हरकत मेरेसाथ पिछले कुछ महीनों से हो रही है कि जब तब कोई मेरे चरण छू लेता है। पहले ऐसानहीं होता था। हों, एक बार हुआ था, पर वह मामला वहीं रफा-दफा हो गया। कई साल पहले एक साहित्यिक समारोह में मेरी ही उम्र के एक सज्जन ने सबके सामने मेरे चरणछू लिए। वैसे चरण छूना अश्लील कृत्य की तरह अकेले में ही किया जाता है। पर वह सज्जन सार्वजनिक रूप से कर बैठे, तो मैंने आसपास खड़े लोगों की तरफ गर्व से देखा तिलचट्टों देखो मैं श्रद्धेय हो गया। तुम घिसते रहो कलम पर तभी उस श्रद्धालु ने मेरापानी उतार दिया। उसने कहा, “अपना तो यह नियम है कि गौ, ब्राह्मण, कन्या के चरण जरूर छूते हैं। यानी उसने मुझे बड़ा लेखक नहीं माना था। बम्हन माना था। श्रद्धेय बनने की मेरी इच्छा तभी मर गई थी। फिर मैंने श्रद्धेयों की दुर्गति भीदेखी। मेरा एक साथी पी-एच.डी. के लिए रिसर्च कर रहा था। डॉक्टरेट अध्ययन औरज्ञान से नहीं,  आचार्य-कृपा से मिलती है। आचार्यों की कृपा से इतने डॉक्टर हो गए हैं किबच्चे खेल-खेल में पत्थर फेंकते हैं तो किसी डॉक्टर को लगता है। एक बार चौराहे परयहाँ पथराव हो गया। पाँच घायल अस्पताल में भर्ती हुए और वे पाँचों हिंदी के डॉक्टर थे। नर्स अपने अस्पताल के डॉक्टर को पुकारती ‘डॉक्टर साहब’ तो बोल पड़ते थे ये हिंदी के डॉक्टर|

मैंने खुद कुछ लोगों के चरण छूने के बहाने उनकी टांग खींची है। लंगोटी धोने के बहाने लँगोटी चुराई है। श्रद्धेय बनने की भयावहता मैं समझ गया था। वरना मैं समर्थ हूं।अपने आपको कभी का श्रद्धेय बना लेता। मेरे ही शहर में कॉलेज में एक अध्यापक थे।उन्होंने अपने नेम प्लेट पर खुद ही ‘आचार्य’ लिखवा लिया था। मैं तभी समझ गया था कि इस फूहड़पन में महानता के लक्षण हैं। आचार्य बंबईवासी हुए और वहाँ उन्होंने अपनेको ‘भगवान रजनीश’ बना डाला। आजकल वह फूहड़ से शुरू करके मान्यता प्राप्त भगवान हैं। मैं भी अगर नेम प्लेट में नाम के आगे ‘पंडित’ लिखवा लेता तो कभी का ‘पंडितजी’ कहलाने लगता। सोचता हूं, लोग मेरे चरण अब क्यों छूने लगे हैं? यह श्रद्धा एकाएक कैसे पैदा होगई? पिछले महीनों में मैंने ऐसा क्या कर डाला? कोई खास लिखा नहीं है। कोई साधना नहीं की। समाज का कोई कल्याण भी नहीं किया। दाड़ी नहीं बढ़ाई। भगवा भी नहीं पहना। बुजुर्गी भी कोई नहीं आई। लोग कहते हैं, ये वयोवृद्ध हैं। और चरण छू लेते हैं। वे अगर कमीने हुए तो उनके कमीनेपन की उम्र भी 60-70 साल हुई। लोग वयोवृद्ध कमीनेपन के भी चरण छू लेते हैं। मेरा कमीनापन अभी श्रद्धा के लायक नहीं हुआ है।

इस एक साल में मेरी एक ही तपस्या है टांग तोड़कर अस्पताल में पड़ा रहा हूं। हड्डी जुडने के बाद भी दर्द के कारण टांग फुर्ती से समेट नहीं सकता। लोग मेरी इस मजबूरी का नाजायज फायदा उठाकर झट मेरे चरण छू लेते हैं। फिर आराम के लिए मैं तख्त परलेटा ही ज्यादा मिलता हूं। तख्त ऐसा पवित्र आसन है कि उस पर लेटे दुरात्मा के भी चरण छूने की प्रेरणा होती है। क्या मेरी टांग में से दर्द की तरह श्रद्धा पैदा हो गई है? तो यह विकलांग श्रद्धा है।

जानता हूं, देश में जो मौसम चल रहा है, उसमें श्रद्धा की टांग टूट चुकी है। तभी मुझे भी यह विकलांग श्रद्धा दी जा रही है। लोग सोचते होंगे इसकी टांग टूट गई है। यह असमर्थ हो गया। दयनीय है। आओ, इसे हम श्रद्धा दे दें।हां, बीमारी में से श्रद्धा कभी-कभी निकलती है। साहित्य और समाज के एक सेवक से मिलने में एक मित्र के साथ गया था। जब वह उठे तब उस मित्र ने उनके चरण छू लिए। बाहर आकर मैंने मित्र से कहा- “यार तुम उनके चरण क्यों छूने लगे?” मित्र ने कहा- “तुम्हें पता नहीं है, उन्हें डायबटीज हो गया है?” अब डायबटीज श्रद्धा पैदा करे तो टूटी टांग भी कर सकती है। इसमें कुछ अटपटा नहीं है। लोग बीमारी से कौन फायदे नहींउठाते। मेरे एक मित्र बीमार पड़े थे। जैसे ही कोई स्त्री उन्हें देखने आती, वह सिर पकड़ कर कराहने लगते । स्त्री पूछती “क्या सिर में दर्द है?” वे कहते “हां, सिर फटा पड़ता है।” स्त्री सहज ही उनका सिर दबा देती। उनकी पत्नी ने ताड़ लिया। कहने लगी- “क्यों जी, जब कोई स्त्री तुम्हें देखने आती है तभी तुम्हारा सिर क्यों दुखने लगता है?”

उसने जवाब भी माकूल दिया। कहा “तुम्हारे प्रति मेरी इतनी निष्ठा है कि परस्त्री को देखकर मेरा सिर दुखने लगता है। जान प्रीत रस इतनेहु माहीं ।”

श्रद्धा ग्रहण करने की भी एक विधि होती है। मुझसे सहज ढंग से अभी श्रद्धा ग्रहण नहीं होती। अटपटा जाता हूं। अभी ‘पार्ट टाइम’ श्रद्धेय ही हूं। कल दो आदमीआए। वे बात करके जब उठे तब एक ने मेरे चरण छूने को हाथ बढ़ाया। हम दोनों ही नौसिखुए। उसे चरण छूने का अभ्यास नहीं था, मुझे छुआने का। जैसा भी बना उसने चरण छू लिए। पर दूसरा आदमी दुविधा में था। वह तय नहीं कर पा रहा था कि मेरे चरण छुए या नहीं। मैं भिखारी की तरह से देख रहा था। वह थोड़ा सा झुका। मेरी आशा उठी। पर वह फिर सीधा हो गया। मैं बुझ गया। उसने फिर जी कड़ा करके कोशिश की।

थोड़ा झुका। मेरे पांवों में फड़कन उठी। फिर वह असफल रहा। वह नमस्ते करके ही चला गया। उसने अपने साथी से कहा होगा- तुम भी यार कैसे टुच्चों के चरण छूते हो। मेरे श्रद्धालु ने जवाब दिया होगा काम निकालने को उल्लुओं से ऐसा ही किया जाता है। इधरमुझे दिन-भर ग्लानि रही। मैं हीनता से पीडित रहा। उसने मुझे श्रद्धा के लायक नहीं समझा | ग्लानि शाम को मिटी जब एक कवि ने मेरे चरण छुए। उस समय मेरे एक मित्र बैठे थे। चरण छूने के बाद उसने मित्र से कहा, “मैंने साहित्य में जो कुछ सीखा है,परसाईजी से।” मुझे मालूम है, वह कवि सम्मेलनों में छूट होता है। मेरी सीख का क्या यही नतीजा है? मुझे शर्म से अपने आपको जूता मार लेना था। पर मैं खुश था। उसने मेरे चरण छू लिए थे। 

अभी कच्चा हूं। पीछे पड़ने वाले तो पतिव्रता को भी छिनाल बना देते हैं। मेरे ये श्रद्धालु मुझे पक्का श्रद्धेय बनाने पर तुले हैं। पक्के सिद्ध श्रद्धेय मैंने देखे हैं। सिद्ध मकरध्वज होते हैं। उनकी बनावट ही अलग होती है। चेहरा, आंखे खींचने वाली पांव ऐसे कि बरबस आदमी झुक जाए। पूरे व्यक्तित्व पर श्रद्धेय लिखा होता है। मुझे ये बड़े बौड़म लगते हैं। पर ये पक्के श्रद्धेय होते हैं। ऐसे एक के पास मैं अपने मित्र के साथ गया था। मित्र ने उनके चरण छुए जो उन्होंने विकट ठंड में भी श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए चादरसे बाहर निकाल रखे थे। मैंने उनके चरण नहीं हुए। नमस्ते करके बैठ गया। अब एकचमत्कार हुआ। होना यह था कि उन्हें हीनता का बोध होता कि मैंने उन्हें श्रद्धा के योग्य नहीं समझा। हुआ उल्टा। उन्होंने मुझे देखा और हीनता का बोध मुझे होने लगा- हायमैं इतना अधम कि अपने को इनके पवित्र चरणों को छूने के लायक नहीं समझता। सोचता हूं, ऐसा बाध्य करने वाला रोब मुझ ओछे श्रद्धेय में कब आयेगा। 

श्रद्धेय बन जाने की इस हल्की सी इच्छा के साथ ही मेरा डर बरकरार है। श्रद्धेय बनने का मतलब है ‘नान परसन’ अव्यक्ति हो जाना। श्रद्धेय वह होता है जो चीजों को हो जाने दे। किसी चीज का विरोध न करे जबकि व्यक्ति की, चरित्र की पहचान ही यहहै कि वह किन चीजों का विरोध करता है। मुझे लगता है, लोग मुझसे कह रहे हैं तुमअब कोने में बैठो। तुम दयनीय हो। तुम्हारे लिए सब कुछ हो जाया करेगा। तुम कारण नहीं बनोगे। मक्खी भी हम उड़ाएंगे। और फिर श्रद्धा का यह कोई दौर है देश में? जैसा वातावरण है, उसमें किसी को भी श्रद्धा रखने में संकोच होगा। श्रद्धा पुराने अखबार की तरह रद्दी में बिक रही है।

विश्वास की फसल को तुषार मार गया । इतिहास में शायद कभी किसी जाति को इस तरह श्रद्धा और विश्वास से हीन नहीं किया गया होगा। जिस नेतृत्व पर श्रद्धा थी, उसे नंगा किया जा रहा है। जो नया नेतृत्व आया है, वह उतावली में अपने कपड़े खुद उतार रहा है। कुछ नेता तो अंडरवियर में ही हैं। कानून से विश्वास गया। अदालत से विश्वास छीन लिया गया। बुद्धिजीवियों की नस्ल पर ही शंका की जा रही है। डॉक्टरों को बीमारी पैदा करने वाला सिद्ध किया जा रहा है। कहीं कोई श्रद्धा नहीं विश्वास नहीं ।अपने श्रद्धालुओं से कहना चाहता हूं- “यह चरण छूने का मौसम नहीं, लात मारने का मौसम है। मारो एक लात और क्रांतिकारी बन जाओ।”

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #199 ☆ व्यंग्य – ‘स्वर्ग में कुपात्र’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘स्वर्ग में कुपात्र’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 199 ☆

☆ व्यंग्य ☆ ‘स्वर्ग में कुपात्र’

उस रात मल्लू मेरे सपने में आ गया। मैंने उसे देखकर पूछा, ‘कैसा है भैया? नरक में मज़े में तो है?

मेरा सवाल सुनकर वह तरह तरह के मुँह बनाने लगा। लगा, अभी रो देगा। थोड़ा सँभल कर बोला, ‘भैया, मैं तो बुरा फँस गया। मेरे साथ धोखा हो गया। मुझे पक्का भरोसा था कि मुझे मौत के बाद नरक में जगह मिलेगी, वहाँ अपने जैसे लोगों के साथ अच्छी कटेगी, लेकिन यहाँ आने पर पता चला कि मुझे स्वर्ग भेज दिया गया। अब मैं बहुत परेशान हूँ।’

मल्लू दो महीने पहले सड़क पर एक्सीडेंट में चोट खाकर दुनिया से रवाना हुआ था। उसकी फितरत को देखकर हम समझ गए थे कि वह सड़क पर अपने आसपास चलती महिलाओं को घूरने के चक्कर में किसी गाड़ी से टकराया होगा। हम जब तक अस्पताल पहुँचे तब तक वह रुखसत हो चुका था। हमने ज़िन्दगी भर उसे नरक का ‘मटीरियल’ ही समझा था। इसीलिए अभी उसके स्वर्ग पहुँचने की जानकारी पाकर ताज्जुब हुआ।

उसकी बात सुनकर मैंने कहा, ‘यह तो अच्छा ही हुआ कि सारे दुर्गुणों के बावजूद तू स्वर्ग में प्रवेश पा गया। इसमें दुखी होने की क्या बात है? तुझे तो खुश होना चाहिए।’

वह बोला, ‘नहीं भैया, ये स्वर्ग अपने को जमता नहीं। यहाँ कोई अपने जैसा आदमी नहीं, जिससे मन की बात हो सके। सब तरफ साधु- सन्त टाइप लोग, पेड़ों के नीचे आँखें मूँदे बैठे, माला जपते रहते हैं। कुछ देवता-टाइप लोग, मुकुट पहने, रथों पर दौड़ते फिरते हैं। कहीं पढ़ा था कि यहाँ अप्सराओं के दर्शन होंगे, लेकिन यहाँ तो सैकड़ों साल की वृद्धाओं के ही दर्शन होते हैं, जिन्हें देखते ही चरण छूने की इच्छा होती है। यह भी पढ़ा था कि यहाँ दूध, शहद और सोमरस की  नहरें बहती हैं, लेकिन अभी तक कुछ दिखायी नहीं पड़ा। दूध और शहद से तो हमें कुछ लेना- देना नहीं, सोमरस की नहर मिल जाती तो उसी के किनारे पड़े रहते। वक्त अच्छा कट जाता। अभी तो कष्ट ही कष्ट है।’

मैंने कहा, ‘वहाँ कुछ बखेड़ा कर ले तो शायद नरक का नंबर लग जाए।’

वह लंबी साँस लेकर बोला, ‘कोई फायदा नहीं है। मैंने यहाँ एक दो लोगों से बात की तो बताया गया कि मुझे पुण्य क्षय होने तक यहीं रहना पड़ेगा। अब मैंने कोई पुण्य किया ही नहीं है तो क्षय क्या होगा?’

दो दिन बाद वह फिर मेरे सपने में प्रकट हो गया। बोला, ‘भैया, मुझे पता चल गया है कि मुझे स्वर्ग क्यों भेजा गया। दरअसल मैं एक्सीडेंट के बाद बड़ी देर तक ‘मरा मरा’ चिल्लाता रहा। उसी में स्वर्ग-नरक के प्रबंधकों को कुछ ‘कनफ्यूज़न’ हो गया और मुझे राम-भक्त समझकर स्वर्ग भेज दिया गया। मुझे लगता है कि जैसे धरती पर हमारे देश में बड़े बॉस का नाम जपते जपते लोग परम पद प्राप्त कर लेते हैं, वैसे ही यहाँ भी बॉस का नाम सुनते ही स्वर्ग का टिकट पक्का हो जाता है, भले ही उसमें गलतफहमी हो। मैंने कभी अजामिल की कथा पढ़ी थी जो सिर्फ इसलिए स्वर्ग का अधिकारी हो गया था कि वह अपने बेटे को बुलाता रहता था। बेटे का नाम नारायण था। कुछ वैसा ही मेरे साथ हुआ। अब जो हुआ सो हुआ। पुण्य क्षय होने तक इंतज़ार करने के सिवा कोई रास्ता नहीं है।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 155 ☆ क्षणे नष्टे कुतो विद्या, कणे नष्टे कुतो धनम्… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “कहत धतूरे सों कनक, गहनों गढ़ो न जाए…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 155 ☆

☆ क्षणे नष्टे कुतो विद्या, कणे नष्टे कुतो धनम्

गणित का एक सूत्र है (माइनस + माइनस) = 2 माइनस अर्थात वे जुड़ जाते हैं। इसे कहावत के रूप में समझें तो चोर-चोर मौसेरे भाई। जोड़ तोड़ का बंधन हमेशा ही लुभावना होता है। सच्चे मोती अपनी माला में कोई लोक लुभावन लटकन नहीं रखते क्योंकि उनकी सच्चाई उनकी चमक से पता चल जाती है। जबकि अस्त व्यस्त नकली मोती सफेद परत चढ़ाकर रंगीन काँच के टुकड़ों को भी साथ में जोड़ते हुए आकर्षक बनने की पुरजोर कोशिश करते हैं। कहीं बड़ा, कहीं छोटा, कोई भी मेल न होते हुए भी एक धागे से जुड़कर मला का स्वरूप पाना चाहते हैं।

सच्चाई भी यही है कि बिखरे हुए फूलों को कोई नहीं पूछता जबकि गुँथी हुई माला ईश के गले में स्थान पाती है। इससे वंदनवार भी बनाया जा सकता है, घर की शोभा बढ़ाने के साथ मंगलकामना का  भी प्रतीक बन जाते हैं। इस सबमें समय का सदुपयोग करना बहुत जरूरी है, हर पल कीमती है, जब सही समय पर माला बनेगी तभी तो पूजन के काम में आएगी अन्यथा इंतजार का क्षण भारी होना तय है। एक – एक पैसे का हिसाब रखने वाले भले ही कंजूस की श्रेणी में क्यों न आते हों किन्तु समय पर उन्हें किसी के आगे झोली नहीं फैलानी पड़ती है।

सब धान बाइस पसेरी भले हो जाए किन्तु हर किस्म के  मोतियों को जुड़ना चाहिए, ये बात अलग है कि कमजोर धागा मोतियों के भार को सहन करने में अक्षम हुआ तो अबकी बार सारे मोती बिखर कर दूर – दूर हो जायेंगे। वैसे भी मजबूत धागा बनाने के लिए अच्छा सूत होना चाहिए। जब सब कुछ अच्छा होगा तो टिकाऊपन बढ़ेगा। लोग भी कमजोर को धकिया देते हैं। कमतर विचारों को कोई भाव नहीं देता। अच्छा बनें, सच्चा बनें।

अपने उसूलों को तय करते हुए अपनी वास्तविक पहचान के लिए कार्य करना चाहिए। जबरदस्ती में कमजोर के साथ।गठबंधन आपकी कीमत को और कम कर देगा। निर्णय सोच समझकर कर श्रेष्ठ गुरु के नेतृत्व में होना चाहिए। आखिरकार सुंदर और सच्चा मोती सभी को चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #198 ☆ व्यंग्य – ‘अंतर्राष्ट्रीय कवि और ख़तरनाक समीक्षक’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘अंतर्राष्ट्रीय कवि और ख़तरनाक समीक्षक’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 198 ☆

☆ व्यंग्य ☆ ‘अंतर्राष्ट्रीय कवि और ख़तरनाक समीक्षक’

नगर के जाने-माने अंतर्राष्ट्रीय कवि सरतारे लाल ‘निश्चिन्त’ सवेरे सवेरे टहलने निकले थे। जब से उन्हें दुबई और कनाडा के कवियों के साथ ऑनलाइन कविता-पाठ का मौका मिला था तब से वे छलाँग लगाकर स्थानीय से अंतर्राष्ट्रीय हो गये थे। कोविड के काल में कई स्थानीय स्तर के लेखक अंतर्राष्ट्रीय का पद पा गये। तब से ‘निश्चिन्त’ जी ने स्थायी रूप से अपने नाम के आगे ‘अंतर्राष्ट्रीय कवि’ चिपका लिया था।

‘निश्चिन्त’ जी उस दिन टहलते टहलते नगर के एक दूसरे कवि ‘आहत’ जी के घर पहुंच गये। आवाज़ दी तो ‘आहत’ जी बालकनी पर प्रकट हुए। ‘निश्चिन्त’ जी ने पूछा, ‘मेरे कविता-संग्रह पर कुछ लिखा क्या? चार छः लाइनें लिख देते तो कहीं छपने का जुगाड़ बैठाऊँ।’

‘आहत’ जी मूड़ खुजाते हुए बोले, ‘अरे क्या बताऊँ भैया। शादी-ब्याह में ऐसा फँसा कि लिखने का टाइम ही नहीं मिला। लेकिन निश्चिन्त रहें। मैंने आपका संग्रह गोकुल जी को दे दिया है। वे बढ़िया समीक्षा करते हैं। समझदार आदमी हैं। मैंने उन से निवेदन किया है कि जल्दी लिख दें।’

सुनकर ‘निश्चिन्त’ जी की आँखें कपार पर चढ़ गयीं। ठंड में भी माथे पर पसीना चुहचुहा आया। शरीर में झुरझुरी दौड़ने लगी। लगा कि वहीं भूमि पर गिर जायेंगे। ऊँचे स्वर में बोले, ‘अरे आपने उस हत्यारे को मेरी किताब क्यों दे दी? वह किताब को चीर-फाड़ कर रख देता है। सयानों का भी लिहाज नहीं करता। आपको याद नहीं उसी की समीक्षा के कारण नगर के प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय कवि ‘घायल’ जी को एक हफ्ते अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा था। यह आदमी दफा 302 के मुजरिम से कम नहीं है।’

‘आहत’ जी हँसकर बोले, ‘ऐसी कोई बात नहीं है। वह ज़बरदस्ती किसी की आलोचना नहीं करता। यह जरूर है कि वह बेलिहाज गुण- दोष के आधार पर लिखता है। उसकी अच्छी प्रतिष्ठा है। उसके लिखने से आपको फायदा ही होगा।’

‘निश्चिन्त’ जी बिफर कर बोले, ‘भाड़ में गया फायदा। वह जाने कहाँ से खोद खोद कर गलतियाँ और कमजोरियाँ निकालता है। हम तो इसलिए किताब देते हैं कि तारीफ के दो बोल सुनने को मिलेंगे। इसीलिए किताबें मित्रों को ही दी जाती हैं और ‘सो कॉल्ड’ निष्पक्ष समीक्षकों से बचा जाता है। आपने मेरी किताब गलत आदमी को दे दी। आप आज ही मेरी किताब उससे वापस ले लें। मैं शाम को आऊँगा। देर होने पर कहीं उसने समीक्षा लिखकर कहीं छपवा दी तो मैं मारा जाऊँगा। जब तक किताब मेरे हाथ में नहीं आ जाएगी तब तक मुझे चैन नहीं मिलने वाला। आपने मेरा आज का पूरा दिन खराब कर दिया।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 154 ☆ कहत धतूरे सों कनक, गहनों गढ़ो न जाए… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “कहत धतूरे सों कनक, गहनों गढ़ो न जाए…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 154 ☆

कहत धतूरे सों कनक, गहनों गढ़ो न जाए

विकास की प्रक्रिया प्रकृति का मूलाधार है। प्रकृति केवल उपयोगिता के आधार पर किसी को  जीवित नहीं रखती वो ये भी देखती है, कि समय के साथ कोई भी सजीव या निर्जीव कैसे तालमेल बनाकर रहता है। बदलाव केवल हमारे जीवन का ही अंग नहीं है, वरन ये प्रकृति का भी मूल तत्व है।

समय के साथ जो तेजी से भाग सकता है, भगा सकता है वही अपने अस्तित्व को बना कर  प्रतिष्ठित होगा। अक्सर देखा गया है कि जिन्होंने किसी विचार को क्रियान्वित कर  एक रूप देकर भव्यमहल का निर्माण किया, वही वहाँ नहीं रह पाए क्योंकि उनमें केवल सृजन की क्षमता थी अपने को विकसित करने, कुछ नया करने व अपने में बदलाव करने की योग्यता नहीं थी इसलिए निर्माता होते हुए भी उदास होकर हार गए। हारे हुए व्यक्ति, मुरझाए हुए फूल किसी काम के  नहीं होते। प्रेरणा की जरूरत हर किसी को होती है। माना आप  सबको दिशा निर्देशित कर रहें हैं पर  स्वयं को नहीं कर पा रहे हैं। आपको भी एक योग्य गुरु की अवश्यकता है। हम जैसे ही अपनी मंजिल पर पहुँचते हैं वहाँ वो खुशी नहीं मिलती जो सोच कर चल रहे थे। क्योंकि ये मानव मन की विशेषता है कि जैसे ही सब कुछ उसका हुआ तो वो आगे की ओर देखने लगता है। दूसरे शब्दों में पूरी विकास प्रकिया का आधार मनुष्य का आवश्यकता से अधिक एकत्र करना व अप्राप्य को पाने की चाहत ही है।

कदम दर कदम बढ़ते हुए हम पर्यावरण के सबसे बड़े शत्रु के रूप में अपने को विकसित करते जा रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो अंजाम की परवाह किए बिना, पेड़ की शाख पर बैठकर उसे ही काटना।

अब आवश्यकता है, कि नित्य क्या नया सीखा, कैसे सबके साथ मिलकर रहना है व अपने को हमेशा तैयार रखना है एक नए सकारात्मक बदलाव के लिए जो विकास के सोपान का एक नया आधार हो। ऐसा करके ही हम आगे आने वाली पीढ़ियों को अलंकृत कर सकेंगे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 153 ☆ गुण बिनु बूंद न देहि… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “गुण बिनु बूंद न देहि…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 153 ☆

☆ गुण बिनु बूंद न देहि…

क्या आपने कभी सोचा कि हर सुंदर वस्तु की सुरक्षा हेतु प्रकृति ने कुछ न कुछ ऐसा क्यों बनाया जिससे उसके सौंदर्य को बचाया जा सके – जैसे फूल और काँटे का साथ।

किसी पौधे की पहचान उसके फल,फूल व उपयोगिता के आधार पर होती है। यादि पौधे में  काँटें हैं तो वे हमेशा बनें रहते हैं, जबकि फूल का अस्तित्व कुछ ही दिनों में समाप्त हो जाता है।

ऐसा ही अक्सर मीठे वचन बोलने वाले लोगों के साथ भी देखा गया है। वे सब के साथ  मिलकर चलना चाहते हैं, इस चक्कर में सही,गलत का भेद भूलकर बस जो कमजोर दिखा उसी के तरफ चल दिए या कई नावों की सवारी करते हुए जीना ही उचित समझते हैं, वहीं दूसरी ओर कड़वे वचन बोलने वाला व्यक्ति कुछ क्षणों के लिए अप्रिय लगता है, पर जल्दी ही लोकप्रिय हो जाता है, क्योंकि  अप्रिय वचन मन को झकझोरने के साथ ही साथ ये सोचने पर विवश कर देते हैं कि कैसे परिस्थितियों में सुधार हो।

कहा भी गया है कि जहाँ ज्यादा मीठा होता है, वहाँ कीड़े पड़ जाते हैं। सच्चाई यही है कि मीठा रोग कड़वे करेले और नीम से ही ठीक होता है। खेतों और बगीचे की बाड़ी भी कटीले बबूल से ही बनती है।  रेतीले इलाकों में पानी की कमीं को पूरा करने हेतु पत्तियाँ काँटो में बदल जाती हैं। प्रकृति बहुत से ऐसे रूपांतरण समय के साथ- साथ जीव- जंतुओं, सजीव – निर्जीव में करती जा रही है।

बलिहारी नृप कूप की, गुण बिनु बूंद न देहि- ये अलंकृत पंक्ति सचमुच गुण के महत्व को दर्शाती है। कहीं गुण विशेषण के रूप में, तो कहीं कर्ता के रूप में रस्सी बन कर उपयोगी होता है। आत्मचिंतन से एक बात तो सिद्ध होती है कि जितना महत्व हमारे जीवन में फूलों का है उससे कहीं अधिक जीवन को सुचारू रूप से चलाए रखने में काँटों का भी है, इसलिए हमें सामंजस्य बनाते हुए फूल और काँटों की भाँति रहना चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 71 ⇒ पंचनामा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पंचनामा”।)  

? अभी अभी # 71 ⇒ पंचनामा? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

न जाने क्यों, पंच से मुंशी प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर याद आ जाती है। परमेश्वर तो एक होता है, लेकिन जब पाँच सयाने एक जगह इकट्ठा हो जाते हैं, तो वे परमेश्वर ही तो  कहलाते हैं। पंच विक्रमादित्य की तरह पंचायत में न्याय तो करते ही हैं, दोषी को दंड भी सुनाते हैं। न्याय का हथौड़ा जब प्रहार करता है, तब वह भी एक तरह का punch ही तो होता है।

पुलिस बरामद सामग्री का पंचनामा बनाती है। कुछ गवाहों के सामने वस्तुओं को सील कर दिया जाता है और एक दस्तावेज तैयार किया जाता है, जिस पर सभी के हस्ताक्षर होते हैं। बैंकों में लॉकर भी सील किए जाते हैं और अदालत बजावरी भी चस्पा करती है। एक महान मुक्केबाज मोहम्मद अली भी हुए थे, जिनका पंच, विरोधी मुक्केबाज को दिन में तारे दिखला देता था।।

कार्टून और व्यंग्य सृजन की ऐसी विधा है, जिसमें punch का प्रयोग किया जाता है। Punch तत्कालीन व्यवस्था एवं विसंगति पर एक ऐसा करारा तमाचा है कि जिसका न तो बचाव संभव है और न ही प्रतिकार। तानाशाहों को इस प्रहार की आदत नहीं होती इसलिए अक्सर अभिव्यक्ति की आज़ादी के इन पंचों पर उनकी सदा वक्र दृष्टि ही रहती चली आई है। कई बार इन पंचों का ही पंचनामा बना दिया जाता है और उन्हें सेंसर यानी प्रतिबंधित कर दिया जाता है।

कलम तलवार से अधिक खतरनाक होती है। इसका जितनी बार सर कलम करो, यह उतनी ही पैनी होती चली जाती है। कार्टून और व्यंग्य में अगर पंच ना हो वह किसी बिना तड़के वाली  फीकी दाल से कम नहीं।

इंग्लैंड से प्रकाशित कार्टून मैग्जीन punch अपने १५१ वर्ष पूर्ण कर सन् १९९२ में आख़िरी सांसें लेने को मजबूर हो गई। वे लोग भाग्यशाली रहे जिन्होंने अंग्रेजी में प्रकाशित पत्रिका Shankar’s Weekly का आनंद लिया। हिंदी में भी शंकर्स वीकली का कुछ समय के लिए प्रकाशन हुआ, लेकिन इसका भी बेड लक खराब ही निकला।

टाइम्स ऑफ इंडिया में आर.के.लक्ष्मण लगातार कई वर्षों तक व्यवस्था की परवाह किए बगैर अपने तीखे, करारे और तिलमिलाते कार्टून परोसते रहे। व्यवस्था को जनता से उतना खतरा नहीं होता जितना प्रिंट मीडिया से होता है। एक आपातकाल ने ऐसा सबक सिखाया, सब लाइन पर आ गए। आज न आर.के.लक्ष्मण का कॉमन मैन है और न ही धर्मयुग के कार्टून कोने में ढब्बू जी। बस व्यंग्य और कार्टून के नाम पर …. से ही काम चला लो। साफ सुथरे, शालीन व्यंग्य और कार्टून जो आप घर में बच्चों के साथ भी देख सकें।।

एक चेन्नई के पत्रकार, कार्टूनिस्ट चो रामास्वामी हुए थे और एक मुंबई के शिव सैनिक बाल ठाकरे, जो राजनीति के घिघौने चरित्र पर प्रहार ही नहीं करते थे, उसका डटकर सामना भी करते थे  और आज हालत देखिए।

व्यंग्य और कार्टून की खेती के लिए भूमि का उर्वरा होना भी जरूरी है। श्रीलाल शुक्ल कांग्रेस के जमाने में शिवपालगंज ढूंढ पाए, तो राग दरबारी का सृजन संभव हुआ, आर.के.लक्ष्मण के समय में नेहरू और इंदिरा जैसे चरित्र थे, जिनके चेहरे को देख, कम से कम कूची तो चलाई ही जा सकती थी।आज सभी साफ सुथरे, कमल से कोमल, निष्पाप, निष्कलंक चेहरों पर क्या कार्टून बनाए जाएं और क्या व्यंग्य लिखा जाए। बड़ा धर्मसंकट है। डर है, कहीं कार्टून और व्यंग्य जैसी विधा का पंचनामा ही ना बनाना पड़ जाए ..!!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 192 ☆ “तूफान और तूफान…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – “तूफान और तूफान…”)

☆ व्यंग्य  — “तूफान और तूफान…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

मौसम विभाग ने चेतावनी दी, कि तेज हवाओं के साथ चक्रवती तूफान आने वाला है अतः सुरक्षित रहें और यथासंभव बाहर न निकलें। 

हम डर गए, हमने श्रीमती जी के कंधे में हाथ रखकर कहा – प्रिये ! निर्भय हो जाओ… 

श्रीमती ने हाथ में हाथ डालकर हमें समझाया – ‘प्लीज निर्भय हो जाओ ‘। डरने की कोई बात नहीं है तुम्हारी घरवाली तूफान की ऐसी – तैसी कर देगी वो अपने आप में बड़ा तूफान है। श्रीमती जी ने बताया कि इस संवत का राजा सूर्य है और मंत्री शनि… दोनों में पिता पुत्र का संबंध है लेकिन दोनों परस्पर विपरीत स्वाभाव के हैं दोनों में आपस में बनती नहीं है इसलिए बीच-बीच में मंत्री गण राजा को तूफान के बहाने तंग करते हैं दिल्ली तरफ एक प्रकार का तूफान खड़ा किया और कर्नाटक में दूसरे टाइप का तूफान खड़ा करवा दिया। 

तूफान आया, खूब तेज आया, दोनों जगह आया। हम बजरंगबली का चालीसा के साथ मन में ये गाना भी गाते रहे… 

‘तूफान को आना है, 

आकर चले जाना है, 

बादल है ये कुछ पल का, 

छाकर ढल जाना है “

तेज तूफान आया, पास के कई पेड़ गिर गए, टीन टप्पर उड़ गए, धूल भरी आंधी चली। श्रीमती को छूकर देखा वो सलामत थी.. उड़ी नहीं ।पिछले बार के तूफान में उड़ गईं थीं फिर पड़ोसी के यहां मिली थी, हालांकि इस बार के तूफान में कई महिलाएं तूफान में उड़ गईं थीं और पड़ोसियों के घर में आराम करती मिलीं। श्रीमती जी तूफान की तरह डटी रहीं और हमें ‘निर्भय हो जाओ “का पाठ पढ़ातीं रहीं। 

जब तूफान गुजर गया, शान्ति हो गई तो किचन और घर धूल धूसरित हो गया, सब जगह धूल ही धूल…

थोड़ी देर बाद रसोई में खटर पटर और बर्तनों की उठापटक से हम सतर्क हो गए…. श्रीमती की शुरू से काम करने की आदत रही नहीं। तूफान तो आकर चला गया पर घरवाली का भयंकर तूफान आने की चेतावनी बरतन पटकने से मिल रही है। स्थिति को भांपते हुए हम तुरंत किचन में गए…. मधुर स्वर में हमने पिक्चर और बाहर डिनर का प्रोग्राम बना लिया। थोड़ी देर में श्रीमती तैयार होने लगी, झुमके पहने, हीरे का हार पहना, दस बार साड़ी पहन पहनकर देखीं फिर दस बार बदलीं। तैयार होने में इतनी अदाएं फेंकीं कि हम और आईना शरमाने लगे फिर इधर पौरुष पिघल गया। तूफान शान्त हो गया। वह फिर रसोई की तरफ पैर पटकती चली गई। थोड़ी देर बाद आईने के सामने आकर फिर इतराने लगी, कहने लगी – तुम जैसे पिलपिले मर्दों के कारण तूफान आता है और यूं ही चला जाता है। मौसम विभाग भले डरावनी चेतावनी देता है कि भयानक तूफान आने वाला है पर आजकल का तूफान आता है तो फुस्स हो जाता है, जिंदगी साली तूफान बन गई है जिंदगी हमेशा खामोश सवालों से भरी पड़ी है जीवन जीना बड़ा नाजुक अहसास है। 

हमने आंधी स्टाइल में कहा – चलो भागवान ! देर हो रही है पिक्चर की टिकट नहीं मिलेगी। वहां से आवाज आई, बस जरा जोरदार सैंडिल पहन लूं। श्रीमती जी सजने के चक्कर में खामोंखां देर कर रही थी, घर के बाहर आटो आकर रुक गया, एक तूफान और आ गया, फूफा जी मय सामान के उतर रहे थे। हमें लगा हमारी तकदीर में तूफान ही तूफान लिखे हैं। आज दो तीन प्रकार के तूफान झेल चुके हैं थोड़ी देर बाद एक – दो तूफान और आने वाले हैं हमने अपने आप को समझाया “निर्भय हो जाओ”…. 

श्रीमती अपने फूफा की तो खूब बढ़ाई करती है पर हमारे फूफा की बहुत बुराई करती है कहती है तुम्हारा फूफा बदमाश, अनमना, चिड़चिड़ा, तुनकमिजाज है तीखी बयानबाजी करके तूफान खड़ा कर देता है, छोटी छोटी बात में मुंह फुलाके बहादुर शाह जफर बन जाता है। बिन बुलाए मेहमान बनके हमारे पिक्चर और डिनर के प्रोग्राम को तहस नहस कर दिया। 

तूफान का भय बढ़ता जा रहा है श्रीमती जी का पूरी तरह से बाहर के डिनर का मूड बन गया था और अचानक फूफा के आ जाने से प्रोग्राम की ऐसी-तैसी हो गई, ऐसे में श्रीमती जी के अंदर भीषण तूफान उठ चुका होगा, और किचन में अटेक करेगा, किचन के बर्तनों पर हमें दया आ रही है, नये कांच के डिनर सेट की चिंता ज्यादा खाये जा रही है। फूफा गुस्सेल स्वाभाव के हैं चेहरे के हावभाव से लग रहा है कि उनके अंदर भी भूख का तूफान उमड़ घुमड़ रहा है…

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #196 ☆ व्यंग्य – ”देशभक्त’ जी का संकट’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसंवेदनशील एवं विचारणीय कहानी ”देशभक्त’ जी का संकट’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 196 ☆

☆ व्यंग्य ☆   ‘देशभक्त’ जी का संकट

भाई रतनलाल ‘देशभक्त’ बहुत परेशान हैं। न दिन को चैन है, न रात को नींद। रात करवटें बदलते गुज़रती है।

‘देशभक्त’ जी राजनीति के पुराने खिलाड़ी हैं। कुछ साल पहले अपने नाम के साथ ‘देशभक्त’ जोड़ लिया, सो अब अपना परिचय उसी नाम से देते हैं।

‘देशभक्त’ जी तीन पार्टियाँ छोड़कर अंतरात्मा की आवाज़ पर चौथी पार्टी में आये हैं। तब यह पार्टी पावर में थी। वे यह सोचकर पार्टी में आये थे कि कोई मलाईदार पद मिल जाएगा, लेकिन हाल ही में पार्टी के कुछ एमैले अंतरात्मा की आवाज़ पर पार्टी छोड़ कर चले गये और सरकार गिर गयी। ‘देशभक्त’ जी के लिए सर मुँड़ाते ही ओले पड़े। अब उनका चैन हराम है।

नई पार्टी ने पावर में आते ही भड़ाभड़ काम करना शुरू कर दिया। बिजली-पानी के शुल्क में छूट दे दी और तेज़ी से स्कूल, अस्पताल, पुल, सड़कें बनने लगे। उनके एमैले दिन भर काम के ठिये पर मुस्तैद दिखायी देने लगे।

लेकिन उनका काम देख कर ‘देशभक्त’ जी के पेट में पानी मचने लगा। ऐसे ही काम होता रहा तो उनकी पार्टी का पचास साल तक पावर में आने का नंबर  नहीं लगेगा। पब्लिक खुश रही तो अपना तो बंटाढार ही होना है। फिर चौथी बार दल बदलने के सिवा कोई चारा नहीं रहेगा।

चैन नहीं पड़ा तो अपनी पार्टी के पुराने घाघ गोमती भाई के पास पहुँचे। वे सोफे पर गणेश जी की मुद्रा में बैठे काजू- किशमिश टूँग रहे थे। देखकर देशभक्त जी का माथा और खराब हुआ। बोले, ‘आप यहाँ आराम से बैठे हैं और वहाँ अपना सारा काम खराब हो रहा है।’

गोमती भाई ने पूछा, ‘क्या हुआ? क्या परेशानी है?’

‘देशभक्त’ जी रुआँसे होकर बोले, ‘नयी सरकार इतनी तेजी से काम कर रही है। यही हाल रहा तो आगे हमें कौन पूछेगा? अपनी लुटिया तो डूबी समझो। पचास साल तक सर उठाने का मौका नहीं मिलेगा।’

गोमती भाई परमहंस की नाईं बोले, ‘जनता का भला हो रहा है तो होने दो। जब वे गलती करेंगे तो देखेंगे।’

‘देशभक्त’ जी भिन्ना कर बोले, ‘तो क्या हम उनके गलती करने तक हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें? हम कल से उनकी पार्टी के दफ्तर के सामने प्रदर्शन करेंगे, कहेंगे कि हर काम में भ्रष्टाचार और कमीशनखोरी हो रही है। आप अपने चेलों को कह दो कल सवेरे अपनी पार्टी के दफ्तर में झंडे-वंडे लेकर इकट्ठे हो जाएँ। बाकी हम देख लेंगे।’

दूसरे दिन सत्ताधारी पार्टी के दफ्तर के सामने हंगामा शुरू हो गया। पुलिस आ गयी। बैरिकेड लगे थे, उन्हें लाँघने की कोशिशें होने लगीं। पुलिस के साथ झूमा-झटकी होने लगी। ‘देशभक्त’ जी को बैरिकेड से थोड़ी सी खरोंच लग गयी। उन्होंने एक वालंटियर से पट्टी मँगवा कर उस मामूली सी खरोंच पर बँधवा ली और फिर कमीज़ उतारकर, अपने कंधे पर रखकर, चोट की नुमाइश करते घूमने लगे।

प्रदर्शन के बीच में ‘देशभक्त’ जी  लाउड-स्पीकर पर भाषण भी दे रहे थे, जिसका लुब्बेलुबाब था कि वर्तमान सरकार महाभ्रष्ट है, हर काम में तीस परसेंट कमीशन बँधा है। जो सड़कें और पुल बन रहे हैं वे एक साल से ज़्यादा नहीं टिकने वाले। स्कूलों-अस्पतालों में काम की क्वालिटी एकदम घटिया है और नई पीढ़ी और मरीज़ों के साथ खिलवाड़ हो रहा है। ‘देशभक्त’ जी बार-बार मुट्ठी उठा कर कहते थे कि वे इस भ्रष्टाचार को नहीं चलने देंगे, भले ही उनको अपने प्राणों की बलि देनी पड़े।

हर बार उनका भाषण ‘बिस्मिल’ के शेर से ख़त्म होता था— ‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ुए कातिल में है।’

पहले दिन प्रदर्शन से ‘देशभक्त’ जी अपनी फौज के साथ भारी संतुष्ट होकर लौटे। लगा जीवन को दिशा मिल गयी। अब आराम हराम है। रोज़ प्रदर्शन करना है और पूरा ज़ोर लगा कर सरकारी काम को रोकना है। सरकार काम करने में सफल हो गयी तो अपने भविष्य पर ग्रहण लगना निश्चित है।

अब रोज ‘देशभक्त’ जी चालीस पचास फुरसतिये लड़कों के साथ ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ का नारा लगाकर कहीं काम को रोकने निकल पड़ते हैं। फिर दिन भर हंगामा और पुलिस के साथ धक्कामुक्की चलती है। शाम को अपनी दिन भर की उपलब्धि पर गर्वित, सिर ऊँचा किये लौटते हैं। उन्हें भरोसा है कि उनकी कोशिशों से सरकारी काम रुके न रुके, नयी पार्टी में उनका रुतबा ज़रूर बढ़ जाएगा, जिससे आगे कुछ हासिल होने के रास्ते खुलेंगे।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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